कामसूत्र से अब तक

आरती रानी प्रजापति

आरती जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी हैं. संपर्क : ई मेल-aar.prajapati@gmail.com

समाज का एक वक्त (आदिम समाज )ऐसा था, जब स्त्री -पुरुष को काम सम्बन्ध बनाने की पूरी स्वतंत्रता थी। वे जब चाहें ,  जिससे चाहें ,  रज़ामंदी से संबंध बना सकते थे । एकनिष्ठता का वहाँ कोई दायरा नहीं था।

जैसे-जैसे समाज ने प्रगाति करनी शुरु की उसने शारीरिक संबंधों को घर में कैद करना शुरु कर दिया। वज़ह वह सम्पत्ति , जो वह कमा सकता था, उसकी ही संतति को जाना। अर्थात् जब समाज में स्वतंत्रता थी , तब संतानें माँ के नाम से जानी जाती थी। पुरुष का कर्तव्य वहाँ उस संतति की रक्षा करना नहीं बल्कि भोजन का प्रबंध करना होता था। अविष्कारों ने मनुष्य की उस थोड़ी बहुत सम्पत्ति में इज़ाफा किया अब वह न सिर्फ पेट भर सकता था बल्कि उसके पास उस पदार्थ को (जो उसकी निजी सम्पत्ति होता था) संभाल कर रखने और उसे अपनी आने वाली पीढ़ी को देने की प्रव्रत्ति पैदा हुई| उन्मुक्त समाज में पुरुष का ये जान पाना की उसका बच्चा कौन है संभव नहीं था| इसी सोच के तहत परिवार की स्थापना हुई, जिसमें घर में स्त्री को रखा गया उसे एकनिष्ठता का सबक घोंट-घोंट कर सिखाया गया| इसी एकनिष्ठता की उपज काम संबंधी वर्जनाएं हैं| मनुष्य ने काम को हेय दृष्टि से देखना प्रारम्भ किया| इसी घृणा का परिणाम है कि समाज में काम सम्बन्धी बातें चोरी-छुपे, दबी आवाज में की जाती हैं| सेक्स की कोई भी बात करना अश्लील बना दिया गया है| पुरुषों को इस क्षेत्र में स्वतंत्रता है पर स्त्रियों के लिए ऐसी बातें अपराध करने की श्रेणी में आती हैं|

कामसूत्र के रचनाकार वात्सायन ने एक ऐसे ग्रन्थ की रचना की जो काम सम्बन्धों के विज्ञान को बताता है| जिस समाज में स्त्री पर अपनी इच्छाएं लादने का क्रम चल रहा था,  उसी समाज में वात्सायन ये अधिकार देते हैं कि उसे भी इस ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिए किन्तु पति से पूछकर| कामसूत्र शारीरिक संबंधों के संदर्भ में एक क्रांतिकारी ग्रन्थ है| इस ग्रन्थ में कामकला के ८४ आसनों को बताया गया है| साथ ही स्त्री के कोमल भावों को समझते हुए उसे इस ओर प्रेरित करने की सलाह दी गई है| कामसूत्र कोई पोनोग्राफी जैसी रचना नहीं है,  पर न जाने क्यों लोग उसे हेय दृष्टि से देखते हैं| उसे पढ़ना अपराध समझते हैं।  कामसूत्र में वात्सायन ने शारीरिक कमजोरी का भी जिक्र किया है। शरीर में क्यों और कैसे कोई शारीरिक दोष आने लगता है उसको रचनाकार बताते हैं। कामसूत्र के माध्यम से वात्सायन ने अपने समय में एक अद्भूत काम किया था। उस रचनाकार ने वर्जित (समाज में बातें करने योग्य न माने जाने वाली) कामकला को सबके सामने स्पष्ट किया। वे काम क्रियाओं की बात करते हैं,  बकायदा इस चीज को समझाते हैं कि स्त्री-पुरुष को किस तरह काम संबंधों के लिए तैयार करे और पुरुष किस तरह। ऐसे कौन से अंग विशेष हैं,  जो स्त्री के भाव को उतेजित करते हैं और पुरुष के कौन से।

जिस समाज में कामसूत्र जैसे ग्रन्थ की रचना हुई , उसी समाज ने स्त्री को परतंत्र कर पुरुष को स्वतंत्र कर दिया| आदिकालीन साहित्य में हम देंखे तो साफ पता चलता है कि वहां काम क्रिया का उपयोग सिद्धि पाने के लिए किया जाता था| सम्भोग से समाधि तक का सफर वहां अध्यात्म में तय करना पड़ता था| भक्तिकालीन साहित्य में भी काम संबंधो को हेय दृष्टि से देखा गया| सूरदास ने भक्ति-भाव दिखाया, प्रेम का चित्रण तो किया पर स्पष्ट रूप से काम क्रियाओं का चित्रण वे नहीं कर पाए| शुरुआत तो उन्होंने कर ही दी थी| सूरदास के काव्य में सुरति के चित्र मिलते हैं| प्रेममार्गी कवियों ने भी संयोग के चित्र भरपूर मात्रा में उकेरे हैं| अकेले विद्यापति, जयदेव ही पूरे भक्तिकाल की इस कमी पूरी कर देते हैं| ये जरुरी नहीं कि सम्भोग के पूरे चित्रण कवि करे पर केलि क्रियाओं के चित्र वे लगातार अपने काव्य में कर रहे थे| वे आलिंगन, चुम्बन, सेक्स का भी कुछ हद तक चित्रण करते हैं|

रीतिकाल तक आते-आते साहित्य के अन्दर संयोग चित्रण मिलने लगते हैं| रीतिकालीन कवियों ने काम क्रियाओं का संयमित चित्रण करना प्रारम्भ कर दिया था| वे नायिका-भेद के माध्यम से स्त्री की उन मनोदशाओं का चित्रण करते हैं, जो सेक्स की कामना करते हुए अपने प्रियतम को बुलाती है| वह पति की प्रिया आनंदमय सम्भोग को जीती है| उसका प्रिय उसके भावातिरेक की स्थिति में पहुँचने पर अपने हाथों से उसे कपडे, गहने पहनाता है| वहां स्त्री काममय होती हुई दिखाई देती है| किन्तु कहीं भी वह भोग्या नहीं है बल्कि उन संबंधों की मधुर आकांक्षी है| वहां उसे प्रताड़ना नहीं प्रेम मिलता है|

रीतिकाल के बाद आधुनिक काल आता है| आधुनिक काल के प्रारम्भ में समाज उसी नैतिकता के दायरे में बंधा हुआ था| रीतिकालीन साहित्य में नायिका पूरी स्वतंत्र दिखती है.  आधुनिक काल में पुन:नारी बंद होती गई| उसपर नैतिकता की बेड़ियाँ चढ़ती गई| इस काल में ब्राहमणवादी मानसिकता इतनी फैली कि वह काल जो आधुनिक काल की पूर्वपीठिका माना जाना चाहिए था गर्त का काल बना दिया गया| आधुनिक काल में कोरी नैतिकता ने काम सम्बन्धों का गला दबा दिया| अब ये सम्बन्ध पति पत्नी तक सीमित होने लगे| परकीया को समाज वहां खुली स्वतंत्रता नहीं देता था| स्त्री और पुरुष अज्ञात प्रियतम को याद करके आंसू बहा रहे थे|

हमारे आधुनिक समय में भी कामेच्छा बढ़ाने, शक्ति बढ़ाने या शरीर की दुर्बलताओं को दूर करने के लिए विभिन्न विज्ञापनों का इस्तेमाल होता रहा है| एक विज्ञापन,  जो अक्सर मैं देखती थी वह ‘सबलोक क्लीनिक’ का था| छोटी उम्र की नासमझी में उस विज्ञापन का अर्थ समझना हर बच्चे के लिए कठिन ही होगा, मेरे लिए भी होता था| उस विज्ञापन पर एक विवाहित स्त्री-पुरुष दिखाए जाते थे| यानि सेक्स संबंधी क्रियाओं को पति-पत्नी से ही जोड़कर देखा जाता था| ऐसी उस समाज की मानसिकता थी| इसलिए सेक्स का नाम आते ही पति-पत्नी का चेहरा, सजा हुआ चेहरा देना रूढ़ि बन गया था| आधुनिकता ने एक तरफ तो सेक्स के मामले में कोरी नैतिकता को ओढना चाहा वहीं साहित्य  इस नैतिकता के मानदंडों से छुटकारा पाना चाहता था| यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय का साहित्य इस बात का प्रमाण है| वे मन को महत्वपूर्ण मानते हैं प्रसाद तो कंकाल उपन्यास में लिव-इन-रिलेशनशिप तक की बात करते हैं| समाज को पितृसत्ता घेरे रहती है और रचनाकार अपने समय से बहुत आगे के समाज को देख लेता है|

वक्त के साथ-साथ हमारे समाज की मानसिकता में भी काफी फर्क आया है| आज हम साहित्य में भी संयोग के बड़े लम्बे चित्र देख सकते हैं| वो भी कोई प्रतीकात्मक भाषा में नहीं| आज सेक्स को उतना बुरा नहीं माना जाता| माना जाता है पर उतना बुरा नहीं| कुछ उदाहरणों द्वारा अपनी बात कहना चाहूंगी| आज सेक्स के विज्ञापन हम जहां-तहां देख सकते हैं| सबलोक की जगह आज अलग-अलग किस्मों के तेलों, सेक्स डॉ. के विज्ञापनों, उत्तेजना को बढाने वाली दवाओं के विज्ञापन ने ले ली है| आज सबलोक क्लीनिक शायद ही कहीं अपना विज्ञापन देता दिखाई दे| न वैसे पति-पत्नी के चेहरे दिखाई देते हैं| समाज की मानसिकता ने ऐसे विज्ञापनों को पति-पत्नी के दायरे से निकाल कर स्त्री-पुरुष तक फैला दिया है| ये समाज का ही बदलाव है, जो स्त्रियाँ को पढ़ने बाहर आने-जाने की स्वतंत्रता देता है| बराबरी की बात करता है| पहले क़ानून  सेक्स संबंधों पर चुप्पी साध लेता था अब वहां भी शिकायत करने का प्रावधान है| लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे सम्बन्ध जहां स्त्री-पुरुष उस परम्परागत विवाह के रीति-रिवाजों, मान्यताओं को अनायास ही तोड़ते हैं| शादी से पहले एक छत के नीचे रहते हैं उनपर भी अब क़ानून सोचने को मजबूर है|

जहां सेक्स को पति केन्द्रित स्थापित किया गया था , उसी समाज में अब सेक्स के लिए स्त्रियां भी विचार-विमर्श करती नज़र आती हैं| सेक्स एजुकेशन की मांग की करती है| अपने आनंद और सुख के लिए सचेत हो रही है| हालांकि समाज का बहुत बड़ा हिस्सा इसे अनैतिक मानता है, पर ५-१० प्रतिशत ही सही , समाज की सोच तो बदली है| आज हम देखते हैं कि अलग-अलग विज्ञापनों द्वारा सेक्स की बातें की जा रही हैं| पहले कोंडोम का विज्ञापन असुरक्षित यौन सम्बन्ध से बचने के लिए आता था| आज इस वस्तु के ही विभिन्न प्रकार बनाए जा रहे हैं| नए-नए फ्लेवर आ रहे हैं जिनके यदि टी.वी पर विज्ञापन देखे तो अक्सर एक लड़की दिखाई जाती है, उत्तेजित सी| उस पल को याद करती हुई| यहाँ समाज की बदलती मानसिकता को समझा जा सकता है| पहले न इस तरह के विज्ञापन थे न लड़की को इस तरह उत्तेजित दिखाया जाता था|

पहले माला-डी नाम की दवा प्रचलन में थी जिसका उपयोग गर्भ-धारण से बचने के लिए किया जाता था| उस विज्ञापन में ऐसा सुनाया, दिखाया जाता था ‘बच्चों में अंतर रखने का आसान और सुरक्षित तरीका| शायद अब भी ये दवा आती हो पर विज्ञापन देखने को नहीं मिलता| अब अनवांटेड-७२, आई.पिल जैसी दवाएं आती हैं|जो बच्चों में अंतर रखने के बजाए अनचाहे गर्भ से मुक्ति की बात करती हैं| ये अनचाहा गर्भ पति-पत्नी के रिश्ते में उतना संभव नहीं जितना स्त्री-पुरुष के रिश्ते में संभव है| ऐसी चीजें समाज में आती बदलाव की खुशबू को बताती हैं|

आज इन संबंधों को कमरे में बंद करके कहीं-सुनी जाने वाली बातों जैसा नहीं समझा जाता| अब हम सडकों पर भी ऐसे विज्ञापन देख सकते हैं| चलाती बसों (प्राइवेट) पर लगे बोर्ड हमें इस बात का सबूत देते हैं कि समाज अब इन् सम्बन्धों को बंद दायरे से बाहर लाने की कोशिश में है| ‘प्रेगा न्यूज़’ जैसे उपकरण हमें पहले ही सचेत कर सकते हैं , जिससे गर्भ को लम्बे समय तक धारण रखने की परेशानी, बाद में गर्भपात  करवा पाने की स्थिति से निपटा जा सकता है| अब उपाय भी हैं, समाधान भी, श्याद ये वजह भी है कि यौन सम्बन्धों, क्रियाओं के लिए समाज का रुख बदला है|

समाज जो अपने में काफी विरोधाभास लिए हुए है, हर वक्त अपने को बदलने की कोशिश में लगा रहता है| वक्त के साथ समाज नए समय में खुद को ढालने में भी मजबूर है| आज समाज में खाप पंचायत भी है और संबंधों को उन्मुक्तता से जीने वाले लोग और उनका समर्थन देने वाला क़ानून भी| पर्दा प्रथा भी है और पुरुष से हर बात पर तर्क-वितर्क करने वाली स्त्रियाँ भी| स्त्री पितृसत्ता में भी है तो स्वतन्त्र भी| एक ही समाज में रंगों के अलग-अलग शेड| समाज एक ही रंग में नहीं रंगा है कभी| काम सम्बन्धों के मसले में बदलता समाज आधुनिक हो रहा है|  काम सम्बन्धों में आने वाली यह सकारात्मक बदलाव की प्रक्रिया लोगों की मानसिकता को संकीर्णता के दायरे से ऊपर उठाकर उसे नयी ऊर्जा भरने में सहायता प्रदान करेगी|

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ISSN 2394-093X
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