अनिता भारती की कवितायें : हमें तुम्हारी बेटियां पसंद हैं और अन्य

अनिता भारती


दलित स्त्रीवाद की सैद्धंतिकी की अनिता भारती की एक किताब, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध प्रकाशित हो चुकी है. कविता , कहानी के इनके अलग -अलग संग्रहों के अलावा बजरंग बिहारी तिवारी के साथ संयुक्त  सम्पादन में दलित स्त्री जीवन पर कविताओं , कहानियों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं. सम्पर्क : मोबाइल न. 09899700767.

(अनिता भारती को रमणिका फाउंडेशन की ओर से स्त्री मुद्दों पर सक्रियता और लेखन के लिए ‘ सावित्री बाई फुले सम्मान से सम्मानित किया गया है . स्त्रीकाल की ओर से उन्हें बधाई देते हुए  पाठकों के लिए  उनकी कवितायें. अनिता जी साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं – खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. स्त्रीकाल का ‘ दलित स्त्रीवाद अंक’  इन्होंने अतिथि सम्पादक के रूप में सम्पादित किया है और दलित स्त्रीवाद की सैद्धंतिकी की इनकी एक किताब, ‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध ‘ प्रकाशित हो चुकी है.)

हमें तुम्हारी बेटियां पसंद हैं

सुनो,
श्यामा गौरी
पार्वती ओमवती
निर्मला कमला बिमला
सुनीता बबीता गुड्डो गुड्डी
धन्नो बिल्लो रानी मुन्नी
बबली पिंकी शन्नो रानों

हमें पसंद है
तुम्हारी बचपना लांघती बेटियां
स्पष्ट कहें तो
तुम्हारी जवानी की दहलीज पर खड़ी
बेटियां हमें बहुत भाती है
ठीक वैसे ही
जैसे खेत में कटने को तैयार खड़ी
दानों से भरपूर फसल

दुधारू गाय खरीदने-बेचने से पहले
तय होता है मोल-भाव
उसके दूध से
हमें भी करना है तुमसे
खरा-खरा मोल-भाव

सुनो….
हमें करने दो न मोल-भाव
यह जरूरी भी है
हमारे बच्चों के साथ जो रहना है इन्हे
मिटाने दो हमें हमारे सारे संशय
कर लेने दो पूरी छानबीन हमें

किस जात
और नस्ल की हो तुम ?
तुम्हारे पुरखों का क्या इतिहास है ?
तुम्हारी बेटियां स्वस्थ तो है न ?
उन्हें कोई बीमारी तो नहीं ?
अब तक कुंआरी ही होगी न?

बताओ, तुम्हारी बेटियां
काम करने में कैसी हैं ?
कामचोर तो नहीं ?
साफ-सुथरे रहने की आदत है या नहीं ?
लालची तो नहीं खाने की ?
शौकीन तो नहीं हैं ना
मोबाइल लिपस्टिक टेलीविजन की ?

हमें जरूरत है
ऐसी ही लड़कियों की
जो हों अल्प वयस्क
जो मन लगाकर काम कर सकें सारे

अब हम करें भी तो
क्या करे ?
हमारे अपने बच्चे ठहरे
निपट निकम्मे
एक गिलास पानी तक
खुद नहीं पी सकते
अपने गंदे कपड़े उतार
फेंकने की आदत है उन्हें इधर-उधर
उठाती रहती हैं हम दिन भर उन्हें
रात-दिन खाने की फरमाईशें
पूरी करते करते थक जातीं हैं हम !

फिर तुम्हारे साहब के काम
सो अलग
प्रैस कपड़े, पॉलिश किए चमकते जूते
मोबाइल, घड़ी
अंगूठियां, वर्क-डायरी
सब सामान रहे व्यवस्थित
चुटकियों में
मांगने पर मिल जाये बजाते
जिनके न मिलने पर सुनने पड़ते है कटुवचन
पहले बजा लेती थी सारे हुक्म
अब नहीं कर पाती मैं
यह सब
घुटने भी तो जबाब दे चुके हैं हमारे

सुनो मुझे तुम्हारी बेटी चाहिए
जो कर सके मुझे भारमुक्त
संभाल ले मेरा घर-बार
अच्छा पैसा दूंगी मैं
उनसे ज्यादा, जो पहले दे रहीं है तुम्हें

सुबह की चाय
दोपहर की दो रोटी
शाम की चाय वह हमारे यहाँ ही पियेगी
दो बिस्कुट के साथ
साल में दो जोड़ी कपड़े बोनस के तौर पर
जितना मैं दे रही हूँ कोई नहीं देगा

देखो,
तुम अब ज्यादा जिद्द मत करो
कल से भेज देना बिटिया को मेरे घर

 जहांगीरपुरी की औरतें : १

जहांगीरपुरी की औरतें
मेहनत की धूप में
तपकर
फीकी हो चुकी अरगनियों पर

झूलती कपड़ों- सी
लचक-लपक-झपक
लम्बे-लम्बे डग भरती
जल्दी-जल्दी
घरों में, दुकानों में, कारखानों में
काम करने के लिए खप जाती हुई

किसी दिन
मुश्किल से मिली छुट्टी में
कभी-कभी अपने नन्हें मुन्नों को
गोद में लादे
छाती से चिपकाये, उंगली थामे
खुशी से गालों में हजारों गुलाब समेटे
ले जाती हैं दिखाने
मैट्रो में लालकिला या कुतुब मीनार

जहांगीरपुरी की औरतें
रोटी सेंकने के बाद
बुझे चूल्हे सी
मन में अंगार दबाये धधकती
हाथ लगाओ तो जल जाओ

जहांगीरपुरी की औरतें
बार-बार धुलने से फीकी हुई
गली साड़ी सी
जो बार- बार सिलने पर भी
फट-फट पडे

जहांगीरपुरी की औरतें
सुबह-सुबह
ताजा सब्जी- सी दमकती
पर शाम होते ही
मुरझायी बासी सब्जी- सी
जिनकी कीमत शाम होते होते
कम हो जाती है

जहांगीरपुरी की औरतें
सर्दियों की रात में
सुनसान पडी सड़क की तरह
जिसमें चलना न चाहे कोई

पर वे चलती है उन पर
निड़र बेखौफ
पार करती है उन्हें
हँसते-हँसते
जिन्दगी के अन्त से बेखबर

 जहांगीरपुरी की औरतें : २

जहांगीरपुरी की औरतें
चल पडती है निन्हेबासी
और बच्चियां
झुग्गियों के अंधेरे कुएं से निकल
फैल जाती हैं
आस-पास की पॉश कलोनियों में

महज झाडू-पोछा ही नहीं करतीं
करने निकलती है
मल की सफाई भी
पन्नी चुगने
और फैक्ट्रियों में ठुसने

ये काली गोरी पतली छोटी लम्बी
चेहरे पर वीरभाव रुआंसापन मुर्दानापन
तटस्थ- सा पीलापन लिए
बैठती हैं बस में
एक-एक रुपये के लिए
खाती हैं कंडक्टर से घुड़कियां
पहुँचती हैं अपने-अपने गंतव्य

सुबह से निकली
लौटेंगी शाम को
धूल-धूसरित सूरज के साये में
अलसायी, थकी टूटी देह लिए।

मिट्टी 

तुमने हमेशा वही किया
अपने अधिकारों को खूब भोगा
दूसरों के अधिकारों पर
लगा दी पाबंदी

न चले सड़क पर हम
न अच्छा पहनें
और न तो पढ़ पायें
रहें बस गंदी कोठरियों में

हमारे बच्चे हमारे तालाब
हमारे कुएँ
कुछ भी तुम्हें बर्दाश्त नहीं
तुम्हारी आंखों की
किरकिरी हैं हम
तुम्हारी आँखों में पड़ी
मिट्टी हैं हम

यही मिट्टी
जब लेती है आकार
गढ़ती है सपने
बनाती है घरौंदे
देती है समता, बंधुत्व का संदेश
करती है नवसृजन
उगाती है पौधे

जब भरती है हुंकार
उड़ाती है मीनारें
गिराती है महल
माना मिट्टी मूक है
पर मिट्टी की ताकत असीम है

    फर्क 

अरी सुनो बहनों,
थोड़ा पास आओ
मत शरमाओ
शरमा जाने से
किसी के गुनाह कम नही हो जाते

अरी सुनो,
तुम्हे पसंद है
गोरा-गोरा गोल-गोल
सुंदर चांद
और उसकी चांदनी को पीना

हमें पसंद है
परिश्रम की आग में तपे
लाल तवे पर सिकती
रोटी की गंध

तुम्हे पसंद है
तुम्हारे भव्य मंदिर में रखे
दिव्य देव
और हमें पसंद है
उन पर उंगली उठाना

तुम्हे पसंद है
शब्दों के खेल में
जीवन के पर्याय बताना
प्यार सेक्स बलात्कार
यौनिकता पर थोड़ा
रुमानी होते हुए चर्चा छेड़ना
और हमें पसंद है
इस खेल के व्यापार को
एक विस्फोटक डिब्बे में
बंद कर
एक तिल्ली से उड़ा देना

अब बताओ
कितना फ़र्क है
तुम में और हम में ?

6. भेददृष्टि

सच बताओ तुम
क्या सच हमारी जमात
स्त्री विरोधी है ?
स्त्री एकता, स्त्री आंदोलन को
तोड़ने वाली
या फिर उसे विभाजित कर
भटकाने वाली ?

तुम्हारी जमात ने कहा
हमें स्वतंत्रता चाहिए
हमारी जमात ने कहा
स्वतंत्रता हमें भी चाहिए
तुमसे और
तुम्हारे जाति आधारित समाज से

तुम्हारी जमात ने कहा
हमें समानता चाहिए
हमारी जमात ने कहा
समानता सिर्फ़
स्त्री की पुरुष से ही क्यों ?
दलित की सवर्ण से क्यों नहीं ?

तुम्हारी जमात ने कहा
लम्बे संधर्ष के बाद
हम अब
उस मुकाम पर आ गये हैं
कि जहां हम अपनी देह
एक्प्लोर कर सके
हमारी जमात ने कहा
बेशक देह एक्सप्लोर करो
पर उस झाडू लगाती
खेत रोपती पत्थर तोडती
रोज बलत्कृत होने को मजबूर
देह को भी मत भूलो

तुम्हारी जमात ने कहा
अब हम उनकी बराबरी करेंगे
जो हमेशा हमें दबाते आये है
हमारी जमात ने कहा कि
पहले उनको बराबर लाओ
जिनको हमेशा से
सब दबाते आए है

तुमने कहा पितृसत्ता
हमने कहा
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता

तुम्हारी जमात ने कहा
बस याद रखो
स्त्री तो स्त्री होती है—-
न वह दलित होती है न ही सवर्ण
हमारी जमात ने कहा
समाज में वर्ग है श्रेणी है जाति है
इसलिए स्त्री
दलित है ब्राहमण है
क्षत्रिय है वैश्य है शूद्र है

और बस इस तरह
तुम्हारी और हमारी जमात की
सतत लड़ाई चलती है
अब तुम्हीं बताओ
क्या हम स्त्री विरोधी हैं ?

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ISSN 2394-093X
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