अल्पना मिश्र की 5 कवितायें

(अल्पना मिश्र की अधिकांश कहानियां निम्न मध्यमवर्गीय
परिवेश की लडकियों /पात्रों की पीडा और संघर्ष की कहानियां होती हैं. आज उनका
जन्मदिन है उनके जन्मदिन पर इस पीडा और संघर्ष को अभिव्यक्त करती उनकी 5 कवितायें
स्त्रीकाल के पाठकों के लिए , उन्हें स्त्रीकाल की ओर से जन्मदिन की शुभकामनाओं के
साथ !)
 
1.  स्टिक
 
इतने इतने दबावों के बीच
बहुत आसान नहीं था मृत्यु को चुनवा देना
अगर उन्हें चुनना था ही
जीवन में बहुत चीजें थीं
मृत्यु के बिल्कुल बगल में बिखरी
वे बगल में गयी थीं, बिखरी हुई दुनिया में
हालांकि कोई लड़का उनका दोस्त नहीं था
वे लड़कों को देख कर किलक उठती थीं
शर्माती हुई
बतियाने की हुलस उनकी कोई देखता!
उनके राग के बीच पिता खड़े थे आशंकित
देते हुए चिड़चिड़ाहटें, दुश्चिंताएं और
लम्बे, गोल, चकोतरे नील
जिसे वे सफेद कपड़ों पर नहीं लगा पायीं
देह पर लगे नील की चीख से निकल कर
जो कुछ लकीरें उड़ गयी थीं हवा में
गवाह बनने के लिए नाकाफी पायी गयीं
हालांक़ि  कोई नहीं था उनकी तरफ
तब भी वे गयीं बगल में
तमाम सारी चीजों के बीच
जबकि पिता बहुत बड़ी, कठिन, तंग, अबूझ दुनिया में
परेशान से फॅसे थे
लड़कियॉ थीं कि कालरात्रि
बीतती ही नहीं
हर पकड़ से एक कदम आगे जाने को आकुल
रात भर गमले के फूलों को सहारा देने वाली स्टिक बनाती
खुद स्टिक बन जाती हैं लड़कियॉ
ट्यूब लाइट सी झप्प झप्प उजली होती
कबूतर हैं लड़कियॉ
खाना पकाते, बरतन मॉजते और
खॉसते पिता की दवा खरीदते हुए भी
मकड़ियों, जालों से निकल कर तितली तक जाती हुयीं
नई रजाई खरीदना चाहती हैं लड़कियॉ अबकी बचत से
मोबाइल खरीद लेंगी सेकंड हैंड
इसके बाद की बचत से
बचत पर गिद्ध की ऑख है!
अभी तो टटोलना शुरू ही किया था लड़कियों ने खुद को
समझने की कोशिश में थीं ही
कि हथौड़े की तरह बजने लगीं
पिता के सपनों में
बचत डूबी दारू के समुद्र में
पिता के भीतर उतरती हुई सीढ़ी दर सीढ़ी
दुनिया से निजात पाने की कुलबुलाहट होती गयी तेज
नसें फूलीं दिमाग की
लड़कियॉ लगने लगीं सारे दुखों की जड़
जमाने भर की परवाह से बेजार
पीटते हुए उन्हें, देते हुए गालियॉ, निकल जाते हुए दूर,
कभी न आने की धमकी दे दे कर,
अफसोस में खरीदते हुए थोड़े से चावल
लौटते हैं पिता
पिता नहीं चाहते थे
लेकिन क्या करें ? उन्होंने कभी जाना ही नहीं
लड़कियॉ स्टिक भी हैं
पौधों को सहारा देतीं
पौधों से बड़ी होतीं
बस, फूल तक पता था उन्हें
उसके आगे परम्परा, संस्कार, जैसी
तमाम मामूली चीजों ने ऐसा जकड़ रखा था
कि आखिरकार इस बार
उन्होंने चुना उनके लिए नीले निशानों के साथ
भयानक शान्त वह शब्द
 ‘मृत्यु
हॅलाकि लड़कियॉ गयी थीं
मृत्यु के बिल्कुल बगल में
तमाम चीजों के बीच
पर जबरन उन्हें चुनवा दिया गया जो
वे नहीं जानतीं कि उसके बाद
दुश्चिंता में कॉपते
बिना स्टिक के
अपाहिज जैसे पिता अफसोस में कहॉ निकले होंगे
संदर्भ – देहरादून में फूलों को सहारा देने वाली स्टिक बनाने वाली चार
लड़कियों के लिए, जिन्हें मौत देने के बाद उनके पिता ने खुद भी आत्महत्या कर लिया।
2. मैं
 
समय की कमी थी बहुत
मेरे समूचे वजन से भारी थीं
काम की गठरियॉ
गाठों में बॅधा था टुकड़ टुकड़ा मेरा आप
शोक, मोह, चिंता और हर्ष से बना
बेखबर ईश्वर बैठा था स्कूटी पर
मेरे पीछे
न जाने किस शोक में डूबी
किस मोह में हिम्मत धरती
किस चिंता में कॉपती
किस हर्ष के लिए विकल
हाथों में मन भर अनाज लादे
भीड़ के बीच
स्कूटी चला रही थी।
3. प्यार में डूबी स्त्री  
प्यार में डूबी स्त्री
सहेजती, संभालती है इस क्षण को
कैसे उठाए, कहॉ रखे…..
इसी के बारे में सोच सोच कर
वर्षों अपने आप में मुस्कराई थी
ऐसा होगा वह
वैसा होगा वह….
तो वही चला आया था दबे पॉव
प्यार में डूबी स्त्री
यह भी सोचती रही वर्षों
कि अनिश्चितता में जागे तो
निश्चित से हों उसकी तकिए के नीचे
डायरी, पासबुक, शेयरों के कागज, चाभी……
कहॉ समझ पाई थी तब
उसी एक क्षण के मोह में
चला जाएगा वर्षों की मेहनत से पाया सारतत्व
डायरी के शब्दों का आत्ममंथन
पासबुक की सुरक्षा
शेयरों का उत्साह…..
प्यार में डूबी स्त्री
अनिश्चितता में जागी है कब से
कब से झाड़ू पोंछा, चूल्हा चौका करती
बरतन खनखनाती
बच्चों के पीछे दौड़ती
मोटापा घटाती
कपड़े फटकारती….
फिर अनंत इंतजार में छटपटाती
उसी एक क्षण को पकड़ लेने की कोशिश में निढाल है
चाभी का खोखला जिस्म लटका है
कमर से
कहीं निकल जाने की तड़प लिए
दरवाजे तक आ कर लौट रही है स्त्री
सुनो, प्यार में डूबी स्त्रियों!
अगर यही है प्यार
तो दूर ही भली तुम प्यार से।
4. वर्षों से बिखरी थी दुनिया
 
वर्षों से पार कर रही थी सड़क
वर्षों से रास्ते पैरों के आगे दीखते थे
यही इसी जगह वर्षों से रहा होगा युगवाणीकार्यालय
घड़ी में चाभी भर रही थी
कि इसी एक पल में
जने कौन निकल गया मेरे आगे से
नाउम्मीदी में कोई ठिठका मुझे देख कर
यह वक्त था यक्ष प्रश्न का
अभी अभी विदा हुई एक लड़की
रोते रोते रूक गई है
यहीं से उसे उठानी है अचुनाव की जिम्मेदारी
भय या मृत्यु में से कोई एक
वह भी कहीं न कहीं पॅहुची होगी
जो लड़की निकली थी साइकिल पर पहले
अजीब से संशय थे
मर्यादाओं, लज्जा और अस्तित्व के घलमेल में
उत्तर सूझा था
जाने कौन सी चाभी ने दस दरवाजे पीछे के रहस्य में
झकझोरा था खूब
मैं निपट थी
अपने ही शोर में घिरी
अपने ही बोझ से दबी
भारी पॉव बढ़ाती
चारों ओर
वर्षों से बिखरी थी दुनिया।
5. बेवजह नहीं हॅू
खाली हो गई हू अचानक
ड्यूटी पर नहीं हॅू
पता चला है ड्यूटी पर पॅहुचने के बाद
कहॉ जाउॅ?
कभी सोचा ही नहीं
डयूटी पर पॅहुचूंगी एक दिन
और ड्यूटी पर नहीं होना होगा
जरूरत के खंभों पर कुहनी टिकाए खड़े घूरते सत्यों को देखूंगी
अलविदा नहीं कहूंगी
रोमांचक होंगे बाजार में बहुतेरे दृश्य
बिकने वाली उदास चीजों के बावजूद
बेचने वाले हतोत्साहित नहीं होंगे
यूं ही घूम रही हॅू
काम नहीं याद आ रहा
स्थगित करते करते स्थगित हो गया है
याद करते रहना खुद को भी
सब्जियॉ ठेलियों पर लदी हैं हरी, सुंदर और गुणवान
सड़ती हुई
भीतर का पिलपिलापन छूने के लिए नहीं है
पट्ट से फूटेगी कोई
और किरकिरा कर देगी बाजार का मजा
कपड़ा ले रही हॅू
और कितना लेना है, बता रहा है दुकानदार
मेरा नाप तक उसे बताना है
मेरे नाप से जरा ज्यादा
दर्जी से कहती हॅू
सदियों से नाप दिए गए में अड़स कर बड़ी घुअन होती है
यह नहीं कहती
अपने नाप से जरा ज्यादा सुकूनदेह है
यह भी नहीं
पर चाहने लगी हॅू कि जान ले
घड़ी की तरफ देखती हॅू
समय के लिए नहीं
अब यह समय देखना है भी नहीं
स्थिति और बल देखना भी है
खोया तौल रहा है हलवाई
एक कीड़े को लिए दिए
कितना कुछ यूंही हो रहा है
चाहने लगी हॅू कि बता दूं
सायास कोई शब्द नहीं सूझ रहा
जे आए थे, सब अनायास थे
अपने ही अर्थभार से ढलमलाते
चिंता कर रही हॅू अलबत्ता
घबड़ा रही हू कि ऐसे ही बीतेगा आगे
सरियाते बिखेरते अपना ही दिमाग
बेजगह हो गई हॅू
बेवजह नहीं।
अल्पना मिश्र
अल्पना मिश्र दिल्ली वि वि में असोसिएट प्रोफेसर हैं. इनसे alpana.mishra.yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है .

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ISSN 2394-093X
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