स्त्री-सत्ता : यथार्थ या विभ्रम

अर्चना वर्मा
हम सब जानते हैं कि शब्दों के अर्थ उनके प्रयोग-सन्दर्भ से
निर्धारित होते हैँ। सत्ता का
प्राथमिक अर्थ विद्यमानता, वर्तमानता, उपस्थिति, मौजूदगी या होना यानी अस्तित्व है। लेकिन हमारे विषय

अर्चना वर्मा

स्त्री-सत्ता: यथार्थ या
विभ्रम को यहाँ ब्रैकेट में लिखित (Women Power:Illusion or
Reality) के हिन्दी रूपान्तर की तरह प्रस्तुत किया गया है इसलिये इस अर्थ के साथ प्रभुत्त्व और अधिकार की ध्वनियाँ भी जुड़ जाती हैँ। तब इसका सन्दर्भ शक्ति-विमर्श और अर्थ की कोटि राजनीतिक हो जाती है। पितृसत्ता या पुरुषसत्ता की सामाजिक संरचना के अधीन स्त्री का अस्तित्व हमारे विषय को एक साथ पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों और अर्थ की कोटियों से जोड़ देता है। बात चाहे स्त्री के प्रभुत्त्व और अधिकार की हो या अस्तित्व और विद्यमानता की, उसका तात्कालिक अर्थ और सन्दर्भ मर्द और मर्दों की दुनिया में उसकी सत्ता से न केवल जुड़ा बल्कि उसी के द्वारा सीमित, और प्रतिबन्धित भी है। इसलिये जहाँ तक ‘पावर’ या शक्ति के अर्थ मेँ सत्ता का प्रश्‍न है, मामला अभी तक ‘एम्पावरमेण्ट’ या सशक्तीकरण के राजनीतिक प्रयासों के भीतर ही घूम रहा है और सामाजिक पूर्वग्रहों को देखते हुए ये प्रयास बहरहाल अपर्याप्त ही साबित होकर रह जाते हैँ।

हमारे पास मन की तसल्ली के लिये बड़ी सुविधा की तरह हमारे परम्परागत सांस्कृतिक-दार्शनिक अवदान मौजूद हैँ जिन्हें मौका बेमौका उद्धृत करके हम स्त्री के सम्मान की संस्कृति का उत्तराधिकारी होने का दंभ पाल सकते हैँ। मिथक और पुराण किसी संस्कृति का अन्तःकरण कहे जाते हैं। लेकिन फि़लहाल आधुनिकता और उपनिवेश और विज्ञान और औद्योगीकरण के गुलेल ने संस्कृति को उसके अन्तःकरण की गहराइयों में से बाहर निकाल फेंका है। उत्पीड़न और अन्याय के अतीत उत्तराधिकार से मुक्ति की आकांक्षा स्वाभाविक भी है और ज़रूरी भी लेकिन जैसा कि अंग्रेज़ी के एक मुहावरे में होता है, “थ्रोइंग द बेबी अवे विद द बाथवॉटर” वैसा न हो जाय यानी कि नहान का पानी फेंकते के साथ बच्चा भी फिँक गया जिसे नहलाया जा रहा था।
शिव और
शक्ति
, पुरुष और
प्रकृति के अलावा अर्धनारीश्‍वर जैसी परिकल्पनाओं
का उत्तराधिकार अभिमान
का विषय हो भी सकता है, है भी, लेकिन अब
वे न किसी जीवित परम्परा की कड़ी की तरह और न हमारे
सामूहिक अवचेतन
मेँ समाई किसी स्मृति या संस्कार की तरह लोकचेतना का
अंश रह गयी हैँ। वे अब सिर्फ इण्डोलॉजी के विद्वानों और उत्सुक
विदेशियों के लिये अध्ययन
का विषय और मुग्धता का सामान हैं। परम्परा के नाम पर
स्त्री-विरोधी रीति-रिवाजों, प्रथाओं और
मान्यताओं से लड़ने के लिये शायद वे परम्परा से ही प्राप्त औजार
की तरह काम मेँ लाई जा सकती हों लेकिन इसके लिये पहले उन्हें
लोकचेतना मेँ पुनर्जीवित करना होगा। लेकिन परम्परा

को फ़िलहाल
हमने ब्राह्मणवादी संस्कृति
के सवर्ण वर्चस्ववाद का उत्तराधिकार घोषित करके उसके
साथ उच्छेदन का रिश्‍ता बनाया है। क्योंकि उनमें सामूहिक
अवचेतन खोजने या उनको लोकचेतना का अंश बनाने की बजाय उन्हीं
मेँ सामाजिक विखण्डनों उत्पीड़नों और अन्यायों की निशानदेही
भी की जा सकती है। महिषासुरमर्दिनी
या काली का जो
अर्थ स्त्रीसत्ता के सन्दर्भ मेँ पढ़ा जा सकता है वह आदिवासी या
दलित सन्दर्भों मेँ बदल दिया जाता है। इसलिये स्त्रीसत्ता और
शक्ति के मिथकों और पुराणकथाओं और दार्शनिक परिकल्पनाओं के सांस्कृतिक
अंतरिक्ष के धुँधले आवेग और बौद्धिक कोहरे की बजाय उचित
है कि जो यथार्थ है – असमानता
– उसको
नापने के ठोस, व्यावहारिक और
सांसारिक पैमानों की तरफ़ देखा जाय। सशक्तीकरण की प्रक्रिया
को निर्धारित और कार्यान्वित
करने के लिये भी ज़रूरी
है कि दुर्बलताओं और दमन के रूपों को जाना और परखा जाय।

भारतीय समाज मेँ लैंगिक असमानता के विषय मेँ स्त्री और शिशु विकास मंत्रालय की स्टेटस रिपोर्ट सितम्बर 2009 मेँ प्रस्तुत की गयी। उसके अनुसार लैंगिक तुलनाओं को किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष की असमानताओं को समझने की कुंजी कहा जा सकता है। इसी मान्यता के आधार पर इस असमानता की जाँच के लिये तुलनात्मक पैमाने तय किये गये।
इनमें कुछ जाने माने प्रत्यक्ष पैमाने हैँ
जैसे लैंगिक अनुपात मेँ स्त्री का हिस्सा, कन्या-भ्रूण हत्या, साक्षरता की
तुलनात्मक दर, स्वास्थ्य और
पोषक आहार के सूचक चिह्न, पारिश्रमिक और
वेतन की तुलनात्मक दर, और भूमि तथा जायदाद के स्वामित्त्व का तुलनात्मक अनुपात। इन असमानताओं की नाप आँकड़ों से की जा सकती है। ज़्यादा कठिनाई उन असमानताओं की नाप मेँ आती है जो अप्रत्यक्ष हैँ और शक्ति के वितरण में निहित और सांस्कृतिक उत्तराधिकार मेँ धँसी हुई हैँ। पारिवारिक संसाधनों पर नियंत्रण, निर्णय के अधिकार और आत्मनिर्भरता का अभाव, निर्मूल्य श्रम की व्यर्थता का बोझ इत्यादि दैनिक जीवनस्थितियों में निहित शक्ति का असमान वितरण इतना रोज़मर्रा और साधारण सामान्य है कि खुद को भी दिखाई नहीं देता क्योंकि वह सांस्कृतिक उत्तराधिकार की तरह हमको मिला है।
इन असमानताओं के संशोधन के लिये विकास
की दर को नापने के लिये भी कुछ आयाम और उनके संकेतक निर्धारित किये गये हैं। लैंगिक विकास के तीन आयाम वही हैँ जो मानव विकास के भी हैँ। पहला
आयाम है दीर्घ और स्वस्थ जीवन। इसका पहला संकेतक है नवजात-मृत्युदर और दूसरा सूचक है एक बरस तक जीवित रह गये बच्चे की जीवन प्रत्याशा। विकास का दूसरा आयाम है ज्ञान। इसका पहला संकेतक है एक से सात वर्ष तक की आयु मेँ साक्षरता की दर और दूसरा संकेतक है 15 वर्ष के आयु वर्ग की शिक्षा मेँ लगने वाले औसत वर्ष। विकास का तीसरा आयाम है सन्तोषजनक जीवनस्तर। इसके लिये चुना गया संकेतक है प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति अनुमानित अर्जित आय मेँ स्त्री-पुरुष का हिस्सा।
इन आयामों और उनके संकेतकों को न्यूनतम और अधिकतम के पैमाने मेँ बाँटा गया है और देखा गया है कि किस सिरे पर स्त्री-पुरुष की तुलनात्मक संख्या क्या है। उदाहरण के लिये दीर्घ स्वस्थ जीवन के संकेतक मेँ तुलनात्मक नवजात-मृत्युदर मेँ बच रहने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या अधिक है। इसका अर्थ यह है कि कन्या-शिशु मेँ प्राकृतिक जीवनी शक्ति अधिक होती है जब कि एक वर्ष तक बचे रह जाने वाले शिशुओं की जीवन-प्रत्याशा मेँ
लड़कोँ की संख्या अधिक हो जाती है। और हम सबका जाना माना निष्कर्ष
यह है कि जन्म लेने के बाद जो देखभाल और सारसँभाल ज़रूरी होती है उसकी बेहद कमी कन्या-शिशु की प्राकृतिक जीवनी-शक्ति को
हरा देती है। इन आँकड़ों मेँ भ्रूण-हत्या शामिल
नहीं है। इसका नतीजा देश की जनसंख्या के लैँगिक अनुपात में असन्तुलन है। यही स्थिति शेष दोनो आयामोँ की भी है। मानव विकास और लैँगिक विकास को साथ साथ रखकर देखने का स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि सामान्य मानवाधिकार के स्तर पर भी हमारा समाज स्त्री को कुछ कम मानव या शायद अमानव मान कर चलता है।
लैंगिक समानता के पैमानों
और उपायों को भी तीन आयामों मेँ बाँटा गया है। पहला आयाम – राजनीतिक हिस्सेदारी और निर्णय का अधिकार जिसके संकेतक हैँ संसद, विधानसभा, जिलापरिषद ग्रामपंचायत
की सीटों में और संसदीय निर्वाचन मेँ वोट के अधिकार के प्रयोग में स्त्री की हिस्सेदारी का प्रतिशत। दूसरा आयाम है आर्थिक हिस्सेदारी और निर्णय का अधिकार जिसके संकेतक हैं भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस
सेवा, भारतीय वनविभाग
सेवा मेँ अफ़सरों की संख्या और मेडिकल और
इंजीनियरिंग संस्थानों के दाखिलों की संख्या में स्त्री के हिस्से का प्रतिशत। तीसरा आयाम
है आर्थिक संसाधनों पर अधिकार जिसके संकेतक हैँ जमीन जायदाद पर प्रभावी अधिकार मेँ स्त्री/पुरुष का तुलनात्मक प्रतिशत, अनुसूचित व्यावसायिक बैंकों में दो लाख तक की कर्ज सीमा वाले खातों मेँ स्त्री/पुरुष खातों का तुलनात्मक प्रतिशत और प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष की अनुमानित अर्जित आय मेँ स्त्री/पुरुष के हिस्सों का प्रतिशत।
स्त्री की दशा के सुधार की दिशा में जन-चेतना मंच, फ़ाउण्डेशन टु
एजूकेट गर्ल्स ग्लोबली, द हंगर प्रोजेक्ट, स्टेप्स विमेन
डेवलपमेण्ट ऑर्गनाइज़ेशन, नेशनल मिशन
फॉर एम्पॉवरमेण्ट ऑफ़ विमेन इत्यादि और अन्य अनेक अनगिनत स्थानीय एन.जी.ओ. कार्यरत हैँ।
उपरोक्त पहलकदमियों के अलावा ICDS यानी (Integrated Child Development
Scheme), राजीव गाँधी नेशनल क्रेश स्कीम फॉर चिल्ड्रेन ऑफ़ वर्किंग मदर्स, धनलक्ष्मी, स्वाधार और
अन्य अनेक योजनाएँ भी लागू की
गयी हैं। यह केवल एक अधूरी और
अपर्याप्त सूची है। प्रादेशिक सरकारों
की भी अपनी अपनी योजनाएँ हैँ
निस्संदेह इन सब प्रयासों के नतीजे में ठोस
विकास और सुधार दर्ज भी किये गये। इनमेँ सबसे
महत्त्वपूर्ण जैसे कि, 1971 मेँ लिंगानुपात प्रति 1000 की तुलना में 930 था। वह 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति 1000 पर 940 हो गया है। 1961 में स्त्री साक्षरता की जो दर कुल 18.3% थी वह 2011 में 4% हो गयी जो वाकई एक मूल और गहन विकास है। 1981 में स्त्री-पुरुष की साक्षरता का अन्तराल 26.6 % था जो 2011 में घटकर 16.7 % रह गया। ये विकास के इंगित हैँ लेकिन बहुत नाकाफ़ी । इनके आधार पर स्त्री-सत्ता यानी शक्ति के यथार्थ होने का निष्कर्ष निकाला जा सकता है। स्त्री और शिशु विकास मंत्रालय की ओर से लगातार स्त्री की दशा के किसी न किसी आयाम के विषय में नियमित रूप से शोध, सर्वेक्षण, विश्‍लेषण चलता रहता है और उनकी स्टेटस रिपोर्ट भी प्राप्त होती रहती है। इन रिपोर्टों से वही बातें प्रमाणित और सत्यापित होती हैँ जिन्हें हम अपने और अपने आस पास के अनुभव से जानते हैं। लेकिन रिपोर्ट आँकड़ों की प्रमाणसम्मत भाषा मेँ बोलती है। जिनको आँकड़े पढ़ना आता हैँ उनके लिये बहुत कुछ व्यक्त करती है। वह हमारे अनुभव के दायरे के बाहर के आते हुए बदलावों को भी दर्ज करती है। आभास को वास्तविक बनाती है और हालात को ‘पिनपॉइण्ट’ करती है। हालात को बदलने और दिशान्वित करने के लिये उनको नियंत्रित करना ज़रूरी है लेकिन एक जीती जागती औरत का ज़िन्दा अस्तित्व उनमें अमूर्त और गुम हो जाता है।
स्त्री सशक्तीकरण बहुत से कारणों और घटकों से निर्धारित होता है जैसे स्थानिकता, सामाजिक और आर्थिक हैसियत, सांस्कृतिक ध्वनियाँ और व्यंजनाएँ, परम्पराएँ और आयु। स्त्री-विमर्श की
तह मेँ इस सार्वभौम सर्वमान्य मूलभूत
सत्य की मान्यता है कि स्त्री के जीवन की मुख्यधारा अन्याय, उत्पीड़न और
शोषण की है, फिर चाहे सहने का फ़ैसला हो या संघर्ष करने का। इसीके संशोधन और प्रतिकार के लिये 1975 में संयुक्त राष्ट्र-संगठन की वैश्‍विक पहल पर सोशल-इंजीनियरिंग आरंभ हुई थी।

वैश्‍विक प्रायोजन के अन्तर्गत भारत मेँ भी बड़े पैमाने पर सामाजिक, राजनीतिक और संवैधानिक स्तर के सरकार समर्थित कार्यक्रम बने और कार्यान्वित भी हुए, महिला और शिशु विकास का अलग मंत्रालय बना, बहुत से गैर सरकारी संगठन स्त्रीमुक्ति को एक आन्दोलन में बदलने के अभियान मेँ शामिल हुए। संविधान में अनेक संशोधन हुए लेकिन इस राजनीतिक और रणनीतिक कार्रवाई के अलावा स्त्रीवादी विमर्शों और लैंगिक भेदभाव के अध्ययनोँ का जो भी थोड़ा बहुत अकादमिक कामकाज हुआ वह अंग्रेजी में ही किया जाता रहा। नतीजा यह रहा कि जन-सामान्य और व्यापक समाज मेँ स्त्री-चेतना की
समझ और प्रचार-प्रसार का
कोई सुव्यवस्थित और प्रभावी कार्यक्रम
कार्यान्वित हुआ ही नहीं। समाज में बदलाव आता दिखता है लेकिन बदलाव की समझ आती नहीं दिखती। परिवर्तन की अपरिचित और अज्ञात दिशाओं के प्रति भय, आशंका और असहिष्णुता ज़रूर उमड़ती दीखती है। बार बार प्रश्‍न उठता है कि चेतना-प्रसार के उपयुक्त और व्यापक सामाजिक कार्यक्रम के बिना केवल आर्थिक
सशक्तीकरण से वास्तविक समस्या का आंशिक भी समाधान संभव है क्या?

इतनी सारी योजनाओं के बावजूद GGGP यानी ( Global Gender Gap Index ) के पर्यवेक्षण के अनुसार स्वास्थ्य, शिक्षा और
आर्थिक भागीदारी के स्तर पर जो अन्तराल हैँ वे विकास की सक्रिय बाधाएँ हैँ। कुछ विशिष्ट प्रतीक स्त्रियों को छोड़कर स्थानीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय – सभी
स्तरोँ पर सशक्तीकरण अभी अपने शैशव मेँ ही है। CARE (Cooperative for Assistance and
Relief Everywhere) के सर्वेक्षण के अनुसार पूरी दुनिया मेँ नितान्त निर्धनता मेँ रहने वाले लोगों की संख्या कुल मिलाकर 1.3 बिलियन है। इनमेँ 70% स्त्रियों का है। यूनेस्को की मीडियम टर्म स्ट्रैटजी 2008-13 मेँ संगठन की वैश्‍विक प्राथमिकता की जगह लैंगिक समानता को दी गयी है लेकिन पूरी दुनिया में जो 774 मिलियन वयस्क
पढ़ लिख नहीं सकते उनका दो तिहाई औरतों का है। विकासशील दुनिया
और तीसरी दुनिया मेँ honor
klling एक सम्मानित प्रथा है। स्त्री प्रायः शिक्षा और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से वंचित है। CARE की एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट की एक टिप्पणी में भारत मेँ किशोर वय की लड़कियों को ” Temporary people who would cease to exist
at least by their fathers once they are married.’ ” (अस्थायी व्यक्ति
जो अस्तित्वहीन हो जायेंगी) कहा गया है क्योंकि यहाँ लड़की के विवाह का अर्थ अब भी बड़े पैमाने पर अपने मातृकुल की सदस्यता से वंचित और अस्तित्वहीन हो जाना है, कम से कम पिता के लिये। घरेलू हिंसा तथा
अपनी स्वतंत्रता पर अन्य सांस्कृतिक और और नैतिक प्रतिबन्ध स्वयं स्त्रियों
को भी स्वीकृत हैं – कहीं
स्वेच्छा से, कहीं मज़बूरी से।
अन्य भारतीय भाषाओं के बारे मेँ नहीं कह सकती लेकिन हिन्दी भाषी प्रदेशों में साहित्य के अलावा अन्य अनुशासनों मेँ कुछ एक छिटपुट प्रयासों के अलावा ज़्यादातर जिम्मेदारी कविता, कहानी, आत्मकथा आदि
साहित्यिक अभिव्यक्तियों के रूप मेँ ही सँभाली गयी है। नतीजा, या तो स्त्री की पीड़ा बखान या फिर उसकी शक्ति के महिमागान मेँ ही अपना मनोतोष खोज लिया जाता है। स्त्रीशक्ति का मतलब यहाँ विद्रोह की दिशाएँ जो पुरुष द्वारा कोख पर कब्जे और देह पर दखल की ज़्यादतियों और शुचितावादी नैतिकता के एकतरफ़ा कानूनों और सज़ाओं के ख़िलाफ़ जाती दिखाई देती हैँ जिन्हें आसानी से लोग अनैतिकता का झण्डा और नैतिकता की
ख़िलाफ़त का पर्याय समझ बैठते हैँ। कुल मिलाकर हिन्दीभाषी समाज के एक हिस्से मेँ स्त्री-पुरुष के बीच एक द्वेष और आक्रोश का सम्बन्ध और परस्पर आक्रामकता की संस्कृति पनपती दिखती है। पितृसत्ता और मातृसत्ता एक दूसरे का प्रतिपक्ष बन जाते हैं। अपवाद ज़रूर मौजूद हैं। मातृसत्ता के समर्थक पुरुष अपवादस्वरूप मिल जाते हैँ लेकिन पिछली पीढ़ी की स्त्रियाँ लगभग निरपवाद रूप से पितृसत्ता की पक्षधरता मेँ शामिल दिखती हैं। कहना यह चाहिये कि पहले की पितृसत्ता और मातृसत्ता में एक गठबन्धन दिखाई देता है जिसमें अब एक बदलाव आया है जिसकी वजह से पारिवारिक समीकरण भी बदल रहे हैं।
बात को शायद थोड़ा खोलकर
कहने की ज़रूरत है। पितृसत्ता पैट्रियार्की का हिन्दी रूपान्तर है। पैट्रियार्क
यानी समुदाय का मुखिया वृद्ध। पिता पीढ़ी के उस वृद्ध के शासन-अनुशासन मेँ न केवल स्त्री बल्कि उसके साथ पुत्र अथवा युवतर पीढ़ी का पुरुष भी शासन और दमन का पात्र है। पितृ+सत्ता के पास एक चेहरा सत्ता का है तो एक चेहरा पिता का भी है। औद्योगीकरण के
पहले की सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था
मेँ घर के अन्दर और बाहर की दुनियाओं का बँटवारा था। पितृसत्ता और मातृसत्ता का गठबन्धन दमन-अनुशासन और वात्सल्य का गँठजोड़ रहा होगा। वहाँ वह परस्पर पूरक और प्रभावी भी रहा होगा।
भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया पराधीनता की दशा में, विदेशी शासकों की आवश्‍यकताओं के अनुकूल, विषम भौगोलिक वितरण तथा असमान गति से सम्पन्न हुई। वह एक विकृत और अधूरा औद्योगीकरण
था। उसके साथ आने वाले सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों की गति भी असमान और असन्तुलित ही रह गयी। प्राक्-औद्योगीकरण की
वह दुनिया अधिकांशतः जा चुकी, बची खुची भी जा रही है। वृद्धता अब अनुभव की परिपक्वता का नहीं, विकास की
अवरुद्धता और जड़ता का प्रमाण बन
चुकी है। इसलिये पितृसत्ता और
मातृसत्ता अपनी पकड़ खो बैठे हैँ।
इस दुनिया मेँ उनका रूपान्तर पितृसत्ता से पुरुष-सत्ता मेँ
और मातृसत्ता से स्त्री-सत्ता मेँ
हो चुका है। वे प्रायः पितृसत्ता+मातृसत्ता के
पिछले गठबन्धन यानी स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के पुराने समीकरण के विरुद्ध तो हैं ही, किसी नये समीकरण के उभरने के पहले अक्सर एक दूसरे के भी विरुद्ध दिखाई देते हैँ। इस घालमेल मेँ हो यह रहा है कि यथार्थ बदल गया है लेकिन भूमिकाएँ और कसौटियाँ वही पुरानी चलती चली जा रही हैँ जिन्हें कभी पितृ-सत्ता या
पुरुषसत्ता ने स्त्री पर आयद किया था और जिनके उल्लंघन का दण्ड अब भी स्त्री को अपवाद नहीं, लगभग नियमस्वरूप दिया जाता रहता है।
इसी दुनिया के एक सिरे पर उन आँकड़ों में
से झाँकती सकारात्मक दुनिया है जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है लेकिन दूसरे सिरे पर वे सारी बाधाएँ भी हैँ जिनकी वजह से वह दुनिया यथार्थ बनते बनते रह
जाती है। नये प्रावधानों के बारे मेँ जनसामान्य
के लिये तथा स्वयं स्त्री के लिये भी, सूचना और जानकारी की भयंकर कमी, सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण का अभाव, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, जवाबदेही का दुर्बल तंत्र, सुरक्षा के प्रावधानों पर पुलिस द्वारा कार्यान्विति का अभाव और इन सबकी जड़ में समाज का लैंगिक संस्कृति का अभाव, उसके स्वरूप से अपरिचय, और सच को न देखने, न मानने की ज़िद मौजूद हैं।
इस दुनिया मेँ खासकर भारत मेँ, बूढ़े अप्रासंगिक और असहाय, और अधिकतर संसार अभी युवा,

अनुभवहीन और अपनी अनुभवहीनता के प्रति अबोध भी है। अक्सर वे जीवन को एक प्रयोग की तरह जीकर देख रहे हैँ। प्रयोग असफल भी हो सकता है और उसके नतीजों को झेलना वे अभी नहीं जानते।

कुल मिला कर परिदृश्‍य बहुत अस्त-व्यस्त, धुँधला, अबूझ, क्षुब्ध, लगभग संवादहीन और प्रत्याशापूर्ण है। अपनी दुनिया
को हम अक्सर कुछ विस्मित, कुछ भयभीत और आशंकित भाव से देखते पाये जाते हैँ, आखिर यह हो क्या रहा है। भूमण्डलीकरण, उपभोक्तावादी जीवनमूल्य और लालसा का साम्राज्य, पूँजी और
बाज़ार की नियामक भूमिका, अपरिचित कॉर्पोरेट
अर्थतंत्र का विकट जंजाल आदि इत्यादि इसकी कारण-राशि का निर्माण करते हैं। इस बदलते हुए तंत्र ने एक ओर स्त्री के सामने अनन्त संभावनाओं के द्वार खोल दिये हैँ तो दूसरी ओर पिछली मूल्य-व्यवस्थाओं, सम्बन्धों के
समीकरणों को ध्वस्त करने का अभियान भी शुरू कर दिया है। निर्णय में समर्थ, उपार्जन में सक्षम आत्मनिर्भर स्त्री के अस्तित्व ने पारिवारिक संरचना और नैतिकता के पुराने मूल्यों का ताना-बाना बदलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी उनका बदलना कम और छिन्न-भिन्न होना ज्यादा दिखाई दे रहा है।
इस जगह आकर हम स्त्रीसत्ता के प्राथमिक अर्थ – विद्यमानता, वर्तमानता, उपस्थिति, मौजूदगी या होना यानी अस्तित्व की बात कर सकते हैँ। उसके सन्दर्भ मेँ विभ्रम अथवा यथार्थ की बात करें तो स्त्री-विमर्श ने हमको यह सोचने का आदी बना दिया है कि स्त्री होती नहीं, बनाई जाती है। स्त्री के अस्तित्त्व का वस्तुगत यथार्थ स्त्री-शरीर है। अस्ति और अस्मि का, वस्तु और व्यक्ति यानी ‘है’ और ‘हूँ’ का अन्तर यही है कि ‘अस्ति’ या ‘वस्तु’ यानी शरीर प्रकृति-प्रदत्त है। ‘अस्मि’ और ‘व्यक्ति’ उसके अस्तित्त्व का वह हिस्सा है जो समाज और इतिहास द्वारा बनाया जाता है और इतिहास की दीर्घता के कारण प्राकृतिक और वास्तविक सा प्रतीत होने लगता है। लेकिन केवल प्रतीत। वह संस्कृति-सापेक्ष और परिवर्तन-सापेक्ष अतः विकासशील है। अस्तित्व का ‘अस्मि’ तत्त्व जिससे
अस्मिता का निर्माण होता है, हमारा अन्तरंग हिस्सा है जिसे भीतर से देखकर केवल हम जानते हैँ और दूसरा कोई उसे उस रूप मेँ तबतक नहीं जान सकता जबतक वह वैसे ही अनुभव से होकर स्वयं न गुजरा हो। इसीलिये संप्रेषण अनिवार्य है।
स्त्रीसत्ता केअस्मितत्त्व मेँ वह ‘स्वयं’ होती है, अपना आप। इसके विपरीत उसके ‘अस्ति’ तत्त्व मेँ
वह वस्तु होती है, पुरुष के
लिये ‘अन्य’, केवल शरीर। भारतीय समाज में जहाँ यौनिक शुचिता को अबतक स्त्री-जीवन की कसौटी बना कर रखा गया है, शरीर ही स्त्री के लिये सारे फसाद की जड़ बन गया है। वही उसके शोषण, उत्पीड़न, अपमान का
उत्स और मर्यादाओं, अक्षमताओं, बन्धनों का अथ और इति है। इनमेँ वास्तविक तो केवल शरीर है, शेष सब संस्कृतिजनित व्याख्याएँ जिनको संकल्प और संघर्ष से विभ्रम साबित किया जा सकता है। इसका अर्थ आचरण के मूल्यों को पुनःपरिभाषित करना और नये समतामूलक, परस्परता के सम्मानगर्भित मूल्योँ को उन्मेष देना और स्त्री को केवल शरीर और शरीर को केवल कामवस्तु, कब्जे और दखल का सामान समझने वाले मूल्यों का विरोध करना है। मूल्य की संभावना मात्र को नष्ट कर देना नहीं, जैसा कि प्रायः समझ लिया जाता रहा है। स्त्री अपने अब तक के ‘अस्मि’ को, अपने ‘व्यक्ति’ को इस रूप मेँ पहचान चुकी है कि इस वस्तुगत यथार्थ – शरीर
के अलावा हर वह चीज़ बदली जा सकती है जिसे बदलने की ज़रूरत है और जो अन्यायमूलक हैं। अपनी योग्यताएँ, अपनी भूमिकाएँ, सम्बन्धों के समीकरण, मूल्यविधान – सबकुछ। इस सन्दर्भ मेँ पुरुष उसके लिये ‘अन्य’ हो जाता है और परस्पर अन्यता (‘अदरनेस’) का यह सम्बन्ध एक दूसरे की पूरकता की बजाय शत्रुता मेँ बदलने लगता है।
इसी घमासान के बीच पुरुषसत्तात्मक समाज मेँ स्त्रीसत्ता के प्रश्‍न ने स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के पुराने समीकरण ध्वस्त करके घर नामकी उस पुरानी शरण की सूरत भी बदल दी है। निस्संदेह नये समीकरण भी उभर रहे हैं। परस्परता के नये आश्‍वासन और सहयोग की नयी संरचनाएँ भी बन रही हैँ, नये रिश्‍ते जन्म ले रहे हैँ।लेकिन लेकिन केवल सीमित संसारों के छोटे छोटे कोनों मेँ ही। हमारा समाज मूलतः एक परिवारोन्मुख समाज है। परिवार की मर्यादाएँ और प्रतिबन्ध होते हैँ, घुटन और सीमाएँ भी होती हैँ, लेकिन अपनी शरण और सुरक्षा भी होती है, लेकिन स्त्री
के सन्दर्भ मेँ कई बार सुरक्षा एक भ्रम भी हुआ करती है।
बृहत्तर व्यापकतर परिवेश मेँ स्त्री के
लिये भय के बादल और आशंका की
गड़गड़ाहट है। असुरक्षा का आतंक है – घर
से लेकर सड़क तक हर जगह – दैहिक शोषण, विनय-भंग, बलात्कार, वैवाहिक बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, एसिड अटैक। उसने फ़ैसला किया है न डरने का, वह बात अलग है। लेकिन एक सभ्य समाज के लिये यह असुरक्षा न केवल कानून और
व्यवस्था के रूप मेँ चिन्ता का
विषय बल्कि शर्मिन्दगी की वजह और कलंक का पर्याय है। बहुत सारे सिरे सुलझाने की, गुत्थियाँ खोलने की और एक संवाद कायम करने की अविलम्ब ज़रूरत है।
इन सच्चाइयों का नतीजा
क्या यह निकाल कर चुप बैठा जा सकता है कि सारी सरकारी, गैर-सरकारी और
व्यक्तिगत कोशिशों के बावजूद स्त्री-सत्ता मात्र
विभ्रम है? मैँ शायद खासी बेमरम्मत किस्म की आशावादी हूँ। उस चरम आशावाद और घनघोर निराशा के कर्म मेँ कोई ख़ास फ़र्क नहीं रह जाता। घनघोर निराशा का नतीजा भी यही होता हे कि इससे बुरा अब और क्या होगा तो जो करना है, क्यों न एक बार करके देख ही लिया जाय। मैँ मानती हूँ और मानते रहना चाहती हूँ कि विभ्रम यथार्थ का विलोम नहीं बल्कि भावी यथार्थ का पर्याय है। यथार्थ कोई ऐसी पूर्ण परिसमाप्त परियोजना नहीं है जो जैसी बन चुकी वैसी सदा सदा के लिये बन चुकी। यथार्थ एक प्रक्रिया है जिसे हम अपने आचरण से कार्यान्वित करके यथार्थ मेँ बदलते हैँ। जब तक वह यथार्थ हो नहीँ जाती तब तक ही वह विभ्रम है। आचरण और कार्यान्विति को जारी रखने का संकल्प और श्रम उसे यथार्थ बना देगा।
(अर्चना वर्मा
प्रसिद्ध कथाकार और स्त्रीवादी विचारक हैं. यह आलेख उन्होंने स्त्रीकाल , गुलबर्गा वि वि और भारतीय भाषा संस्थान के द्वारा आयोजित सेमिनार में बीज वकत्व्य के रूप में पढा था .संपर्क : जे-901, हाई-बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डेन, अहिंसा खण्ड-2, इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014, इनसे 09871282073 पर भी संपर्क किया जा सकता है . )

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles