प्रमोद कुमार तिवारी की कवितायें

प्रमोद कुमार तिवारी


प्रमोद कुमार तिवारी केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात में हिंदी पढाते हैं , इनसे pramodktiwari@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है

( प्रमोद कुमार तिवारी की इन चार कविताओं , ‘दीदी’, ‘जीभ थी ही नहीं तो कटी कैसे’ , ‘जे एन यू की लडकी’ और फसल औरतें और गीत’ , में हमारे आस -पास की स्त्रियां हैं, हमारे घरों में कैद स्त्री , हमारे गांव में डायन करार दी जाती स्त्री , अवसर पाकर मुक्त उल्लास और सपनों से भरी स्त्री , श्रम करती स्त्री . प्रमोद की कविताओं में ग्रामीण परिवेश के  पात्र और  बिम्ब होते हैं , तो लोकभाषा की खुशबू  भी होती है , लेकिन साथ ही ये कवितायें  ग्रामीण समाज में सामंती पितृसत्तात्मक मूल्यबोध के खिलाफ कथ्य भी हैं . भोजपुरी में भी कवितायें कहते हैं प्रमोद . )

1.  दीदी

दीदी मुझसे एक खेल खेलने को कहती
एक-एक कर
वह चींटों के पैर तोड़ती जाती
ग़ौर से देखती
उनके घिसट कर भागने को
और खुश होती।
दीदी मुझसे एक खेल खेलने को कहती
एक दिन देखा छुटकी की आँख बचाकर
दीदी ने उसकी गुड़िया की गर्दन मरोड़ दी।
पड़ोस की फुलमतिया कहती है
तेरी दीदी के सर पर चुड़ैल रहती है
कलुआ ने आधी रात को तड़बन्ना वाले मसान पर
उसे नंगा नाचते देखा था।
दादाजी ने जो जमीन उसके नाम लिखी थी
हर पूर्णमासी की रात दीदी वहीं सोती है
तभी तो उसमें केवल कांटे उगते हैं।
स्वांग खेलते समय दीदी अक्सर भूतनी बनती
झक सफेद साड़ी में कमर तक लंबे बाल फैला
वह हँसती जब मुर्दनी हँसी
तो औरतें बच्चों का मुंह  दूसरी ओर कर देतीं।
माँ रोज एक बार कहती है
कलमुँही की गोराई तो देखो
जरूर पहले राकस जोनी में थी
मुई! जनमते ही माँ को खा गई
ससुराल पहुचते ही भतार को चबा गई
अब हम सब को खाकर मरेगी
माँ रोज एक बार कहती है।
दीदी को दो काम बहुत पसंद हैं
बिल्कुल अकेले रहना
और रोने का कोई अवसर मिले
तो ख़ूब रोना
अंजू बुआ की विदाई के समय
जब अचानक छाती पीट-पीट रोने लगी दीदी
तो सहम गई थीं अंजू बुआ भी।
पत्थर से चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखों से
दीदी जब एकटक देखती है मुझे
मैं छुपने के लिए जगह तलाशने लगता हूँ।
दीदी के साथ मैं कभी नहीं सोता
वह रात को रोती है
एक अजीब घुटी हुई आवाज में।
जो सुनाई नहीं पड़ती बस शरीर हिलता है।
आधी रात को ही एक बार उसने
छोटे मामा को काट खाया था
और इतने ज़ोर से रोई थी
कि अचकचाकर बैठ गया था मैं।
दीदी मुझे बहुत प्यार करती है
गोद में उठा मिठाई खाने को देती है

उस समय मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ता रहता हूँ
और पहले मिठाई को जेब में
फिर चुपके से नाली में डाल आता हूँ।
दीदी मेरे सारे सवाल हल कर देती है
पर छुटकी बताती है
सवाल दीदी नहीं, चुड़ैल हल करती है।

दीदी से सभी डरते हैं
बस! पटनावाली सुमनी को छोड़कर
सुमनी बताती है
माँ ने ही अपनी सहेली के बीमार लड़के से
दीदी की शादी करायी थी!
सुमनी तो पागल है
जाने क्या-क्या बोलती रहती है
कहती है
घिसट कर ही सही
किसी के संग भाग गई होती
तो दीदी
ऐसी नहीं होती।

2.जीभ थी ही नहीं तो कटी कैसे

(सोनभद्र जिले ,उत्तरप्रदेश ,के करहिया गाँव की उस जागेश्वरी के लिए, जिसकी जीभ भरी पंचायत में 3 अगस्त 2010 को काट दी गई)

आदरणीय पंचो! जागेश्वरी डायन है
इसके कई सबूत हैं हमारे पास
पहला तो यही कि उसके चार बच्चे हैं
हमारी एक भी संतान नहीं और उसके चार-चार बच्चे।
दूसरा, जागेश्वरी बोलती है और जवाब देती है
आप ही बताइए, पूरे गाँव में है कोई स्त्री
जो हमारे सामने कर ले ऐसी जुर्रत
तीसरा, जागेश्वरी सुंदर है
चौथा, जागेश्वरी का नाम जागेश्वरी है
जो कायदे से बिगनी, गोबरी आदि होना चाहिए था
पाँचवा, आप खुद देख लें कि साज-शृंगार का इतना शौक है इसे
कि बाँह तक पर गोदवाए हैं फूल ।
अब क्या बताऊँ, हमें तो कहते भी शर्म आती है
पर महादेव कह रहा था कि
कई बार जागेश्वरी उसके सपने में आई
और ईख के खेत में चलने के लिए खींचने लगी।
और बासमती तो कह रही थी
कि उसने अपने रोते बेटे को
अगर नहीं छीना होता उसकी गोद से
तो चबा गई होती उसको!
रमकलिया भी कह रही थी

कि उसके मरद पर भी
मंतर पढ़ दिया है इसने
हरदम इसी को घूरता रहता है।
पंचो! इस सहदेव की बात छोड़ो
आपै बताओ
भला जागेश्वरियों के पास
कहीं जीभ, दाँत और नाखून होते हैं?
इन पंचों के पूर्वजों के पूर्वजों ने
सदियों पहले कर दी थी व्यवस्था
साफ बात है
जब जीभ थी ही नहीं
तो कटी कैसे
ये सब साजिश है
पंच परमेश्वरों और सभ्य पुरुषों को
बदनाम करने की।

3. जे.एन.यू. की लड़की

देखा मैंने उसे
जे.एन.यू. की सबसे ऊंची चटृान पर
डैनों की तरह हाथ फैलाये
उड़ने को आतुर

देख रही थी वह
अपने पैरों के नीचे
हाथ बाँधे  खड़ी
सबसे बडे़ लोकतंत्र की राजधानी को
जहाँ रही है चीरहरण की लंबी परंपरा

अलकों के पीछे चमकता चेहरा…
जैसे काले बादलों को चीर के
निकल रहल होे
चांद नहीं! सूरज
ग़ज़ब की सुन्दर लगी वो
चेहरे पर थी
उल्लास की चिकनाई, विश्वास की चमक
पैरों में बेफिक्री की चपलता

दिखी वो रात के एक बजे
सुनसान पगडंडियों पर कुलांचे भरती
याद आ गयीं ‘कलावती बुआ’
घर से निकलने से पहले
छः साल के चुन्नू की मिन्नतें करतीं
साथ चलने को।

पहली बार जाना
हँसती हैं लड़कियाँ भी
राह चलते छेड़ देती हैं
ये भी कोई तराना।

पर्वतारोहण अभियान से पहले
उठाए थी बड़ा सा बैग कंधे  पर
चेहरे की चमक कह रही थी
ये तो कुछ भी नहीं
सदियों से चले आ रहे बोझ के आगे
हाँफता समय चकित नजरों से देख रहा था
उसकी गति को।

तन कर खड़ी थी मंच पर
लगा दादी ने ले लिया बदला
जिसकी कमर टेढ़ी हो गई थी
रूढ़ियों के भार से
प्राणों में समेट लिया
उसकी पवित्र खिलखिलाहट को
देर तक महसूसा
माँ का प्रतिकार
जिसकी चंचलता
चढ़ा दी गई थी
शालीनता की सूली पर

बहुत-बहुत बधाई ऐ लड़की!
देखना! बचाना अपनी आग को
जमाने की पुरानी ठंडी हवाओं से
उम्र के जटिल जालों से
दूर रखना अपने सपनों को
हो सके तो बिखेर देना
अपने सपनों को हवाओं में
दुनिया के कोने-कोने में फैल  जाएँ
तुम्हारी स्वतंत्रता के कीटाणु
अशेष शुभकामनाएँ!

4. फसल, औरतें और गीत

एक बूढ़ी औरत सोह रही है खेत
साथ ही सुरीले कंठ से छीट रही है उसमें
आदिम गीतों के
न पुराने होने वाले कच्चे बीज।
एक आल्हर युवती
रोप रही है धान
साथ ही रोपती जा रही है,
लोकगीतों की हरियाली
खेतों में
नहीं श्रोता चरवाहों के मन में।
गीतों में भरी है कथा
कि कैसे रोपी जाती हैं उसकी सहेलियाँ
नइहर से उखाड़कर
अपेक्षाओं से लदे ससुराल में।
भारी काम के लंबे दर्द को
हर रहा है गीतों का सुरीलापन
मरहम लगा रहे हैं
सदियों की दासता को आवाज़ देनेवाले शब्द।
दोनों औरतों ने पूरा किया काम
अलगाए एक दूसरे के बोझ
फिर  दोनों ने सुर मिलाए
ज्यों-ज्यों बढ़ते गए सुर
घटता गया सिर का बोझ
साझी व्यथा ने बढ़ा दिया
करूण स्वरों का सुरीलापन
दोनों औरतों ने बाँट लिया
थोड़ा-थोड़ा हरापन और पकापन
जब वे गाँव में पहुँची तो
बूढ़ी और युवती कम
सखियाँ अधिक थीं
दोनों के चेहरे लग रहे थे
एक से।

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles