नाबालिग पत्नी से, बलात्कार का कानूनी अधिकार (हथियार): अरविंद जैन

  ( इन दिनों ‘ वैवाहिक बलात्कार ‘ को लेकर काफी मुखरता बनी है – जो स्वागत योग्य है,  तो विरोध के भी स्वर हैं . स्त्रीकाल ने इसके कानूनी और सामाजिक पहलुओं पर बात की वरिष्ठ स्त्रीवादी चिंतक और अधिवक्ता अरविंद जैन से.  व्यक्त की जा रही शंकाओं के प्रसंग में भी बातें की गई हैं . अरविंद जैन कहते हैं कि वयस्कों से वैवाहिक बलात्कार का मामला गंभीर है ही लेकिन कानूनी पेचदगियों के कारण 15 से बडी और 18 से कम उम्र की लडकियों से बलात्कार का वैध स्वरूप ज्यादा खतरनाक है , कम से कम उसे दुरुस्त कराने की जरूरत है . ‌) 
बलात्कार और ‘वैवाहिक बलात्कार’ कानून को आप कैसे परिभाषित करते है?

आज के दिन 18 साल से बड़ी (बालिग़) लड़की अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है, बिना विवाह के यौन सम्बन्ध बना सकती है, ‘सहजीवन’ में किसी के भी साथ रह सकती है, बच्चा गोद ले सकती है, स्वयं बच्चा कर सकती है, artificial insemination का रास्ता अपना सकती है- मतलब बालिग़ लड़की अपने ‘कानूनी अधिकारो’ का उपयोग कर सकती है।

लड़की के बालिग़ होने या विवाह योग्य उम्र 18 साल थी/है, मगर 1949 से 2013 (संशोधन से पहले) तक तो 16 साल से बड़ी उम्र की (नाबालिग) लड़की, अपनी मर्ज़ी से किसी के भी साथ यौन सम्बन्ध बना सकती थी।16 साल से बड़ी उम्र की (नाबालिग) लड़की की सहमति  को भी,सहमति  माना जाता रहा है।नाबालिग लड़की-विवाह-योग्य नहीं थी, पर अपनी मर्ज़ी से यौन सम्बन्ध बना सकती थी। 16 साल की लड़की का विवाह करना भले ही ‘अपराध’ है/था,परन्तु बिना विवाह के भी यौन सम्बन्धों की भरपूर आजादी थी। शायद बेटियों को कहीं जरूरत से ज्यादा ही आज़ादी दे रखी थी, इसलिए 2013 में ‘सहमति से सम्भोग’ की उम्र, 16 साल से बढ़ा कर 18 साल करनी पड़ी। बहुत साफ़ है कि ‘देश की बेटियों’ को ‘यौन हिंसा’ से भी बचाना था और ‘कानूनी विसंगतियो और अंतर्विरोधों’ को भी समाप्त करना था।आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 में सहमति से सम्भोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 साल कर दी गई, मगर 15 साल से बड़ी उम्र की (नाबालिग) अपनी पत्नी से सहवास को अभी भी बलात्कार नहीं माना। अपनी ‘बेटियों’ को तो यौन सम्बंधों से सुरक्षित रखना है,पर नाबालिग पत्नी (बहुओं) से सहवास (बलात्कार) करने का कानूनी अधिकार (हथियार), बनाये-बचाये रखना है।वरना विवाह संस्था या परिवार चलेगा कैसे! 

अगर ऐसा है तो फिर परेशानी या विवशता क्या है?
 मुझे लगता है कि सरकार की असली मजबूरी यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद बाल विवाहों को रोकना असंभव है, इसलिए बाल विवाह दंडनीय अपराध घोषित करने के बावजूद, ‘अवैध’ नहीं, ‘अवैध होने योग्य’ ही हैं। वो कहते हैं कि हम क्या करें! अधिकांश ग्रामीण जनता गरीब..अनपढ़..अन्ध-विश्वासी है और विवाह के ‘अटूट बंधन’ को ‘पवित्र संस्कार’ मानती-समझती है।‘वोट बैंक की राजनीति’-जिंदाबाद..जिंदाबाद। तभी तो सरकार ने नहीं मानी विधि आयोग की 205वी रिपोर्ट की सिफारिश और जे. एस. वर्मा आयोग की राय क़ि “भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए”। संक्षेप में यही है भारतीय समाज (संसद से अदालत तक) का दोहरा चरित्र(हीन) और असली चेहरा। अब आप ही बताएं कि 15 साल की नाबालिग पत्नी से बलात् यौन हिंसा की ‘शर्मनाक’ कानूनी छूट को, कैसे न्यायपूर्ण माना-समझा जा सकता है? सत्र-न्यायाधीश से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक के न्यायमूर्ति, ना अपील सुनने को राज़ी हैं ना दलील। ‘बलात्कार की संस्कृति’ को पोषित करते और बढ़ावा देते इन अर्थहीन, विसंगतिपूर्ण और अंतर्विरोधी कानूनों से, ना बाल विवाह रोके जा सकते हैं और ना ही बाल वेश्यावृति.

इन कानूनों की समवैधानिक वैधता को चुनौती देने की बात कैसे आई?
दरअसल दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन (अब सुप्रीम कोर्ट में) और वी.के.शाली ने  बाल विवाह पर अदालत के अनेकों अंतर्विरोधी निर्णयों को देखते हुए, मामला दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्ण खंडपीठ को भेजा था। बाद में पूर्ण खंडपीठ (न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन, संजीव खन्ना और वी.के.शाली) के समक्ष 2008 में बाल विवाह की वैधता  को लेकर, लज्जा देवी बनाम सरकार, महादेव बनाम सरकार और ऐसे ही कुछ और मुकदमें विचाराधीन थे। मैं महादेव का वकील था, जिसकी साढ़े पंद्रह साल की बेटी ने किसी लड़के के साथ भागकर शादी कर ली थी। पुलिस में मामला दर्ज हुआ और जब वह मिली, तो वह गर्भवती थी। मजिस्ट्रेट ने उसे नारी-निकेतन भेज दिया,जहाँ  वह बालिग़ होने तक रही। उसकी डिलीवरी भी नारी निकेतन में ही हुई थी। पूर्णपीठ के समक्ष बाल विवाह की वैधता को लेकर बहुत से विरोधाभासी सवाल थे। इस विषय पर सालों से लिखता-बोलता रहा हूँ। मुझे लगा कि इस मामले में मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) पर बहस शुरू की जा सकती है।बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी के लिए  उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 होनी अनिवार्य है. 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रूपये तक का आर्थिक दण्ड या फिर दोनों हो सकते हैं. मगर ना तो विवाह ‘अवैध’ माना जाता है और ना ही शादी के वक़्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है, तो इसे अपराध नहीं माना जाता है।  महादेव का वकील होने के नाते मैंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक और याचिका दायर की, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद (15 साल से बड़ी पत्नी के साथ सेक्स को बलात्कार नहीं माना गया है) की समवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 में उस वक्त यह प्रावधान किया गया था कि 12-15 साल तक की बीवी के साथ संबंध बनाने पर, पति को दो साल की कैद या जुर्माना हो सकती है। यह जमानत योग्य अपराध था और जिसमें अधिकारिक रूप से जमानत मिल सकती थी. इस प्रावधान की समवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी गई. सीआर.पी.सी की धारा 198 (6) में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी कोर्ट ‘मैरिटल रेप’ के मामले को संज्ञान में नहीं लेगा। इसका मतलब यह हुआ कि आप अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ अदालत भी नहीं जा सकते हैं। इसमें पत्नी की उम्र का भी कोई जिक्र नहीं किया गया था, मतलब पत्नी किसी भी उम्र की हो सकती है।15 साल से कम उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ बलात्कार के मामला में भी पुलिस कोई भी करवाई नहीं कर सकती थी। ऐसे मामलों में गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता और जटिल कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। यही नहीं, हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा में 6 (सी) के तहत एक और विचित्र प्रावधान है कि अगर पति और पत्नी नाबालिग हों तो पति पत्नी का अभिवावक होगा। कानून के इन सभी प्रावधानों की समवैधानिक वैधता को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी।लम्बी सुनवाई के बाद पूर्णपीठ का ऐतिहासिक फैसला (लज्जा देवी बनाम सरकार)2012 में आ पाया, मगर ‘वैवाहिक बलात्कार’ वाली याचिका पूर्ण पीठ ने खंडपीठ (न्यायमूर्ति रविन्द्र भट्ट और एस.पी.गर्ग) के पास भेज दी।  दिल्ली हाई कोर्ट की खंडपीठ (न्यायमूर्ति रविन्द्र भट्ट और एस.पी.गर्ग) में मामले पर बहस चलती रही।सरकारी वकीलों ने लगातार यह कर तारीख ली कि सरकार कानून में उचित संशोधन कर रही है। आपराधिक संशोधन विधेयक 2010, 2011 और 2012 के प्रारूप अदालत में पेश किये गए थे। सात दिसम्बर 2012 को आपराधिक संशोधन विधेयक पर बहस चल ही रही थी, कि 16 दिसम्बर 2012 को ‘निर्भया बलात्कार कांड’ आ खड़ा हुआ। देशभर में जोरदार आंदोलन हुए जिसके दबाव-तनाव में सरकार ने अध्यादेश जारी किया। वर्मा कमीशन की रिपोर्ट भी आई और अंततः 3 फ़रवरी 2013 से आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 लागू हुआ। महादेव केस के तमाम मुद्दे ‘निर्भय कांड’ के पीछे कहीं दब-छुप गए.

‘निर्भया काण्ड’ के बाद हुए आमूल-चूल संशोधन 2013 से कानून में क्या बदलाव हुए? 
हाँ! यह समझ लेना भी ज़रूरी होगाया है कि अपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 से पूर्व और संशोधन के बाद कानून के प्रावधानों में क्या फर्क आया। एक ही महत्वपूर्ण बदलाव हुआ कि अब 15 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में, सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी। संशोधन के बाद इस प्रावधान को भारतीय दण्ड संहिता से हटा लिया गया। मगर मुझे लगता है कि कुल मिला कर स्त्री अधिकारों के सम्बन्ध में स्थिति, पहले से ज्यादा खराब और विष्फोटक हुई है।
अपराधिक संशोधन अधिनियम 2013 में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ मान लिया गया है। इसमें सहमति से सम्भोग की उम्र 16 साल से बढाकर 18 साल कर दी गयी है जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल ही है। अपराधिक संशोधन अधिनियम 2013 से पहले पति को सिर्फ ‘सहवास’ करने की छूट थी, मगर संशोधन के बाद तो ‘अन्य यौन क्रीडाओं’ का भी अधिकार दे दिया गया है. यह किसी भी सभ्य समाज में उचित, न्यायपूर्ण नहीं माना-समझा जा सकता। कानून अभी भी पति को अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ बलात्कार करने का ‘कानूनी लाइसेंस’ देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है. यह भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद -14 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकार का हनन तो करता ही है और यह मानवाधिकार का भी हनन है।

 स्त्री चाहे तो घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन मुकदमा कर सकती है या तलाक भी तो ले सकती है? अधिकांश का तो कहना है कि स्त्रियाँ इस कानून का दुरूपयोग कर सकती हैं? 
हाँ! बहुत सही कह रहे हो मगर  यह है कि शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौन हिंसा सहन करने, बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन मुकदमा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा जाता है, जो नाकाफी है। पति को नाबालिग पत्नी तक के साथ बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंस और पत्नी को कोर्ट-कचहरी करने का विकल्प? वाह! क्या बंटवारा है-कानून और बराबरी के अधिकारों का!

भारतीय समाज में अब काफी विविधता है, जाति, वर्ग आदि की, क्या इस क़ानून के लिए इन विविधताओं के असर का ख्याल नहीं रखना होगा ? खासकर तब, जब शुद्धि और अग्नि परीक्षा के मामले आज भी आते हैं ? 

विविधता जाति, धर्म,वर्ग,क्षेत्र,परम्परा,संस्कार का कानूनी अधिकारों पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यह सब ध्यान में रखेंगे तो बदलाव की सभी संभावनाओं की  ‘ हत्या’ ही करनी होगी  पति को अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ ‘बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंस’ देना, ‘बलात्कार कि संस्कृति’ को बढ़ावा ही देता है। स्त्री को कब तक धार्मिक आस्थाओं-अनास्थाओं की बलि चढाते रहेंगे? क्या हर बार परिवर्तन के लिए किसी एक ‘फुलमनी’ को सुहाग सेज पर अंतिम साँस लेनी पड़ेगी? 2015 में भारतीय शादी-शुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्सवर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर है। ‘सेक्स वर्कर’ को ना कहने का अधिकार तो है, शादीशुदा महिला को वो भी नहीं है। पुरुष के लिए कानून ‘उपयोग’ और स्त्री के लिए हो तो ‘दुरूपयोग’-यह कहाँ का न्याय हुआ?

 दुनिया के अन्य देशों में क्या और कैसे कानून हैं?

लगभग 76 मुल्कों में वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। नेपाल जैसे छोटे से मुल्क में वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया है। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था- ‘पत्नी की सहमति के बिना सम्भोग बलात्कार के दायरे में आएगा. धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों को द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया गया है’



अदालतों का इस पर क्या नजरिया रहा है?
देश में प्रजातंत्र और ‘कानून का राज’ है, मगर घर में पितृसत्ता कि तानाशाही. अदालतों का तो यहाँ तक कहना है कि “संविधान को परिवार में लागू करना, सांड को ‘चाइना शॉप’ में घुसाने जैसा होगा”। इसका अर्थ-अनर्थ है ‘संविधान की मर्दवादी व्याख्या’। यह ‘नाबालिग पत्नी’ के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ अन्यायपूर्ण ‘कानूनी भेदभाव’ है। यह कानूनी प्रावधान दमनकारी, असंवैधानिक, संविधान के अनुच्छेद-14, 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन है।

एक बात और यह कि आखिर दाम्पत्य में बलात्कार कानून से पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है? परिवार को तो हमेशा से निजी और पवित्र दायरा मानते रहे हैं, सो हस्तक्षेप के लिए गुंजायश कहाँ है? 
इस कानून को न बनाये जाने वाले यह तर्क देते हैं कि वैवाहिक बलात्कार कानून बन जाने से विवाह और परिवार जैसी पवित्र संस्था को खतरा पहुँच सकता है. मैं जवाहर लाल नेहरु जी के शब्दों को याद करके इसका जवाब देना चाहूँगा- ‘हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं, लेकिन पुरुषों से मर्यादा पुरुषोतम राम होने की नहीं.’ मेरा मानना है कि कानूनानुसार लड़की के बालिग़ होने, शादी और सहमति से यौन सम्बन्ध बनाने की उम्र 18 साल है, मगर देश में 15-18 साल उम्र की लाखों नाबालिग विवाहित स्त्रियों और नाबालिग सेक्स वर्कर्स’ के साथ रोज़ बलात्कार हो रहा है। एक रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं होती। लगता है कि इस मुद्दे पर कानून चुप, संसद खामोश, समाज मौन, अदालतें तटस्थ और बाकी अधिकाँश लोग ‘षड्यंत्र’ में शामिल हैं। अंत में इतना ही कहना काफी होगा कि कानूनों में अंतर्विरोधी, विसंगतिपूर्ण या ‘सुधारवादी-उदारवादी मेकअप’ से, राष्ट्र का बहुमुखी विकास असंभव है। राष्ट्र को आज नहीं तो कल, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा….पहले ही बहुत देर हो चुकी है।

 मान लो कानूनी छूट खत्म हो जाए तो विवाह के भीतर बलात्कार के अभियुक्तों को सजा दिलवाना क्या और टेढी खीर नहीं होगी?
अरविन्द जैन- क्या मौजूदा किसी भी भी कानून में सजा दिलवाना बहुत सस्ता-सुंदर और निश्चित न्याय मार्ग है? कानून अपना काम करेगा या नहीं, वो एक अलग बहस का मुद्दा है। इस डर से क्या कोई कानून ही ना बनेगा?  

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ISSN 2394-093X
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