स्वयं में असाधारण स्त्री : माया एंजलो

गरिमा श्रीवास्तव


गरिमा श्रीवास्तव हिन्दी विभाग,हैदराबाद केन्द्रीय विश्विद्यालय, में प्रोफ़ेसर हैं. सम्पर्क : drsgarima@gmail.com

सन् 2014 के मई महीने का अंत होने में तीन दिन शेष हैं और वेक फ़ारेस्ट विश्वविद्यालय, विंस्टन-सालेम, उत्तरी कैरीलोना के फैकल्टी क्वार्टर की पीली दीवारों पर सुबह के सूरज की किरणें चमकने लगी हैं । घने पेड़ों के झुरमुट को बेधकर किरणें मई के महीने में जल्दी ही धरती पर आ जाती हैं-पेड़ों की हरियाली पत्तियाँ सूरज की धूप से पीली-सुनहली दीखने लगी हैं । पीले घर के भीतर थोड़ी हलचल है,यह माया एंजेलो की काया-संघर्ष, मेहनत, दुख, रोग-शोक,मान-अपमान,उपेक्षा, थकान को छियासी बरस से सहती चली आई काया की विदा का क्षण है ।माया एंजेलो जो बचपन में थी मार्गरीटा जानसन, प्यारे भाई बेली ने जिसे नाम दिया माया-  कमरा पचास से अधिक मानद उपाधियों, ढेरों राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सजा हुआ है,जीवन के उत्तरार्ध में अत्यंत लोकप्रिय अध्यापिका के रूप में विख्यात होकर भी अपनी ‘निजता’ में बिल्कुल अकेली ही हमेशा के लिए मौन हो गई थी । ऊपर से सबसे हंसने-बोलने, बतियाने वाली माया कब अकेली और भीतर से चुप नहीं थी । तब भी तो चुप्पी ही उसका आवरण बनी थी जब सौतेले पिता फ्रीमैन  ने उसका यौन शोषण किया था। सन् 1928 में चार अप्रैल को जन्मी मार्गरीटाने तीन वर्ष की उम्र  में माता-पिता का सम्बन्ध-विच्छेद देखा फ्रीमैन के दुर्व्यवहार  के बारे में मामाओं को बताने का नतीजा निकला-माँ के प्रेमी की ह्त्या जिसके  लिए वह स्वयं को ही दोषी मानती रही, बड़ी होने पर भी हमेशा सोचती –न वह मुंह खोलती ,न फ्रीमैन मरता| बेली और मार्गरिटा के पालन–पोषण की जिम्मेदारी आन पड़ी दादी श्रीमती हेंडरसनपर, जो पेट पालने के लिए परचून की दुकान चलाती और श्वेत प्रभुओं के घर इन मासूम बच्चों से सामान भिजवाया करती। काली, दुबली, कमजोर मार्गरीटा ने यहीं पर ‘ओ छोकरी, ‘काली लड़की’ के उपेक्षापूर्ण सम्बोधन सुने । सात वर्ष की भोली मासूस लड़की जानने लगी कि अश्वेत और काली लड़की होने के अर्थ क्या हैं और इससे भी ज्यादा कि निर्धन होना कितना दुर्भाग्यपूर्ण होता है ? इन अपमानजनक संबोधनों पर प्रतिक्रिया देने का अर्थ था-दादी से मार खाना । दरअसल से ये सम्बोधन उसके ‘ब्लैक’ होने की नियति से जुड़े थे,जिसे स्वीकार करना विवशता थी –

जब मैं अपने बारे में सोचती हूँ
तो अपने आप पर हँसते-हँसते लगभग मर ही जाती हूँ
एक बड़ा मज़ाक है मेरी जिंदगी
नृत्य की तरह जिसमें सिर्फ कदमताल ही की गई
या कोई गीत जिसे सपाटता से बोला गया हो
मैं  खुद को लेकर, इतना अधिक हँसती हूँ
कि साँसें रूकने लगती हैं मेरी
जब सोचती हूँ अपने बारे में
लोगों  के इस संसार में साठ साल
जिसके लिए मैं काम करती हूँ
वे मुझे बच्ची कहकर पुकारती हैं
और मैं अपनी नौकरी के लिए उसे
‘जी मैम- ‘जी मैम कहती हूँ
इतनी स्वाभिमानी हूँ कि झुकना मुश्किल
इतनी गरीब हूँ कि टूटना मुश्किल
हँसते-हँसते पेट में बल पड़जाते हैं मेरे
जब सोचतीहूँ अपने बारे में

अपने ऊपर हंस सकने की क्षमता हासिल करने का साहस माया को बचपन में ही जुटाना पड़ा|बच्ची माया की शिकायत की सुनवाई के लिए कोई न्यायालय था न कोई वकील,बस में यात्रा करती माया को दूसरे अश्वेतों की तरह हमेशा पिछली सीट मिलती ,जहाँ कंडक्टर पास आ सट कर खड़ा होता ताकि अपने कड़े अंग से माया को छू सके ,कसमसाती माया अपने आप में सिमट जाया करती ,सुनेगा कौन काली लड़की की कभी ख़त्म न होने वाली पीड़ाएं ।  उधर  अपमान और उपेक्षा सहकर भी दादी का श्वेत ख़रीदारों के प्रति विनम्रता प्रदर्शन और सबसे बढ़कर बूढ़ी दादी की अनथकमेहनत करने की प्रवृत्ति ने माया को आने वाले समय और कठिन भविष्य के लिए पहले से ही समझा-बुझाकर ज्यों तैयार कर दिया । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की आर्थिक तंगी के हालात ने उसे न सिर्फ व्यावहारिक बनाया बल्कि सिखाया कि कोई भी व्यक्ति अपनी नियति को अपने नियंत्रण में कैसे ले सकता है और यह भी कि तमाम दबावों और विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मसम्मान कैसे बनाए रखा जा सकता है । ‘स्टिलआई राइज़’ शीर्षक कविता में उसने कहा-
तुम मुझे अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
इतिहास में शामिल कर सकते हो
अपनी चाल से मुझे गंदगी में धकेल सकते हो
लेकिन फिर भी मैं धूल की तरह उड़ती आऊँगी ।

माया ने जीवन में ढेरों भूमिकाएँ निभाई। कभी ये भूमिका ऐच्छिक  थी तो कभी अनैच्छिक  लेकिन हंसी का कवच ऐसा था-जिसे बेधकर भीतर का सच पहचान पाना कठिन था। किशोरी माया को काले श्रमिक विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति मिली, सपना था कि नृत्य-संगीत की रुचि को कैरियर बनाएगी, लेकिन प्रेम और अविवाहित मातृत्व ने उसे आर्थिक बोझ तले दबा दिया ।किशोर प्रेम के  आवेग की जगह दुनिया –धंधे ने ले ली| गोद में नवजात शिशु और खाली ज़ेब लिए माया ने एक दूसरी दुनिया में कदम रखा ,जहाँ नैतिकता –अनैतिकता के सवाल बेमानी थे |जीना महत्वपूर्ण था ,और इसके लिए किसी काम को उच्छिष्ट समझने का अर्थ था भूख और लाचारी | बेटे को पालने, अपना खर्च चलाने के लिए पढ़ाई अधूरी छोड़ दी, करने लगी कभी काम कभी वेट्रेस का, तो कभी नर्तकी का । पेट का सवाल था, बड़े सपनों की कोई अहमियत ही नहीं थी ।अलस्सुबह थकी हुई घर लौटती ,दूध दवाएं,घर का किराया ,बसों के धक्के- सबने उसे और कठोर बनाया.दोस्तों ने विवाह, जन्मदिन, नएवर्ष की पार्टियों में बुलाना, पूछना छोड़ दिया, माया के पास उन्हें  उपहार देने को था ही क्या?क्रिसमस की पार्टी में एक ही बार इतना खा लेने को मन करता कि फिर कभी ज़रूरत ही न पड़े,साटन की फ्राक में पैबंद लगने लगे,टूटे जूते मरम्मत में आनाकानी करने लगे|शोषण के बगैर तो नौकरी भी कहीं नहीं ,अधूरी संगीत शिक्षा और रंगभेद का दर्द सीने में लिए माया के लिए एक वक्त वह भी आया जब आजीविका के लिए देह-व्यापार किया|दुकान, रेस्टोरेंट में काम के अनियमित घंटों और देह –शोषण से बेहतर समझा चकला चलाना.जो काम उसने दो औरतों के साथ मिलकर किया ।पुलिस प्रतारणा ,अबोध बच्चियों का व्यापार ,रोग –अशिक्षा और बेबसी की दुनिया , माया के सामने  नग्न रूप में  थी और वह  उससे खेलना सीख रही थी-
अपने यौवन में मैं
देखा करती थी ओट से
सड़क पर आते जाते बूढ़े पियक्कड़ों
जवान, सरसों की तरह तेज पुरुषोंको

मैं उन्हें  हमेशा कहीं न कहीं जाते हुये ही देखती
वे जानते थे कि मैं वहां हूँ
पंद्रह साल की आयु में उनके लिए बेताब
वे मेरी खिड़की के पास आकर रुकते
युवा लड़कियों के वक्ष की तरह उन्नत उनके कंधे
पीछे आने वालों को लपेटती उन पुरुषों की जाकेट

किसी दिन वे तुम्हें अपनी हथेलियों में
आहिस्ता से दबा लेते हैं, जैसे तुम
इस संसार का अंतिम कच्चा अंडा हो
फिर वे अपनी जकड़ को मजबूत करने लगते हैं
थोड़ी सी मजबूत ….बस थोड़ी सी….।

माया अपनी सही भूमिका खोज रही है-जीवन के व्यापक परिदृश्य पर वह अपनी उपस्थिति आजमाने की प्रक्रिया में है-अब उसे अपने देखने को और अधिक व्यापक और गहरा बनाना है-समझना है शोषक और शोषित का संबंध, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की रणनीति, काले-गोरे का  बहुआयामी समीकरण| समझ चुकी है वह है कि रात्रि क्लबों में नाच-गा कर, ग्राहकों को अपनी लंबी, सुडौल काया से रिझाकर आजीविका तो कमाई जा सकती है, ‘खुद’ को साबित नहीं किया जा सकता । वह निरंतर खेलती है-जिंदगी से, संघर्ष करती है, थकती है, गिरती है, फिर धूल झाड़कर उठ खड़ी होती है । चोटें और ख़राशे अनगिनत हैं-कहे किससे- इसलिए उन्हें भुला देना ही बेहतर है-हंसी का आवरण अब ओढ़ा नहीं लगता वह आत्मा तक पैबस्त होता चला जा रहा है-यह स्वयं को ढूँढने और पाने की प्रक्रिया है । सांसारिक बुद्धि कहती है विवाह कर घर बसाओ, मन डांवाडोल है। 1951 में ग्रीक इलेक्ट्रीशियन और उभरते हुए संगीतकार तोष एंजेलो से विवाह कर डालती है, अब मार्गरीटा जॉन्सन  माया एंजेलो है, जो एल्विन एली और रूथ बैकफोर्ड जैसे नृत्य निर्देशकों के साथ मिलकर ‘अल एंड रीटा’ मंडली बनाती है । कई अश्वेत संस्थाएं इस मंडली को बुलाती हैं, पर प्रदर्शन कुछ खास प्रभावित नहीं कर पाते मंडली का खर्च चलना दूभर है और निजी जीवन में विवाह की नौका डांवाडोल है-तोष एंजेलो का स्वभाव और बर्ताव माया को ‘सूट’ नहीं करता । नई-नकोर गृहस्थी टूट बिखर जाती है । रोजी-रोटी के लिए माया फिर से रात्रिक्लबों के भरोसे है । तीन वर्ष बाद उसे ‘पोर्जी एंड बेस’ ओपेरा के निर्माण और प्रदर्शन के सिलसिले में यूरोप के अनेक देशों की यात्रा का अवसर मिला है । माया देश-देश घूमती है-उसे अब से पहले यह पता ही नहीं था कि भाषा सीखने की प्रतिभा उसमें अद्भुत है । माया गीत गाती है-अफ्रीकी लोक धुनों और जैज़ का मिश्रण उसके गीतों को सीधे दिल की राह देता है-गीत संकलन ‘मिस कैलिप्सो’ लोकप्रिय होता है ।जिसका प्रकाशन सन् 1996 में काम्पेक्ट डिस्क में भी हुआ । ‘कैलिप्सो हीट वेव’ नामक फिल्म में माया संगीत देती है और अश्वेतों के संघर्ष का इतिहास, जीवन की आशा से भरपूर गीत, ज़िंदादिल आवाज़ उसे धन और यश देते हैं। माया जाने क्यों संतुष्ट नहीं है-विभिन्न भाषाएँ सीखकर वह अपना पुस्तकालय समृद्ध करने की प्रक्रिया में है। बचपन में श्वेत प्रभुओं के घरों से दानस्वरूप मिली फटी-चिथड़ीपुरानी किताबों की स्मृति अबतक ताजा है-उसकी जगह ताजी गोंद और बांस की लुगदी की गंध से भरी जिल्द चढ़ी लाल-नीली किताबों से उसका कमरा नितसमृद्ध हो रहा है । उसने कुछ मित्रों के सुझाव पर ‘हार्लेम लेखक संघ’ की सदस्यता ले ली है । संघ के कई महत्वपूर्ण लेखकों से सन् 1959 में उसकी मुलाक़ात होती है जिनमें जान हेनरिक क्लार्क’ रोसा गॅाय,पाल मार्शल, जूलियन मेफील्ड हैं । ये सब प्रबुद्ध लेखक हैं । माया इनसे प्रभावित है सन् 1960 में अश्वेत आंदोलन को नेतृत्व देनेवाले मार्टिन लूथर किंग से उसका मिलना जीवन को एक नयी दिशा दे देता है, अब वह ‘सदर्न  क्रिश्चियन लीडरशिप कांफ्रेंस की उत्तरी संयोजक बन गयी है । रात्रिक्लबों में गीत-प्रस्तुति के लिए  जागने वाली माया अब रात-भर जगकर पढ़ती है-लिखती है । कभी ‘द अरबआब्जर्वर’ का सम्पादन, कभी‘द अफ्रीकन रिव्यू में फीचर लिखने का काम तो कभी कभी घाना विश्वविद्यालय के ‘स्कूल आफ म्यूजिक एंड ड्रामा’ में पढ़ाने का काम उसे अकादमिक गतिविधियों की ओर ले जा रहा है । सन् 1964 में वह मेलकॅाम एक्स से मिली और अफ्रो-अमेरिकन संगठन के लिए अमेरिका लौट आई ।मेलकॅाम एक्स के लिए मन में गहरा सम्मान है और  मेलकॅाम की अचानक हुई हत्या से माया को  सदमा लगता है । सदमे से उबरने में उसे मार्टिन लूथर किंग जूनियर मदद करते हैं । वह अश्वेत अधिकार आंदोलन से भीतर  तक जुड़ जाती है लेकिन नियति उसे मित्रहीन करने के लिए कटिबद्ध है,कभी की अकेली माया फिर अकेली है । 1968 में मार्टिन लूथर किंग की हत्या माया के जन्मदिन पर ही होती है। वह वर्षों तक अपना जन्मदिन मनाती नहीं ही और उस दिन से सन् 2006 तक किंग की विधवा कोरेटा स्कॉटकिंग को स्मृति-गुच्छ भेजती रही | ऐसे समय में उपन्यासकार जेम्स बाल्डविन मित्र और भाई की भूमिका में माया के निकट हैं -माया के हृदय में बरसों से संचित अनुभव बाल्डविन के सामने निर्द्वंद्व भाव से बह निकलते हैं – शोक, हर्ष, आँसू, दुख-सबकुछ । बचपन तो कब का बीत चुका है पर स्मृतियों के दंश अब तक ताज़ा हैं । बाल्डविन समझाते हैं-लेखन उदात्त बनाता है-लिखो माया, लिख डालो अपना बचपन, लहुलूहान कैशोर्य, अभाव, तनाव, द्वंद्व, संघर्ष सबकुछ -जानने दो दुनिया को कि काले लोगों का जीना कैसा होता है-नस्ल और रंगभेद की कैद में जकड़ा समाज आनंदित हो ही नहीं सकता । और माया उसे…..तो जैसे राह मिल जाती है ।आत्मकथ्य लिख डालती है । ‘आय नो व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स’ जो 1970 में प्रकाशित होते ही किसी भी अफ्रो-अमेरिकी द्वारा लिखा पहला ‘बेस्ट सेलर’ बन जाता है । यह माया की बदली हुई भूमिका है-वह यथास्थिति को कभी स्वीकार नहीं करती। यातना को कभी अंतिम नहीं मानती, हर परिस्थिति में अपनी भूमिका ढूंढ निकालती है-जीवन से भी बड़ा है विश्वास-  ऐसी दुनिया की खोज में निरंतर लगी रहती है जो अश्वेतों को, स्त्रियों को, असहाय और बेबस बच्चों को उनका सही ‘स्पेस’,उचित हक दे सके । तृषा नालाए को दिये साक्षात्कार में वह कहती है-“जितने भी मूल्य हैं, साहस उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, साहस के बिना किसी और मूल्य की रक्षा आप नहीं कर सकते । आप सच्चे दयालु, आत्मविश्वासी, आत्मीय कुछ भी हो सकते हैं…..लेकिन ऐसा बनने के लिए आपको हर समय साहस की आवश्यकता होती है, और इसका मतलब युद्धभूमि में खड़े होना नहीं है, साहस से मेरा तात्पर्य आपके भीतर का साहस, जो आपके आत्म को दूसरे मनुष्यों को दिखाने में मदद करता है ।”

यह साहस ही था जिसके बल पर सन् 1963 में मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में राजधानी वाशिंगटन में दो लाख अश्वेतों के जुलूस में माया शामिल हुई । यह जुलूस अश्वेत मानस की इच्छाओंऔर समानता के अधिकार की आकांक्षा से प्रेरित था, जिसने आगे के बीस वर्षों में इतिहास बदल डाला । समूचे विश्व में अश्वेत संस्कृति अपने संगीत, कला, साहित्य से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने लगी , उसमें माया अपने संगीत और साहित्य के साथ शिरकत कर रही थी । 1960 से 1975 के दौरान बड़े पैमाने पर अश्वेत आत्मकथ्य लिखे गए जिनमें सामाजिक-अधिकार आंदोलन के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति हो रही थी। इरीना रातूशिन्स्क्या का ‘ग्रे इज द कलर आफ होप, रिजोर्बेता मेंच्यू का ‘आई’ और ’एन इंडियन वूमन  इन गुवाटेमाला ,मेरी किंग का ‘ फ्रीडम सांग’ एंजेलो डेविस का ‘ एन ऑटोबायोग्राफी’ इलेन ब्राडन का ‘ ए टेस्ट आफ़ पावर’: ए ब्लैकवूमन स्टोरी’, ग्वेंडीलाइन ब्रुक्स की ‘रिपोर्ट फ्राम पार्ट वन’ हैरिसन जैक्सन की ‘ देयर इज नथिंग आई ओन दैट आई वांट’ आसी गफ़ी की ‘द ऑटोबायोग्राफी आफ़ ए वूमन’ मेरी ब्रूक्टर की ‘हेयर आय एम:टेक माइ हैण्ड’; महालिया जैक्सन की ‘ मूविंग ऑन अप’ पर्ल बेली की ‘द रॅा पर्ल’ रोज बटलर ब्राउन की ‘आय लव माइ चिल्ड्रेन’  अन्ना हेजमैन की ‘द ट्रम्पेट साउंड्स’ असाता शकूर की ‘असाता’ के साथ-साथ माया एंजेलो ‘आई नो व्हाई  द केज्ड बर्ड सिंग्स’ और आगे चलकर आत्मकथ्य के अन्य छह खंडों के साथ उपस्थित हुई, जिनमें  अश्वेत स्त्रियों द्वारा नस्लभेद, रंगभेद, एवं यौनिकता के मुद्दे उठाए गए  । क्रांतिधर्मी दौर के ये आत्मकथ्य स्वतंत्रता और शिक्षा का अनन्यसंबंध दिखाते हैं । शिक्षा ने ही अश्वेत रचनाकारों को सामुदायिक चेतना राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक विमर्शो में प्रखर भागीदारी के रास्ते दिखाये । माया एंजेलो जैसी अश्वेत रचनाकारों की एक  नयी पीढ़ी अपनी कविताओं और आत्मकथ्यों द्वारा ऐसे टेक्स्ट सामने लाने लगी जो अपने ‘टेक्स्ट’ और बहुआयामिता के साथ ही बहुरंगभेदी बहुनस्लवादी पाठकों की चेतना का हिस्सा बनने लगी  । अब रंगभेद का मुद्दा बहुआयामी हो गया कभी पूरी तरह राजनीतिक, कभी सामाजिक, तो कभी निजी । माया एंजेलो ने आत्मख्यान लिखकर दोहरा जोखिम उठाया जिसे ब्लैकबर्न के शब्दों में कहा जाये तो- “अश्वेत स्त्रियाँ आत्मकथ्य लिखकर अपने जीवन को दोहरे जोखिम में डालती हैं वे एक ओर अमेरिकी समाज में व्याप्त रंगभेद की राजनीति का पर्दाफाश करती हैं तो दूसरी ओर अपने समुदाय के पुरुषों के यौन अत्याचारों को भी खुलकर अभिव्यक्त करती हैं।”(रेजीना ब्लैकबर्न- इनसर्चआफ़दब्लैक फीमेल सेल्फ:अफ्रीकन-अमेरिकनवूमंस ऑटोबायोग्राफी एंड एथनिसिटी’ ब्लूमिंगटन; इंडियाना यूपी’ 1980: पृ. 134)

माया एंजेलो ने आत्मख्यान के तौर पर काव्य विधा को भी अपनाया । ब्रिटानिका ऑनलाइन (9/17/1998)में माया की कविताओं को उसके ‘निजी इतिहास की अभिव्यक्ति’ कहा गया है क्योंकि उसकी कविताओं का कथ्य कई अश्वेत अमेरिकी जीवनानुभवों  से मिलकर बुना गया है । लायन ब्लूम ने इन कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि – इनमें नस्लभेद, भेदभाव, शोषण की पीड़ा और अपने वर्ग के लिए शुभेच्छा है ।

माया एंजेलो ने कई अन्य कविताएँ भी सामाजिक मुद्दों और अश्वेत विशेषकर स्त्रियों के मुद्दों को केंद्र बनाकर लिखी; जिनमें ‘बॅार्न दैटवे’ यौन शोषण और वेश्यावृत्ति पर और ‘फेनोमेनल वूमन; ‘वूमन वर्क’ और ‘सेवेन वूमन्स ब्लेस्डएस्योरेंस’ जैसी कविताएँ स्त्री विषयक हैं । घरेलू हिंसा पर ‘ए काइंड आफ़ लव सम से’ बाल श्रम और शोषण पर ‘टू बीट द चाइल्ड वाज़ बैड एनफ़’ इसके अतिरिक्त दास-प्रथा पर ‘द मेमोरी; ‘मिस स्कारलेट,’ ‘मी. रेट’ ‘एंड अदर लैटर सेंट्स’ ‘ वी सा बीआंड आवर सीमिंग’शीर्षक कविताएँ हैं । नशाखोरी, अश्वेत अस्मिता पर भी एंजेलो की अनेक कविताएँ हैं। अधिकतर कविताएँ लंबी नहीं हैं, बल्कि तीन-चार बंद में ही समाप्त हो जाती हैं । लयात्मकता उनका अपूर्व वैशिष्ट्य है । किंग जेम्स बाइबल, अमेरिकी रचनाकारों, एडगर एलेन पो, शेक्सपियर,अश्वेत रचनाकारों जैसे लैंगस्टन ह्यूज्स चर्चों की प्रार्थनाएँ, बाल्यगीत और लोक संगीत के प्रभाव को इन कविताओं में देखा जा सकता है । ‘माडर्न अमेरिकन वूमन राइटर्स’ में जान ब्रैक्सटन ने माया की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि – उनके पाठक काव्यलय, गीतात्मकता , कल्पना और यथार्थवाद के कायल हैं । ये कविताएँ जैज की धुनों पर आधारित हैं जो सीधे पाठक के हृदय में उतर जाती हैं ।
माया एंजेलो की कविता सिर्फ यथार्थ और कल्पना तक ही सीमित नहीं है वह स्त्री यौनिकता का उत्सव मनाने वाली कविता है । माया का निजी जीवन बहुत से घात-प्रतिघातों की कहानी है । रात्रि क्लबों में नाच, वेश्यावृत्ति को पेशे के रूप में अपनाना किसी स्वाभिमानी स्त्री के लिए सरल- सहज नहीं हो सकता, न होता है । वह स्वयं लिखती है कि जीवन के बहुत कम ही ऐसे वर्ष रहे  जब उसे अपने खर्चे निकालने, बिजली के बिल भरने की चिंता नहीं रही । जैज़ की धुनों पर नाचती माया को देखकर यह अंदाज़ा लगाना कठिन है कि यह वही माया है जो बचपन में यौन शोषण, कई पुरुषों के दुर्व्यवहार-अपमान, कुछ असफल प्रेम-प्रसंगों  से गुजरने के बावजूद स्वयं को विशिष्ट और असाधारण कहती है-
पुरुष खुद चकित हैं
कि उन्होंने मुझमें ऐसा क्या देखा
उन्होंने बहुत कोशिश की
लेकिन वो छू नहीं पाते
मेरे अन्तः रहस्य को
जब मैंने उन्हें  दिखाना चाहा
वो बोले- वो उसे अभी भी नहीं देख पा रहे
मैंने कहा
यह मेरी कमर का कटाव
मेरी मुस्कान का सूर्य
मेरे उभारों का उठान
और यह मेरे अंदाज़ का लावण्य है
कि मैं कुछ भिन्न महिला हूँ
स्वयं में एक असाधारण औरत,

अब आप समझ ही गए होंगे
कि मेरा सिर क्यों नहीं झुकता
क्यों नहीं मैं चीखती-चिल्लाती
कूदती-फाँदती
अपनी बात रखने के लिए मैं
क्यों शोर नहीं मचाती
जब आप मुझे चलता हुआ देखेंगे
तब आप गर्व से भर उठेंगे

मैंने कहा ना
यह मेरे जूतों की एड़ी की चटख है
मेरी जुल्फों के गुलझट
हाथों की कलाईयाँ
सब मेरी अपनी देखभाल का नतीजा है
मैं सबसे अलग औरत हूँ
स्वयं में असाधारण स्त्री l
(असाधारण स्त्री )

जीवन के लगभग पांच दशकों तक रचनारत रहने वाली माया एंजेलो ने समय-समय पर दिए साक्षात्कार में अपनी रचना प्रक्रिया पर टिप्पणी की l उसका मानना है कि अश्वेत लेखक होना विशिष्ट होता है – अश्वेत लेखक श्वेत लेखक से बिल्कुल अलग होता है – अक्सर कोई भी ब्लैक लेखक अपने परिवार या समुदाय में पहला लेखक होता है और उसकी बहुत-सी ऊर्जा तो अपने मित्रों सम्बन्धियों को यही समझाने में चली जाती है कि उसका लिखना किस तरह महत्वपूर्ण है l माया ने एक के बाद एक आत्मकथाओं के सात खण्ड लिखे  हैं l ‘वहाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ में उसने बचपन और किशोरावस्था के दिनों का जिक्र किया है l ‘गैदर ,टुगेदर इन माई नेम’ उसकी सर्वाधिक प्रिय कृति है जिसमें वह बताती है कि आजीविका पालन के लिए की गई वेश्या- वृत्ति से वह कतई शर्मसार नहीं है ,न  अपने लिए सहानुभूति पाने की कोशिश की न ही उसे अतिरिक्त महिमामंडित किया,जीवन के एक समृद्ध अनुभव के तौर पर उसने वे साल ग्रहण किये lइन्हीं वर्षों में वह तरह तरह के रोगों से जूझती और किसी भी सरकारी सहायता से वंचित उपेक्षित स्त्रियों ,बच्चियों और मासूम बच्चों के लिए ,उनकी स्थिति में परिवर्तन और सुधार की ज़रुरत को समझ पायी | वह समाज के ढांचे में परिवर्तन की बात करती है और स्त्रियों को एकजुट होकर वैश्विक सखी  भाव से रहने की प्रेरणा देती है – “सामुदायिक चेतना का होना बहुत जरूरी है l मुझे उन स्त्रियों पर दया आती है, जिन्हें मैं यह कहते हुए सुनती हूँ कि स्त्रियों की अपेक्षा मेरे पुरुष मित्र अधिक हैं – मुझे लगता है यह मूर्खतापूर्ण है l अपने जैसियों का पक्ष लेना, उनकी वकालत करना बहुत महत्वपूर्ण है, और अनिवार्य भी l मैं चाहती हूँ कि औरत को यह पता चले कि मैं उनके पक्ष में हूँ l उन्हें भी अपने पक्ष में खड़ा होना चाहिए, विरोध में नहीं l इसका मतलब ये नहीं कि मैं पुरुषों के विपक्ष में खड़ी हूँ l लेकिन मैं जानती हूँ कि पूरी दुनिया में पुरुषों के स्वास्थ्य और देखभाल के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा धन निवेश किया जाता  है, उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं पर शोध भी अधिक होते हैं, इसलिए मैं पहले स्त्रियों के पक्ष में हूँ l मैं स्त्रियों को अस्पताल जाने के लिए प्रेरित करती हूँ, वे नियमित जाँच करवाएं और अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा न करें …यदि आप अपनी देखभाल स्वयं नहीं करते तो दूसरे से कैसे अपेक्षा रख सकते हैं कि वह आपकी देखभाल करे ?”

माया एंजेलो ने यह वक्तव्य 1 जून 2012 को उत्तरी कैलीफोर्निया में ‘माया एंजेलो सेंटर फार हेल्थ एंड वेलनेस’ के उद्घाटन के अवसर पर दिया. माया स्वयं भी लम्बी चौड़ी छह फ़ुटी कद-काठी वाली स्वस्थ स्त्री है, जो कथा -कविता, नाटक के अतिरिक्त पौष्टिक भोजन पर भी पुस्तक लिखती है l उसका मानना है कि जो काम आपको करना अच्छा लगता हो उसे जरूर कर डालना  चाहिए l  आत्मकथा के सातों खण्डों  – आई नो व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स (1969 )जिसमें जन्म से 1944 की स्मृतियाँ हैं l गेदर टुगेदर इन माई नेम (1974 ) जिसमें 1944 से 1948, सिंगिंग एंड स्विंगिग एंड गेटिंग मैरी लाइक क्रिसमस (1976 ) जिसमें 1949-1955 द हर्ट आफ ए वूमन (1981) जिसमें 1957-1962, ‘आल गॅाड्स चिल्ड्रन नीड ट्रैवेलिंग शूज (1986) जिसमें 1962-1965, ए सांग फ्लंग अप टू हेवेन (2002 ) जिसमें 1965 -1968 तक  और मॅाम एंड मी एंड मॅाम (2013) में सन् 2013 तक के संस्मरण और जीवन यात्रा के पड़ाव समाहित हैं l  आत्मकथाओं के बारे में उसका कहना है कि इनमें उसने जीवन के सारे पड़ावों का जिक्र किया है “पूरा जीवन मैंने अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए अनथक श्रम किया l घर साफ करना, भोजन पकाना और घर के बाहर काम करना मेरी दिनचर्या का अनिवार्य अंग थे l मैं घर के काम हमेशा करती आई  l दुर्भाग्यवश हमारे देश में हमसे जबरन काम करवाने का इतिहास रहा है, इसलिए यहाँ दूसरों की सेवा को दासत्व से जोड़कर देखा गया, जबकि अफ्रीका में किसी की सेवा करना बहुत ही सम्मान और गौरव की बात है l यूरोप में ऐसा नहीं है l मैं छह फीट की स्वस्थ स्त्री हूँ और यदि मैं किसी की सेवा ह्रदय से करती हूँ तो उसे दासत्व से जोड़कर देखने की आवश्कता नहीं l”निजी जीवन की श्रम प्रवृत्ति माया एंजेलो के लेखन में भी दीखती है l अपनी दिनचर्या के बारे में वह ‘सिंगिंग एंड स्विंगिग एंड गेटिंग मैरी लाइक क्रिसमस’ में पाठक को विस्तृत ब्यौरे देती है l

माया बताती है कि लिखने के लिए उसने कैसे होटल का एक छोटा कमरा बुक कर रखा था, वह लिखती है – “किसी आलोचक ने कहा था कि मैं प्रकृति से ही लेखिका हूँ, लेकिन मुझे अपने बारे में वही कहना है जो अलेक्जेंडर पोप  ने कहा था कि आसान लेखन को पढ़ना बहुत मुश्किल होता है और ठीक इसके   विपरीत बात भी सही है कि जो आसानी से पढ़ा जाए उसे लिखना बहुत कठिन होता है l लिखने के लिए कभी-कभी मैं दो-दो दिन होटल के कमरे में रहती हूँ कि कम से कम दो वाक्य तो अपने प्रवाह में लिख सकूँ कभी-कभी बिना एक वाक्य लिखे ही होटल के सात बाई दस के छोटे कमरे से घर वापस लौट आती हूँ और कभी इसमें मैं सुबह 6.30 बजे से दो बजे तक काम करती हूँ l यह कमरा मैंने दो सालों से किराए पर ले रखा है – इसके परदे, बिस्तर कभी बदले नहीं गए l मैं इसमें कभी सोई नहीं एक बिस्तर और छोटे वाश बेसिन के अलावा कमरे में कुछ नहीं l विचारों को शब्दों का प्रवाह मिल जाए तो मैं कभी-कभी तीन बजे तक लगातार काम करती हूँ, फिर घर लौटकर नहाती हूँ, घर-रसोई की व्यवस्था देखती हूँ ताकि शाम 5.30 बजे,  जब पॅाल आए तो उसे थोड़ा समय दे सकूँ, हालांकि मेरा दिलोदिमाग मेरे लेखन के इर्दगिर्द ही घूमता रहता है, फिर भी मैं एक ईमानदार जीवन जीने का प्रयास करती हूँ l ऐसे सब लोग जो कलाकार या रचनाकार होने का दावा करते हैं, और दूसरों को हर समय बताते हैं कि वे काम के दबाव से आक्रांत हैं -मेरी नजर में वह सब बकवास है l अंत में, जो काम आप लोगों के सामने लाते हैं – वही सच है – बाकी सब बनावट है, जिसका कोई अर्थ नहीं है l जब कभी विचारों की तारतम्यता न बन पा रही हो, लेखनी साथ न दे रही हो तो टेबल से उठकर, तरोताजा होकर नए ढंग से सोचना चाहिए l एक सामान्य और व्यवस्थित जीवन जीना लेखक के लिए जरूरी होता है l”

अश्वेत होने के साथ-साथ स्त्री होना माया एंजेलो के लिए चुनौतीपूर्ण रहा होगा, क्योंकि अश्वेत रचनाकार दोहरे दबाव से जूझता है – रंगभेद और निरंतर मशीनी होते चले जा रहे भौतिकतावादी समाज का दबाव दोनों उसे खुलकर बोलने और लिखने से रोकते हैं l लेकिन माया एंजेलो इन सीमाओं को अपने लेखन की संभावनाओं में तब्दील करती दीखती है l मसलन अश्वेत वेश्या जीवन वृत्ति उसे देह व्यापार के अपराधीकरण, नशाखोरी, विपन्नता, स्त्री अशिक्षा के मुद्दों पर सोचने और लिखने का रास्ता देती है l ‘गेदर टुगेदर इन माई नेम’ में वह अपने वेश्या जीवन पर कतई शर्मिंदा नहीं दीखती न ही वह इसे ग्लैमराइज करती है बल्कि वह पाठक को अपने अनुभवों के माध्यम से सभ्य समाज की उच्छिष्ट तंग गलियों जहाँ कम उम्र की लड़कियों के अपहरण, बलात्कार, बाल श्रम,स्त्रियों के सांस्थानिक शोषण के वाकये जो हवा में तिरते हैं, उनसे रू-ब रू करवाती है l यही वजह है कि  वह हेलेन सिक्सू  उस की तरह स्त्रियों के बोलने पर बल देती है – “मैं स्त्रियों से कहूंगी कि वे पढ़े और जोर-जोर से पढ़े l तुम्हें इतने जोर से पढ़ना होगा कि तुम भाषा की ध्वनियाँ सुन सको l अपने कानों से सुनो अपनी भाषा की लय, माधुर्य और उसका संगीत l मैं स्त्रियों से कहूंगी कि वे उन्नीसवीं शताब्दी की  स्त्री कविता पढ़े जो अफ्रीकी, अमेरिकी. श्वेत, अश्वेत, स्पेनी, एशियाई स्त्रियों द्वारा रची गयी है l वे कविता पढ़े अपनी पुत्रियों को सुनाएँ, अपनी भतीजियों को सुनाएँ तभी देख पाएंगी कि कोई मुझसे पहले भी यहाँ थी, किसी ने मुझ-सा ही अनुभव पहले भी किया था l कोई मुझ सी अकेली यहाँ पहले भी थी l”

माया एंजेलो स्वानुभूति को सबसे महत्वपूर्ण मानती है, इसी के बल पर वह निरंतर रचनारत रही है और आत्मनिर्भर भी l तृषा नालाए के साथ बातचीत में वह कहती है – “मैंने अपने जीवन से यह सीखा है कि लोग तुम्हारा कहा हुआ विस्मृत कर देंगे, तुमने किसी के लिए क्या किया, लोग इसे भी भूल जाएंगे पर तुमने किसी को क्या अनुभव कराया इसे वे कभी नहीं भूलेंगे l साथ ही मेरा दृढ़ विश्वास है कि स्वयं के किए बिना कोई कार्य पूरा नहीं होता l”जीवन हमेशा माया को चुनौती देता रहा, वह उन चुनौतियों को स्वीकारती रही l जीवन के अंतिम दिनों में घातक ह्रदय रोग से शरीर लड़ता रहा, माया पुस्तक लिखती रही l चिकित्सक काया की देख-देख करते और माया 2014 के अप्रैल सेमेस्टर में पढ़ाने के लिए ‘रेस कल्चर एंड जेंडर इन द साऊथएंड बिआँड’ जैसे पाठ्यक्रम की योजना बनाती रहती l इस दौर के बौद्धिकों कार्यकर्ताओं, विचारकों मसलन इकबाल अहमद एडवर्ड सईद, जॅाक देरिदा के साथ माया एंजेलो का नाम भी जुड़ गया है. जिसके देहावसान की खबर फैलते ही लाखों की संख्या में स्त्रियाँ छात्र, कार्यकर्त्ता द्रवित और विचलित हो उठे हैं l घाना में रहने वाले अश्वेत अमरीकी जिनकी घर वापसी की कथा माया ने अभी तो कहनी शुरू की थी – वे निष्प्रभ हैं l आनंद जिसे वह  ‘जॅाय’ कहा करती – वही उसकी मुक्ति बना है l उसने कहा था – ‘ जो व्यक्ति आनंदित है वही अपने कृत्यों का उत्तरदायित्व ले सकता है l दरअसल आनन्द बांटने की चीज है, इसे जितना बाँटोगे यह तुम्हारे पास उतना ही बढ़ता जाएगा l’

माया एंजेलो की विदाई का क्षण आ गया है l पीले मकान की दीवारें सूर्य के आलोक से जगमगा रही हैं – सुनहरी किरणें खिड़की के रास्ते उस सर्वदा हँसते रहने वाले काले चेहरे पर पड़ रही हैं – तांबई रंगत वाली आँखे गिरजे की प्रार्थना में अधमुंदी सी दीख रही हैं l मोटे होंठ हँसते-हँसते ज्यों बीच में स्तब्ध हो गए हैं कभी की छह फुटी सुगठित काया ढल-सिकुड़कर नन्हीं सी हो गयी है l वार्ड रोब की पुरानी ड्रेसेज अब ढीली और लम्बी मालूम देती हैं ,विश्वास नहीं होता कि ये कभी माया पर सजती होंगी l फैली हुई नाक किसी नए अनुभव की गंध की तलाश में थोड़ी सिकुड़ी सी दीख रही है, जंगली पत्तियों की हरी गंध उनके भीतर ठहर-सी गई है l घुंघराले सफेद बाल जिनका तंज अब खत्म हो गया, उनके बीच से एकाध काला बाल दीख रहा है l यौवन में पहने डैंगल्स का वजन अब कान की लवें उठा पाने में असमर्थ हो गई हैं – टॅाप्स और बालियों से सजी रहने वाली लवों के छेद इतने बड़े होकर झूल गए हैं, जिनमें एक उंगली आसानी  से घुस सकती है l ठोड़ी के नीचे गर्दन के पास झुर्रियों का गुंजलक है और सीना सिकुड़नों – सलवटों से भरा हुआ l ये वक्त से संघर्ष की सलवटें हैं l कभी के उन्नत और पुष्ट स्तन अश्वेतों की करुणा और वंचितों की आर्द्रता के बोझ से ढल गए हैं – अब उनमें कोई कटाव, उठान नहीं उनके भीतर रहे दिल की धुकपुकी थम चुकी है l बांहों की मांसपेशियां हड्डियों का साथ लगभग छोड़ चली हैं और गहरी सांवली रंगत की त्वचा कोहनियों के पास ढलक गई है दोनों हाथ सीने पर रखवा दिए गए हैं –  हाथों  के पंजे स्कूली किताब के पन्नों के भीतर संभाल छोड़े पीपल के किसी पुराने पत्ते- से अपनी सारी मज्जाओं, नसों, रक्त वाहिकाओं के साथ बिल्कुल पारदर्शी हो चुके हैं l दाहिनी तर्जनी थोड़ी टेढ़ी-सी अंगूठे के पास झुकी है, लगता है अभी कलम पकड़ लेगी और लिखने लगेगी मनुष्य से मनुष्य के भेदभाव का इतिहास, लैंगिक विभेद की प्रताड़ना और भी बहुत कुछ जो लिखना अधूरा रह गया होगा l छात्रों के लिए नोट्स बनाने का काम भी तो छूट गया होगा ‘जो काम पसंद हो उसे कर लेना चाहिए’ लेकिन अब काया साथ नहीं दे रही l दस नंबर की बैलेरीना पहनने वाले पांवों की हड्डियाँ घिसकर आठ नंबर माप के जूतों में आ गई हैं – कभी जैज और कैलिप्सो की धुनों पर थिरकती, नृत्य से सैकड़ों दिलों को मोहती एड़ियों की हड्डियों ने जवाब दे दिया है l ताबूत में लिटाने के लिए अब बहुत से मजबूत हाथों की जरूरत नहीं अब ये जर्जर, वृद्धा काया मात्र है माया की जिसे भौतिक रूप में अंतिम बार देखने आए छात्र मित्र, प्रशंसक, पाठक सब वेक फारेस्ट में चारों ओर बिखरी, उड़ती सूखी पत्तियों पर हौले-हौले पांव रख रहे हैं, पीले घर की खिड़कियों से उझक कर हौले  से उस आनंदमय चेहरे की झलक ले लेते हैं l आए हुए लोग धीमे-धीमे फुसफुसा कर बातें कर रहें हैं – कहीं माया एंजेलो नींद से जग न जाए और… और -और कहीं ऐसा न हो कि नई पुस्तक लिखती हुए माया की तन्द्रा भंग हो जाए l लेट्स नॅाट  डिस्टर्ब हर !धीरे बोलो यहाँ माया एंजेलो सोती हैl  अपनी कविताओं, अपने गीतों के साथ-
जब मैं एक बड़ी यहूदी बस्ती में मर जाऊं तो
मुझे आकाश में न भेजें
तेंदुए जैसे चूहे, बिल्ली को खा रहे हैं
और जहाँ रविवार को ब्रंच में
जई के आटे का बकवास भोजन मिलता है
उपदेश देने वालों
कृपया मुझसे
सोने की सड़कों
मुफ्त के दूध का वादा मत करो
मैंने चार साल की उम्र से दूध नहीं पिया है
और एक बार मर जाने के बाद मुझे स्वर्ण की जरूरत नहीं पड़ेगी l
मैं उस जगह का आह्वान करती हूँ जहाँ
शुद्ध स्वर्ग है
जहाँ वफादार परिवार हैं
जहाँ अच्छे अजनबी हैं
जहाँ जैज संगीत है
और जहाँ मौसम नम है
मुझे ऐसा वचन दो
या कुछ भी न दो l
(‘धर्माधिकारी’)
*माया एंजेलो की कविताओं का अनुवाद
विपिन चौधरी से साभार

यह आलेख  मासिक हिन्दी पत्रिका पाखी में प्रकाशित हो चुका  है

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