डोंट यू नो, हंसना इज़ एन इन्वीटेशन टू रेप?

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियां और हिंदी कथा साहित्य: आख़िरी  क़िस्त 

( रोहिणी अग्रवाल का शोध -आलेख .  हिन्दी साहित्य में ‘ बलात्कृत स्त्री की पीड़ा ‘ की अभिव्यक्ति का उन्होंने ‘ स्त्रीवादी’ पाठ किया है . ) 

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कहना न होगा कि महिला कथाकारों का बलात्कार सम्बन्धी लेखन स्त्री के अंतर्मन की खदबदाहटों का महाख्यान है। आत्मदया की आत्महंता ग्रंथि से उबर कर आत्मोपलब्धि की जिस कठिन सकारात्मक यात्रा की शुरुआत कृष्णा सोबती ने ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में की, उसे क्षैतिजिक विस्तार देते हुए लेखिकाओं ने पीड़िता से परे जाकर पीड़क को उसके सामाजिक-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक संदर्भों में पकड़ने की कोशिश की है। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में ‘मानवाधिकारों की लडाई को समर्पित’ न्याय और पत्रकारिता जैसी संस्थाएं प्रायः सत्तासीनों वर्चस्ववादियों के आगे दुम हिलाती नजर आई हैं। केट मिलेट की मान्यता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बल प्रयोग जैसी टुच्ची हरकत से मुक्त कराने का मिथक इस सावधानी से गढ़ा/प्रचारित किया गया है कि सती प्रथा(भारत), पर्दा प्रथा (भारत एवं एशियाई ऐश), अनैतिक सम्बन्ध  के लिए पत्थर मार-मार कर स्त्री को मार देने की प्रथा (मुस्लिम देश) आदि को आदिम समाज की परंपराएं घाषित कर ‘रूढ़ि’ का दर्जा दिया जाता है और स्त्री को उसकी कमनीयता का अहसास दिला कर उसे निष्कवच कर दिया जाता है। अपने आप में इसे ही बल-प्रयोग का अनूठा उदाहरण कहा जा सकता है, लेकिन बकौल केट मिलेट पितृक समाज अपनी क्रूरता/प्रतिशोध की अभिव्यक्ति उद्धत यौन आक्रमण के रूप में करता है क्योंकि यही अपने सत्त्व रूप में ‘दुष्ट सत्ता’ का प्रतीक है। यही वह मूल पुरुष ग्रंथि है जो एक ओर उसे स्त्रीविरोधी साहित्य रचना  के लिए प्रेरित करती है तो दूसरी ओर स्त्री की खिल्ली उडाने के लिए व्यंग्य और उपहास जैसी कुत्सित युक्तियों की ओर आकृष्ट करती है।  (पत्नी प्रताड़ित पतियों की बेचारगी और स्त्री के जननांगों से जुड़े चुटकुले इसके उदाहरण हैं।) ”औरतों का तो काम है इधर से उधर लबर-लबर करना”  तथा ”मर्द से आठ गुना ज्यादा होती है उसकी कामवासना। जी कभी भरता थोड़े ही है। उसके नाक न हो तो गू खाय”  जैसी उक्तियां दो विपरीत ध्रुवांतों पर टिकी स्त्री अस्मिता के प्रति पुरुष की घृणा के विस्तार की सूचक हैं। शिवमूर्ति ‘अकालदंड’ तथा ‘तिरिया चरित्तर’ में वांछित स्त्री से ‘खेल’ न पाने की पुरुष-कुंठा से उपजी यौन आक्रामकता के बल-छल से जुड़े सारे दांव-पेंचें को विश्वसनीय ढंग से खोलते हैं। ”सेवा का व्रत धारन कर लो। रानी बन जाओगी”  जैसे अनुनयपरक प्रलोभनों के बाद घुप्प अंधेरे का लाभ उठा कर बलात्कार की असफल कोशिशजन्य पीड़ा के संताप को कम करने के लिए ‘सिकरेटरी’ द्वारा सुरजी को बदनाम करना और ‘विषधर’ बिसराम द्वारा अपनी ही पतोहू बिमली को ‘पाने’ के लिए पंचसूत्री योजना बनाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ”मेला देखेगी? जलेबी खाएगी? गंगा असनान करेगी?’ पहली अवस्था यानी प्रलोभनों का जाल! ”डरेवरवा की दारू महकाती है और मेरी गंधाती है?” दूसरी अवस्था यानी लोकापवाद की सूचना देकर डराने की युक्ति! ”मुझसे बोलने में भी पाप लग रहा है? तिरिया चरित्तर फैलाने से जान बचेगी? साली! कातिक की कुतिया!” तीसरी अवस्था यानी अपमान, आवेश और तिरस्कार के घालमेल से तैयार प्रतिशोधात्मक मानसिकता का ‘प्रबोधन’ जो तिरिया चरित्तर में निहित व्यंजनाओं को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की प्रेरणा देता है। ”किसुनवा ओझा ने गांजे में कोई बूटी मिला कर पिला दिया था। मति भरिष्ठ कर देने वाली बूटी। उसी से हफ्ते भर सिर पर पाप सवार था। . . . मैं तो लक्ष्मी ही कह कर पुकारूँगा अब तुझे बहू। मना मत करना।” चौथी अवस्था यानी छल-छंद की महीन व्यूह रचना जिस कारण ‘चरनामरित’ के नाम पर अफीम का घोल पिला कर बेसुध विमली के साथ व्यभिचार करना बेहद आसान हो जाता है। ”खाली हाथ नहीं, उसकी मेहरारू का गहना-गीठी भी खोद कर ले गई है” – पांचवी अवस्था जहाँ प्राणरक्षा के उद्योग में भागी विमली पर चोरी और चरित्रहीनता के दोष साबित करना आसान हो जाता है।

जाहिर है पुरुष का यौन बल-प्रयोग (बलात्कार) सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं, अनवरत चलती रहने वाली मानसिक विकलांगता अधिक है। इसे अपनी कहानी ‘एक औरत और चार लड़के’ का केन्द्रीय विषय बना कर लता शर्मा ने केस स्टडी पद्धति का परिचय देते हुए पुरुष की घृणा और प्रतिशोध के तल में दबी मनोगं्रथियों को अद्भुत कौशल के साथ खोला है। चार अलग-अलग पृष्ठभूमि के शिक्षित सम्पन्न लम्पट युवक! दोस्त का ‘हैप्पी बर्थडे’ मनाने के लिए बतौर तोहफा किसी युवती का अपहरण कर सामूहिक बलात्कार की योजना! . . . पहला केस है सुमीत। तिरेपन की उम्र में तैंतीस की लगने की कामना और अविवाहित जीवन की दायित्वहीन उन्मुक्तता का आस्वाद करते रहने की उत्कंठा में मां की बजाय मेपल नाम से संबोधित करने का आग्रह सुमीत को सम्बन्धों की गरिमा, आत्मीयता एवं मनुष्यता के प्रति अनास्थावान बना देता है। मां के रूप में गृहीत स्त्री-छवि के एक उदाहरण को पूरी स्त्री जाति पर लागू करते हुए बलात्कार के जरिए वह अपनी क्रूर विलासिता को प्रकट नहीं करता, बल्कि दिशाहीन पीढ़ी के नैतिक स्खलन एवं विवेकहीन प्रतिशोध के भयावह सच को रेखांकित करता है जिसके मूल में परिवार की आत्मकेन्द्रित दोषी भूमिका परिलक्षित की जा सकती है। दूसरा केस है डॉक्टर जो निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि के बावजूद बहन के प्रयासों से जमा कराई ढाई लाख कैपीटेशन फीस की बदौलत डॉक्टर बन कर पाता है कि बहन त्याग और निःस्वार्थ सेवा के बदले उसे अपदस्थ कर ‘राजा बेटे’ के लिए आरक्षित सिंहासन पर स्वयं चढ़ बैठी है। फलतः दरक कर चूर-चूर होती सामंतवादी अहम्मन्यता को संजोने के प्रयास में बहन के बहाने संपूर्ण स्त्री जाति से प्रतिशोध। तीसरा केस बाल्यावस्था में पिता और उसके मित्रों के यौन शोषण के शिकार ‘हीरो’ का है जिसके लिए यौन सम्बन्ध स्त्री-पुरुष के रागात्मक मिलन का नाम नहीं, आतंक और असुरक्षा का पर्याय है। इसलिए अकारण नहीं कि वह न केवल अप्राकृतिक मिथुन कर यौन सम्बन्धों के प्रति गहरी वितृष्णा व्यक्त करता है बल्कि स्त्री की जांघों को सिगरेट से दाग कर अपने अंदर के भयभीत क्षुब्ध शिशु को सांत्वना देने के प्रयास करता है। चौथ केस अजय का है – गरीब किंतु ऐयाश अमीर दोस्तों की संगत में आकाशकुसुम तोड़ने को लालायित। थोड़ी सी संवेदना और ज़रा सी मनुष्यता अभी शेष है उसमें। लेकिन उससे कहीं ज्यादा परिमाण में है हीनता ग्रंथि जो संवेदना को ‘कमजोरी’ समझने का अहसास पाते ही विषदंतों से उसकी मनुष्यता को दंशित करने लगती है। ये चारों युवक एक ओर आत्मपीड़ा और आत्मदया के शिकार हैं तो दूसरी ओर उपभोक्तावादी संस्कृति की उपज जिसने सही-गलत, नैतिक-अनैतिक जैसी मूल्यधर्मी मान्यताओं को गड्डमड्ड कर दिया है।

लता शर्मा के विश्लेषण को ‘कमीज पहन रहा है जैक द रिपर’ कहानी में क्षमा शर्मा ने फैंटेसी के जरिए विद्रूप और मारक रूप में प्रस्तुत किया है। ऐसे पुरुष को वे मि0 एग्ज़ीमा कहती हैं क्यांेकि ”जब आदमी हमेशा दूसरों से चिढ़े तो न्यूरोटिक हो जाता है।”(हंस, अगस्त 1997 पृ046) यह पुरुष ‘मनुवादी मर्दों का उत्कर्ष संगठन’, ‘मनु महाराज की जै संगठन’, ‘बलात्कार विशेषज्ञ संगठन’, ‘रिपर  ज़िंदाबाद संगठन’ बना कर पश्चिम से कम से कम सौ बलात्कारी क्लोनों का आयात करना चाहता है जो निर्लज्ज स्त्री की देह से नहीं, आत्मा से बलात्कार करें और दूसरे, आज की तरह हर घड़ी, हर जगह -रेल, कार, दफ्तर, पार्क, छत – बलात्कार अवश्य करते रहें पर पकडे न जाएं। अपराध बोध एवं लाज से बरी हो गई स्त्री को मनुवादी व्यवस्था का पालन करते हुए ‘रास्ते’ पर ले आएं। उस स्त्री को जो नौकरीपेशा है यानी ”बाजार में बैठी है। बस, दिमाग कलम कर देने की देर है कि जिस्म बचेगा। लता शर्मा और क्षमा शर्मा के विश्लेषण को सामाजिक संस्थाओं के संदर्भ में अनूदित करते हुए शिवमूर्ति  समस्या की सूक्ष्म गहराइयों और व्यंजनाओं में छिपी मासूमियतों को देखने की बजाय सतह पर उभरी ‘शैतानियों’ को खंगालने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। वे व्यक्ति से बाहर तंत्र में सन्निहित उन कारणों पर फोकस करते हैं जो व्यक्ति को भेड़िया और नर-पशु बनाते हैं। समस्या का ठीक वही कोण जिसे केन्द्र में रख कर अधिकांश स्त्री लेखन अपनी चिंता को व्यथा और समाधान का रूप देता रहा है। शिवमूर्ति की उपलब्धि है कि स्त्री विरोधी साहित्य रचना में  संलिप्त पुरुष मानसिकता का विस्तार वे समाज की प्रमुख संस्थाओं – धर्म, न्याय, मीडिया – तक करते हैं। जैसे ‘तिरिया चरित्तर’ में वे पुरुष के पाखंड और उसकी ‘हमदम’ पंचायत के जरिए न्यायपालिका के उस बर्बर ‘चरित्तर’ को बेलाग ढंग से उजागर करते हैं जहाँ न्याय का पलड़ा हर हाल में पुरुष के पक्ष में ही झुकता है। स्त्री (विमली) को अपराधिनी सिद्ध करने के लिए साक्ष्य जुटाना कौन कठिन काम है? आखिर इसी मनोदृष्टि के कारण उच्चतम न्यायालय बलात्कारियों को बाइज्जत बरी करता आया है  या सवर्णों द्वारा दलित स्त्रियों के यौन शोषण की संभावना को पुरजोर नकारता रहा है। (भंवरीबाई केस) आश्चर्य है कि न्याय के हंता के रूप में न्यायपालिका की कुत्सित भूमिका को हिंदी कथा लेखन गहराईपूर्वक बेबाकी से उघाड़ नहीं सका है। अपवादस्वरूप कमला चमोला की कहानी ‘अंधेरी सुरंग का मुहाना’ का उल्लेख किया जा सकता है जहाँ बेपर्दानुमा खुली अदालती जिरह बलात्कृता को सरेआम नंगा होने की अनुभूति से बींधती है तो तिथि पर तिथि देकर केस लटकाते चले जाने के लटके-झटके किसी के भी धीरज और मनोबल को तोड़ने को पर्याप्त हैं। तिस पर केस को नई रंगत देने की कोशिश में फरियादी की चरित्रहीनता की कलंकित कथाएं गढ़ कर सच का विरूपीकरण करने की साजिशें! सिर्फ इसलिए कि जो स्त्री दुश्चरित्र है, उस पर बलात्कार करने वाले को दोषी नहीं कहा जा सकता? यदि ऐसा है तो क्या एक बार फिर बलात्कार की पुनर्परिभाषा अनिवार्य नहीं? साथ ही अभियुक्त के रूप में पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का मानसिक उपचार भी?

रघुवीर सहाय राजनीतिक पतनशीलता को देश के नैतिक चरित्र के स्खलन का महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं। उनके अनुसार सत्ता और समृद्धि के सुख में रची-पगी उपभोक्तावादी संस्कृति की नई पीढ़ी अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए जिस प्रकार उत्तरोत्तर सामंतवादी होती गई है, वह धर्म एवं आर्ष ग्रंथों के संरक्षण तले अपनी प्रभुता बनाए रखने वाले वर्णवादियों की रणनीति से पूरी तरह मेल खाती है। पत्रकारिता दोनों वर्गों के हित साधन की आधारभूमि है जहाँ स्त्री को आधुनिकता तथा परंपरा के नाम पर ‘पालतू’ बनाए रखने का विज्ञापन-प्रवचन चौबीसों घंटे जारी रहता है। जाहिर है बलात्कार की सनसनीखेज रिपोर्टिंग के पीछे मुख्य मंशा अपराधी को दंड दिलाना नहीं, ‘औरत के इस्तेमाल का बाज़ार’  मजबूत करना है। मीडिया की इस दायित्वहीन भूमिका पर हिंदी कहानी में खासा रोष है। विशेष उल्ल्ेखनीय है कैलाश बनवासी की कहानी ‘एक कॉलम की खबर’ जहाँ कवरेज और रिपोर्टिंग के बीच आ बैठने वाले घटकों – राजनीतिक-आर्थिक दबाव, ढुलमुल अखबारी नीति और स्वार्थपरता – की चौकस पड़ताल की गई है। ”ये कोई पोलिटिकल स्टंट नहीं है . . . मुझे ग्लैमराइज करने की जरूरत नहीं . . . प्लीज़! आप लोग मेरा साथ दीजिए सिर्फ – न्याय के लिए। क्या आप लोग नहीं चाहते उसे सजा मिले? आप लोग यह तो नहीं चाहेंगे कि आपकी मां-बहनों या बीवियों के साथ ये राक्षस इसी तरह पेश आएं?”  – टेपरिर्काडर में कैद नीता जायसवाल की अपील को अपदस्थ कर जिला चिकित्सा संघ के ध्यानाकर्षण विज्ञापन को विस्तारपूर्वक मुख्यपृष्ठ पर छापना (जिसमें कतिपय असामाजिक, प्रगतिविरोधी तत्वों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचारों से बचे रहने तथा पूर्ण विश्वास और सहयोग बनाए रखने का आग्रह किया गया है) और मुख्य मुद्दे को रोष भरे प्रदर्शन की सरसरी खबर के रूप में परोसना लोकतंत्र के प्रहरी मीडिया की आचार-संहिता के प्रति कुछ सवाल उठाता है कि मीडिया का दायित्व क्या सिर्फ घटना की ‘खबर’ देना है, उसमें सन्निहित खतरों और चेतावनियों को सूंघ कर जनता को आगाह करना नहीं? कि खबर के ‘फॉलो अप’ का पीछा करते हुए उसे सही परिप्रेक्ष्य और शब्दों में उभारना क्या उसका नैतिक कर्त्तव्य नहीं ताकि अपराधी को दिए जाने वाले कड़े दंड की खबर छाप कर वह विकृत मानसिकता के अपराधियों के हौसले तोड़ सके? क्या कलम की शक्ति का इस्तेमाल कर ज्वलंत समस्याओं और मुद्दों पर जनमत बनाना और पारंपरिक दृष्टिकोण में क्रमिक परिवर्तन की रचनात्मक भूमिका अदा करना उसका लक्ष्य नहीं? यह स्थिति का विद्रूप नहीं तो और क्या है कि बलात्कारी के मानसिक उपचार को सामाजिक जरूरत का रूप देने की बजाय बलात्कृता के ‘पुनर्स्थापन’ पर बल दिया जाता है। यानी फोकस में आ रही बलात्कारी की पहचान को पूरी ताकत लगा कर बेचेहरा-बेनाम कर देने की साजिश। प्रासंगिक न होते हुए भी क्या यहाँ जार्ज फर्नांडीज़ का वक्तव्य उद्धृत करना अनुचित होगा जहाँ गुजरात दंगों के दौरान बलात्कार के बढ़ते आंकड़ों से शर्मसार होने की बजाय वे इसे एक स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया मानते हैं?

 बेशक स्त्रियों के हित रक्षण में विविध महिला संगठनों की भूमिका काफी मुस्तैद और सकारात्मक रही है, लेकिन हिंदी कहानी में इनकी भूमिका को लेकर कहीं मोहभंग की स्थिति भी साफ दिखाई पड़ती है। हैबरमास जिसे ‘वाम फासीवाद’ की संज्ञा देते हैं और मृदुला गर्ग जिसे ‘कोमा’ में चले जाने की नाजुक स्थिति, जहाँ कमज़ोर वर्ग की स्त्रियों का इस्तेमाल कर वे रोबोट की तरह यांत्रिक हरकतें करके अपना दैनिक कामकाज तो पूरा कर सकती हैं, पर महसूस कुछ नहीं कर पातीं,  उसी के विरोध में रची गई है सुमति अय्यर की कहानी ‘एक पूरी ज़मीन’। ”मैंने तो सिर्फ मुद्दा बनने से इंकार किया था। वे मुझे एक मुद्दे के रूप में ले जाना चाहते थे। आशा (नायिका का नाम) बना कर नहीं। मैं आशा बन कर जाना चाहती थी।”(कथादेश, दिसंबर, 1997 पृ0 58) आशा को ढेरों शिकायतें हैं महिला संगठनों से और ढेरों सवाल कि ”तब कहाँ थे आप लोग जब अर्थी (पुलिस हिंसा में मृत जयंत) को कंधा देने के लिए कमज़ोर महिलाओं के कंधे ही रह गए थे?” (वही, पृ0 60) सही समय पर सकारात्मक संभावनाओं को संरक्षण देने की बजाय बैनरों और जलूसों के जरिए खबरें बनाने वाले महिला संगठन क्या सिर्फ अपने अस्तित्व और महत्व की रक्षा के लिए ही तो चिंतित नहीं? ”फुसफुसी जमीन पर टिकी’ इन संस्थाओं के चरित्र को पढ़ कर कमला चमोला इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि ”संस्था अपने आप में कुछ नहीं होती। होता है बस व्यक्ति।”

‘खेती करते हैं, नेतागिरी भी और लोगों के हिसाब से गुंडागर्दी भी’ 

मात्र स्त्री सुलभ जिंस नहीं, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से कमजोर पुरुष भी समर्थ वर्ग के वर्चस्व प्रक्षेपण का शिकार रहा है। अल्मा कबूतरी को भगाने के अपराध में धीरज पर धधकते क्रोध की अभिव्यक्ति हेतु किराए के चार-पांच गुंडों द्वारा ‘बलात्कार’ के जरिए उसे ‘नाथने’ की युक्ति  में यौन उत्पीड़न की वही ग्रंथि विद्यमान है जो समलिंगी पुरुष द्वारा बलात्कार तथा ‘स्त्री’ की भूमिका में ढाल दिए जाने की दोहरी लज्जा एवं अपमान से उपजी है। उर्मिला शिरीष ‘किसका चेहरा’ कहानी में इन ‘पालतू गुंडों’ के इतिहास को खंगाल लेना चाहती हैं जहाँ  निस्सहाय और दिग्भ्रांत अवस्था में वे भविष्यहीनता की ओर ढकेल दिए जाते हैं। ट्रेन चलते ही आरक्षित डिब्बे में हड़बड़ा कर झुंड के झुंड घुसते लड़के जिस प्रकार बैठ भर पाने के लिए कॉलेज टुअर पर जा रही लड़कियों को बर्थ से खदेड़ते हैं और उनके विरोधपरक भिनभिनाते शोर से त्रस्त चाकू निकाल लेते हैं (निर्वासन, पृ026), उससे आसन्न बलात्कार के भय से मिमियाती लड़कियांे और हत्बुद्धि प्राध्यापिका की भयभीत मनोदशा का प्रामाणिक चित्रण ‘किसका चेहरा’ का कथ्य नहीं। कथावाचिका से साथ तादात्मीकृत होकर लेखिका स्वयं दृश्यपटल पर उपस्थित हो जाती हैं। क्षणिक उत्तेजना से जन्मे आतंक एवं घृणा जैसे मानवीय भावों पर नियंत्रण पा जब स्थिति पर विचार करने लगती हैं तो लड़के अमूर्त न रह कर सुनिश्चित पारिवारिक पृष्ठभूमि/मजबूरियों में बंधे भाई-बेटे-मनुष्य लगने लगते हैं। ”पतली लकड़ी सा हाथ!” करुणा से भर कर वे उन्हें मानवीय दृष्टि से देखती हैं तो वे ”वहशी नहीं, कच्ची उम्र के अनुशासनहीन और पथभ्रष्ट लड़के नज़र आते हैं जिन पर ज़िंदगी जीने की त्रासदी एक अभिशाप की तरह थोप दी गई है। संवेदना का विस्तार करती यह मानवीय अनुभूति जिस तरह शनैः शनैः बलात्कार/यौन उत्पीड़न के भय को कम कर लड़कियों को सहज करती है, वह समस्या को विकराल बना देने वाले तत्वों का मनोवैज्ञानिक/भावनात्मक उपचार किए बिना सामाजिक विकृतियों के समाधान की किसी भी संभावना को निर्मूल करती है।  ”डंडे फ्री . . .मौत फ्री . .” – अपनी खौफनाक परिणति से पूरी तरह परिचित कॉलेज के ये लड़के भूख-प्यास, बेरोज़गारी, भौतिक प्रलोभनों या महत्वाकांक्षाओं की सूली पर चढ़ कर राजनेताओं और उनके दलालों के हाथ में खेलने वाले मुहरे भर बन जाते हैं। रैलियों में भीड़ जुटानी हो, प्रदर्शन-धरना-जुलूस हो, दंगा-फसाद करवाना हो – ‘दिहाड़ी’ पर खरीद कर इन अनुशासनहीन युवकों को हांक दिया जाता है आतंक फैलाने के लिए, घृणा पाने के लिए। ”नरकंकालों की सबसे आखिरी पंक्तियों में बैठाए’ जाने वाले भूखे-प्यासे, नींद से त्रस्त, दुरदुराए इन पथभ्रष्ट नवयुवकों को देख कर लेखिका बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाती हैं कि ”क्या ये राष्ट्र की सम्पत्ति  – बेजान चीज़ों से भी गए गुज़रे हो गए . . । इनके लिए कुछ नहीं है हमारे पास?”(वही, पृ0 30) संवाद स्थापित करने की मानवीय कोशिश में यदि वे वास्तविक ‘आपराधिक तत्वों’ पर उंगली उठाते हैं (”इसमें हमारा दोष भी नहीं है। आप जैसों का है जो सिखाने की बजाय गन्ने की तरह चूस कर फेंक देते हैं हमें”) तो खिसियाने और गरजने की मुद्राएं क्यों?

संतुलित एवं परिपक्व दृष्टि से बलात्कार की समस्या पर विचार करते हुए विष्णु प्रभाकर ‘अर्धनारीश्वर’ उपन्यास में बलात्कारियों के मनोविज्ञान और बलात्कार के कारणों की जांच-पड़ताल करते हैं तो व्यक्ति की अपेक्षा समूचे तंत्र को कटघरे में खड़ा पाते हैं। शरत्चंद्र के जीवनी लेखक के रूप में विष्णु प्रभाकर की विशेषता है स्त्री समस्याओं को लेकर अनायास अतिरिक्त रूप से संवेदनशील हो उठना जहाँ पूर्वग्रहमुक्त उन्मुक्त क्षितिज पर विचरण करना उनके लिए संभव हो जाता है। समस्या की ऊपरी परत को छू-छील कर वक्त की पूरी तस्वीर देने का दावा करने की बजाय वे पीड़िता सुमिता के साथ बलात्कार के दंश, अपमान की ज्वाला, दरकते वैवाहिक सम्बन्ध की वेदना भोग का निरंतर अंतर्मुखी होते चलते हैं – ‘मैं’ से उबर कर भीतर स्थित ‘व्यक्ति’ का साक्षात्कार कर अपनी सहानुभूति और संवेदना का निरंतर विस्तार करते हुए। इस क्रम में पीड़ा (अनुभूति) को अनुभव और अनुभव को विश्लेषण में ढाल कर वे जिन निष्कर्षों पर पहुंचते हैं, वहाँ बलात्कारी ‘अपराधी’ नहीं, सफेदपोश अपराध तंत्र का शिकार बन कर पीड़क-पीड़ित की विभाजक रेखा को बेमानी कर देता है। यही वह बिंदु है जो सुमिता को बलात्कार जैसी वैयक्तिक दुर्घटना को निजी न मान कर सामाजिक दुर्घटना मानने को प्रेरित करता है। बलात्कार जैसे अमानवीय हादसे के प्रति वितृष्णा होते हुए भी उसे बलात्कारियों से घृणा नहीं क्योंकि अर्ध-मूचर््िछतावस्था में सुने उनके शब्द सारी घटना को एक नया संदर्भ दे डालते हैं – ”कैसी बीभत्स-विकृत थी वह हंसी और उसी के बीच उतने ही बीभत्स उसके साथी के ये शब्द,”मैं इसे मार कर शहीद बना दूँ! नहीं, नहीं, यह ज़िंदा रहेगी और तड़पेगी गरम रेत पर मछली की तरह। मुझे इंतकाम लेना है उन सफेदपोशों से . . .।”  . . .उसने जो कहा था, वह  वर्जनाओं और बंधनों के बीच जीने वाला ही कह सकता है। . . . .मैं जो कहना चाह रही हूँ तुमसे वह यही है कि मैं उन्हें अपने मानस-पटल पर देख कर डरी नहीं, अपने से घृणा भी नहीं की। मुझे लगा अजित कि जो कुछ उन्होंने किया, वह केवल वासना का खेल नहीं था। वासना तो निमित्त मात्र थी बदला लेने की। हाँ, मूल में इस जघन्य कृत्य के पीछे इंतकाम लेने की कामना थी, सम्पन्न और सत्ताभोगी वर्ग से इंतकाम लेने की भावना।”(अर्धनारीश्वर, पृ0146) यहीं से विष्णु प्रभाकर एक प्रश्न भी उठाते हैं कि क्या संसार का इतिहास इसी नाना रूप सत्ता भोगी वर्ग द्वारा सत्ताहीन वर्ग की नारियों पर किए जाने वाले पाशविक और लौहमर्षक अत्याचारों की मर्मांतक कहानियों से नहीं भरा पड़ा है? असल में यह प्रश्न नहीं, लज्जा के रूप में उभरी स्वीकारोक्ति है जिसे इसी उपन्यास में नाना उद्धरणों/घटनाओं का समावेश कर वे पुष्ट करते रहे हैं। धार्मिक शुचिता की रक्षा का सवाल हो या सत्ता पक्ष द्वारा निरंकुश शक्ति प्रदर्शन की मुहिम, बार-बार रौंदी जाती है स्त्री की अस्मिता जो तमाम सूक्तियों/आप्तवचनों के बावजूद निर्मूल्य है। लेखक ने स्थिति की विडंबना को पराकाष्ठा पर ले जाकर उस समय छुआ है जब ‘सामाजिक समता के समर्थक’ रूस का वामपंथी तानाशाह बलात्कार को ‘भूखे’ सैनिकों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहता है – ”हमारे सैनिक अरसे से घर से दूर थे और स्त्री सुख के लिए तरसे हुए थे। इसलिए उन्होंने जो किया, वह स्वाभाविक था।” (पृ0 356)

आवेश को थिरा कर वैचारिकता और संवेदना की गहराइयों को थहाना आसान हो जाता है जहाँ सतह पर दीखती विकृतियां अपने ‘विकृत’ रूप में होने के कारणों और कारकों के साथ विश्वसनीय रूप में विद्यमान रहती हैं। यही वजह है कि वृद्धों द्वारा बालिकाओं के बलात्कार की नृशंस घटनाओं पर थू-थू करने की बजाय विष्णु प्रभाकर पाठक से उन मानसिक सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लेने का आह्नान करते हैं जहाँ बुढ़ापा वीतरागी होने के तमाम विशेषणों-नसीहतों को झटक कर जीवन को पूरी ऊर्जा और ऊष्मा के साथ जी लेने का हठ पालने लगता है। निस्संदेह इसी कारण रसना रस के साथ-साथ जीवन के समस्त रस ग्रंथियों, तृष्णाओं, प्रलोभनों के रूप में उसे जब-तब डसते रहते हैं। कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, कामेन्द्रियों के शिथिल पड़ जाने का अर्थ जीवन से विरत होना नहीं, जीवन में अपने जिए ‘जगह’ बनाने की चुनौती बन जाया करता है। इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए विष्णु प्रभाकर सत्तर वर्षीय बलात्कारी वृद्ध की आत्मस्वीकृति में आरोपित मान्यताओं और उच्चतर अपेक्षाओं के बीच निरंतर द्वंद्व एवं दुविधा में अपनी ही धुरी से उखड़ कर वृद्ध जीवन को अभिशाप बनाती वास्तविकताओं को परत दर परत खोलते हैं – ”काम हर व्यक्ति के भीतर है। वही तो जीवन को गति देने वाली ऊर्जा है। शरीर और मन दोनों को सहेजे रहती है। बुढ़ापे में शरीर छूटता जाता है लेकिन मन पर उसकी जकड़ बनी रहती है। . . . बहुत प्रयत्न किया अपने को सम्हालने का पर हर प्रयत्न के बाद होता था यह कि  रात को जब लौटता तो कोई न कोई अर्धनग्न युवतियों वाली या आधी रात के किस्सों वाली पत्रिका ले आता। . . .लोगों की दृष्टि में मैं तप कर रहा था इस आयु में अकेले रह कर, पर भीतर आकांक्षा का तूफानी समंदर बाट जोहता रहता कि स्वर्ग से कोई उर्वशी या मेनका उतरे मेरा तप भंग करने को।” (वही, पृ0 48-49) विष्णु प्रभाकर उपन्यास में आद्योपांत विशेष सजग रहे हैं कि स्त्री या पुरुष किसी भी पक्ष के प्रवक्ता के रूप में न उभर कर वे समस्या का सटीक विश्लेषण करें। लेखकीय चिंता को निर्लिप्तता में बदल कर असंलग्न भाव से पात्रों को ‘मनुष्य’ रूप में बारीकियों के साथ समझना जटिल ही नहीं, जोखिम भरा कार्य भी होता है जहाँ अक्सर लेखकीय पक्षधरता/सरोकार संतुलन भंग की स्थिति पैदा कर देते हैं। लेकिन विष्णु प्रभाकर स्त्री और पुरुष, बलात्कृता और बलात्कारी दोनों के अंतर्मन में निहित कुंठाओं और लज्जाजन्य अपराधबोध को पूर्व परंपरा एवं परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में पहचान पाए हैं और उनकी ‘निर-अपराधिता’ को इस सहज मानवीय ढंग से चित्रित करते हैं कि वह किसी के भी बचाव का उपक्रम न लग कर अपराध/ग्लानि तक पहुँचाने वाली राह को खोजने का प्रयास बन जाता है ताकि कल का मनुष्य ठोकर खाकर चेतने से पहले आत्मानुशसन एवं मानवीय गरिमा से सम्पन्न हो कर दूसरे की ‘मनुष्यता’ का सम्मान करना सीख सके।

स्पष्ट है कि बलात्कार सामंती दंभ और विकृत कामलिप्सा द्वारा पोषित मनोवृत्ति मात्र नहीं, आर्थिक-राजनीतिक कुचक्रों की अनिवार्य स्थिति भी है। अतः युवा शक्ति को एक स्वस्थ-सकारात्मक ज़िंदगी से बेदखल कर आतंकवाद और माफिया जैसे रसातलों की ओर ढकेलने वाले तत्वों की शिनाख्त अहम हो जाती है। उल्लेखनीय है कि विश्लेषणात्मक वैचारिक गहराइयों का संस्पर्श कर दूसरी अवस्था का कथा लेखन यहाँ बलात्कार की अर्थ-व्याप्तियों को दूर तक ले जाकर हिंदी कथा साहित्य में पुष्टतर होती समाजशास्त्रीय अनुगूंजों को सुनने को बाध् य करता है।

‘आखिर क्यों मुस्करा रही है मोनालिसा?’
” बलात्कारी एक डरा हुआ आदमी है। उसे तुम्हारी शर्म पर भरोसा है। बेशर्म बनो”   – दूसरी अवस्था के कथा लेखन का केन्द्रीय स्वर है यह उद्गार। अतः बलात्कार को महज एक ‘दुर्घटना’ का नाम दे जहाँ स्त्री को अपराध बोध से मुक्त करने और यौन शुचिता की पारंपरिक मान्यताओं पर कुठाराघात करने में वह पहल करता है, वहीं एक नई जुझारू और आत्मसजग स्त्री की छवि भी गढ़ना चाहता है। ”तो क्या कहीं से कोई और धरती आने वाली है औरतों की दुनिया के लिए?’   -वह प्रश्न नहीं उठाता, अपनी मुट्ठी में बंद विकल्पों और संभावनाओं को तोल लेना चाहता है। भय मुक्ति – पहला संकल्प! ”संस्कार भय पैदा करते हैं और भय की दीवारों के बाच पनपती है अंधी आस्था। उसी आस्था का कवच पहन कर प्रहार करते हैं सामाजिक महारथी।”  अतः शत्रु को पराभूत करने के लिए डाकिनी-पिशाचिनी की तंत्र विद्याा से तैयार कराए आटे के पुतले में नपुंसक प्रतिशोध से उपजी बेचारगी को केन्द्रीकृत करने की बजाय वह अपनी लड़ाई आप अपने हथियारों से लड़ने को तत्पर हो जाती है – पुतले (भय) को जोकर (उपहास) बना कर। ”हमने औरत को यह क्यों नहीं सिखाया कि वह बलात्कार को अपने पर राजनीतिक आक्रमण समझे और यह भी समझे कि अपनी जान गंवा देने का प्रमाण देने में सतीत्व की प्रतिष्ठा नहीं, बलात्कारी की जान ले लेने में हो सकती है।”  रघुवीर सहाय की कामना को मैत्रेयी पुष्पा जब अपने दो उपन्यासों ‘इदन्नमम’ तथा ‘अल्मा कबूतरी’ में मूर्त रूप देती हैं तो समस्या और समाधन के अंतः संश्लिष्ट सूत्रों को क्रमिक रूप में उघाड़ती हैं। व्यभिचारी अभिलाख की हत्या के बाद आत्मदहन कर अपनी बेबसी की पुष्टि करने वाली सुगना के बरक्स वे मंदा को खड़ा करती हैं जो हत्या बनाम आत्मरक्षा के माामले की कानूनी जांच के लिए अडिग है। चूंकि नेताओं और पुलिस के गठबंधन से अपराध जगत् पर अपनी पकड़ मजबूत करते पूंजीपतियों के लिए मंदा सबसे बड़ी बाधा है, अतः हत्या के पीछे मंदा के ‘हाथ’ को ‘कल्पित’ कर हथकड़ियां पहनाने की पुख्ता तैयारी प्रशासन द्वारा कर ली जाती है। ‘अल्मा कबूतरी’ तक आते-आते मैत्रेयी समझ गई हैं कि जान देने की तरह जान लेना भी आवेशमयी बचकानी मुद्रा है जिसके चलते न जीवन जिया जा सकता है, न लक्ष्य संधान। बार-बार अनादृत होकर अल्मा ने जाना है अस्मत की रक्षा के लिए उसकी हर आक्रामक भंगिमा पुरुष की नज़र में ”आनंद बढ़ाने का नुस्खा” बन जाती है; कि ”नंगापन पहली बार लगता है, बार-बार नहीं”। भय और लज्जा से मुक्त स्थिति का ठंडा दो टूक विश्लेषण! इसलिए न विद्रोह, न समर्पण; न ऊष्मा, न स्पंदन – मंत्री श्रीराम शास्त्री की सेवा में प्रस्तुत निरी निष्प्राण-निस्पंद देह! अलबत्ता मानस में दूर तक जड़ें पकड़ता गहरा संकल्प कि ”आपको उखाड़े बिना नहीं मरूँगी।” मैत्रेयी की विशेषता है कि प्रतिशोध को आक्रोश के परनाले में बहा कर उन्होंने अल्मा को रीता नहीं किया, बल्कि श्रीराम शास्त्री के साथ संवाद और संवेदना की झिर्रियां खोल हवा, गंध, पानी की तरह अल्मा को उसके लिए अपरिहार्य बना दिया है। उसका प्रतिशोध एक ‘व्यक्ति’ से नहीं, पूरी व्यवस्था से है, इसलिए सत्ता पर काबिज हो वह प्रभुता और वर्चस्व के जरिए व्यवस्था का अहम हिस्सा बनने को लालायित है। राणा की परिणीता की मानसिकता में श्रीराम शास्त्री की विधवा के रूप में सत्ता हथियाने का निश्चय उसकी इसी मानसिकता का परिचायक है। यहाँ एक सवाल उतनी ही तीव्रता से सिर भी उठाता है कि सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी का अद्यतन इतिहास क्यों पुरुष वर्चस्व से मुक्ति नहीं पा सका है?

इसी सवाल से उभरता है दूसरा संकल्प – बैसाखियों के बिना आत्मनिर्भरता! ग्रासरूट तक स्त्री अस्मिता की संवेदना का प्रसार! शब्दों से ताकत मिलती है, लेकिन ज़मीन से जुड़ कर मिलती है नमी और शांति, आँखों में क्रोध ज्वालामुखी बन कर संचित होता रहता है – किसी एक प्रताड़ित जन का नहीं, पूरी ज़मीन का, रौंद दी गई अस्मिताओं का। सुमति अय्यर की ‘एक पूरी जमीन में शंकर-सिंधु के बरक्स आशा जिस निरुद्वेग भाव से अपनी लड़ाई लड़ने को लालायित है, वहाँ उसके ‘अ-ज्ञान’ में ही भावी रणनीति की बारीकियां छुपी हैं – ”पानी में लड़ना है तो चप्पू से बेहतर हथियार नहीं हो सकता। यह लड़ाई उनके तरीकों से नहीं लड़ी जा सकती, इतना जानती हूँ, पर कैसे लड़ी जाएगी, यह नहीं जानती।”  इस प्रश्न का जवाब विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’ में निहित है। ”इच्छाओं से मुक्ति नहीं, इच्छाओं की दासता से मुक्ति; पुरुष के बल के आकर्षण से मुक्ति नहीं, बल के पशुत्व के आकर्षण से मुक्ति; निर्भरता से नहीं, निर्भरता की अनिवार्यता से मुक्ति”  को किसी भी महाभियान की पहली सीढ़ी मान कर विष्णु प्रभाकर स्त्री के हाथ यह बीज मंत्र थमा देना चाहते हैं कि ”अकेला आदमी सबसे शक्तिशाली होता है।” सुमिता के वैचारिक-भावनात्मक आलोड़न को प्रमिला वर्मा, राजकली, मार्था, किरण, शालिनी जैसी अनेकानेक बलात्कृता स्त्रियों की मनोग्रंथियों के बीच पुनर्जीवन के लिए ललकती जिजीविषा के साथ जोड़ वे विभा के रूप में एक ऐसी लौह-स्त्री गढ़ते हैं जो जान की बाजी लगा कर भी पूरी व्यवस्था से उलझने और पलटने को तैयार है। बेशक विभा अंत तक आते-आते शरत्चंद्र के उपन्यास ‘शेष प्रश्न’ की कमल के समान अतिबौद्धिक एवं अविश्वसनीय अधिक लगने लगती है और उसका प्रस्ताव यूटोपिया की शक्ल लेने लगता है, लेकिन यूटोपिया हमेशा अग्राह्य और उपहासास्पद ही क्यों समझा जाए? वह अपने मूल रूप में सुनहरे भविष्य का ब्लू प्रिंट भी होता है।

”नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं”  – तीसरा संकल्प, विभा के यूटोपिया (‘नई स्मृति’ के निर्माण की रूपरेखा) के रूप में उभरता हुआ। युगों पुरानी ‘स्मृतियां’ जब बदलते वक्त में हमारी सहायता नहीं कर सकतीं तो क्यों न युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप एक नई व्यापक ‘स्मृति’ (आचार-संहिता) का निर्माण किया जाए? – विभा का प्रश्न! ऐसी स्मृति जिसमें धर्म, राजनीति और व्यक्ति के निजत्व के विचार के साथ-साथ समाज में दोहरे मूल्यों-मानदंडों की कोई गुंजाइश न हो; नारी की स्वतंत्र सत्ता हो लेकिन ध्यान रखा जाए कि ‘स्वतंत्र सत्ता का अर्थ नारी की सैक्स इमेज से न जुड़े, बल्कि उसका अर्थ हो ”समान अधिकार, समान दायित्व, एक स्वस्थ समाज के निर्माण में स्त्री-पुरुष दोनों की समान भागीदारी। अर्धनारीश्वर की परिकल्पना जहाँ वे एक-दूसरे में विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए” हों। आत्मनिर्भरता और निर्भीकता के पायदान पर खड़ी लता शर्मा की कहानी ‘मर्दाना कमज़ोरी’ की कथावाचिका तीसरे संकल्प की प्रतिमूर्ति होते हुए भी विभा की अर्धनारीश्वर की संकल्पना से सहमत नहीं। एक तो पुरुष का ‘ऊँटभाव’ (आत्मस्थ, आत्मतुष्ट, अहम्मन्य भाव) , तिस पर ‘ताकत की दवाइयों के प्रति मर्दाना कमजोरी . . . तिरस्कार से मुस्कराए न स्त्री (मोनालिसा) तो क्या करे? गायक डेविड के हाथ में गुलेल देख कर करुणा और क्षमा बरसाती मुस्कान न फेंके तो कुटिल विद्रूप को सहने की शक्ति कहाँ से पाए? पौरुष का शिरस्त्राण थाम कर ध्वस्त होते जेरुसलम को देखते जैरेमिया की कायरता पर व्यंग्य की बांकी मुस्कान न फेंके तो पगला न जाए? ”आखिर क्यों मुस्करा रही है मोनालिसा? . . . सब कुछ देख रही है वह। दीवारों पर लिखे बेढंगे-बेहूदे विज्ञापन . . .स्त्री का विश्लेषण करते मनीषी . . .झुंझलाता, खिझलाता फ्रायड . . .”आखिर औरत चाहती क्या है?” ”औरत की बात छोड़ो, तुम्हें मालूम है तुम क्या चाहते हो?” मुस्करा रही है मोनालिसा . . .”विकृति या दुर्बलता, जो कुछ भी है, कानों के बीच में है, टांगों के बीच में नहीं। इसी तथ्य को रेखांकित कर रही है मोनालिसा।”

 निस्संदेह दूसरी अवस्था का हिंदी लेखन आत्माभिमान से दीप्त वर्जनामुक्त स्त्री की जिस छवि को प्रतिष्ठित करता है, वह सीधे-सीधे यौन शुचिता (यानी पुरुष अधिकार का ट्रेड मार्क) को अंगूठा दिखा कर अपने लिए स्पेस और स्वत्व दोनों को एक साथ पाने की दोहरी लड़ाई है। उल्लेखनीय यह है कि ‘पाने’ की उत्सवधर्मी उत्कंठा में चेतावनी के तौर पर निकट भविष्य में स्थित दो संकटों की ओर संकेत करना भी वह नहीं भूलती। पहली संकटापन्न स्थिति है रागात्मकता से शून्य संवेदनहीन युवतर स्त्री पीढ़ी जिसकी अनथक ऊर्जा और उत्साह के नीचे छिपी पुरुष घृणा को सूंघ कर स्वयं लेखिका अर्चना वर्मा (जोकर) स्तब्ध और भयाक्रांत हैं। ”कितना अच्छा हुआ न अम्मू कि पापा पहले ही मर गए। और हमारे घर में दूसरा भी कोई मर्द है ही नहीं। आई थिंक आई एम लकी। रियली लकी।”  – पंद्रह वर्षीया कंकु का उद्गार जिसके लिए पुरुष का अर्थ है घृणित वासना और विकृत मानसिकता का पुंजीभूत रूप! ऐसी स्त्री देह और मन का एकाग्र संगीत सुन पाएगी कभी? पराए अनुभवों की कंटीली झाड़ियों में उलझ कर जान पाएगी प्यार का अर्थ जो जीवन को गति और संतुलन देता है? अस्मिता की लड़ाई दूसरे को निर्मूल करने में नहीं, परस्पर अनुकूलन और सह-अस्तित्व में है। लेकिन इसे समझने के लिए जरूरी है निरुद्वेग कर्मठता, उदार सकारात्मकता और पूर्वग्रहरहित लक्ष्यपरकता। प्रतिक्रिया, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध के खदबदाते माहौल में इन्हें पाना इतना सरल भी तो नहीं। ये विविध साधनाएं हैं जिन्हें अपने भीतर से अर्जित करना पड़ता है – अकूत धीरज और संयम के साथ। सृष्टि का ठेका बेशक स्त्री ने नहीं लिया, लेकिन सृजन का दायित्व तो उसी का है न! ‘सृजन’ को जैव वैज्ञानिक संघटना न कह कर प्रतीक रूप में विस्तारित करें तो हर संवेदनशील जिम्मेदार नागरिक का दायित्व जो बड़बोलेपन से नहीं, मूक-एकनिष्ठ भाव से ज्योत से ज्योत जला देता है, बस!

दूसरी समस्यामूलक स्थिति है संवेदनहीन पुरुष के अकेले, असुरक्षित और न्यूरोटिक हो जाने की जिसकी ओर संकेत किया है कमला चमोला ने कहानी ‘औरतनामा’ में। बात-बात पर स्त्री को नंगा कर गांव भर में घुमाना सवर्ण/सबल पुरुष के प्रतिशोध का कारगर तरीका हो सकता है जो फौरी तौर पर बेशक उसके अहं, दर्प और शक्ति में बढ़ावा करता हो, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव उसकी रागात्मकता को ठीक कंकु की तरह बंजर और वीरान कर देते हैं।  बुद्धि और हृदय, मन और प्राण, भावना और संवेदना से हीन नंगी औरतों की परेड देख-देख कर बड़े हुए युवा के लिए स्त्री का अर्थ है – जुगुप्सा, घृणा, अपमान और ग्लानि जैसी ‘अमानवीय’ अनुभूतियां जगाने वाली वीभत्स देह। इस देह के पार मादक सुगंधियों के जीवंत स्रोतों की रचना करते स्त्री-पुरुष सम्बन्ध सृष्टि की जीवंतता के लिए कितने अनिवार्य हैं, इसे जानने की सहज उत्कंठा से शून्य युवक! कहीं मोनालिसा की मुस्कान में बंजर होने का अभिशाप ढोती भावी पीढ़ी की निस्सहाय निरर्थता के प्रति खिसियाहट तो नहीं?

कहना न होगा कि नौवें-दसवें दशक के हिंदी कथा-लेखन की वैचारिक परिपक्वता उसे बलात्कार जैसी जघन्य समस्या के समस्त आयामों को हार्दिकता एवं विश्लेषणपरकता के साथ देखने की निर्भीकता देती है। इस प्रक्रिया में ‘अबला’ पीड़िता के आंसुओं और इज्जत जैसे चालू मिथों का तर्कपूर्ण ढंग से मजाक उड़ा कर वह सीधे ‘सबल’ किंतु अदृश्यमान पीड़क (बलात्कारी) को फोकस में लाता है, उसे एक चेहरा देकर उसमें पिता-पति, भाई-पुत्र जैसे अंतरंग सम्बन्धों को देखने को बाध्य करता है। अमूर्त अपराधी की पहचान को मूर्त और सुस्पष्ट करना हिंदी कथा-लेखन की महती उपलब्धि है जिसके साथ-साथ पुरुष नहीं, पुरुषवादी व्यवस्था और संस्थाओं के चेहरे भी स्वतः बेनकाब होते चलते हैं। जेंडर सेंसिटाइजेशन, बलात्कार सम्बन्धी मुकद्दमों की त्वरित न्यायिक प्रक्रिया, मौजूदा कानूनों को अधिक मानवीय बनाने और उन्हें लागू करने तथा इन मुकद्दमों की सुनवाई हेतु बैंच में एक स्त्री जज की अनिवार्यता पर बल देने की अपेक्षा फांसी बनाम कड़ी सजा के विवाद को हवा देना असली समस्या से मुँह चुराना है। यह सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की उसी कुटिल वासना का विस्तार है जो न केवल मानसपुत्री सरस्वती के कौमार्य का हंता बन जाता है, बल्कि अपनी शर्म और अपराध छिपाने के लिए उसे तमाम लौकिक सुख-सुविधाओं से वंचित कर निर्वासन का कड़ा दंड देना भी नहीं भूलता। अपने विवेक, स्वाध्याय और श्रम से बौद्धिक क्षमताओं का विस्तार कर सरस्वती (स्त्री) अपना विलक्षण व्यक्तित्व सर्जित कर भी ले तो विष्णुप्रिया लक्ष्मी के रुतबे की ओट में उसका तिरस्कार करने से नहीं चूकता। यानी पुनर्सृजन की जिम्मेदारी एक बार फिर स्त्री के कंधों पर ही क्योंकि बकौल मीरा ”घायल की गति घायल जानै या जिन लागै होई।’

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ISSN 2394-093X
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