सुजाता पारमिता की दो लघु कथायें: अल्लादीन का चिराग और विक्रमादित्य का सिंहासन



अल्लादीन का चिराग

इक्कीसवीं सदी में अल्लादीन का खोया हुआ चिराग रसिक लाल के हाथ लग गया। जिसे बीती रात ही मातादीन मोची अपनी बीमार माँ के इलाज के लिए घर के बचे-खुचे बर्तनों के साथ बदरू कबाड़ी को बेच गया था। अगली सुबह जनेऊ कान पर लपेटे मुँह में नीम की डंडी दबाये और हाथ में लोटा लिए रसिक भाई जब बदरू की दुकान के सामने से गुजर रहे थे अचानक उनकी नज़र चिराग पर पड़ी, जो कोने में पडे भंगार के बीच में से झांक रहा था। उनकी पारखी आँखों ने वह भाँप लिया, जो मातादीन मोची और बदरू कबाड़ी की समझ से भी परे था।

जंगल से लौटते रसिक भाई ने बदरू से मोल-भाव कर कुल चालीस रूपये में उस चिराग को खरीद लिया। अब तो रसिक भाई की पांचों अंगुलियां घी में तो सर कढ़ाई में। चैबीसों घंटे चिराग को सीने से लगाए रखते। किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद में रात -दिन सपने देखते . एक दिन भरी दुपहरिया में गांव के छोर पर जहां से जंगल शुरू होता रसिक भाई एक घने पेड़ की छाया तले आराम से सो रहे थे। बाजू में चिराग भी रखा हुआ था। बड़ी भयंकर गर्मी पड़ रही थी। अचानक कुछ आवाजें सुनकर वे उठ बैठे। सामने से दो लोग उनकी तरफ भागते हुए आते दिखे। पास आने पर देखा तो वे एक युवा लड़का-लड़की थे। उम्र मुश्कील से 18-20 साल की होगी दोनों एकदम रसिक भाई के पैरों के पास आकर धप्प से बैठ गए। दोनों बुरी तरह से हांफ रहे थे। शरीर पर पसीने से गीले कपड़े चिपक गए थे।

‘हमारी मदद करिए’ लड़के ने दोनों हाथ जोड़कर रसिक भाई से कहा। उसके हाथ कांप रहे थे। उसकी आंखों में दया भरी उम्मीद देखकर रसिक भाई का दिल भर आया।
पण….मैं क्या कर सकता हूँ परेशान रसिक भाई बोले। अचानक लड़की की नजर पास रखे चिराग पर पड़ी। उस लड़की ने आश्चर्य से चिराग को देखते हुए इशारा किया।
जादुई चिराग!
हाँ।
वह जिन्न वाला!
हाँ।
दोनों के चेहरों पर आशा की लहर चमक उठी।
तब तो…

तभी पीछे से लोेगों की आती हुई भारी भीड़ का शोर सुनकर दोनों ने मुड़कर देखा। 50-60 लोगों का हुज्जूम हाथों में डडे तलवारें और त्रिशूल लिए उनकी तरफ भागता हुआ आता दिखा। दोनों के चेहरों पर कंपन साफ दिखने लगा। कुछ तो करिए नहीं तो वे हमें मार डालेंगे। लड़के ने रसिक भाई के घुटने जोर से हिलाए। ‘क्यों ऐसा क्या किया है तुम लोगों ने।’
‘‘ प्यार। दोनों एक साथ बोले ‘‘
‘‘ पर ! प्यार करना कोई जुर्म तो नहीं ‘‘
‘‘ लेकिन हमारा है ‘‘
‘‘ क्यों? ‘‘
क्यों कि मैं ब्राह्मण हूँ और यह दलित, लडकी ने लडके की तरफ इशारा करते हुए कहा।
‘‘ क्या? आश्चर्य से रसिक भाई का मुँह खुला का खुला रह गया।
‘‘ तब तो मैं भी कुछ नहीं कर सकता ‘‘
‘‘ नहीं, नहीं ! ऐसा मत कहिए। पास आती भीड़ को देखकर दोनों ने हाथ जोड़कर जल्दी-जल्दी कहा।
आपके पास तो चिराग हैं।

‘‘चिराग में जिन्न है, वो तो कुछ भी कर सकता है। उससे कहिए कि हमें यहां से उठाकर कहीं दूर किसी भी शहर में छोड़ दे ताकि हम इन लोगों हाथ न लग सकें। नहीं तो वो हमारे टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। जिंदा जला देंगे।”
भीड़ काफी पास आ चुकी थी, दोनों ने रसिक भाई के पांव पकड़ लिए, ‘ कुछ तो करिए हम पर दया कीजिए।’
“लेकिन मैं क्या करूं।”
‘‘बापू, लडकी गिरगिडाई, मेहरबानी कीजिए अपने जिन्न को जल्दी से बुलाइए ना।
“मैं मजबूर हूँ तुम्हारी मदद नहीं कर सकता। जाति और धर्म के मामले में तो मेरा जिन्न भी मेरी बात नहीं मानता।”

विक्रमादित्य का सिंहासन

पंडित रामअवतार तिवारी गांव के प्राइमरी स्कूल के हेड मास्टर थे। गांव भर के लोग इज्जत से उन्हें मास्टरजी कहते।  मास्टरजी हनुमानजी के परम भक्त थे। गांव में मीडिल स्कूल तो बनवा नहीं पाये, अलबता एक अखाड़ा जरूर बना लिया। और फरमान जारी करा दिया कि स्कूल एक घंटा लेट लगेगा। गांव भर के सभी बच्चे पहले अखाड़े जाएंगे। लंगोट पहन, तेल लगाकर कसरत करेंगे, फिर स्कूल जाएंगे।

मास्टरजी खुद भी अपने तीनों बेटे को लेकर रोज सबेरे पहले अखाड़े जाते, कसरत करते फिर अपने मित्र और अखाड़े के गुरु  चै0 झंडूसिंह पहलवान के साथ बैठकर लोटा भर घी डाला गर्म-गर्म दूध पीते, फिर दोनों

पालिटिक्स और देश की गिरती हुई अर्थव्यवस्था पर बात करते। मास्टरजी के सबसे छोटे बेटे बल्लुजी उर्फ राधेश्याम तिवारी की कसरत में तो कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन अखाड़े के बाईं तरफ गांव के एक मात्र कुएं पर रोज सबेरे गांव भर की लुगाईयां जब टखने तक ऊँची धोतीकर भांडे-लत्ते धोती तो बल्लूजी कसरत भूल, आंखें तिरछी कर उन्हें ताड़ते रहते। जब कोई जवान औरत नहाती तो  बल्लूजी के कानों से गर्म-गर्म भाप निकलने लगती। बल्लूजी को तो बस दो ही चीजों का शौक था। एक पाॅलिटिक्स और दूसरा औरतों का, पर मास्टरजी ने भरी जवानी में उनकी लुटिया डूबो दी उन्हें बह्मचर्य की दीक्षा दिलाकर। बल्लूजी का दिल चूर-चूर हो गया, पर मास्टरजी ने समझाया अरे तू तो लंबी रेस का घोड़ा है,

 ‘ ाॅब्रहमचारी सब्र कर , वक्त जरूर लगेगा पर  देखना एक दिन तो  तू टाॅप पर  पहुंचा ही पहुंचा । जैसे-तैसे मन को समझाते बल्लूजी कभी कभी चोरी छुपे घर के पिछवाड़े बने स्टोररूम में, जहां बरसों से घर की पुरानी बेकार पड़ी चीजें रखी थी, कुछ रंगीन पत्रिकाएं मजे ले-लेकर देखते। घर में किसी को शक-सुबहा होता नहीं, कह देते कि ध्यान लगाने जा रहे हैं एकांत में।एक दिन स्टोर में बल्लूजी की नजर एक सिंहासननुमा कुर्सी पर पड़ी, जिस पर अम्मा ने एक बड़ा-सा कनस्तर रख दिया था। उन्होंने कनस्तर उतारा, ‘‘अरे बड़े आराम की है यह कुर्सी, अच्छी तरह से झाड़-पोंछ कर किताब ले लेकर बैठे ही थे कि अचानक से कुछ चमका, पूरे शरीर में गजब की फूर्ती आ गई , दिल छपपटाने लगा। गर्मी से शरीर पसीना-पसीना हो गया। फिर धीरे-धीरे आंखें लाल होने लगी। कुछ अजीब-सी आवाजें सुनाई देने लगी। सर में कभी घंटिया बजती तो कभी बिजली चमकती। आंखें बंद कर टेक लगाकर बल्लू जी कुछ देर तक बैठे रहे। दिमाग में कुछ सिगनल से मिलने लगे। जैसे कुछ दिशा निर्देश हो। कुछ देर तक ध्यान लगाया तो सब कुछ साफ दिखाई देने लगा। रात भर करवटें बदलते रहे बल्लू जी, पर नींद नहीं आई, रह-रहकर कुर्सी बुला रही थी। बड़ी मुश्किल से रात काटी, सवेरे अखाड़े जाकर जल्दी से लौट आए और सीधे स्टोर रूम में जाकर दरवाजा बंद कर कुर्सी पर बैठ गए, ऐसा अब रोज-रोज होने लगा। देर तक स्टोर रूम में ही बंद रहते। घर वाले बड़े खुश! कि लड़का ब्रह्मचर्य के साथ-साथ ध्यान भी लगा रहा है, लेकिन यह तो बैठनेवाले को ही पता था कि कुर्सी क्या गुल खिला रही है । उनमें एक अजीब-सा बदलाव आ जाता, कुर्सी पर बैठने के बाद, उनका पूरा चरित्र ही बदल जाता। आंखों से अंगारे निकलते तो जबान आग उगलती।

एक-एक करके, अपने सभी दोस्तों को स्टोर में ले जाने लगे बल्लू जी और उनका जलवा सभी को दिखने भी लगा। एक दिन कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने ऐलान कर दिया। ‘‘साथ वाले गांव की मसजिद तोड़ डालो‘‘ और जो भी मुल्ला मिले काट डालो। आदेश देकर खुद तो सो गए, चेले चपाटो ने वाकई ‘‘मसजिद तोड़ डाली, फसाद बढ़ गया। 6-7 मुसलमान मारे गए। दोपहर तक पुलिस पहुंची चेलों को जब जमकर डंडे पड़े तो सच उगल दिया। पुलिस बल्लू जी के घर पहुंची और उन्हें थाने ले गई। सारी रात उनसे पूछताछ करने के बाद भी पुलिस को कुछ हाथ न लगा, उल्टा पुलिस को ही विश्वास हो गया कि बल्लू जी एक अहिंसावादी और सेक्युलर व्यक्ति हैं । जिसे इस घटना का बड़ा अफ़सोस है। दूसरे दिन सबेरे खुद ही पुलिस वाले पूरे सम्मान के साथ बल्लू जी को घर छोड़ गए। अब तो बल्लू जी पूरे गांव के नेता बन गए। अबकी कुर्सी पर बैठे तो आदेश दिया, ”  गांव के छोर पर भंगी, चमारों की बस्ती में आग लगा दो और उनकी औरतों को उठा लो।”  चेलों ने वही किया जिसका आदेश मिला था।

पुलिस घटना के तीन दिन बाद पहुंची उस वक्त बल्लू जी खुद बस्ती में अपने चेलों के साथ राहत कार्य में जुटे हुए थे। इस बार भी पुलिस ढ़ूंढ़ती ही रह गई, कोई सुराग हाथ न लगा। अलबत्ता बल्लू जी का क़द और ऊंचा हो गया। पूरे राज्य के नेता बन गए। रात को कुर्सी पर बैठे बल्लू जी सोच रहे थे काश! आज पिताजी जिंदा होते?

( सुजाता पारमिता थियेटर और आर्ट क्रिटिक तथा साहित्यकार हैं . संपर्क : sujataparmita@yahoo.com )

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