युवा कवयित्री प्रतिभा गोटीवाले की रचनायें विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं संपर्क : minalini@gmail.com
अलविदा
आज तुम्हे जाते हुए
देखकर जाना
कि जाते हुए कदम
रोकते हैं बहुत
देखो ना …
जाने के बाद
पता चला
कि तुम्हारे साथ
चला गया हैं
एक रुमाल मेरा
जिसकी गांठ में बाँध ली थी
कुछ छोटी छोटी सी
बातें तुम्हारी
और रह गया हैं
पास मेरे
एक झोला
अनकही बातों का
जो रख देना था
तुम्हारे सामान के साथ ही
तुम्हारे लिए,
आज तुम्हे जाते हुए
देखकर जाना
कि जाती हुई आँखे
एक क्षण में कह जाती हैं
वह सब
जो एक जीवन में
न कह पाए
और जाना
कि जाती हुई आँखों की
अनकही बातें
कितनी जल्दी
सुन लेता हैं मन
जिसे सुनने को
तरसते है कान ताउम्र,
जाना कि जाने वाले
और पीछे छूट जाने वाले
बने रहते हैं एक दूसरे के साथ
बिछड़ने के बाद भी …………. ।
जाने के ठीक पहले
जाने के ठीक पहले नहीं भूलूँगी
रखना एक बोसा
तुम्हारे जलते माथे पर
और हर ले जाना ताप तुम्हारा
नहीं भूलूँगी सहलाकर हटाना
तुम्हारे मासूम चेहरे पर बिखरे बाल
कि चाँद देख सके अपलक तुम्हें
और सपनो को भटकना न पड़े
तुम्हारी आँखों की तलाश में
नहीं भूलूंगी …
कि करीने से जमा दू
मेरी जगह मेरी यादे
किचन में ,अलमारियों में
ठीक उस उस जगह
जहाँ तुम्हे तकलीफ़ होती हैं
सामान ढूँढ़ने में
नहीं भूलूँगी छोड़ना कुछ कतरे आवाज़
जो बता सके तुम्हे
कि कितना प्रेम था मुझे तुमसे
जाने के ठीक पहले
याद आएगा मुझे
की सुनना था तुमसे
मत जाओ !
मुझे ज़रूरत हैं तुम्हारी !
(कितने काम याद आते हैं …जाने के ठीक पहले …. )
टाइमपास
कशीदा काढ़ते हुए
उसकी आँखों पर
नज़र गई है कभी तुम्हारी ?
एक चमकीली मुस्कराहट
भरी होती हैं उनमें
मानों सुई के कानों में
वो कहती हैं कुछ
और सुई ,धागे में पिरोकर
करीने से छुपा देती हैं
उसकी बातें
रुमाल के सीने में ,
मन की अनकही
ढेर सी बातें
धागों में उतारती चलती हैं वह
कोई पढ़े
कोई सुलझाये
तो जीवन के
सारे समीकरण
उतरे दिखते हैं रुमाल पर
तुम जिसे बडी आसानी से
कह लेते हो न टाइमपास !
दरअसल वही
रंगीन धागों से कढ़े हुए
छोटे-छोटे से सपने
उसके अपने हैं
बाकी तो उसकी सारी दिनचर्या
महज़ तुम्हारी ज़रूरते है.……
ऐसे भी आओ
कितने दिन हो गए है
तुमसे मिले हुए
कभी आओ ना यूँ
जैसे अलसुबह उनींदी आँखों पर
खिड़की के रास्ते चली आई हो धूप ….
चुप का होना ही उसका होना था
मेरी शिनाख्तगी से पहचानी गई
उसकी लाश
उसे जानती थी बचपन से
वो ऐसी ही थी
हमेशा चुप
या दरअसल चुप का होना ही
उसका होना था
लेकिन आश्चर्य हुआ
जब लोगों ने बताया
कि अपने अंतिम दिनों में
ख़ूब बोलने लगी थी,
ज्यादा हँसने लगी थी
बेवजह घूमती थी यहाँ-वहां
पर हमेशा बाहों में थामे रहती थी
अपनी मरियल सी ख़ामोशी
शब्दों की ढ़ेर सी तहों में छुपाकर
किसी को छूने नहीं देती थी
बिलकुल ऐसे जैसे
सर्दियों में माँ अपने शिशु को
ठण्ड से बचाने के लिए
लपेटे रहती है गर्म कपड़ों के बंडल में
उसके मरने के बाद जब खोली गई तहें
वहां एक कंकाल था बस
बहुत पहले दम तोड़ चुकी ख़ामोशियों का
एक रात झील के साथ
झील के सोते ही
शैतानियों पर
उतर आती हैं
नन्ही- नन्ही
मछलियों सी लहरें
किनारे पर लगे
बिजली के लट्टुओं से
खींचकर
रोशनियों के धागे
ले भागती हैं
दूर दूर तक,
और बनाती हैं झील के
आँचल पर
सुनहरी धागों से
कांजीवरम और पोचमपल्ली
की रूपरेखाएँ,
उतार लाती हैं
किनारों की
पूरी रौनक
झील की गोद में
और ज़री की साड़ी में सिमटी झील
चाँद का टीका लगाकर
रात के कांधे पर
सर टिकाये
मुस्कुराकर देखती है
लहरों की
मासूम सी अठखेलियाँ
भिन्सारे जब थक कर सो जायेंगी लहरे
झील अपना श्रृंगार उतार
काम पर लौट आएगी ।