यौन शोषण के आरोपों से घिरी न्यायपालिका

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

( पिछले दिनों मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के ऊपर उसके अधीनस्थ न्यायालय की अतिरिक्त सेशन जज ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया . न्यायिक प्रक्रिया की इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है ! इससे भी बड़ी विडम्बना यह थी कि जिस उच्चतम न्यायालय ने 10 से अधिक कर्मियों वाले कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ ‘विशाखा समिति’ गठित करने के आदेश दिए थे वह खुद ही अपने यहाँ ऐसी समिति के प्रति अनिच्छुक रहा . ताजा घटना क्रम के बहाने एडवोकेट अरविन्द जैन न्यायपालिका के स्त्री विरोधी चरित्र की पड़ताल कर रहे हैं . )

इससे बड़ी न्यायिक विडम्बना और क्या होगी कि देश की सर्वोच्च अदालत ने (‘विशाखा’ बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1997 सुप्रीम कोर्ट 3012 मामले में) ‘कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न’ रोकने के लिए, 13 अगस्त 1997 को जो एतिहासिक ‘दिशा-निर्देश’ जारी किये थे, उन्हें खुद अपनी अदालत में लागू करने में लगभग 17 साल लग गए. सरकार और कानून मंत्रालय भी विधेयक बनाने के बारे में 17 साल तक सोचते-विचारते रहे. आख़िरकार, 22 अप्रैल 2013 को कानून बन पाया. कारण एक नहीं, अनेक हो सकते हैं, पर इससे लिंग समानता और स्त्री रक्षा-सुरक्षा के सवाल पर, विधायिका और न्यायपालिका की गंभीरता का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीशों पर यौन शोषण के आरोप, वरिष्ठ अधिवक्ताओं पर यौन शोषण के आरोप , तहलका के संपादक तरुण तेजपाल पर अपनी एक सहकर्मी के साथ यौन शोषण, यौन उत्पीड़न के कारण इण्डिया टी.वी. की पत्रकार द्वारा आत्महत्या का प्रयास और आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीडन,अत्याचार के दुखद हाद्सो के बावजूद  समाज, मीडिया और न्यायपालिका की रहस्यमय ख़ामोशी का मतलब क्या है? क्या यह सब होने-देखने के लिए ही औरतें अभिशप्त हैं?

न्यायपालिका में पारदर्शिता पर चल रही बहस के बीच में ही, एक और ‘दुर्घटना’ हमारा सामने है. मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय (ग्वालियर) के न्यायमूर्ती एस.के.गंगेले द्वारा यौन उत्पीड़न से परेशान महिला सत्र-न्यायाधीश का त्यागपत्र. राष्ट्रपति, कानूनमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजी शियाकत पर, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा ने कहा है कि ”यह एकमात्र ऐसा पेशा है, जिसमें हम अपने सहयोगियों को भाई और बहन के रूप में देखते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. मेरे पास शिकायत आई है और मैं इस पर उचित कार्रवाई करूंगा.” कब और क्या कार्यवाही होगी, अभी कहना कठिन है.

न्यायमूर्ती एस.के.गंगेले ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए कहा है कि “आरोप सिद्ध हों तो फाँसी पर लटका दें….किसी भी एजेंसी से जांच करवा लो….मैं निर्दोष हूँ.” हम सब जानते हैं कि आरोपों की जाच और सुनवाई के बिना तो कुछ होना नहीं है. भूतपूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता ने न्यायमूर्ति पर ‘महाभियोग’ चलाने की मांग की है. एक वकील और स्वयंसेवी का कहना है कि जज साहिबा चाहे तो पुलिस को शिकायत करे या मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को. मतलब मामला मध्य प्रदेश का है. अन्य उत्साही वकील ने तो जनहित याचिका भी दायर कर दी.

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के ग्वालियर बेंच के  एक न्यायाधीश पर अधीनस्थ कोर्ट की एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया

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( मर्दों के लिए घर आशियाना और औरतों के लिए जेलखाना है )
( दाम्पत्य में बलात्कार का लाइसेंस असंवैधानिक है )
( मनुवादी न्याय का शीर्षतंत्र )
( न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर )

आश्चर्यजनक है कि समाज के सर्वश्रेष्ठ और संदेह से परे तक सम्मानित माने-समझे जाने वाले क्षेत्रों (शिक्षा, चिकित्सा, न्यायपालिका, मीडिया आदि) से भी, महिलाओं के देह-दमन के अशोभनीय समाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं. न्याय के प्रांगन से बचाओ…बचाओ की चीख-चिल्लाहट, अस्मत के बदले इंसाफ़ की दास्ताँ या किसी न्यायमूर्ति द्वारा नौकरी पाने-बचाने की ऐसी शर्मनाक शर्तें, सचमुच गंभीर चेतावनी है. न्याय और कानूनविदों के चाक-चौबंद किले में, ‘कुलद्रोहियों ’ का क्या काम? पुनर्विचार करना पड़ेगा कि न्यायधीशों की चुनाव प्रक्रिया में किस-किस खामी के कारण, अनैतिकता और बीमार मानसिकता भी चोरी छुपे प्रवेश कर रही है. चारों ओर से सवालों का घेरा, गहराता जा रहा है. न्याय की अंधी देवी के हाथों में, अवमानना के लिए सज़ा देने वाली तलवार को जंग लग चुका है या पीड़ित दंड के भय से मुक्त हो गया है?

दरअसल शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियों को दोहरी .  भूमिका निभानी पड़ रही है. आज़ादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के कारण स्त्रियाँ बदली हैं..बदल रही हैं, परन्तु भारतीय पुरुष अपनी मानसिक बनावट-बुनावट बदलाने को तैयार नहीं है. एक तरफ पुरुषों के लिए यह सत्ता से भी अधिक, लिंग वर्चस्व की लड़ाई है. दूसरी ओर स्त्रियाँ अपने सम्मान और गरिमा पर हुए या होने वाले हमले का हर संभव विरोध करने लगी है. दमन और विरोध के इस दुश्चक्र में यौन शोषण, उत्पीड़न और हिंसा लगातार बढ़ रही है. समानता के संघर्ष में स्त्रियों का विरोध-प्रतिरोध या दबाव-तनाव बढ़ता है, तो कुछ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेक-अप’ या ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ की तरह, नए विधि-विधान बना दिए जाते हैं और कुछ और सुधारों के सपने दिखा दिए जाते हैं. सच है कि सिर्फ कानूनी विधान-प्रावधान बना देने भर से, समस्या का समाधान नहीं होगा. विशाखा दिशा-निर्देशों की छाँव में ढले-पले अधिनियम में, अभी भी ढेरों अन्तर्विरोध और विसंगतियां मौजूद हैं. अधिनियम में ‘कानूनी गड्ढों’ और चोर रास्तों के रहते, स्त्री-विरोधी अपराधों पर लगाम लगा पाना मुश्किल होगा.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि हक़ मांगने वाली आवाजों को चुप कराना या रख पाना अब  नामुमकिन है. शायद मीडिया को डरा-धमका कर झुकाया जा सकता हो, मगर सोशल मीडिया का गला घोंटना असंभव है. 1860 के न्याय-शास्त्रों और सिद्धांतों  से, इक्कीसवीं सदी के वर्तमान भारतीय समाज, विशेषकर स्त्री-समाज को नहीं चलाया जा सकता. बदलते समय-समाज में संविधान के मौलिक अधिकारों का अर्थ, स्त्री-पुरुष के लिए बराबर होना ही चाहिए.  ‘सार्वजानिक आस्था और विश्वास’ की, उच्च न्यायालय के हर न्यायमूर्ति से यह अपेक्षा रहती है कि वह  निष्ठा और नैतिक मानदंडों पर खरा उतरेगा. आम व्यक्ति की आखिरी उम्मीद हैं न्यायधीश. यह बहाना नहीं चलेगा कि समाज का नैतिक पतन हो रहा है और वो भी उसी समाज से आते हैं, सो आदर्श व्यवहार की आशा नहीं करनी चाहिए. न्यायधीश की निष्पक्षता और नैतिकता संदेह से परे होना लाज़िमी है. भारतीय समाज “न्यायधीश की बौद्धिक ईमानदारी और नैतिक चरित्र” को, “स्त्री के कौमार्य और पवित्रता” की तरह ही देखता-समझता है. स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायधीशों के बिना, प्रजातंत्र और कानून के राज्य की रक्षा कैसे होगी?

अगर संविधान के रक्षकों पर ही, स्त्री अस्मिता के भक्षक बनने के गंभीर आरोप (सही या गलत) लग रहे हैं, तो यह अपने आप में बेहद संगीन है. न्याय मंदिरों के ‘स्वर्ण कलश’ ही कलुषित होने लगे, तो फिर ‘लज्जा’ कहाँ फरियाद करेगी? समय रहते इस महामारी का समुचित समाधान ढूँढने और उसे कारगर रूप से लागू करने की मुख्य जिम्मेवारी, निस्संदेह न्यायिक परिवार के मुखिया की है. देश की “आधी आबादी” बड़ी उत्सुकता और बेचैनी से, निर्णायक फैसले और सम्पूर्ण न्याय की इंतज़ार में बाट जोह रही है. विश्वास करना होगा कि इस बार, इंसाफ़ होने में देर या अंधेर नहीं होगा.
( नवभारत टाइम्स  से साभार  )

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