हिन्दी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर. सम्पर्क : ई मेल- shambhugupt@gmail.com, मोबाइल: 8600552663
स्त्रियों और बच्चियों पर हिंसा इधर काफ़ी बढ़ गई है। हिंसा की शिकार पीड़िताओं में हर जाति और वर्ग की लड़कियाँ शामिल हैं। इनमें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों की लड़कियाँ हैं। यह हिंसा मुख्यतः यौनमूलक है, जो बलात्कार के रूप में सामने आ रही है। इस हिंसा की प्रकृति थोड़ी भिन्न है। यह भिन्न इस रूप में है कि यह सामूहिक रूप में की जा रही है। सामूहिक बलात्कार के मामले इधर तेज़ी से बढ़े हैं। इनकी आख्या परम्परागत सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक कारणों से अलग नई स्थितियों के मद्देनज़र करनी होगी।
पिछले बीस-पच्चीस सालों में भूमंडलीकरण की ताज़ा हवाओं, स्त्री-संगठनों के आन्दोलनों और संघर्षों के दबावों, पितृसत्ता की जकड़बन्दियों के थोड़ा ढीला होने या कहें कि स्त्रियों द्वारा पितृसत्ता के अनेकानेक प्रावधानों और प्रथाओं को अमान्य और अस्वीकार्य घोषित करने, अपनी स्वतन्त्रता, स्वायत्तता और अस्मिता के आयामों को निरन्तर व्यापक और विकसित करते चलने, अपने व्यक्तित्व के प्रति सचेत, सावधान और निर्णयात्मक होने; इत्यादि-इत्यादि के परिणामस्वरूप स्त्रियों को उपलब्ध अवसरों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक तरफ़ वे शिक्षा, तो दूसरी तरफ़ रोज़गार, एक तरफ़ घर तो दूसरी तरफ़ समाज और राजनीति, एक तरफ़ अकादमिक तो दूसरी तरफ़ प्रशासन, एक तरफ़ प्रबन्धन तो दूसरी तरफ़ पुलिस और सशस्त्र बल; राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा और सामर्थ्य का लोहा मनवाने में सफल हुई हैं। पिछले बीस-पच्चीस वर्ष भारत में स्त्री-अस्मिता के लगभग हर क्षेत्र में गहरी और व्यापक जड़ें जमाने के वर्ष कहे जा सकते हैं।
इन वर्षों में पुरुष-वर्चस्व और पितृसत्ता को जैसी और जितनी चुनौतियाँ मिली हैं, वे इससे पहले कभी नहीं मिली थीं। हालाँकि इन वर्षों में तत्ववाद, धर्म और साम्प्रदायिकता ने स्त्रियों के लिए एक नए कि़स्म का मकड़जाल बुनने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। विभिन्न धार्मिक समुदायों पर उनका पर्याप्त प्रभाव भी बराबर देखा गया है। नए कि़स्म के धर्मवाद और साम्प्रदायिकता ने एक बड़े स्त्री-वर्ग में अपनी घुसपैठ करनी शुरू की। साम्प्रदायिक दंगों में पहली बार लगभग सभी सामाजिक वर्गों की स्त्रियों और विशेषतः सवर्णेतर स्त्रियों को भागीदारी करते देखा गया। यह एक स्थापित तथ्य है कि भूमंडलीकरण के दौर-दौरे में स्त्री के लिए आज़ादी के साथ बहुत सारी ऐसी अलामतें भी प्रकाश में आईं, जिनके बारे में कहा गया बल्कि दुष्प्रचार किया गया कि इन्हें औरतों ने ख़ुद चुना है। अपनी देह पर अपने स्वयं के अधिकार की उद्घोषणा न जाने किस प्रक्रिया से ‘देहवाद’ में रिड्यूस कर दी गई! हिन्दी-साहित्य का अधिकांश स्त्री-विमर्श देह-विमर्श में तब्दील होता गया। विज्ञापनों में स्त्री-देह की नुमाइश, बम्बइया हिन्दी फिल्मों और हिन्दी टीवी चैनलों के बहुत से कथित सामाजिक धारावाहिकों में प्रस्तुत की गई स्त्री की पितृसत्ता को मज़बूत करती और आगे बढ़ाती छवि, देहाती इलाक़ों में खाप पंचायतों का पुनरोदय, जातिवादी संगठनों की भरमार; ये कुछ ऐसी सांघातिक स्थितियाँ थीं, जिन्होंने या तो स्त्री को उपलब्ध अवसरों को कम किया या इससे भी ज़्यादा यह कि उन्हें कुछ ख़ास दिशाओं की तरफ़ मोड़ दिया। ये दिशाएँ निश्चय ही पुरुषवर्चस्व एवं पितृसता मूलक थीं या उसके इर्द-गिर्द थीं। यानी कि स्त्री जितनी चाहे उड़ान भरे, जितनी चाहे तरक़्क़ी करे, अन्ततः रहना तो उसे इसी शामियाने में है! यानी कि इस दौर में स्त्रियों ने जितना संघर्ष किया, जितने वैकल्पिक रास्ते निकाले, जितना सशक्त और संगठित वे हुईं, इस सब को बराबर करने के लिए ठीक इसके समानान्तर इनकी काट निकाली जाती रही। पुरुषवर्चस्ववादी और पितृसत्तावादी एजेंसियाँ लगातार सक्रिय रहीं और राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक सत्ता-केन्द्रों द्वारा उन्हें शह दी जाती रही।
निष्कर्ष रूप में मुझे यही कहना है कि सामूहिक बलात्कार स्त्रियों के व्यक्तित्व-विकास और व्यापक से व्यापकतर होती, राष्ट्रीय जीवन के हर आसंग में दखल देने और अपना वाजि़ब हक़ माँगने को तत्पर स्त्री-चेतना और अस्मिता को हतोत्साहित करने और कुचलने की एक व्यवस्थित षड्यन्त्रकारी आयोजना के तहत है। यह ठीक वैसा है, जैसे एक ज़माने में आमने-सामने के युद्ध से पहले शत्रु-सेना और शत्रु-राष्ट्र की जनता की हिम्मत तोड़ने के लिए खड़ी फसल को रोंदने, बस्तियाँ उजाड़ने, औरतों-बूढ़ों-बच्चों इत्यादि को निशाना बनाने के हथकण्डे काम में लाए जाते थे और कोशिश की जाती थी कि शत्रु बिना लड़े ही हार मान ले और हथियार डालकर हमारा आधिपत्य स्वीकार कर ले। निरन्तर आगे बढ़ने को तत्पर स्त्री के साथ लगभग ऐसा ही रवैया अखि़्तयार किया जा रहा है, जो कि अब कम से कम सफलीभूत हो जाने वाला नहीं है। जागी हुई स्त्री अब हर लड़ाई और मोर्चे पर काफी़-कुछ पूर्व-तैयारियों के साथ सन्नद्ध है। उसे हराना और पीछे लौटाना अब आसान नहीं।