रचना भंडारी की दो कवितायें

रचना भंडारी


रचना भंडारी पत्रकारिता , अध्यापन , फिल्म और टेलीवीजन लेखन में सक्रिय रही हैं . 15 वर्ष तक अध्यापन के बाद विभिन्न टी वी चैनलों के लिए लिखती रही हैं . आजकल स्टार प्लस नेटवर्क में एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं . इनसे rachanaa68@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.

रचना भंडारी की इन दो कविताओं के अच्छे आदमी और अच्छी औरत हमारे आस -पडोस में रहते हैं , हमारे  घरों में रहते हैं , हम -आप भी हो सकते हैं ऐसी अच्छी औरत , अच्छे आदमी . अच्छी औरत पितृसत्तात्मक अनुकूलन की एक अच्छी कविता है , वही अच्छा आदमी पितृसत्तात्मक समाज के प्रतिनिधि पुरुष की.

अच्छी औरत 

अच्छी औरत  फ़रमाइश नहीं करती,
मानती है एहसान  कि  तुमने उसे अपना अमूल्य समय दिया .
अच्छी औरत  कभी तुम्हें इंतज़ार नहीं कराती,
क्योंकि  उसे सीखना पड़ता है  कि तुम्हारा मुट्ठी -भर समय
उसके बरसों के इंतज़ारसे कहीं बढ़कर है.

अच्छी औरत नहीं जताती अपना क्षोभ
कि मुश्किल से बनाया तुम्हारा मूड खराब न हो जाए ,
क्योंकि  यदि तुम उसे कोरा छोड़ कर चले गए तो उसके हिस्से आएगा
फिर एक  इंतज़ार… बेहद —लम्बा —इंतज़ार …   !

अच्छी औरत बिन-मांगे सामने रख देती है अपना बटुआ कि
तुम्हें मांगकर छोटा न होना पड़े…
पढ़ लेती है तुम्हारी मौन फरमाइश और बांच लेती है तुम्हारी  ख़ामोश ज़रूरत …
अच्छी औरत की ख़ामोशी किसी को सुनाई नहीं पड़ती…
उसकी चीखें भी नहीं…ना ही उसका बिफरता रुदन

अच्छी औरत मांगे भी तो उसे कोई देता नहीं एक  क्रोसीन या एक थपकी..
बिन-मांगे  मिलने की राहत समझती है अच्छी औरत.
अच्छी औरत जीती है तुम्हारे एक जन्मदिन से अगले जन्मदिन तक,
दिन-ब -दिन, लम्हा- दर- लम्हा
तब भी जब तुम उसके जन्मदिन भूलने का रिवाज़ निभाते जाते हो
एक अकड़-भरी बेशर्मी के साथ ।

अच्छी औरत नहीं थकती इतनी  ज़्यादा  अच्छी होने से…
वह  नहीं थकती तुम्हारे इतने ज़्यादा मतलबी  होने से …
तुम्हारी औरत होना उसकी  तक़दीर  है…और अच्छी होना उसकी नियति।

अच्छी औरत नहीं छोड़ती महकना तुम्हारी गंध से
तब भी जब तुमसे आती है बहकती महक उसकी अपनी सहेली की।
अच्छी औरत पोसती जाती है तुम्हारे अधूरे -से पौरुष को
तब भी जब तुम लाख कोशिश करके भी उसे पूरा नहीं  कर पाते
और अपनी औनी-पौनी मर्दानगी की रसीद मांगते हो
उसकी कोख की क्यारी में अपने बीमार बीज डालकर

आसान नहीं है अच्छी औरत को अच्छा मानना …
उसकी अच्छाई को आंकना …
उसकी औरतपन  को बूझना…
उसकी रातों को मापना…
उसकी हरारत को भांपना ..
उसकी करवटोंको सहलाना..
उसकी बेज़ुबान आहों से नुक्त  होना.
उसकी नज़रों कोसहना…

अच्छी औरत के पास नहीं है सामर्थ्य तुम्हें वैसे ही दुत्कार देने की
जैसे तुम निशब्द उसे दुत्कारते हो
और वह हिसाब करती है किसका गला घोंट देने से उसे कम तकलीफ होगी
अच्छी औरत की प्राण-वायु हो तुम —
तुम्हारा, अपना या अपनी अच्छाई का ।

अच्छी औरत जीती जाती है अपना अच्छी औरत होने का शाप
और मांगती जाती है तुम्हारे शतायु होने की दुआ .
अच्छी औरत  करती है इंतज़ार यम से मोल-भाव करने का
और इस जनम में तुम्हारे बिना जीना सीखने की सलीब उठाने का वरदान पाने का।।

अच्छा आदमी

अच्छा आदमी नहीं भूलता ६ हफ्ते बाद की मीटिंग की तारीख़,
अच्छा आदमी याद नहीं रख पाता ६ बजे मिलने का वादा…
अच्छे आदमी को अच्छा लगता है तोहफ़े पाना,
अच्छे आदमी को कोफ़्त होती है तोहफ़े जैसी गैर-ज़रूरी चीज़ों पर पैसे खर्च करना..
अच्छे आदमी को नागवार गुज़रता है उसीका कहा उसे याद दिलाना …
अच्छा आदमी सहज भूल जाता है अपना कहा सच कर दिखाना
अच्छा आदमी चोट करता है तुम्हारे मन पर,
और विवाद करता है तुम्हारे मस्तिष्क से…
अच्छा आदमी बुरा मान कर ख़ामोशी अख्तियार कर सकता है,
अच्छी औरत तभी अच्छी है जब रूठना भूल कर सिर्फ़ मनाना  सीखे।

अच्छे आदमी का अभिमान होता है उसके कद से बड़ा उसके भीतर छिपी बैठी छोटी-सी अच्छाई से कहीं बड़ा
अच्छा आदमी नहीं देखता कटु शब्दों के पीछे लुकी मिठास,
नहीं याद रखता फ़टकार में लिपटा सरोकार…
अच्छा आदमी भूल जाता है तुम्हारी हर स्तुति, हर अनुराग…
अच्छा आदमी जानता है तुमको खुद से वंचित करने का असर,
तुम्हारी धमनियों में सीसा भरकर जीतने का गुर…
अच्छा आदमी तुम्हें हराकर जीतने का सुख लेता है
और तुम वो सब फिर-फिर हार जाती हो जो बहुत अरसे पहले अच्छे आदमी को अर्पण करके तुमने जीता था.
अच्छे आदमी को सुख मिलता है तुम्हें तकलीफ़ में देख कर, बार-बार अपनी गरिमा को इक एहसान जता कर…

अच्छा आदमी तरस खाता है तुम पर,
और तुमको जब ख़ुद पर और तरस नहीं आता तो तुम्हें नफ़रत होती है अच्छे आदमी से आनेवाली हर राहत की याद से भी…
अच्छे आदमी की तकलीफ़ तुम्हारी सतही टीस से कहीं ज्यादा गहरी चीज़ है…
उसकी ऊंची अटारी तक नहीं,
केवल उसके क़दमों तक तुम्हारे मलिन हाथ पहुँचते हैं…

क्या होगा अगर अच्छा आदमी नहीं लेगा तुम्हारी ख़बर ??
ज़िन्दगी में कुछ रौशनी कम रहेगी न…
बस, वो एक दीया, वो मुट्ठी-भर धूप का अलाव, नहीं गरमाएगा तुम्हारे वजूद को — बसइतना ही न ?
सर्द पड़ गयी चाहत में ख़ुद को समेटे, अकेले ठिठुरने की आदी हो न तुम..?
अच्छा आदमी मर जायेगा मगर अपने अभिमान का कलफ़ ओढ़े रहेगा…
तब भी जब उसकी पीठ से मिन्नतें करते -करते तुम्हारी कोरें भीग जाएँ …
अच्छा आदमी तुम्हारा एक कौर खाकर थूक सकता है
और तुम कटे हुए होठों पर हंसी सजाकर पूछती हो –
कुछ और बना दूं? कुछ और बन जाऊं ?

अच्छा आदमी किवाड़ भेड़ कर जा सकता है
अपना मनपसंद कुछ चखने
तुम्हें पसारा समेट कर, खुद को, सेज को सजा कर
फिर तकनी है राह, ओढ़ लेनी है समर्पण वाली मुस्कान…
टुकड़े -चिंदे जमाकर गुदड़ी सीने में कुशल हो न तुम ?
सिर्फ़ इस बात से तुष्ट रहो — कि वो जो पावन, मनभावन, निशब्द, निस्वार्थ, निश्छल कुछ था…
उसको दुलारता, उसके पुरुषोचित अभिमान को पोसता , उसे ह्रदय से सींचता  ….
उसके बिना अच्छा आदमी भी कहीं गहरे, अकेले, यक़ीनन सिहरता होगा, कहीं बहुत गहरे, बिखरता होगा…
अपने हर मंतव्य पर अटल, हर गंतव्य तक सीध में चलता,

तुम्हारे होने-न होने से परे…
दुनिया के सामने –
अपनी हर कामयाबी का श्रेय तुम्हें देता
अपनी उपलब्धियों को तुम्हें समर्पित करता अच्छा आदमी
कितना नम्र है, नरमदिल है, मधुर है, उदार है…
अच्छा आदमी हमेशा सही है, सदा मुक्त  है !!

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ISSN 2394-093X
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