कर्मानन्द आर्य की कवितायें

कर्मानन्द आर्य


कर्मानन्द आर्य मह्त्वपूर्ण युवा कवि हैं. बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाते हैं.इनसे इनके मोबाइल न 8092330929 पर संपर्क किया जा सकता है

( कर्मानन्द आर्य ने स्त्रीकाल के आग्रह पर अपनी कई कवितायें भेजी . इस मह्त्वपूर्ण युवा कवि को प्रकाशित कर हमें खुशी हो रही है , समय -समय पर इनकी और कवितायें ह्म यहां प्रकाशित करते रहेंगे. )

1. इस बार नहीं बेटी

मैं तुम्हें प्रेम की इजाजत देता हूँ
और काँपता हूँ अपने व्यक्तिगत अनुभवों से
अपने जीवन की सबसे अमूल्य निधि तुम्हें भी मिलनी चाहिए

देखता हूँ तुम तल्लीनता में खोई रहती हो
निश्चित तौर पर प्रेम बढ़ाएगा तुम्हारा अनुभव
तुम चाहो तो जी भरकर प्रेम करो

प्रेम करो इसलिए नहीं कि प्रेम पूजा है
प्रेम पर टिकी हुई है दुनिया
इसलिए क्योंकि सबसे बुरा अनुभव मिल सकता है प्रेम से
मिल सकता है रूठने मनाने का हुनर

जिसने सीखा है अपने अनुभवों से
वह जिन्दगी में कभी असफल नहीं हो सकता
कभी टूट नहीं सकता रूठने मनाने वाले का घर

प्रेम प्रयोग की वस्तु है
प्रेम करो और बताओ अपनी सहेलियों को
अपनी माँ को बताओ अपनी मूर्खताएं

वह सब करो जो किया है मैंने
जो मैंने जिया तुम भी जी सकती हो
पर सीखना अपनी माँ से भी

वह प्रेम में हारकर सब हार गई

2 . सार्त्र और सिमोन दि बोउवार

एक :
जब सात्र ने उसे मुखाग्नि दी
वह लिपटकर बहुत रोई

वह राख से रोई
वह आग में सिमटती रही
जब तक प्रेम जला

एकान्त में उसने देखा
प्रेमी की आँखों में जल रही थी एक चिता

धुएं जैसा धुँआ
आग जैसे आग
प्रेम जैसा प्रेम
उसने पहले भी महसूस किया था

उसने हर पल प्यार किया था
अनुभव की थी सात्र की गंध

सात्र ने उसको देखा था
उसने सात्र को जिया था प्राण देकर
दो :
दफ़न होने के ठीक पहले उसका प्रेम जिन्दा था
खेलता था
नहाता था
खाता था

रगों में दौड़ता था खून बनकर
किताबों में अक्षर बन फैल जाता था

उसकी खुशबू फैली थी रसोई में
बाग़ में फूलों में
खेत में

उसने किया था नौका विहार भी
वह गया था लांग ड्राइव

उपेक्षिता उसकी नियति नहीं
सिमोन को पता लग गया था बहुत पहले

उसने मृत्यु के साए में जिया था प्रेम
किया था युद्ध पहले समाज से
फिर स्वयं अपने खिलाफ

रोज हार जाती थी
वह रोज हार जाती थी
प्रेम का खेला

तीन :

उस सदी में वह अकेली औरत थी
जिसने किया था प्रेम
बहुत पढ़े-लिखे आदमी से

आदमी के देखने, चलने, सोचने
सबसे उठती थी मीठी खुशबू

उसकी रगों में प्रेम मृत्यु के बाद भी जिन्दा था
जवानी थी सुख भरी
सात्र उसकी जिन्दगी था

मृत्यु कुलबुला रही थी भीतर
वह जब-जब उससे मिली थी
वह मिली थी जब जब खुद से

सात्र की हथेलियों ने पहली बार छुआ था
औरत के फौलादी हाथ
जो लोहा पिघलाते थे

वे खुरदुरे हो गए थे प्रेम के कारण
प्रेम उन्हें जगह देता था

प्रेम फुदकता था
मृत्यु की छाया में
जीवन खेलता था अठखेलियाँ

सात्र ने तैरना सीख लिया था माँ के गर्भ में
चौबीस कैरेट का होना उसने जान लिया था

अक्सर होने और खत्म हो जाने के बाद भी
अनजान रहते कि उनके भीतर कोई दिल भी था

सिमोन जानती थी
उसके पास अपनी जान के सिवाए कुछ नहीं है,
प्यार तो मरते दम तक (…शायद मरने के बाद भी) रहेगा.

3. देह बहकती है देह साधो योगिनी
………………………………………………………

उसको साधो जो मिट्टी का बना है
हवा को साधो
पानी और आग से बनी इस काया में
थोड़ा निर्वात रहने दो

तुम्हारे समर्पण का नाम है प्रेम
तुम्हारे झुक जाने का नाम है श्रद्धा
झुको नहीं काया फूट पड़ती है

यम नियम सबसे ज्यादा तुम साधती हो
पुरुष साधता है आसन
फिर तुम्हें धकेल देता है विस्तर से नीचे

तुम नीचे और नीचे झुकती जाती हो
जब तक तुम लगा लो न वज्रासन

प्राणायाम तुम्हारे लिए नहीं हैं
नहीं हैं कुंजल क्रियाएं
नेति और धोती भी नहीं है तुम्हारे लिए

समझो जिसे तुम छुपाती हो
वही मिट्टी तुम्हारे जीवन को नरक बनाती है

नरक बनो स्त्री
नरक का द्वार तुम्हारे लिए नहीं है

4. घायल देश के सिपाही

(इरोम शर्मिला के लिए जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)

लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक

मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ

लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है

मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ

जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे

हमारी हरी देहों का दोहन
शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है

उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है
सोचता है मैं हार जाउंगी

घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न
आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है

आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है
आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे मेरी रखवाली करती है
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई
कितनी लाल और मादक है

क्या सोचते हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ
मैं इरोम हूँ इरोम
इरोम शर्मिला चानू

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ISSN 2394-093X
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