जूते

कौशल पंवार


कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में संस्कृत पढाती हैं. उनसे उनके मोबाइल न.  09999439709 पर सम्पर्क किया जा सकता है.

( कौशल पंवार की यह कहानी जाति दंश के साथ गरीबी में जीने वाले बहन और भाई के प्रेम की  कहानी है, एक  साथ बुने जा रहे सपने और सपने के लिए एक -दूसरे में अपने हिस्से को छोडने की लगी होड की कहानी भी , वह हिस्सा , जो हासिल भी बहुत मुश्किल से है. यह कहानी एक बहन के उस दंश की भी कहानी है, जो अपने  आंशिक रूप से कामयाब जीवन के बाद , उसकी  नीव के पत्थर अपने भाई के लिए कुछ करना चाहती है, तब वह भाई ही नहीं रहा. गहरी सम्वेदना की यह कहानी स्त्रीकाल के पाठकों के लिए : कौशल की पहली अभिव्यक्ति को भी सम्भवतः स्त्रीकाल ने ही प्राकशित किया था, जो इन्होंने पत्रिका के   ‘ जीवन’ कालम  के लिए के लिए लिखा था , आत्मकथात्मक अभिव्यक्ति .)

पांच बजे के आस-पास मेरी बेटी टी.वी. देख रही थी। मैं पास ही सोफे पर बैठी लैपटाप पर अपना मेल चैक कर रही थी। बेटा मंयक ट्यूशन के लिए चला गया था सो हम दोनों ही घर में थे। वह बार-बार चैनल बदल रही थी। तभी मेरी भी नजर उस ओर चली गयी। सामने एल.सी.ड़ी. पर कोई फिल्म चल रही थी जिसमे टीचर अपने स्टूडैंट से कह रह था –  “तुम मैराथन दौड़ में हिस्सा नहीं ले सकते, तुम्हारे पास न तो मैराथन लायक जूते है और न ही मंहगी सी कोई टीसर्ट ही है।” बच्चा चुपचाप सुनकर निराश होकर कमरे से बाहर आ गया था।

अच्छे जूते नहीं है। यह  वाक्य मेरी जेहन में बैठ गया था। जूतों का संबंध मुझसे गहराई से जुड़ा हुआ था। मैने अपना लैपटाप बंद कर दिया था और बाल्कनी में चेयर डालकर बैठ गयी थी। बेटी फिल्म देखती रही। मैने उसे पानी के लिए आवाज दी पर उसका सारा ध्यान शायद फिल्म देखने में होगा इसलिए उसको सुनायी नहीं दिय। मै उठी, पानी की बोटल फ्रीज से निकाली  फिर वही उसके पास आकर बैठ गयी और एकटक टीवी स्क्रीन पर चल रही तस्वीरों को देखने लगी पर ध्यान कहीं ओर ही था, टी.वी. की तरफ तो केवल आंखे थी। हाथ में बोटल पकड़े-पकड़े मैं जूतों के बारे में ही सोचती रही थी पानी पीने के लिए मैं उठी थी, भूल ही गयी थी।

नमी पाकर चिल्ड बोतल से टपकती पानी की बूंद मेरे बाजू पर गिरी। तभी मुझे याद आया मुझे प्यास लगी थी । मैने बोतल से ही पानी पीया और उसे कुर्सी के नीचे ही रख दिया था। फिल्म चल रही थी, वहीं दूसरी ओर मेरे दिमाग में भी फिल्म की रील की तरह एक-एक सीन आंखों के आगे आ रहे थे ; सीन में मैं भागी जा रही थी कालेज के बरामदे में होती हुई सीधा एडब्लाक पहुंची थी। थोड़ी देर खड़ी होकर अपनी उखड़ती सांसों को मैने दुरुस्त किया और धीरे-धीरे अंदर आफिस में गयी।  सामने की कुर्सी पर कलर्क बैठा था। मैने डरी-डरी लड़खड़ती आवाज में पूछा – ““सर मैं फीस……..बस इतना ही मुश्किल से कह पायी थी कि तभी उसने दबंग आवाज में पुछा – “रोल नं…….” पूरा वाक्य नहीं बोला था । मैने कहा – “सर, १६३४…”

इतना सुनते ही वह फाइल में से कुछ टैटोलने लगा था। कभी एक फाइल देखता, उसे रखता, फिर दूसरी उठाता, उसे भी देखता। उसने दोबारा पूछा – “क्लास ?”

“सैंकिंड इयर सर…” मैने जवाब दिया ।

उसने फाइल बंद कर दी थी । वह मुझे ऊपर से नीचे तक घूरने लगा था। मैने अपने हाथ में पकड़ी किताबों की पालिथिन को कस कर पकड़ ली थी कि जैसे कि अभी यह मुझे आफिस से फीस न देने के कारण धक्के मारकर बाहर निकाल देगा। फिर मुझे उसकी आवाज सुनाई दी – “फीस भर तो दी, अब ओर क्या चाहिए तुम्हे ? सुबह-सुबह धक्के मरवा दिये फाइलों मे ? चाय भी नहीं पी थी अभी।”

मैने उनसे सम्भलते हुए पूछ ही लिया कि, “सर मेरी फीस किसने दी ?”

कलर्क ने सुनकर अजीब सी आंखों से मुझे ताका और कहा -“ “कल कोई आया था, वही भरकर गया है तुम्हारी फीस, तुम्हें नहीं बताया उसने ?” इतना कहरकर उसने चटकारा सा लिया। मुझे जवाब मिल गया था। मैं उल्टे पैर आफिस से बाहर आ गयी थी ।

  निश्चिंत हो गयी थी मैं कि चलो अब कम से कम इस साल की फीस तो भरी, वरना पता नहीं कालेज दोबारा आ भी पाती या नहीं ? मै बाहर निकलते हुए खुशी से झुमती-फुदकती बरामदे से निकल रही थी। ऐसे चहक रही थी जैसे किसी ने आकर बिन मांगे ही मुराद पूरी कर दी पर थोड़ी ही देर में खुशी में ब्रेक लग गया जब याद आया कि फीस कालेज में किसने भरी ? सारा सीन आंखों में घूम गया था मेरे…।

मैं पिछले कई दिनों से कालेज नहीं जा रही थी । सुभाष से भी मिलने नहीं गयी थी। जब भी वह मिलने आता तो मैं बाहर निकल जाती। मैं उससे आंखें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। मैं उसके घर की सारी स्थिति को जानती थी। उसकी मां दूसरों के घरों में जो कमा कर लाती, उसी से घर का गुजारा चल रहा था ऊपर से उनके पिता जी की दवायी का खर्चा भी इधर-उधर से उधार मांग कर ही चल रहा था। इसलिए किस मुंह से उसे अपनी परेशानी बताती कि मेरी कालेज की फीस अभी तक नहीं गयी इसलिए कालेज नहीं जा पा रही हूँ।

जब भी मेरा और सुभाष का आमना-सामना होता तो मैं कभी पेट दर्द का बहाना बना देती तो कभी किसी ओर चीज का। मैं  जानती थी कि वह सुनकर परेशान हो जायेगा। उसे अपनी वजह से परेशान नहीं करना चाहती थी। अगर उसे पता लगा तो…..? तो वह कुछ भी करेगा पर फीस मेरे हाथों में लाकर रख देगा। इसलिए मैने उसे बिल्कुल नहीं पता लगने दिया कि कालेज न जाने की वजह क्या है ?

एक दिन सुभाष बहुत खुश था। वह  घर आया। उसका चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था। मैं घर की छत पर पड़ी लकड़िया उठाने गयी थी चूल्हा जलाने के लिए। जैसे ही नीचे की ओर झुकी तो सामने गली से ही सुभाष आता दिखायी दिया था। कुछ लकड़िया हाथ में उठा रखी थी। हाथ में पकड़े हुए ही मैं उसे देखती ही रही। उसे मिले कई दिन गुजर गये थे इसलिए मन ही नहीं किया नजरों को चुराने का। वैसे भी इतना खुश वह कभी-कभी ही होता था या तो तब जब वह किसी की सहायता करता और ढेरों सपने किसी की आंखों में देखता या फिर रिजल्ट आने पर ही इतना खुश होता था वह भी मेरा। मैने तो अपना रिजल्ट कभी खुद देखा ही नहीं था। वह ही हमेशा देखता था और बहुत खुश होता था। अपनी कम्पार्टमैण्ट आने का दुख उसे कम होता बल्कि मेरे पास होने की खुशी ज्यादा होती थी। पर आज क्या कारण हो सकता है, मुझे समझ नहीं आ रहा था। पहले तो मैं उसके चेहरे को पढ कर ही बता दिया करती थी कि ये वजह  है पर आज पता नहीं लगा था।

 मैं छत से नीचे उतर आयी थी। चूल्हे के नजदीक जलावन को रख दिया था। दरवाजे की ओर गयी – “कैसे हो भैया…… ?” मैने उसकी ओर बढ़कर कहा ।

“मेरी छुटकी गुड़िया मैं एकदम पहले जैसा हूं….” कहते हुए वह खाट पर बैठ गया ।

मैं भी घडे से पानी का गिलास भरकर ले आयी थी। उसे गिलास पकड़ाते हुए कहा – “घर में सब ठीक-ठाक। मेरी बात का जवाब दिये बिना उसने पूछा था – “कालेज क्यों नहीं जा रही हो…..? एक दो दिन से तबीयत खराब है। उसने मेरे सिर पर चम्पत लगाते हुए मेरे शब्दों को दोहराते हुए कहा – “एक दो दिन…. तुम्हें कालेज गये आज पूरे सात दिन हो गये है ! मैने अपनी नजरे नीची कर ली थी जैसे अपनी गलती का अहसास हो गया हो।

मां पास में ही चूल्हे पर रोटियां सेंक रही थी । चूल्हे से आटे की महक और पास ही कूंण्ड़ी में कूटी गयी लहसून और लाल मिर्च की चटनी की महक फैल रही थी । रोटियां बनाते-बनाते मां ने कारण बताना चाहा पर मैने बात को टालते हुए कहा – “भैया, गर्म-गर्म रोटी खाओंगे ? मां ने लहसून की चटनी भी बना रखी है। मां को कहा – “मां, दो ना सुभाष को रोटी।“ मां का ध्यान एक पल के लिए हट गया था । तवे पर रखी रोटी जल गयी थी। सपनों के जलने जैसी महसूस हुई मां को वह। मां ने जल्दी से हाथ से रोटी को पल्टा और उसे सेंका। अगली रोटी का आटा लिया और उसे हथेलियों के बीच में रखकर गोल-गोल घुमाने लगी। आर्थिक तंगी को भी मानों अपने से दूर गोल-गोल घूमाकर दूर कर देना चाह रही थी मां। पर ऐसा नहीं कर पा रही थी। मां ने एक रोटी थाली में रखी और चटानी को उसके ऊपर रखकर सुभाष को दे दी।

सुभाष ने रोटी का बड़ा सा टुकड़ा मुंह में ठूंसा और मुझसे कहा-पूछोगी नहीं छूटकी गुड़िया कि मैं आज खुश क्यों हूं ? हां बताओ क्या हुआ आज जो इतना खुश हो ? उसने अपने पैरों की ओर देखा और कहा-मुझे मां ने जूते खरीदने के पैसे दिये है। मै जूते खरीदूंगा और कालेज में जूते पहनकर जाउंगा ? अब तुम मुझसे नहीं कहोगी कि कालेज में जूते पहनकर जाया करो, गठ्ठी हुई चप्पल नहीं। मैं हंस पड़ी । सुनकर बहुत खुश हुई। मेरा भाई भी कालेज में जूते पहनकर जाया करेगा। अब सब लड़कियां मुझे नहीं कहेगी कि इतनी ठेठ गर्मी में तुम्हारा भाई चप्पलों में कालेज कैसे चला जाता है, वह एक जोड़ी जूते भी नहीं खरीद सकता ? मुझे सुनकर बहुत बुरा लगता और शर्मिंदगी भी होती कि हमारे मां-बाप इतनी मेहनत करके भी एक जोड़ी जूते तक क्यों नहीं खरीद सकते ? दूसरी तरफ सभी लड़के-लड़किया सज-धज कर, अच्छे से तैयार होकर कालेज जाते है ? मैने सोचा चलो एक समस्या तो हल हुई। सोचते-सोचते मैं बरामदे में सामने की दिवार से टकरा गयी। माथे पर हल्की सी गांठ पड़ गयी पर मन की गांठ खुल चुकी थी।

अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया। मुझे नये-नये जूते दिखाई दे रहे थे पर वे सुभाष के पैरों में नहीं थे। इतनी गर्मी की लू जिसमें सब कुछ झूलस रहा था। घर से सड़क तक चप्पलों में आना फिर कालेज में आना-जाना सोचते-सोचते अपने आप पर बहुत गुस्सा आ रहा था। हम और हमारे मां बाप दिन-रात काम पर लगे रहते हैं फिर भी हमारे पास कुछ नहीं है जो ओरों के पास है। पिता जी के कहे शब्द याद आ गये कि संसाधन बनते नहीं बनाये जाते हैं। बाबा साहब ऐसे ही तो नहीं बने होंगे डाक्टर ? हमारे समाज की शान। मैने सोचा और कालेज के गेट से बाहर निकल आयी। मन में आगे बढ़ने का उत्साह मिल चुका था। आगे का रास्ता तय था। कदम बढ़ाना अभी भी बाकी था जो बिना सुभाष के संभव नहीं था। अपने ऊपर फक्र महसूस हुआ। मैं कितनी अमीर हूँ, पता चल गया था मुझे। मेरे पास क्या कमी है ? मेरे पास वह था जो ओरों के पास नहीं था। वह थी शिक्षा और ज्ञान। कितनी लड़कियां हैं, जो मेरी तरह कालेज तक पंहुची है ? ज्यादातर हमउम्र दूसरों के घरों में कूड़ा-गोबर मल मूत्र उठाने का काम करती हैं। वे सब कहां पढ़ पायी है ? उनको ये अवसर दिया ही नहीं है इस व्यवस्था और घर की मजबूरियों ने। मैं कालेज में पढ़ पा रही हूँ। सुभाष जैसा भाई है, जो हर जरुरत को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।

 यही सब दिमाग में चल ही रहा था कि पता नहीं लगा मैं कब बस-स्टैंड पर पहुंची। सामने सुभाष खड़ा मुस्करा रहा था। मेरी नजरे उसके पैरों में पड़ी चप्पलों की ओर गयी। मेरी आंखे उसे देखकर नम हो गयी थी। पर सुभाष की आंखों में ढेर सारे सपने थे, जिनकों उड़ान देने की जिम्मेदारी अब मेरी थी। सुभाष ने अपनी किताब मेरे सिर पर मारी। कहा – “मेरी गुड़िया, जब झूठ नहीं बोलना आता तो झूठ बोलने की कोशिश क्यों करती है ? मैं तुम्हे बहुत ऊपर उंचाईयों पर देखना चाहता हूँ। जहां पर मेरा समाज अभी तक नहीं पहुंचा है। तुम्हें मेरा, पिताजी का और बाबा साहब का सपना पूरा करना है जो मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा। इन छोटी-छोटी चीजों की वजह से तुम कालेज ना जा पाओ, ऐसा कभी नहीं होगा। मेरे जीते जी तो बिल्कुल नहीं।” “रही बात जूतों की, तो जूते तो तुम्हारी  मेहनत की पहली तनख्वाह से खरीद कर पहनाना। मैं इन्तजार करुंगा। पर मैं तो आज भी इन्तजार कर रही हूं। मेरा इन्तजार आज भी अधूरा है। मेरे पास आज जूते खरीदने के लिए पैसे हैं, जूते हैं, पर वो पांव नहीं रहे जिनमें जूते होने चाहिए थे।”

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ISSN 2394-093X
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