प्रियंका सिंह कवितायें और कहानियां लिखती हैं . दिल्ली में रहती हैं . संपर्क: priyanka.2008singh@gmail.com
१. तुम कुछ नहीं
तुम पढ़
गयी हो
बिगड़ गयी हो
अच्छा होता
दीवार सी चिपकी रहती
अपनो की तस्वीर से
तुम बाहर क्या जाने लगी
बदचलन हो गयी
बेहतर होता बंधी रहती
हीरा जैसी आँगन में
तुम्हें सोचने को कहा था
बोलने को नहीं….
क्यूँ
सोचती हो
दिमाग से तुम्हारा
वास्ता नही जब
सही था गर तुम बस
पौध जनती और जनती जाती
बदज़बानी न करो
तुम मिट्टी हो…उसी में रहो
तुम प्यास बुझा सकती हो
पर अमृत नहीं बन सकतीं
तुमसे रिश्ता जोड़ना
तुमपे एहसान है पड़ी रहो चुपचाप
औकात तुम्हारी
भोगन भर की और ज़िम्मेदारी
मेरे घर की
मुंह सी ले…नज़रें जमीं और
मन कब्र में दफन कर दें
तब जी तुझे जैसा जीना है
ज़हर भी जो लगे ज़िन्दगी
पी….रोज़ पी
तुझे ये जीवन यूँही पीना है…
२. उपयोगिता
मैं नहीं जानती
उपयोग करने की कला
किसे…..? कैसे….?
किस लिए……? कब तक ?
उपयोग करना नहीं आता
नहीं …….
कभी ख्याल नहीं आता
हाँ
उपयोग होना सीखा है
माँ से.……
माँ कहती है इसमें सुख है.…
सुख ?
हाँ…….सुख
दबा-दबा सा सुख
झाँकता-छुपता सा सुख
कभी मंद-मंद सा मुस्कुराता सुख और
वक़्त के गुज़रते जाते ही
उसके चाको में
पिसता सुख, घिसता सुख
करहता सुख, दम तोड़ता सुख
देखा है मर्तबा मैंने
उपयोग चीज़ों का बेहतरी से
पर इंसान का उपयोग
डराता है
समझ नहीं पाती हूँ
कैसे वस्तु का स्थान
एक साँस लेते जीवित व्यक्ति को
दे दिया जाता है
यह शर्मनाक है, घिनौना है
अमानवीय है, दर्दनाक और वीभत्स है
मैं उपयोगिता के
स्तर को बाँट चुकी हूँ
बाँट रही हूँ……..
कई अर्थों में और
मज़बूर हूँ समय के आगे
उसके सामने मेरे हाथ फैले है
जिस पर समय ने
उपयोगिता की मुहर लगा रखी है और
अब मैं उपयोग होने के अलावा
कुछ नही कर सकती तब तक
जब तक
मुझ पर बैठा
वक़्त का तानाशाह
मुझे अपनी कैद से आज़ाद नहीं करता
जब तक
मेरी उपयोगिता की
समय सीमा समाप्त नहीं हो जाती
मुझमें बसने वाली एक भी उपयोगिता की नब्ज़
अपना दम नहीं तोड़ देती
तब तक……..
मेरे हाथ यूँही फैले रहेंगे
समय की मुहर
मेरे हाथों की लकीरों में
समा कर मेरे अंतर-मन में जा बैठी है
जो अब मुझे सोचने नहीं देती
समझने नहीं देती
जैसे मेरे मन का एक हिस्सा
सुन्न हो गया है, सब शान्त हो गया है
बस
समय है और उसमें बहती
मेरी उपयोगिता……..