किसान महिलाओं को विशेष अवसर दिये जायें

भारत  के असमान विभाजनों में एक विभाजन है -शहर और ग्रामीण का विभाजन ।
ग्रामीण महिलाओं की  जीवन प्रणाली के संदर्भ में बात की जाए तो बात और गंभीर हो जाती है। गाँवों मे रहने वाली महिलायें  खेती और खेती संबंधित रोजगार मेें जुड़ी हुई है- शायद इसलिए बेतहाशा कष्टमय जीवन ही उनके हिस्से में आया है। चूल्हा और चौका ही उनके  उसके जीवन की परिसीमायें हैं . महिलाओं का दर्जा निम्न  है। इसकी वजह दारिद्र्य , शिक्षा की व्वयस्था  का अभाव, धर्म-जाति का मानसिक प्रभाव, कम उम्र मे विवाह, स्वास्थ्य संबंधी  जागरूकता और सुविधा की कमीं , आर्थिक निर्णयों मे असहभाग आदि कारणों की वजह से हमारी 50% जनसंख्या आज भी पिछडी है।

ग्रामीण महिलाओं का साक्षरता दर देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि अधिकतम संख्या में 39 से 69 तक की उम्र की महिलाओं को बेसिक शिक्षा की सुविधा ही प्राप्त हुई नही है। आज की नयी लडकियां शिक्षा ले रही है, लेकिन  गाँव में जितनी कक्षा तक स्कूल है, उसमें से अधिकांश की  उतनी ही पढ़ाई होती है।

हमारे देश में अभी 2011 में जातिगत जनगणना हुई , लेकिन सरकार इसे सार्वजनिक नही कर रही है। इस जनगणना से पता चलता है यहाँ दो भारत बसते हैं । शहरी भारत और ग्रामीण भारत। बडे उद्योगपतियों को पानी, बिजली, जमीन, टॅक्स, में सहूलियत देना शुरू है और किसान और अनुसुचित जाति और जन जाति के लिए निर्धारित सब्सिडी में कटौती की जा रही है.  24.39 करोड परिवार भारत में रहते है। उनमें से  17.91 करोड परिवार ग्रामीण भारत में रहते है। 2.36 करोड यानी  13.25 प्रतिशत लोग  ग्रामीण भारत में एक कमरे में रहते है। उनके  घर का छत और दिवार पक्का नहीं  है।   68.96 लाख परिवार में परिवार प्रमुख महिलायें हैं ।  इनमें से सिर्फ 16 लाख परिवार ही ऐसे हैं जहा महिला मुखिया 10 हजार रूपया  महीना से ज्यादा कमा रही है। 5.36 करोड़  यानी  29.97 प्रतिशत परिवार भूमीहीन हैं। वे  सिर्फ शारिरीक श्रम और मजदूरी करके जीते हैं।

इन दिनों  हमारे देश में आर्थिक विकास का खूब शोर है.   लेकिन महिलाओं की स्थिति, भारतीय अर्थव्यवस्था में दयनीय है। खासकर के ग्रामीण परिवारों  में महिलायें उपेक्षित जीवन जी रही हैं । 2011 में United Nations Gender Inequality index (GII) , जो कि श्रमिक  महिलाओ के  स्वास्थ्य और शिक्षा पर आधारित था, में भारत का 187 देशों मे 134 वा स्थान  है।  भारत की महिलाओं  के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण उनके  श्रम को अप्रशिक्षित  (Unskilled) माना जाना है । इसलिए उसे लगभग 85 रू प्रति  दिन की मजदूरी ($1.58 डाॅलर) मिलती  है।

ग्रामीण मजदूर महिलायें सामाजिक सांस्कृतिक परंपराओं में दबी हुई है। परिवार में पति का शराब, जुआ, मारपीट, गालौच, परिवार नियोजन के बारें मे उचित मार्गदर्शन का अभाव, स्वास्थ्य संबंधि मार्गदर्शन न मिलना – इन अव्यवस्थाओं के साथ वह जी रही है .  लड़की हुई तो उसकी हालत बहुत ही बुरी हो जाती है। सबसे ज्यादा मात्रा में श्रम करने वाली  महिलायें पूरी  दुनिया में आधी जनसंख्या है । वह हमारे उत्पादन क्षेत्रों में 2/3 काम करती है। दुनिया में वह जितना उत्पादित करती है, उसके हिसाब से सम्पत्ति में उसका हिस्सा नगण्य है , लगभग 1%.

उनका श्रम, अप्रशिक्षित  गिना जाता है, और उनके नाम से कही भी जमीन का टुकडा नही रहता । फिर भी सबसे कष्टदायक काम – जैसे कमर झुकाकर करनेवाले काम, सभी किसान पुरूषों ने महिलाओं को दे रखे हैं. जैसे कि जब कपास चुनना है तो  वह काम सारा दिन कमर से झुककर करना पड़ता है ।  मिनीस्टरी आॅफ ह्यूमन रिसोर्स के अनुसार कुल कामों में महिलाओं के प्रतिशत हैं :
प्रायमरी सेक्टर – 93%
सेकंडरी सेक्टर – 69%
पोस्टप्रायमरी सेक्टर (क्षेत्र) – 25%

प्रायमरी सेक्टर में खेती, पशुपालन, जंगल का काम आता है।  महिलाओं को पुरूषों की तुलना में ज्यादा काम और कष्टदायक काम, जैसे की कमर  झुकाकर पानी में धान लगाना, बीज बोना, कपास चूनना , आदि करना पडता है , लेकिन उसकी कीमंत नही दी जाती । वह सम्मान की भी  मोहताज होती है.  पुरूषों के श्रम की मात्रा कम होती है , कम  कष्टदायक काम करके भी महिलाओं के श्रम की कीमत से ज्यादा कीमत उनके श्रम को  है। कृषि  क्षेत्र में पुरूषों का काम ज्यादा ताकतवर माना जाता है । वे  हल चलाने  स्प्रे  डालना, सिंचाई करने जैसे काम करते है। इसके  कारण की चर्चा एक किसान से की  तो उसके मुताबिक किसान महिलाओं की लंबाई 5.2 फिट तक रहने के कारण कमर झुकाकर काम वहसुविधा से कर सकती है। लेकिन किसान का शरीर लंबा चौडा होने के कारण उसके लिए झुककर काम करना संभव नही । इससे वह बीमारी का शिकार हो जाऐगा । यही युक्ति है , जिसके कारण  पुरूष प्रधान खेती व्यवस्था महिलाओं की मजदूरी  में लिंग भेद करती है। महिला परिवार का चुल्हा -चौका,  बच्चों का काम , पति की सेवा, सब काम निपटा कर, खेती का भी काम दिन भर करती है। लेकिन उसकी सांपत्तिक स्थिती का या आर्थिक स्थिती का जायचां लें,  तो उसे पति की  प्राॅपर्टी का हिस्सा पति के मर्जी के अनुसार मिलता है । महाराष्ट्र में  घर की टॅक्स रसीद , या खेती के 7/12 पर पत्नी का नाम लिखना अनिवार्य किया गया है,  लेकिन अनपढ महिलाओं का इसका पता रहे तभी इसका अनुपालन संभव होगा .

महिलाओं को परिवार की सम्पत्ति में अपना हिस्सा  प्राप्त करने का कानून है। उसे इसका लाभ भी पूरी तरह से मिलता नही । हिंदू सक्सेशन अॅक्ट – 1956 के अनुसार उसे परिवार की संपत्ति में  हिस्सा सुनिश्चित है ,  लेकिन 2005 तक  कानून में दुरूस्ती नही कि गई, इससे परिवार के लडकी के लिए या बहनों को संपत्ती नही दी जाती थी। यह कानून मुस्लीम, ख्रिश्चन, पारसी महिलाओं को लागू नही है। बहुत से राज्यों में यह कानून उनके अलग अलग  परंपराओं के अनुसार लागू  है । लेकिन 2001 की  जनगणना के तहत एक  दुखद बात सामने आई की सिर्फ 11 प्रतिशत महिलायें खेती की मालिक है ।  महिला किसान के  श्रम की विडंबना  है कि वह सिर्फ खेती- मजदूरी करती है। काम करती रहती है, लेकिन उसे खेती का उत्पाद बेचनें का अधिकार नहीं  है। कभी वह गाड़ी में खेत का उत्पाद लेकर  बाजार  में बेचने नही जाती है। बाजार से उसका  संबंध कही भी नही आता, वह सिर्फ श्रमिक  है जिसकी  अत्यंत  कम मजदूरी मिलती  है- पुरूषो से आधा या एक तिहाई ! मायक्रो फायनान्स और सेल्फ हेल्प ग्रुप स्कीम  से उसे पैसे जमा करने की, कर्ज उठाने की सुविधा प्राप्त हुई,  लेकिन उसी कम मजदूरी के भरोसे यह चलाया जाता है। यदि  वह आत्मविश्वास से अनाज का नियोजन करती या उत्पादन को बेचती तभी सक्षम होती .

सरकार के Gender budget cell  मार्च 25,2013 के अनुसार संसाधन नियोजन में महिलाओं को 30%
अवसर दिया गया है। सरकार की 11 वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के अनुसार Gender Audit किया जाने वाला है । युनेस्को इसकी व्याख्या करता है-gender audit as management & planing tool.(जेन्डर आॅडीट नियोजन का साधन और व्यवस्था है) । Gender Audit स्त्री सशक्तिकरण और स्त्री पुरूष समानता लाने का प्रयास करेगा। इससे पता चलेगा कि हमारे देश में महिलाओं की स्थिति कैसी है। इसके तहत भाषा, स्त्री पुरूष का स्थान, रोजगार में स्थिति, काम का क्षेत्र, स्त्री अत्याचार का प्रमाण आदि विषयों का जायजा लिया जाता है। लकिन ग्रामीण मजदूर महिलाओं की स्थिति का Gender Audit अलग से नही किया गया है। सभी महिलायें एक साथ ली गई हैं । लेकिन हमारे देश में ग्रामीण शहरी विभाजन की जरूरत है। गाव में सब तरफ सुखा है। शहरों ने सब लूट लिया है।

खेत मजदूर  महिलाओं के जीवन पर गेट और डंकेल प्रस्तावों का भी असर पडा है.  इसका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिणाम नकारा नही जा सकता. खुली अर्थव्यवस्था और पूजीवांदी व्यवस्था का परिणाम खेत ओर खेती पर आधारित जीने वालों  पर पडा है ।  2008 में  4.25 करोड किसानों को  साठ हजार करोड की कर्जमाफी दी गई और कार्पोरेट क्षेत्र का हिसाब देखें  तो उनका 1 लाख करोड का  बकाया कर्जा, सभी सार्वजनिक बैंकों  ने अपने अपने बहीखातो से हटा दिया , मतलब कर्जा माफ किया गया और उन्हे 494, 836 करोड का नया कर्जा दे दिया गया.  साठ हजार करोड का कर्जा किसानो को माफ किये जाने की घोषणा में सिर्फ 10 प्रतिशत किसानो को फायदा हुआ, क्योंकि वो उस कर्जमाफी के नियमों मे बैठते नही थे।  किसानो की हालत दिन ब दिन बदत्तर होती जा रही है, किसान सरकार के नजरों में कही भी नही है,  वह इस व्यवस्था के आर्थिक अन्याय का  शिकार है । म. जोतिबा फुले, ने  महाराष्ट्र के किसानो के लिए ‘किसानो का कोडा’ में लिखा कि अशिक्षित किसान  जाति, धर्म, बिरादरी में बंटा है,  अंधश्रद्धाओं पर विश्वास रखता है ,  महिलाओं के बारे में भेदभाव रखता है इसलिए उसका सारा परिवार, वह खुद और उसकी पत्नी  इस विषमतापूर्ण व्यवस्था का  शिकार हो जाता  है। डाॅ. बाबासाहब ने किसान के बच्चे पढे़ इसलिए आरक्षण का प्रावधान किया। नहरों में पानी  संचय का, सिंचाई का, नदी जोडने का मार्ग बताया, साहुकार से कर्जा न ले इसलिए बँको का राष्ट्रीयकरण की बात की ।

किसान महिलाओं के प्रति उत्तरदायित्व न शासन दिखाता है ना पुरुष किसान खुद। इसलिए 2008 में जब मंदी का दौर आया  तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को हुआ.  2013 में ‘प्लान  इंटरनेशनल और ओव्हरसीज डेव्हलपमेंट इन्सीट्यूट , की रिपोर्ट के अनुसार  मंदी के कारण बालमृत्यु का प्रमाण सबसे ज्यादा बढ़ गया । किसान महिलाओ को गरीबी के कारण पौष्टिक अनाज मिलना बंद हो गया. माताओं और बच्चों में कुपोषण बढ़ा , लड़कियों का  मृत्युदर बढ़ गया. वर्ल्ड  बैंक के मुताबिक जब दुनिया का उत्पादन 1 प्रतिशत कम होता है तो हर 1000 लडकियों में से 7  का  और  हर 1000 लड़कों में से 1 लडके की मृत्यु होती  है।

किसानों के उत्पादन को कम कीमत मिलने के कारण महिलायें परिवार और खेती में ज्यादा समय काम करती हैं , परिणामतः उनकी सेहत खराब होती है- गर्भधारण के समय इसका असर पड़ता है , नवजात शिशु  पर इसका असर होता है. बच्चो को घर में छोडकर वह खेत में रहती है उसका असर बच्चों के जीवन पर होता है। बच्चियां अपने से छोटे बच्चों को घर पर संभालती हैं , तो उनका  स्कूल छूट जाता . इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद महिलाऐं कभी पुरुषों  जैसी आत्महत्यायें नही करती हैं । डटकर परिस्थिति  का सामना करती हैं । दरअसल  खेत में काम करनेवाली महिला सबसे ज्यादा पीड़ित  महिला है। इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन देगा कौन ?

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