पवन करण की पांच कवितायें

पवन करण


पवन करण हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि है, ग्वालियर में रहते हैं. इनसे इनके ई मेल आई डी pawankaran64@rediffmail.com पर संम्पर्क किया जा सकता है.

( इतिहास की चुप्पियों और वर्तमान के शोर के बीच स्त्री संवेदना से गहरे जुड़कर पवन  करण की कवितायें  सीधे दिल में उतरती है.  ग़ालिब के मशहूर  शेर के उस मिसरे की तरह, कोई मेरे दिल  पूछे तेरे तीरे नीमकश को वो खलिश कहां से होती, जो जिग़र के पार  होता . कवितायेँ  दिल के आर -पार  नहीं जाती भीतर गहरे उतरती हैं,  इसलिए उनकी कवितायेँ हिन्दी कविताओं के  परंपरागत चौखट में अट नहीं पाती। उन्होंने कविता के लिए नए विषय चुने और उसे नयी भाषा में लिखा।  कविताओं को पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि उन्होंने उन जगहों को छुआ है जिसपर हमारी नजर नहीं जाती। उनकी कविताओं से गुजरना परम्पराओं की जड़ों तक पहुंचना  है। वे अपने इर्द -गिर्द की घटनाओं के दर्शक नहीं हैं,उनके बीच के हैं। उन्होंने लोक -जीवन की इस धारा  में गहराई तक गोते लगाए हैं .  उनकी सूर्या सावित्री इसलिए नहीं जानी  जाती की वह  यमराज से वापस ले आयी सत्यवान के प्राण बल्कि उसने परम्परओं को चुनौती दी। दरसअल पवन कारण की कविता में प्रेम -चेतना मनुष्य की मूल गंध है। कविता जितनी बाहर है उतनी उनके भीतर है. निवेदिता )

1. विश्वपला 

नास्तिक की तरह घूमते हुए वेदो की गलियां
तुम मिली मुझे विश्वपला

ऋगवेद में संपन्न हो चुके यज्ञ की
वेदी की राख को बैसाखी से कुरेदते देख
मैने तुमसे पूछा अरे विश्वपला
तुम्हारे पास अब भी बैसाखी कैसे

तुम्हारे लगडे़पन को तो, लोहे का पैर लगा, दूर करके
अश्विनी कुमार ने बजा दिया था जहां में अपना डंका

फिर तुम यह बैसाखी क्यों पकडे बैठी हो विश्वपला
क्यो इससे कुरेदने में लगी हो वेदी की राख
चलो उठो मुझे भी दौड़कर दिखाओ
यजुर्वेद का यह चमत्कार मैं भी तो देखूं

विश्वपला तुम मेरी तरफ नजर उठाकर
क्यों नहीं देखती यह वेदी कुरेदना
क्यों नहीं रोकती वैसाखी दूर क्यों नहीं फैकती

विश्वपला यह इक्कीसवी सदी है
और तुम यहां तब से बैठी इस बैसाखी से
यज्ञ की राख ही कुरेद रही हो अपना हाथ बढ़ाओ
और मेरे साथ इस सदी में अपने कदम चलो

क्या तुम चलने लायक नहीं हुई विश्वपला
क्या तुम अब भी लगडी हो
अपनी चुप्पी तोड़ो, मुंह खोलो अपना विश्वपला
सच सच बताओं मुझ कवि को बताओ
क्या तुम्हारे भी साथ तब भी वही हुआ
जो अब तक इस सदी में भी जारी है

(विश्वपला़: वेद कालीन लगडी स़्त्री जिसे लोहे का पैर लगाकर अश्विनी कुमार नामक दो वै़द्यों ने दौड़ने लायक कर दिया जिनके लिये यज्ञ में ऋचाएं गायी जाती हैं। )

2. सूर्या सावित्री

विवाह की वेदी तक पहुंचने से पहले
और उसके बाद भी उन्हें कभी
बताया ही नहीं गया उसके बारे में

उन्हें तो बस उस सावित्री के बारे में
बताया गया जो यमराज से
वापस ले आयी सत्यवान के प्राण

क्यों छुपाई गई स्त्रियों से हमेशा
सूर्या सावित्री की पहचान
क्यों नहीं बताया गया उन्हें,
तब से उसकी लिखी ऋचाएं अब तक
विवाह मंडप में गाई जातीं लगातार

जिसने तब पिता द्वारा चयनित
सोम को अपनाने से कर दिया इंकार
और अपने सहपाठी पूषा को चुना
साथ बिताने के लिये अपना जीवन

क्या बस इसीलिये विवाह की वेदी के आगे
वचन हारतीं स्त्रियों को नहीं बताया गया
उसके बारे में कि कहीं उनमें से कोई
या कई पिता द्वारा चयनित वर से
न कर दें विवाह करने से इंकार
और कहें नहीं पिता पसंद भी मेरी होगी
और सूर्या सावित्री की तरह शर्तें भी मेरीे

(विवाह सू़त्र ऋगवेद के दसवें मंडल की सूक्त संख्या जिसमें 47 मंत्र हैं, इन मंत्रों की रचना सूर्या सावित्री नामक एक किशोरी ने अपनी शादी के लिये की । सूर्या नाम की यह कन्या सविता मुनी की बेटी होने की वजह से सूर्या सावित्री कहलायी)

3. भाई

मेरे भाई की नाक एवरेस्ट से ऊंची
और चांद से ज्यादा चमकीली
किसी से प्यार करूंगी तो कट जायेगी
अपनी कटी हुई नाक के साथ मेरा भाई
कैसे जियेगा वह तो मर जायेगा जीते जी

उसकी आंख दूरबीन से तेज
निशाना गुलेल सा सटीक
मैं घने झुरमुट में भी किसी से मिलूंगी
वह देख लेगा, वह वहीं से खीचकर
मारेगा पत्थर जो ठीक माथे पर
लगेगा मेरे उसके लगते ही
मेरे भाई का माथा हो जायेगा ऊंचा

कोई हाथ, हाथ में लेकर चलूंगी
गुस्से में उसके हाथ मेरी और उसकी
गर्दन मरोड़ देंगे फैक देंगे किसी
नाले में, कई दिन तक वह अपने
हाथ नहीं धोयेगा, दिखायेगा सबूत
खाप उसके हाथों को चूमेगी जहां तक
घूम सकता वह घूमेगा छाती फुलाकर

कलदार सा खनकदार भाई का नाम
मगर वह कब तक काम आयेगा मेरे
प्रेम तो फिर भी रहेगा साथ
प्रेम के बिना मैं कैसे जियुंगी
प्रेम करूंगी तो जाउंगी मारी

4. सोनागाछी

बंगाल ही नहीं  भारत भर के
कारीगरों ने इस बार नहीं गढ़ीं
मिट्टी से मूर्तियां

सोनागाछी ही नहीं भारत भर की
उन बस्तियों से निकालकर
बाहर लाये वे वेश्याओं को
उन्होंने रखा इस बात का ख्यााल
उनमें से कोई बूढ़ी-पुरानी
दर्द से कराहती, खांसती-मरती
नहीं छूटे उस अंधेरे में भीतर के

कारीगरों ने इस बार उन सबका
किया ठीक वैसा ही श्रृंगार जैसा
करते आये वे मूर्तियों का अब तक
और उन्हें बिठाया जगमगाते
उन मंडपों में ले जाकर, आखिर
उन्हें हमने ही तो गढ़ा अब तक

लगातार हमारा होना झेलती
कोई देवी नहीं थी इससे पहले
हमारे पास, इस बार उन्होंने
गढ़ी दसवी देवी
जिसका नाम पड़ा देवी सोनागाछी

5. छिनाल

उसकी भीतरी संरचना ही ऐसी थी
कि वह चाहती थी एक पुरूष
जो उसे प्यार करे भरपूर
रखे हरदम उसका खयाल
रहे उसके साथ, उसके करीब हमेशा

पति हो तो बेहतर, प्रेमी हो
न हो तो बस पुरूष ही हो, मगर हो
इस गफलत में उसने
खाये लगातार ठेवे पर ठेवे
छिनाल कहकर पुकारा गया उसे

उसके भीतर से एक-एक कर
बाहर आते पुरूषों नें ही नहीं
अपने को भीतर ही भीतर मारतीं
औरतों ने भी नहीं बख्शा उसे
उन्होंने भी उसे इसी शब्द से तांसा

और तो और खुद उसने भी
इसे अपनी ही जैसी औरत के
सिर पर खीचकर दे मारा

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ISSN 2394-093X
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