नीलिमा सिन्हा की कवितायें : वर्किंग वीमेन और अन्य

नीलिमा सिन्हा

कथाकार नीलिमा सिन्हा कवितायें भी लिखती रही हैं. संप्रति संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा में प्रतिकुलपति के रूप में कार्यरत . संपर्क neelima_sinha04@rediffmail.com  

वर्किंग  वीमेन

बड़े तड़के
दादी जी की चाय से लेकर
मुन्ने की टिफीन तक निबटाती है,
पेट में कुछ डालने की सुध हो, न-हो,
सैंडिल में पाँव और पर्स में कलम सरकाती है,
अफरा-तफरी में फिट-फाट
घर से निकलती है औरत
दफ्तर  जाने को।

स्मार्ट दिखना उसकी मजबूरी है
और बदनामी का बायस भी।
उपर से तेज-तर्रार दिखती औरत भीतर-भीतर डरती है
उसे शराब समझ कर गटक जाने वाली आँखों से,
हर उठी उंगली  से
कि ना जाने कब
उंगली  के इशारे पर वही हो।

दफ्तर  !
एक दुधारी तलवार!
जो हर पल काटती है उसके औरत-पने को
और बनने नहीं देती
कभी-भी उसे
पूरा का पूरा एक मर्द।
चाहता है दफ्तर
कि दिखे वह औरत की तरह
और काम करे मर्दो की तरह,
हँसे एक मदमाती हँसी
जिसमें सराबोर दफ्तर
फड़फड़ाए गुड़ पर लगी मक्खी की तरह
और दरकिनार कर दिया जा सके गुड़
कभी भी घिनौना करार देकर।
जारी है एक मुसलसल रेस
जिसमें अन्ततः जुत ही जाती है औरत
मजबूरन एक हार स्वीकार करने के लिए।

ऋषि   ने बनाया अहिल्या को पत्थर
राम ने बनाया पत्थर को औरत
और दफ्तर  बनाता है औरत को मशीन
– स्वेटर बुनने की मशीन, कपड़े धोने की मशीन,
खाना पकाने की मशीन, सिक्के ढ़ालने की मशीन
… एक सम्पूर्ण मानवोपयोगी मशीन
जो बच्चे भी पैदा कर लेती है अक्सरहाँ!
दो़ महीने गर्भ में रखने का
और दो महीने दूध पिलाने का हक होता है
बाकी सब दूसरों की दया
और ईश्वर की कृपा है।

कुछ भी तो नहीं करती ढ़ंग से यह औरत
करती है सब कुछ
पर कामचलाउ  ढंग से
‘कामचलाउ  औरत’
अर्थात
‘वर्किंग वीमेन’।

एक वेद चाहिए मुझे अपने लिए भी

ओ ब्राह्मण !
तुम्हारे चरण-रज लेकर आज्ञा चाहती हूँ तुम्हारे चरणों में बैठने की
नितांत जिज्ञासु भाव से
हे गुरू !

शास्त्रार्थ नहीं करूँगी तुमसे, हे याज्ञवल्क्य !
जानती हूँ –
यदि मैं हारती हूँ
तो हांक ले जाओगे तुझ मुझे भी अपनी सहस्त्र गौवों के साथ
और यदि मैं जीतती हूँ
डाल दोगे तुम मेरे गले में अपने हाथों की जयमाला,
छीन लिया जाएगा मुझसे मेरा सहजप्राप्य स्वयंवर भी।
हर हाल में स्वीकारना ही होगा मुझे
तुम्हारा स्वामित्व !

तुम चतुर ! हर हाल में छल ही लेते हो मुझे !
यद्यपि मैं मूर्ख नहीं कि समझ न सकूँ तुम्हारा छल
परन्तु छली न जाऊं तो करूॅ क्या?
रचा गया है वह माया – मृग मेरे ही लिए तो
जो तुम्हारी देवत्व सिद्धि का अंतिम साधन है।
घर हर स्त्री की लक्ष्मण-रेखा है
जिसे लाँघने पर सीता-हरण होता हो अथवा नहीं
देनी तो पड़ती ही है एक अग्नि परीक्षा
और भोगना तो पड़ता ही है
एक निर्वासन !

अतएव,ओ मनीषि !
पूछने दो मुझे एक प्रश्न
नितांत जिज्ञासु-भाव से।

बतलाओ ऋषि ! प्राप्य क्या है मेरा?
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – ये तो ‘पुरूषार्थ’ हैं, ‘पुरूष’ अर्थात तुम्हारे लिए,
किंतु मेरे लिए क्या है ऋषि ?
… पतिव्रत धर्म ? समर्पण-मात्र ?
… किंतु वह तो देय है, प्राप्य क्या है मेरा ?
… पति-प्रेम ?
किंतु वह तो कहीं भी उसके कर्मों में विहित नहीं,
स्त्री-प्रेम तो देय नहीं, आसक्ति है पुरूष की,
जिससे मुक्त होना ही है उसे हर हाल  में।
तब,
मेरे लिए क्या है ऋषि ?
… क्या यही लांछना, कि
मैं आसक्ति में डाल भटकाती हूँ उसे ?
बतलाना, हे ऋषि !
भटकता वह है, आसक्त वह
पर लांछित मैं क्यों ऋषि ?

हे शतपथ ब्राहमण  !
तुमने मुझे आशीष  दिया
सहस्त्र पुत्रों और अपने ही पति की माता बनने का
बतलाओं ऋषि !
परशुरामों की इस मातृहंता संस्कृति में क्या करूँ तुम्हारे इस आशीष का ?
यहाँ तो पिता की अंध-आज्ञा ही उबार ले जाती है
पाप-पुण्य, प्रायश्चित -पश्चाताप  के समस्त प्रश्नों  से।
क्या करूँगी मैं सहस्त्र पुत्रों
अथवा अपने ही पति की माता बन कर ?
मेरा वध करने को तो, बस एक पुत्र
और निरा एक पति
ही पर्याप्त हैं !

ओ ज्ञानी !
हिसाब नहीं मांगती तुमसे परम्पराओं का
क्योंकि सहभागिनी मैं भी तो रही हूँ,
मेरे भी तो हैं वे मूल्य, वे परम्पराएँ, वे आदर्श ।
और आज भी मैं उपज हूँ उसी संस्कृति की
जहाँ स्त्रियाँ देवी बना कर पूजी जाती हैं
प्रस्तर-प्रतिमा बनने को बाध्य।
कहो ऋषि ! क्या यह परम्परा मुझे स्वीकार होनी चाहिए ?

… किंतु मार्ग क्या है ?
कैसे जीवित रहूँगी अपनी मिट्टी से कट कर ?
क्या करूँगी आकाश -कुसुम से अस्तित्व का ?
कहाँ  होऊं  पुष्पित-पल्लवित ?
… ओ ऋषि !
मुझे मेरा मार्ग, मेरा बोध, मेरा प्राप्य, मेरा सच्चिदानन्द दे दो ऋषि !

जानती हूँ,
स्वयं ही ढूँढ़ने होंगे  मुझे अपने प्रश्नों  के उत्तर,
स्वयं ही निर्धारित करना होगा मुझे अपना मार्ग
किंतु
प्रश्न तो किए हैं मैंने तुम्हारी प्रतिमा से ही !

अतएव, हे द्रोण !
भयभीत हूँ
अपने अँगूठे के प्रति।

वसीयतनामा

मेरी बच्ची !
मैं देती हूँ तुम्हें उत्तराधिकार में
एक निरंतर प्रवाहमान अजर अस्तित्व,
एक तेजपुंज,
एक समरभूमि,
चंद लड़ाईयाँ
और दो हथियार !

ये हथियार –
तुम्हारी  शिक्षा और संस्कृति,
आजन्म पैनाए हैं मैंने
मैंने सिखलाया भी है तुम्हें
इन हथियारों का प्रयोग
मेरी लाड़ली !
एक सिपाही के सबसे बड़े साथी उसके हथियार होते हैं ।
कभी छोड़ना नहीं
अपनी शिक्षा और संस्कार
सामने चाहे तुम्हारा पिता हीं क्यों न हो
या कि
कोई अत्यन्त घृणित भयावह शत्रु
श्रद्धा या भयवश
न मोड़ना, न रखना
अपने हथियार – यह शिक्षा, यह संस्कृति।

याद रखना !
संभव नहीं इस युद्ध क्षेत्र से पलायन।
हर किसी को लड़नी हीं पड़ती है
अपने-अपने हिस्से की लड़ाई, खुद ही
वरना जो मैंने  पाला है तुम्हें फूलों की तरह
लड़ती रही निरन्तर
ताकि तुम जी सको एक सुखद जीवन
और पैनाती रही अपने हथियार्
मेरी लाल !
मैं लड़ गई होती
तुम्हारे हिस्से की भी लड़ाई, तुम्हारे मोहवश  !
क्योंकि लड़ना कभी सुखद नहीं होता
मैं जी गई होती
एक सुविधाजनक जीवन
दूर से देखती हुई तमाम लड़ाईयाँ
और लपक गई होती
किसी की भी विजय, अपने जिम्मे
पर मैंने चुना
यह युद्ध क्षेत्र
क्योंकि वह सुविधाजनक जीवन छीन लेता मुझसे मेरे होने का अर्थ
और, तुम्हें भी मुझसे, मेरी बच्ची !

अपने अस्तित्व के प्रति यह मोह हीं मुझे योद्धा बना गया
और यदि तुम चाहती हो
अपनी संतति,
मोह है तुम्हें अपने अस्तित्व से
लड़ना ही पड़ेगा तुम्हें भी
यह युद्ध, ऐसे हीं निरन्तर
पैनाने होंगे अपने हथियार
और विरासत में देनी होगी यह लड़ाई
अपनी अगली पीढ़ी को।

यद्यपि लड़ना
सुविधाजनक नहीं होता
परन्तु मृत्यु पर जीवन की विजय
और अस्तित्व की निरंतरता ही
सभी सुविधाओं के चरम अर्थ हैं।

प्रश्न  नहीं उठाना जय-पराजय के
क्योंकि
युद्ध, सिर्फ ‘विजय’ नहीं होता।
सच तो यह है कि
‘विजय’ होता ही नहीं युद्ध
अतः, डरना नहीं कभी पराजय से
अथवा मृत्यु से
और याद रखना यह अमृत मंत्र
कि
मृत्यु छल सकती है तुम्हें एक बार, सिर्फ एक बार
पर तुम छलती हो मृत्यु को प्रतिदिन, प्रतिपल
और तब भी छलती रहोगी
जब मृत्यु सोच चुकेगी कि अंततःउसने तुम्हें पराजित किया;
क्योंकि
मर कर हीं अमर होती है
हुतात्मा।
याद रखना मेरी बच्ची!
पीछे हटना पराजय नहीं, रणनीति है,
पराजय है चुप बैठ जाना और निरंतर बैठे रहना।

उठा सकता है कोई प्रश्न
क्या पाया है मैंने इस युद्ध से ?
और, क्या दूँगी तुझे ?
तुम क्यों लड़ो यह युद्ध ? किसलिए ?
तुम्हें घृणा हो सकती है युद्ध से मुझे क्षत विक्षत देखकर
पर मेरी आस !
यह ठीक है
कि शान्ति  युद्ध से बड़ी है
और जीवन का पाथेय प्रेम हीं है जिसे व्यक्ति निरंतर खोता है, युद्ध में।
पर यह भी याद रखना
शांति से भी बड़ी चीज है
आत्म-सम्मान और अस्तित्व की गरिमा,
और आजादी प्रेम से भी बड़ी प्यास है।
तुम लड़ना
इस गरिमा, सम्मान और आजादी की लड़ाई।
अगर प्रेम का पाथेय लेकर लड़ सको तो अच्छा है,
और सर्वोत्तम है
यदि गरिमा, सम्मान, प्रेम और आजादी सभी पा सको
फिर भी,
लड़ना तो पड़ेगा हीं इन्हें सुरक्षित रखने का भी युद्ध,
यह याद रखना कि ये चीजें विरासत में नहीं मिलतीं।
विरासत में मिलते हैं –
माहौल, रणभूमि और हथियार।

मेरी बच्ची !
मैं सौंप रही हूँ तुझे
विरासत में वही माहौल, एक रणभूमि
चंद लड़ाईयाँ,
और
दो हथियार
– अपनी  शिक्षा और अपनी संस्कृति !
मेरी बच्ची !
हारना नहीं !

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ISSN 2394-093X
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