अनीता चौधरी की कविताएँ

अनीता चौधरी

साहित्यकार अनीता चौधरी हमरंग.कॉम का संपादन करती हैं . संपर्क : ई-मेल : anitachy04@gmail.com

   अन्धकार
चारों तरफ धुएं से घिरे बादल
और घने और घने होते
ये बादल
अब और भी स्याह लगने लगे है
इनमें स्वयं को खो जाने का डर
मुहँ से निकलती चीख़ पुकारें
जा टकराती है उस अंधकार से
हो जाती है विलय उसमें
कभी न लौटने के लिए
रह जाती है निरर्थक साँसे।
सिर्फ चलने के लिए।

   माँ
भोर की पहली किरण के साथ ही
शुरू हो जाती है उसकी दिनचर्या
नई स्फूर्ति,जोश और उमंग के साथ
फूंस के गठ्ठर को हाथ में पकड़े
फटकारती है घर के हर एक कोने को
चाय का प्याला लिए हाथ में
प्यार भरे स्पर्श से जगाती है हमें
और जुट जाती है अपने घर के
अति व्यस्त कार्यों में
सहेजती है घर की
हर एक चीज को
अपने पूर्ण समर्पण के साथ
रखती है ख्याल सबकी
पसंद   नापसंद का
सबकी खुशियों का
ताक पर रखकर अपने सुखों को
भूल जाती है स्वयं को
देखकर उनके मुस्कराते हुए चेहरे
तड़प उठती है वो जब
देखती है हमें किसी भी
दर्द में छटपटाते हुए
बिता देती है कई कई रातें
बैठकर हमारे सिरहाने।
वो करती है रात दिन यहीं दुआएं
लग जाये इनकी सारी बलाएं
इसी सुख और दुःख के चक्र में
वो गुजार देती है अपनी ताउम्र
कभी रामदीन की बेटी बनकर
राजू की बहिन, सुखिया की पत्नी
गोलू की मम्मी तो कभी
चिंटू की दादी बनकर
बिना किसी नाम व् अपने
ठोस वजूद के साथ ।
खोकर अपना सम्पूर्ण अस्तित्व
खड़ा करती है हमें वह
पूरे विश्वास के साथ
ऐसी होती है प्यारी माँ।

  वृक्ष
पिछले तीन दशकों से
तुम्हारे हर सुख और दुःख
हार और जीत,यश या अपयश का
एक मात्र साथी रहा हूँ
बिना विचलित हुए
तटस्थ खड़ा होकर
अपनी बाहें फैलाकर
तुमको धूप ताप से बचाता रहा
नींद आने पर शीतल भरी छाँव में
थप्पी देकर सुलाता रहा।
वक्त आने पर अपने तन से
चिथड़े उतार कर
चारों तरफ फैली पल्लवित होती
छोटी छोटी बाहें कटवाकर
करता रहा पूरी जरूरतें।
फिर भी तुमने एक क्षण न सोचा
मुझे अपने से अलग
काटकर फेंक दिया
घर के बाहर एक गड्ढे में
मिटा दिया
मेरे होने का नामोनिशां
और उसी जगह बना दिया
एक आलीशान महल।

   स्पंदन
कल्पित, पल्लवित अधखिली सी कली
तरुणाई में लेती हुई अंगडाई
इस मायामयी दुनिया से बेखबर
खुद को समेटे सुनहले स्वप्नों में
किसी आसमां के चाँद की तलाश में
जो ले जाएगा उसे
मीलों लंबा सफ़र तय करके
उस नीले पहाड़ के पीछे
अपने जादुई रंग महल में
समेटे हुए अपने आगोश में
अदृश्य से स्पंदन के साथ
शिख से नख तक
रोएँ को स्पर्श करती
उसकी गहराती तपिश
बढ़ाती है नैनों में खुमार
लालिमामई होठों की फाड़फड़ाहट
कर देती है व्याकुल
शनै-शनै उसके हाथों की छुअन
बर्फ की चोटियों से टकराती
समतल व मरुस्थलों से गुजरती हुई
जा टकराती है उस झील के तट से
जिसकी तपन बढ़ा देती है
उस झील का वेग
जिसके मध्य से निकलती है
एक नदी की  धार
और समाहित हो जाती है
उस अंतहीन सागर में
एक असीम सुख के साथ |

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ISSN 2394-093X
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