मातृ-मृत्यु का नियंत्रण महिला -स्वास्थ्य का जरूरी पहलू : चार्म

डाॅ. शकील-उर-रहमान


( कल बिहार में नालंदा सहित अन्य जिलों के विधानसभाओं में मतदान होने जा रहा है. पिछले दो चरणों में महिला मतदाताओं ने बढ़ -चढ़ कर मतदान किया. महिला मतदाताओं की बढ़ी संख्या के अपने कारण हैं -यह आने वाले दिनों में शोध से ज्यादा विश्लेषित हो सकेगा. यूं तो बिहार का चुनाव बड़े दलों के द्वारा मुद्दा –  विहीनता का शिकार है, लेकिन बिहार में विकास के विविध पहलू मुद्दा तो हैं , भले ही चुनाव में मुख्य रूप से प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल इसपर केन्द्रित बातचीत नहीं कर रहे. समेकित विकास का एक विशेष पहलू स्वास्थ्य है. महिला मतदाताओं के उत्साहपूर्ण मतदान की खबरों के बीच सामाजिक संस्था चार्म के द्वारा महिला स्वास्थ्य पर किया गया यह शोध महत्वपूर्ण है. यह शोध बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह -जिला नालंदा में किया गया है – मातृ-मृत्यु जैसे महिला -स्वास्थ्य के गंभीर मुद्दे पर, ख़ास कर दलित और मुस्लिम महिलाओं के स्वास्थ्य  पर . नालंदा जिले के विधानसभाओं में कल मतदान के पूर्व संध्या पर शोध का प्रमुख हिस्सा स्त्रीकाल के पाठकों के लिए . ) 

सौजन्य : गूगल साभार

सेंटर फाॅर हैल्थ एण्ड रिसोर्स मैनेजमेंट (सीएचएआरएम) पिछले कुछ वर्षों से बिहार के दो जिलों के 9 ब्लाकों में समुदाय-आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा करता आ रहा है। यह रपट, बिहार के नालंदा जिले के 7 ब्लाकों में मातृ मृत्यु के कारणों पर केन्द्रित  है। 
मातृ मृत्यु के इस शाब्दिक शव परीक्षण का उद्देश्य मातृ मृत्यु के कारणों को समझना और इसमें कमी लाने के लिए सभी स्तरों पर उपयुक्त कार्यवाही को प्रोत्साहन देना है। यह समीक्षा हमें यह समझने में मदद करेगी कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की योजनाओं के लागू होने से मुस्लिम और दलित महिलाओं के स्वास्थ्य की गुणवत्ता में कितना सुधार आया है। यह समीक्षा सीएचएआरएम द्वारा ‘पुअरेस्ट एरियास सिविल सोसायटी (पीएसीएस)’  के सहयोग से की गई है। 
डाॅ. शकील-उर-रहमान
सेंटर फाॅर हैल्थ एण्ड रिसोर्स मैनेजमेंट, 
पटना

शब्द संक्षेप 
एएनसी    : एंटे नेटल केयर (प्रसूति पूर्व देखभाल)
एएनएम    : आक्सीलरी नर्स मिडवाईफ (सहायक नर्स दाई)
एडब्ल्यूसी            :     आंगनवाड़ी केंद्र
एडब्ल्यूडब्ल्यू   : आंगनवाड़ी कार्यकर्ता
सीबीएमडीआर   : समुदाय आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा
सीएचएआरएम   : सेंटर फाॅर हैल्थ एण्ड रिसोर्स मैनेजमेंट
सीएचसी  :      सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
सीएस  : सिविल सर्जन
सीएसओ          : नागरिक समाज संस्था
डीएलएचएस   : डिस्ट्रिक्ट लेवल हाउसहोल्ड एंड फेसेलिटी सर्वे
ईएजी   : एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप
ईएमओसी   :  इमरजेंसी आब्सटेट्रिक केयर
एफबीएमडीआर   : फेसिलिटी बेस्ड मेटरनल डेथ रिव्यू
एफएचडब्ल्यू   : फ्रंटलाईन हैल्थ वर्कर्स
एचएससी  :      स्वास्थ्य उपकेंद्र
आईसीडीएस  : समन्वित बाल विकास योजना
आईईसी  :     सूचना, शिक्षा, संवाद
आईएफए :     आयरन, फोलिक एसिड
एमडीआर   :     मातृ मृत्यु समीक्षा
एमएमआर : मातृ मृत्यु अनुपात
एमडीजी : सहस्राब्दी विकास लक्ष्य
एमआईएस : प्रबंधन सूचना प्रणाली
एमओआईसी  : प्रभारी चिकित्सा अधिकारी
एमटीपी  : मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेग्नेन्सी
एनएफएचएस  : राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण

एनआरएचएम  : राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन
पीएचसी : प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
पीएनसी : प्रसूति पश्चात देखभाल
आरसीएच :         प्रजनन और बाल स्वास्थ्य
आरजीआई : भारत के महापंजीयक
आरएमपी         :  रूरल मेडिकल प्रेक्टिशनर
एससी : अनुसूचित जाति
एसआरएस : नमूना पंजीकरण प्रणाली
टीबीए : ट्रेडिशनल बर्थ अटेंडेंट
यूएनएफपीए : संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष
यूनिसेफ : संयुक्त राष्ट्र बाल कोष
व्हीएचएनडी : ग्राम स्वास्थ्य व पोषण दिवस
व्हीएचएसएनसी : विलेज हैल्थ सेनिटेशन एंड न्यूट्रिशन कमेटी
डब्ल्यूएचओ :      विश्व स्वास्थ्य संगठन
डब्ल्यूआरए : प्रजनन योग्य आयु की महिलाएं

1. भूमिका
1.1 संदर्भ

वर्तमान में गर्भावस्था और प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु रोकना, भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। भारत में हर 10 मिनट में गर्भावस्था से जुड़े किसी कारण से एक महिला की मौत हो जाती है। गर्भवती महिलाओं में से 15 प्रतिशत के मामले में किसी न किसी प्रकार की चिकित्सकीय जटिलता उभरने की संभावना रहती है। हर साल लगभग 48,000 मातृ मुत्यु होती हैं। इसके अतिरिक्त, लाखों महिलाएं और नवजात शिशु गर्भावस्था व प्रसव से जुड़ी विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से पीडि़त होते हैं। इस तरह, गर्भावस्था से जुड़ी मृत्यु व बीमारियां भारतीय महिलाओं और उनके नवजात शिशुओं के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं।
एमडीजी5 के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में कितनी प्रगति हुई है, इसका आंकलन मुश्किल है क्योंकि कई देशों – विशेषकर विकासशील देशों, जहां मातृ मृत्यु दर अधिक है –   के मातृ मृत्यु संबंधी विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। विकासशील देशों में मृत्यु के पंजीयन की व्यवस्था अक्सर बहुत अच्छे से काम नहीं करती और नतीजतन, समुदाय में होने वाली कई मौतों का कोई रिकार्ड ही उपलब्ध नहीं होता। अगर मृत्यु का पंजीकरण कर भी लिया जाता है तब भी मृत्यु का कारण ठीक-ठीक नहीं लिखा जाता। जाहिर है कि मातृ मृत्यु का पंजीकरण भी इस व्यवस्थागत कमी का अपवाद नहीं है।
मातृ मृत्यु को किसी महिला की गर्भावस्था, प्रसव या गर्भावस्था के समापन के 42 दिनों के अंदर हुई ऐसी मृत्यु के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसका कारण (दुर्घटना या आकस्मिक कारणों को छोड़कर) गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से जुड़ा हो या जिससे उसकी गंभीरता में वृद्धि हुई हो। इस संदर्भ में गर्भावस्था की अवधि का कोई महत्व नहीं है।
मातृ मृत्यु अनुपात प्रति 1,00,000 जीवित जन्म पर ऐसी महिलाओं की संख्या है, जिनकी गर्भावस्था, प्रसव या गर्भावस्था के समापन के 42 दिनों के अंदर ऐसे कारण (दुर्घटना या आकस्मिक कारणों को छोड़कर) से मृत्यु हो जाती है, जो गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से जुड़ा हो या जिससे उसकी गंभीरता में वृद्धि हुई हो। इस संदर्भ में गर्भावस्था की अवधि का कोई महत्व नहीं है।

लक्ष्य 
मातृ स्वास्थ्य में सुधार, आठ सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों में से पांचवा है। इन लक्ष्यों को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन में स्वीकार किया गया। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मातृ मृत्यु अनुपात घटाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की और 1990 से 2015 के बीच इसमें एमडीजी के पर्यवेक्षण ढांचे के अधीन, 75 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य तय किया। एमएमआर, एमडीजी5 के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयासों की सफलता का महत्वपूर्ण मापदंड है।

1.2 भारत और बिहार में एमएमआर
भारत में मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) में तेज़ी से कमी आई है। सन 1997-98 में 398/1,00,000 जीवित जन्म से घटकर सन 2001-03 में यह 301/1,00,000 जीवित जन्म रह गई। सन 2004-05 में यह दर 254/1,00,000 जीवित जन्म थी,  जो ताज़ा आरजीआई-एसआरएस सर्वेक्षण रपट के अनुसार सन 2012 (एसआरएस) में 178 रह गई थी। परंतु एनआरएचएम व एमडीजी के 100 प्रति 1,00,000 जीवित जन्म का लक्ष्य हासिल करने के लिए एमएमआर में कमी की दर को तेज़ किया जाना आवश्यक है। इसके लिए तकनीकी रणनीतियों को लागू किए जाने की प्रक्रिया में तेज़ी लानी होगी और मातृ स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप करने होंगे। देश के विभिन्न क्षेत्रों में मातृ मृत्यु की दर में भारी विभिन्नता है। इसके पीछे आपातकालीन/प्रसूति देखभाल तक पहुंच, प्रसूति पश्चात देखभाल व महिलाओं में एनिमिया की दर, महिलाओं के शैक्षणिक स्तर व अन्य कारकों में भिन्नता है।
लगभग दो तिहाई मातृ मृत्यु ईएजी (एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप) राज्यों-बिहार, झारखंड, ओडिसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड व असम में होती हैं। ये राज्य उन 18 राज्यों में शामिल हैं जिन पर एनआरएचएम का फोकस है।
बिहार में मातृ मृत्यु अनुपात सन 1997-98 में 531 से घटकर 2004-06 में 312 प्रति 1,00,000 जीवित जन्म रह गया। दिसंबर 2013 में जारी ताज़ा एसआरएस की रपट के अनुसार 2010-12 में यह 219 प्रति 1,00,000 जीवित जन्म था।

1.3 मातृ मृत्यु के प्रत्यक्ष व परोक्ष  दोनों कारण हैं
प्रसूति से संबंधित व उससे संबद्ध प्रत्यक्ष कारण हेमोरेज, सेप्सिस, एक्लेम्पसिया, आब्सट्रक्टिड लेबर, गर्भपात, एनिमिया इत्यादि हैं। इनके पीछे मूलतः सामाजिक, व्यवहार संबंधी, सांस्कृतिक व आर्थिक कारक हैं।
बिहार में प्रतिवर्ष लगभग 30,00,000 महिलाएं गर्भधारण करती हैं। इनमें से लगभग 6,500 मातृ मृत्यु का शिकार होती हैं। 
तीन विलंब बनते हैं मातृ मृत्यु का कारण- 
1 निर्णय लेने में विलंब।
2. उपयुक्त चिकित्सा संस्थान में पहुंचने में विलंब।
3.  संस्थान में चिकित्सकीय सहायता मिलने में विलंब।

1.4 मातृ मृत्यु समीक्षा (एमडीआर) की आवश्यकता
एमडीआर का उद्देश्य है मातृ मृत्यु और गर्भावस्था व प्रसव से जुड़ी बीमारियों में कमी लाना। एमडीआर का लक्ष्य है मातृ मृत्यु के कारणों को समझना और सभी स्तरों पर उपयुक्त कार्यवाही का उत्प्रेरण। एमडीआर से हम उन कमियों और कारणों की पहचान कर सकते हैं, जो मातृ मृत्यु का कारण बनती हैं और इन कमियों को दूर करने और सेवाओं में सुधार के लिए जरूरी कदम उठा सकते हैं। एमडीआर की प्रक्रिया का इस्तेमाल सेवा प्रदाताओं के विरूद्ध दंडात्मक कार्यवाही के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
मातृ मृत्यु समीक्षा दो तरीकों से की जा सकती है-सुविधा आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा (एफबीएमडीआर) व समुदाय आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा (सीबीएमडीआर) जिनको नीचे परिभाषित किया गया है।
एफबीएमडीआर के अंतर्गत स्वास्थ्य संस्थानों में मातृ मृत्यु के चिकित्सकीय व प्रणालीगत कारणों की पहचान की जाती है। सीबीएमडीआर में दिवंगत महिला के परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, अन्य सूचना प्रदाताओं और देखभाल करने वालों का साक्षात्कार एक विशेष तकनीक से किया जाता है जिसे वर्बल आॅटोप्सी (मौखिक शव विच्छेदन) कहा जाता है। इसके ज़रिए मातृ मृत्यु के विभिन्न कारकों-चाहे वे चिकित्सकीय हों या सामाजिक-आर्थिक या प्रणालीगत की पहचान की जाती है ताकि स्वास्थ्य प्रणाली, विभिन्न स्तरों पर ऐसे सुधारात्मक उपाय कर सके जिनसे ऐसी मृत्यु में कमी आए।

मातृ मृत्यु समीक्षा करने व यह समझने कि महिलाएं गर्भावस्था से जुड़े कारणों से क्यों काल कवलित हो जाती हैं, के कुछ अन्य तरीके भी हैं जैसे मातृ मृत्यु की गुप्त जांच, जो महिलाएं मौत की कगार पर पहुंच कर लौट आईं उनसे बातचीत व साक्ष्य आधारित चिकित्सकीय संपरीक्षा

1.5 मातृ मृत्यु के अभिलेख रखने की व्यवस्थाएं
भारत के राज्यों में मातृ मृत्यु के अभिलेख रखने और महत्वपूर्ण आंकड़ों के संकलन के लिए निम्न व्यवस्थाएं होती हैं।
1. नागरिक पंजीकरण प्रणाली।
2. स्वास्थ्य विभाग का एमआईएस।
3. नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस)
4. समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस)।

इस पृष्ठभूमि में विभिन्न समुदायों के हाशिए पर पड़े वर्गों में मातृ मृत्यु की घटनाओं का पोस्टमार्टम  किया गया है,  ताकि उनके कारणों को समझा जा सके और मातृ मृत्यु व उससे जुड़ी बीमारियों में कमी लाई जा सके।

सीबीएमडीआर का मुख्य उद्देश्य उन विलंबों और कारणों की पहचान करना है,  जो मातृ मृत्यु का कारण बनते हैं. ताकि स्वास्थ्य प्रणाली में विभिन्न स्तरों पर सुधारात्मक उपाय किए जा सकें। इस प्रक्रिया का पहला कदम होगा मातृ मृत्यु की पहचान; दूसरा कदम होगा उन कारकों/कारणों – चाहे वे चिकित्सकीय हों, आर्थिक-सामाजिक या प्रणालीगत-की जांच करना जिनके कारण मातृ मृत्यु हुई और तीसरा कदम होगा इन कारकों/कारणों के संदर्भ में उपयुक्त सुधारात्मक उपाय करना जिनमें सूचना संप्रेषण शामिल हैं।

2 समीक्षा प्रविधि

2.1 समीक्षा के लक्ष्य
बिहार के नालंदा जिले में मुस्लिम व दलित महिलाओं में मातृ मृत्यु के निर्धारक तत्वों का स्थितिजन्य विश्लेषण करना। 
2.2 समीक्षा विधि
समीक्षा के लिए गुणात्मक प्रणाली का इस्तेमाल किया गया। अनुसंधानकर्ताओं ने समीक्षा अवधि के दौरान हुई 53 मौतों के बारे में जानकारी शाब्दिक शव विच्छेदन के जरिये एकत्रित की और इसके  विश्लेषण से मातृ मृत्यु के लिए जि़म्मेदार परिस्थितियों व कारकों को समझा। शाब्दिक शव विच्छेदन एक ऐसी तकनीक है जिसके ज़रिए जिन महिलाओं की गर्भावस्था/गर्भपात/प्रसव/प्रसव के 42 दिन के भीतर मृत्यु हुई, उनके परिवारजनों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, अन्य सूचनादाताओं व सेवा प्रदाताओं से उनके ही शब्दों में यह बताने को कहा जाता है कि उनके अनुसार मृत्यु का कारण क्या था। इससे मां की मृत्यु के चिकित्सकीय व गैर-चिकित्सकीय (सामाजिक-आर्थिक सहित) कारकों की पहचान करने में मदद मिलती है।
अनुसंधानकर्ताओं के दो दल बनाए गए और उन्हें शाब्दिक शव विच्छेदन करने का प्रशिक्षण दिया गया। जांच में उस प्रारूप का इस्तेमाल किया गया, जिसे एनआरएचएम के अंतर्गत समुदाय आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा के लिए विकसित किया गया है। प्रशिक्षण के तुरंत बाद दोनों दलों ने मार्च से मई 2015 के बीच मातृ मृत्यु समीक्षा की।
2.3 समीक्षा अवधि
प्रजनन योग्य आयु वर्ग (15-49 वर्ष) की महिलाओं की 1 जनवरी 2014 से लेकर 31 दिसंबर 2014 तक हुई मातृ मृत्यु।
2.4 समीक्षा क्षेत्र
यह समीक्षा बिहार के नालंदा जिले के सात ब्लाकों में की गई। नालंदा जिला 2367 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसकी कुल आबादी 28,72,427 है। यह मुख्यतः कृषि आधारित क्षेत्र है। इसके उत्तर व उत्तर पश्चिम में पटना जिला है, दक्षिण में गया, पूर्व में लकीसराय, पश्चिम में जहांनाबाद और दक्षिणपूर्व में नवादा। इस जिले में तीन प्रखण्ड, 20 ब्लाक और 249 ग्राम पंचायतें हैं।

2.5 नालंदा जिले की जनसांख्यिकीय स्थिति 
पुरूष                       महिला                                     कुल
जनसंख्या                          1500839            1371581                                 2872420
ग्रामीण जनसंख्या
(प्रतिशत में)                    84.94                   85.24                                        85.1
साक्षरता दर                    66.4                      38.6                                          53.2
अनुसूचित जाति की जनसंख्या
(प्रतिशत में)                     20.04                   19.93                                         20.0
अनुसूचित जनजाति की
जनसंख्या (प्रतिशत में)     0.0                        0.0                                           0.0
लिंग अनुपात                  :  915
नालंदा की कृषि:        धान के खेत, आलू, प्याज
नालंदा के कारखाने:         हैंडलूम, लघु एवं मध्यम उद्योग
नालंदा की नदियां       फल्गू , मोहाने

2.6 स्वास्थ्य सेवा का भौतिक ढांचा – नालंदा जिला। 
क्र. संख्या संस्था का प्रकार संख्या
1. उपकेंद्र 370
2. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र 20
3. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
(अस्थावान, इस्लामपुर, चांदी) 03
4. फर्स्ट  रेफरल यूनिट
(जिला अस्पताल, प्रखंड अस्पताल हिलसा,
प्रखंड अस्पताल राजगिर, रेफरल, अस्थावान,
चांदी व इस्लामपुर) 06
5. एएनएम प्रशिक्षण केंद्र 01

18 वर्ष से कम आयु में विवाह करने वाली लड़कियों का प्रतिशत ( 88-89 तथा 2002-04 दो वर्ष वावाधि में ) 59.2-59.6

विवाह के समय माध्य आयु 16.0
तीन से अधिक संतानों वाली महिलाओं का प्रतिशत : 53.8
सीपीआर 25.6
ऐसी गर्भवती महिलाओं का प्रतिशत जिन्हें कुछ भी एंटेनेटल देखभाल उपलब्ध थी:  41.4 – 33.2
ऐसी गर्भवती महिलाओं का प्रतिशत जिन्हें पूर्ण एंटेनेटल देखभाल उपलब्ध थी :        9.6- 02.0
ऐसी गर्भवती महिलाओं का प्रतिशत जिन्हें दो या अधिक टीटी इंजेक्शन लगे         76.3
ऐसी गर्भवती महिलाओं का प्रतिशत जिन्हें पर्याप्त मात्रा में आयरन व फोलिक एसिड की गोलियां उपलब्ध थीं 05.5

उन महिलाओं का प्रतिशत जिन्होंने गर्भावस्था के दौरान नियमित रूप से दो या अधिक आईएफए टेबलेट ली 06.0
संस्थानिक प्रसव का प्रतिशत 23.1 30.8
सुरक्षित प्रसव का प्रतिशत 36.1 38.0
उन महिलाओं का प्रतिशत जिनका प्रसव घर पर हुआ 69.0
(12-23 माह) के बच्चों का प्रतिशत जिनका पूर्ण टीकाकरण हुआ था 13.1- 18.4
(12-23 माह) के बच्चों का प्रतिशत जिन्हें कोई टीका नहीं लगा 57.6- 48.7
(12-35 माह) के बच्चों का प्रतिशत जिनका पूर्ण टीकाकरण हुआ था 21.8
(12-35 माह) के बच्चों का प्रतिशत जिन्हें कोई टीका नहीं लगा 49.6
तीन वर्ष से कम आयु के ऐसे बच्चे जिन्होंने जन्म के दो घंटे के भीतर स्तनपान शुरू कर दिया 05.0
(पर्याप्त) आयोडाईज्ड नमक का इस्तेमाल 28.2
आरटीआई/एसटीआई के लक्षणों वाली महिलाओं का प्रतिशत 31.9 -38.1
आरटीआई/एसटीआई के लक्षणों वाले पुरूषों का प्रतिशत 10.6
उन महिलाओं का प्रतिशत जिन्हें एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी थी 18.4
उन पुरूषों का प्रतिशत जिन्हें एचआईवी/एड्स के बारे में जानकारी थी 56.8
महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय संकेतक
आईएमआर (क्यू 1) 52
सीबीआर 35.09
टीएफआर 3.9
उन बच्चों के पोषण की स्थिति जिन्हें एसडी के रूप में वर्गीकृत किया गया था
कम वज़न                     57.3
कम वज़न (मध्यम व गंभीर) 50.4
कम वज़न (गंभीर) 24.2
अविकसित (स्टंटेड) 57.7
क्षीण                               30.3

(स्त्रोत: डिस्ट्रिक्ट हैल्थ एक्शन प्लान 2014, डिस्ट्रिक्ट हैल्थ सोसायटी, नालंदा)

समीक्षाधीन मातृ मृत्यु की ब्लाॅकवार संख्या
राजगीर  06
सिलाव  01
नूरसराय  09
बिहार शरीफ 07
हिल्सा 07
इस्लामपुर 13
अस्थांवा 10
कुल        53

3. प्रेक्षण
3.1 मातृ मृत्यु का पंजीकरण
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में मातृ मृत्यु के पंजीकरण की संख्या अपेक्षाकृत कम रहती है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मातृ मृत्यु की अधिकांश घटनाएं अस्पतालों में होती हैं। इसका एक अन्य कारण यह हो सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मातृ मृत्यु का पंजीकरण नहीं करवाया जाता। इनमें से अधिकांश मृत्यु घरों में होतीं हैं और इसलिए उनका पंजीकरण नहीं होता।
यद्यपि भारत में ‘‘जन्म व मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969‘‘ के अंतर्गत जन्म और मृत्यु का पंजीकरण करवाना अनिवार्य है तथापि इस अधिनियम में मृत्यु या जन्म का पंजीकरण न करवाने पर किसी सज़ा का प्रावधान नहीं है। राज्य के नगरनिगमों द्वारा शहरों के कब्रिस्तानों व शमशान घाटों मंे किए गए अंतिम संस्कारों की सूचना पंजीयक को दी जाती है। इसके विपरीत, गांवों और ब्लाक मुख्यालयों में स्थित कब्रिस्तान व शमशान घाटों के प्रबंधक, पंजीयक को सूचना नहीं देते।
3.2 प्रजनन योग्य आयु की महिलाओं की मृत्यु के कारणों का विश्लेषण
3.2.1 तालिका 1 प्रजनन योग्य आयु की महिलाओं की मृत्यु का आयुवर्ग-वार विश्लेषण प्रस्तुत करती है। अधिकांश मृतक (23/53), 20-25 आयु वर्ग की थीं। दूसरे स्थान (15/53) पर 25-35 आयु वर्ग की महिलाएं थीं। किशोरावस्था में गर्भधारण करने वाली महिलाओं की संख्या काफी अधिक है। यह इससे स्पष्ट है कि 20 वर्ष से कम आयु की 14 महिलाएं गर्भावस्था से जुड़े कारणों से मृत्यु को प्राप्त हुईं।

तलिका 1 प्रजनन योग्य आयु की मृत महिलाओं का आयुवर्गवार विश्लेषण।
आयवर्ग                               संख्या
20 वर्ष से कम                       14
20-25 वर्ष                               23
25-35 वर्ष                            15
35 वर्ष या उससे अधिक       1
कुल                                       53

3.2.2 मातृ मृत्यु के प्रकार
तलिका 2 मातृ मृत्यु के प्रकार के संबंध में है। समीक्षाधीन मातृ मृत्यु में से चार गर्भपात के दौरान हुईं जबकि प्रसूति-पूर्व मृत्यु की संख्या भी केवल 4 थी। सबसे ज्यादा मातृ मृत्यु की घटनाएं प्रसूति के पश्चात हुईं। प्रसूति पश्चात मृत्यु की संख्या 32 है। प्रसूति के दौरान हुई मातृ मृत्यु की संख्या 13 थी जो कि मातृ मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा प्रकार था।

तालिका 2: मातृ मृत्यु का प्रकार-वार विभाजन
मृत्यु का प्रकार                   संख्या
प्रसूति पूर्व                     4
प्रसूति दौरान                   13
प्रसूति पश्चात                   32
गर्भपात                           4
कुल                                 53

3.2.3 मातृ मृत्यु का स्थान 
तालिका 3 मृत्यु के स्थानों का विवरण देती है। अधिकांश मृत्यु (21/53) घरों में हुईं। तीन मृत्यु निजी अस्पतालों में हुईं। इससे यह साफ होता है कि अधिकांश प्रसूतियां घरों में ही हो रही हैं। कुल 21 मृत्यु शासकीय या निजी चिकित्सा संस्थानों में हुईं। इस समीक्षा से यह पता चलता है कि आपातकालीन प्रसूति देखभाल के लिए बड़ी संख्या में लोग निजी अस्पतालों में जा रहे हैं। यह समीक्षाधीन क्षेत्र के आसपास हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की आपातकालीन प्रसूति देखभाल उपलब्ध करवाने में असफलता का द्योतक है। इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि प्रसूति से जुड़ी किसी आपातकालीन स्थिति में समुदाय के सदस्य, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं करते। यह इससे भी साफ है कि 20 प्रतिशत मातृ मृत्यु स्वास्थ्य संस्थान ले जाए जाने के दौरान हुईं।
तालिका 3   मातृ मृत्यु का स्थान-वार विभाजन 
मृत्यु का स्थान                        संख्या
शासकीय अस्पताल                11
निजी अस्पताल                        10
घर                                        21
यात्रा के दौरान                        11

इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं , जिनमें यात्रा के लिए साधन की व्यवस्था करने में देरी, धन की व्यवस्था करने में देरी, निर्णय लेने में  देरी और उपयुक्त स्वास्थ्य संस्थान पहुंचने में देरी इत्यादि शामिल हैं।
3.2.4 गर्भवती महिलाओं की विवाह के समय आयु
विवाह की आयु एक चिंता का कारण बनी हुई है। समीक्षाधीन 53 मृत्यु में से 20 ऐसी महिलाओं की हुईं , जिनका विवाह 18 वर्ष की आयु से पहले हो गया था,  अर्थात ऐसी महिलाओं की संख्या 40 प्रतिशत थी।

तालिका 4 मातृ मृत्यु का विवाह के समय आयु-वार विभाजन
आय समूह                  संख्या
18 वर्ष से कम                 20
18-26 वर्ष                         33
कुल                                 53

मातृ मृत्यु का गर्भावस्था की संख्या-वार विभाजन 
तलिका 5 मातृ मृत्यु का गर्भवती महिलाओं की ग्रेवाइडे-वार (गर्भावस्था की संख्यावार) विभाजन बताती है। मृतक गर्भवती महिलाओं में से 20 प्रतिशत (11/53) ऐसी थीं जो पहली बार गर्भवती हुईं थीं। गर्भावस्था की संख्या, मातृ मृत्यु पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। 10 मातृ मृत्यु ऐसी महिलाओं की हुईं जो चार या उससे अधिक बार गर्भधारण कर चुकी थीं और प्रजनन योग्य आयु की 12 महिलाओं की जब मृत्यु हुई, तब वे तीसरी बार गर्भवती हुई थीं।

तालिका 5 मातृ मृत्यु का ग्रेवाइडे-वार विभाजन
ग्रेवाइडे संख्या
एक : 11
दो : 20
तीन : 12
चार या अधिक :10
कुल : 53

लगभग दो तिहाई मातृ मृत्यु (32/53) ऐसी महिलाओं की हुई जिन्हें गर्भधारण किए हुए 28 से अधिक सप्ताह बीत चुके थे , अर्थात वे अपनी गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में थीं। देखें तालिका 6

तालिका 6 मातृ मृत्यु का गर्भावस्था की अवधि-वार विभाजन
गर्भावस्था की अवधि संख्या
16 सप्ताह से कम                                     16
16-28 सप्ताह 5
28 से अधिक सप्ताह 32
कुल 53

3.2.6 प्रसूति पूर्व जांच
मातृ मृत्यु समीक्षा से यह पता चलता है कि अधिकांश मातृ मृत्यु के मामलांे में संबंधित महिला की प्रसूति पूर्व जांच (एएनसी) हुई थी। केवल छः मामलों में एक भी  एएनसी नहीं हुई थी और केवल दो गर्भवती महिलाओं ने चार अनिवार्य एएनसी करवाईं थीं। सामान्यतः एएनसी में दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता। एएनसी के अंतर्गत केवल टेटनस का टीका लगाया जाता है व आयरन व फाॅलिक एसिड की गोलियां वितरित की जाती हैं जबकि एएनसी में हीमोग्लोबिन का स्तर, एलब्यूमिन व शक्कर की उपस्थिति के लिए मूत्र परीक्षण, रक्तचाप की जांच, वजन नापना और उदर की क्लिनिकल जांच की जानी चाहिए। इसके अलावा, पोषण व प्रसूति के लिए मां को तैयार करने से संबंधित काउंसिलिंग भी होनी चाहिए।
तालिका 7: मातृ मृत्यु का एनएनसी की संख्या-वार विश्लेषण
एएनसी                                       संख्या
शून्य                                           6
एक-तीन 45
चार या अधिक                               2
क्ुल                                         53

3.2.7 मातृ मृत्यु के तीन विलंब
मातृ मृत्यु के शाब्दिक शव विच्छेदन के विश्लेषण से यह पता चलता है कि मुख्यतः तीन विलंब इनके पीछे थे। 53 में से आठ मामलों में गर्भवती महिला को इलाज के लिए अस्पताल ले जाने हेतु वाहन का प्रबंध करने में देरी हुई (देखें तालिका 8)।
लगभग आधे मामलों (26/53) में विभिन्न स्वास्थ्य संस्थानों में इलाज शुरू करने में देरी हुई जबकि 19 मामलों में गर्भवती महिला के परिवारजनों ने निर्णय लेने में विलंब किया। इलाज में देरी मुख्यतः स्थानीय, निजी व सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं में हुई। स्थानीय निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं में शामिल हैं पारंपरिक दाईयां, बिना उपयुक्त अर्हता प्राप्त रूरल मेडिकल पे्रक्टिशनर व अर्हता प्राप्त एलोपेथिक डाॅक्टर। निर्णय लेने में देरी 19 मामलों में मातृ मृत्यु का कारण बनी क्योंकि परिवार वाले गर्भवती महिला की स्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं लगा सके।
तलिका 8:  मातृ मृत्यु का विलंब के प्रकार-वार विश्लेषण
विलंब का प्रकार संख्या
निर्णय लेने में 19
वाहन की व्यवस्था करने में 8
इलाज शुरू करने में                         26
कुल 53

सरकारी आपातकालीन प्रसूति देखभाल सुविधा की घर के नज़दीक अनुपलब्धता मातृ-मृत्यु के एक मुख्य
कारण के रूप में उभर कर सामने आया चौकाने वाली बात यह थी कि समीक्षाधीन 53 मामलों में से केवल आठ में सरकारी एम्बूलेंस (जिसे सामान्य भाषा में 102 या 108 कहा जाता है), का उपयोग मरीजों को अस्पताल ले जाने के लिए किया गया (देखें तालिका 9)। करीब आधे उत्तरदाताओं (25/53) ने बताया कि उन्होंने गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाने के लिए निजी वाहन किराए पर लिया। छः उत्तरदाताओं ने कहा कि वे गर्भवती महिला को इलाज के लिए स्वास्थ्य सुविधा तक पैदल ले गए। करीब चैथाई उत्तरदाताओं का कहना था कि गर्भवती महिला की स्थिति गंभीर होने पर भी वे उसे घर में ही रखे रहे।
तलिका 9: पीडि़तों के परिवारों द्वारा इस्तेमाल किए गए वाहनों का प्रकार-वार विश्लेषण
इस्तेमाल किया गया वाहन संख्या
कोई वाहन नहीं 14
पैदल                                                                           5
निजी वाहन                                                                25
सरकारी एम्बुलेंस                                                         8
कुल                                                                            53

3.2.8 आपातकालीन प्रसूति देखभाल (ईएमओसी)
प्रजनन योग्य आयु की महिलाओं के घरों के आसपास गुणवत्तापूर्ण ईएमओसी सुविधाओं का अभाव, मातृ मृत्यु का एक महत्वपूर्ण कारण बना। मातृ मृत्यु समीक्षा से यह पता चला कि रक्ताल्पता व रक्तस्त्राव, मातृ मृत्यु का सबसे बड़ा एकमात्र कारण था। इलाज शुरू करने में देरी करीब आधी मातृ मृत्यु का कारण बनी। लगभग 20 प्रतिशत मातृ मृत्यु यात्रा के दौरान हुई। इन निष्कर्षों से ऐसा लगता है कि लक्षित क्षेत्र में ईएमओसी सेवाओं का अभाव है।

3.2.9 मृत गर्भवती महिलाओं की देखभाल करने वालों के द्वारा उनकी मृत्यु के विभिन्न कारण बताए गए।

तालिका 10 मातृ मृत्यु का संभावित कारण-वार विश्लेषण (कई मामलों में एक से अधिक कारण बताया गया)
मृत्यु का कारण संख्या
रक्तस्त्राव 20
सेप्सिस                                                   24
एक्लेम्पसिया 10
प्लेसेंटाप्रेविया 16
कठिन प्रसव 34
गंभीर रक्ताल्पता 26

मृत्यु के महत्वपूर्ण कारणों में  गंभीर रक्ताल्पता, रक्तस्त्राव, प्लेसंेटाप्रेविया, कठिन प्रसूति और सेप्सिस शामिल हैं।प्राथमिक व द्वितीयक शासकीय स्वास्थ्य सुविधाओं में गुणवत्तापूर्ण ईएमओसी सुविधाओं की कमी, राज्य में मातृ मृत्यु दर कम करने की राह में एक बड़ा रोड़ा है। इससे सबसे अधिक कठिनाई मुस्लिम व दलित महिलाओं को होती है क्योंकि उनमें से अधिकांश समाज के सबसे गरीब तबके से आती हैं और निजी अस्पतालों में भर्ती होकर इलाज करवाने में सक्षम नहीं होती। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं मंे भी इन समुदायों के सदस्यों को जो अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है, उसे उठाने में भी वे अक्सर सक्षम नहीं होते।

4.  विश्लेषण
मातृ मृत्यु दर किसी भी देश की स्वास्थ्य प्रणाली को जांचने की महत्वपूर्ण कसौटी है। मातृ मृत्यु रोकी जा सकती हैं। दुनियाभर में जो मातृ मृत्यु होती हैं, उनमें भारत का बड़ा हिस्सा है। इसके बावजूद भारत के कई राज्यों में आज भी मातृ मृत्यु की न तो विधिवत सूचना दी जाती है और ना ही उनका व्यवस्थित विश्लेषण होता है। देश के कई राज्यों में जन्म और मृत्यु पंजीकरण की प्रक्रिया में अनेक कमियां हैं। जीवन बीमा व उत्तराधिकार से संबंधित कानूनी प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए मृत्यु प्रमाणपत्र आवश्यक है। परंतु चूंकि हमारे देश में महिलाओं के नाम पर सामान्यतः संपत्ति नहीं होती और ना ही उनका जीवन बीमा करवाया जाता है इसलिए उनकी मृत्यु का पंजीकरण करवाने में परिवारों द्वारा लापरवाही बरती जाती है। उनके मृत्यु प्रमाणपत्र की आवश्यकता न तो संपत्ति के हस्तांतरण के लिए पड़ती है और ना ही जीवन बीमा की राशि पाने के लिए।
सरकारी अस्पताल, हर मृत्यु की सूचना देते हैं परंतु वे मातृ मृत्यु की अलग से सूची नहीं बनाते। पटना, जो कि राज्य की राजधानी है और जहां राज्य के स्वास्थ्य विभाग का मुख्यालय है, में भी मातृ मृत्यु संपरीक्षा नहीं होती।
वर्तमान में जिला स्वास्थ्य अधिकारी कार्यालय द्वारा जिले में होने वाली मातृ मृत्यु के आंकड़े इकठ्ठा करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जाता। जिले में होने वाली मातृ मृत्यु का अध्ययन करने की जिम्मेदारी किसी अधिकारी की नहीं होती। यह आवश्यक है कि प्रजनन योग्य आयु वर्ग की महिलाओं की मृत्यु से संबंधित आंकड़े ठीक ढंग से संकलित किए जाएं और उनके कारणों के आधार पर उनका विश्लेषण किया जाए। उल्टे, स्वास्थ्य अधिकारियों का अक्सर यह प्रयास रहता है कि मातृ मृत्यु की घटनाओं को छुपाया जाए और उन्हें गैर-मातृ मृत्यु साबित कर दिया जाए। हमारे देश में एक ऐसी संस्कृति विकसित हो गई है जिसमें हम नकारात्मक तथ्यों को छुपाने की कोशिश करते हैं।

यह आवश्यक है कि सभी मातृ मृत्यु की घटनाओं की सूचना दी जाए और उनके आंकड़े सुव्यवस्थित रूप से रखे जाएं। विभिन्न विभागों (स्वास्थ्य, आईसीडीएस, पंचायतों) इत्यादि के बीच समन्वय हो और स्वास्थ्य विभाग द्वारा मातृ मृत्यु की सूचना दिए जाने को सुनिश्चित करने की दिशा में गंभीर प्रयास हों।
ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं जैसे एएनएम, एडब्ल्यूडब्ल्यू व आशा इत्यादि पर्याप्त प्रशिक्षित नहीं होते और ना ही मातृ मृत्यु समीक्षा करने में उनकी कोई रूचि होती है। अगर पहली पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ता, गर्भवती महिलाओं की देखभाल करने वालों का ठीक से पथप्रदर्शन करें  और उन्हें यह समझाएं कि गर्भावस्था व प्रसव के दौरान क्या होने पर उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए, तो मातृ मृत्यु का कारण बनने वाले तीन विलंबों में से दो – निर्णय लेने में देरी और वाहन की व्यवस्था करने में देरी – को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

उपयुक्त व पर्याप्त चिकित्सकीय देखभाल मिलने में विलंब, विभिन्न कारणों से हो सकता है। परंतु यह विलंब किसी भी कारण से हो वह अत्यंत खतरनाक है क्योंकि वह महिला की मृत्यु का कारण बन सकता है। सुरक्षित मातृत्व को प्रोत्साहन देने के लिए और मातृ मृत्यु का कारण बनने वाले सभी विलंबों को कम करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। निर्णय लेने में देरी अक्सर इसलिए होती है क्योंकि गर्भवती महिला की देखभाल करने वाले उसके परिवारजन, उसकी स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ पाते। इसके पीछे कई कारक होते हैं जिनमें परिवार की शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति, परिवार में महिलाओं की स्थिति, स्वास्थ्य के प्रति उनकी जागरूकता, परिवार में निर्णय लेने वाले व्यक्ति की क्षमता और बीमारी के लक्षण शामिल हैं। अगर गर्भवती महिला और उसके परिवारजनों को प्रथम पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं से उपयुक्त सलाह मिलेगी तो वे महिला की स्थिति में गिरावट के शुरूआती लक्षणों को पहचान सकेंगे और सुरक्षित प्रसूति के लिए उपयुक्त तैयारी कर सकेंगे।

अस्पताल तक पहुंचने में विलंब के पीछे दूरी, वाहन की उपलब्धता, सड़कों की हालत और वाहन को किराए पर लेने का खर्च आदि जैसे कारक होते हैं। दलितों और मुसलमानों को आज भी सरकार की मुफ्त एम्बुलेंस  सेवा, जिसका बहुत प्रचार-प्रसार किया गया है, का लाभ नहीं मिल पाता। उपयुक्त इलाज मिलने में देरी का कारण अक्सर कार्यकुशल कर्मचारियों, दवाओं, विसंक्रमित उपकरणों व चढ़ाने के लिए खून की अनुपलब्धता होती है।
स्वास्थ्य संस्थाओं की भौतिक व मानव संसाधन अधोसंरचना संतोषजनक नहीं है। जिले के 534 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 480 चैबीस घंटे खुले रहते हैं। परंतु नर्सों की कमी के कारण केवल 281 केंद्रों में तीन नर्सों की नियुक्ति की गई है। जिले में 70 सीएचसी, 46 एसडीएच और 36 डीएच चैबीस घंटे खुले रहते हैं। डीएच, एसडीएच व सीएच सहित 149 स्वास्थ्य केंद्र, फस्र्ट रेफरल यूनिट के रूप में काम कर रहे हैं। हर स्तर पर देरी होने के कारण गर्भवती महिलाएं असमय ही काल का ग्रास बन रही हैं।

भारत में मातृ स्वास्थ्य योजनाओं का इतिहास
1980 का दशक – मातृ व बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (एमसीएच) के अंतर्गत पारंपरिक दाइयों का प्रशिक्षण (टीबीए)
1992-93 बाल उत्तरजीविता व सुरक्षित मातृत्व
1997 – प्रजनन व बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरसीएच)
2005 – आरसीएच-2 $ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन $ जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (केवल संस्थानिक प्रसव पर जोर)
2014-आरएमएनसीएच $ ए (स्किल्ड बर्थ अटेंडेंट पर जोर)

5.  वैयक्तिक अध्ययन
वैयक्तिक अध्ययन-1
धर्मेन्द्र पासवान की पत्नी रीता देवी नालंदा जिले के नूरसराय ब्लाक के अन्धाना गाँव में रहती थीं। विवाह के समय उनकी आयु 15 वर्ष थी। उनके चार बच्चे थे और वे पांचवीं बार गर्भवती हुईं थीं। परिवार की माली हालत कमज़ोर थी। उन्हें जब यह पता चला कि वे गर्भवती हैं तो उन्होंने स्वयं आंगनवाडी केंद्र में अपना पंजीयन करवाया। उन्होंने वीएचएसएनडी द्वारा निर्धारित स्थान पर तीन प्रसूति-पूर्व जांचें करवाईं और उन्होंने टिटेनस का इंजेक्शन भी लगवाया। नौ मास की गर्भावस्था के बाद, एक दिन जब उन्हें प्रसव पीड़ा होनी शुरू हुई तो उन्होंने आशा श्रीमती रेणू देवी को सूचना दी। रेणू देवी ने रीता देवी को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाने के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था करवाने की कोशिश की परन्तु व्यवस्था नहीं हो सकी। इसके बाद उन्होंने रीता देवी के पति से निजी वाहन की व्यवस्था करने को कहा और उससे वे लोग नूरसराय पीएचसी पहुंचे।
उन्हें पीएचसी में भर्ती कर लिया गया और एक एएनएम ने उनकी जांच की। शुरुआत में इस सेवा प्रदाता ने उनकी उचित देखभाल नहीं की। एएनएम का व्यवहार ऐसा था मानों वे रीता देवी पर कोई कृपा कर रहीं हों। रीता देवी को योनि से भारी रक्तस्राव शुरू हो गया। जब प्रभारी चिकित्सा अधिकारी को सूचना दी गयी तो उन्होंने खून चढाने की सलाह दी। रीता के परिवारजनों ने दो यूनिट खून दिया, जिसे उन्हें चढ़ाया गया। परन्तु उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। परिवारजनों से कहा गया कि वे और खून की व्यवस्था करें। उनके साथ ऐसे लोग नहीं थे जो खून दे सकते अतः उनके पास इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा कि वे निजी ब्लड बैंक से खून खरीदें। प्रसव पीड़ा 12 घंटे से अधिक समय तक जारी रही और रीता देवी की हालत में कोई सुधार नहीं आया। एएनएम ने फोरसेप का इस्तेमाल कर प्रसव कराया। इस प्रक्रिया में फोरसेप से गर्भाशय फट गया और रक्तस्राव और तेज़ हो गया। रीता देवी की हालत गिरने लगी। सेवा प्रदाताओं ने योनी में कपड़ा ठूंस कर रक्तस्राव रोकने की कोशिश की। प्रसव के एक घंटे बाद रीता देवी की हालत गंभीर हो गयी। सेवा प्रदाताओं (एएनएम और प्रभारी चिकित्सा अधिकारी) ने मरीज़ को जिला मुख्यालय के बड़े अस्पताल में ले जाने की सलाह दी, वह भी केवल मौखिक रूप से। उन्होंने रेफरल स्लिप भी नहीं दी। परिवारजन, मरीज़ को लेकर एक निजी वाहन से बिहारशरीफ के सदर अस्पताल के लिए रवाना हुए परन्तु वहां पहुँचने से पहले ही रीता देवी की मौत हो गयी।

वैयक्तिक अध्ययन-2
26 वर्षीय सुनयना देवी, अपने पति टुनटुन राम के साथ नालंदा जिले के इस्लामपुर ब्लाक की चंद्रहारी पंचायत के ग्राम अशरफपुर में रहतीं थीं। उनकी एक संतान थी। जब यह त्रासदी हुई, तब उन्होंने दूसरी बार गर्भधारण किया था। उन्होंने आशा की मदद से आँगनवाडी केंद्र में अपना पंजीयन करवाया था। गर्भधारणकाल में उनकी तीन जांचें हुईं थीं। उनका रक्तचाप नापा गया था, उन्होंने आयरन व फोलिक एसिड की गोलियां लीं थीं और उन्हें टिटेनस के दो इंजेक्शन भी लगे थे। आशा कार्यकर्ता समय-समय पर सुनयना देवी से मिलती भी रहती थी। नौ माह की गर्भावस्था के बाद, सुनयना को प्रसव पीड़ा महसूस हुई। उसने आशा कार्यकर्ता को खबर दी। आशा कार्यकर्ता ने पाया कि सुनयना का रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ था। एक निजी वाहन से सुनयना और उनके परिवार के सदस्य एक सरकारी अस्पताल पहुंचे। महिला का इलाज तुरंत शुरू हो गया और उसने एक बच्चे को जन्म दिया। डाक्टर की सलाह पर उसे प्रसव के 12 घंटे बाद ही अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी और वह अपने घर चली गयी। घर पहुँचने के कुछ ही घंटों बाद, सुनयना को घबराहट होने लगी। उसे कपकपाहट होने लगी और उसकी ज्ञानेन्द्रियों ने काम करना बंद कर दिया। उसके घरवालों ने उसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाने के लिए सरकारी एम्बुलेंस या निजी वाहन का इन्तजाम करने की ताबड़तोड़ कोशिश की। परन्तु इन्तजाम होने के पहले ही उसने अपने घर में ही दम तोड़ दिया। वह बच्चे को जन्म देने के 24 घंटे के भीतर कालकवलित हो गयी।

6. निष्कर्ष एवं सिफारिशें
निष्कर्ष-1
मातृ मृत्यु की घटनाओं की संपूर्ण और ठीक-ठीक जानकारी इकठ्ठा करना, मातृ मृत्यु दर को कम करने की दिशा में पहला कदम है। मातृ मृत्यु की गणना करने और उनका विश्लेषण करने के लिए जिले के स्वास्थ्य विभाग द्वारा ईमानदारी और प्रतिबद्धता से प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।

सभी मातृ मृत्यु की सूचना सम्बंधित कार्यालय को प्राप्त हो और उनका ठीक से अभिलेखीकरण हो, इसके लिए हम निम्न कदम उठाये जाने की सिफारिश करते हैं।
1) मातृ मृत्यु की सूचना प्राप्त होना सुनिश्चित करने और उनके अभिलेखीकरण के लिए, जिला स्वस्थ्य कार्यालय में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिए, जिसे जिला मातृ स्वस्थ्य प्रबंधक (डीएमएचएम) कहा जा सकता है। इस अधिकारी को जिले में मातृ स्वास्थ्य से जुड़े सभी पक्षों, जिनमें मातृ मृत्यु की सूचना प्राप्त होना सुनिश्चित करना, उनका ठीक ढंग से रिकॉर्ड रखना और उनका विश्लेषण शामिल हो, के सम्बन्ध में समन्वय स्थापित करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।
2) प्रथम पंक्ति के सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आंगनवाडी कार्यकर्ता व एएनएम) को प्रजनन योग्य आयु (15-49 वर्ष) की सभी महिलाओं की मृत्यु और उसके कारण की सूचना सीधे डीएमएचएम को देनी चाहिए।
3) डीएमएचएम को निजी प्रसूति-ग्रहों से सतत संपर्क में रहकर वहां होने वाली मातृ मृत्यु के आंकड़े इकठ्ठा करना चाहिए।
4) राज्य सरकार को मातृ मृत्यु पर वार्षिक रपट प्रकाशित करनी चाहिए।

निष्कर्ष-2
गर्भवती महिलाओं को निशुल्क एम्बुलेंस सेवा द्वारा तत्काल बड़े या बेहतर अस्पतालों में पहुँचाने में होने वाली परेशानियाँ, मातृ मृत्यु कम करने की राह में एक बड़ा रोड़ा है। इसके कारण चिकित्सालयों में पहुँचने में परिहार्य विलम्ब होता है। हमारी सिफारिश है कि आपातकालीन परिस्थितियों में, गर्भवती महिलाओं को अस्पतालों में पहुँचाने के लिए निशुल्क एम्बुलेंस सभी को समान रूप से उपलब्ध हो, इसकी गारंटी दी जानी चाहिए।

निष्कर्ष-3
गर्भवती महिला के परिवारजनों को गर्भावस्था व प्रसूति के दौरान खतरे के संकेत पहचानने के लिए सक्षम बनाने हेतु प्रथम पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा बहुत कम प्रयास किये जाते हैं। इससे गर्भवती महिलाओं का इलाज करवाने में विलंब होता है। हमारी सिफारिश है कि स्वास्थ्य विभाग व आईसीडीएस द्वारा मातृ स्वास्थ्य के सम्बन्ध में आमजनों में जागरूकता बढाने के लिए छोटे-छोटे संदेश तैयार किये जाने चाहिए और इनका प्रचार-प्रसार विभिन्न मीडिया चैनलों द्वारा किया जाना चाहिए। हमारी यह भी सिफारिश है कि गर्भवती महिलाओं की उनकी प्रसूति की संभावित तिथिवार सूची तैयार की जानी चाहिए और प्रथम पंक्ति के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महिलाओं की कम से कम चार प्रसूति-पूर्व और तीन प्रसूति-पश्चात जांचें हों।

निष्कर्ष-4
मातृ मृत्यु समीक्षा से यह स्पष्ट है कि प्राथमिक और द्वितीयक स्तर के स्वास्थ्य संस्थानों में आपातकालीन प्रसूति सेवाओं में भारी कमियां हैं और उनकी गुणवत्ता बहुत कम है। इस कारण दलित व मुसलमान महिलाओं को तृतीयक स्तर के निजी या सरकारी संस्थानों में जाना पड़ता है। हमारी सिफारिश है कि सरकार को प्राथमिक एवं द्वितीयक स्वास्थ संस्थानों की भौतिक व मानव संसाधन अधोसंरचना को प्राथमिकता के आधार पर बेहतर बनाना चाहिए। इन संस्थानों में पर्याप्त सुविधाएं व उपकरण आदि उपलब्ध करवाये जाने चाहिए ताकि वे गुणवत्तापूर्ण आपातकालीन प्रसूति सेवा उपलब्ध करवा सकें।

निष्कर्ष-5
समुदाय आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा का अभाव है . समुदाय आधारित मातृ मृत्यु समीक्षा में सुधार के लिए हमारी निम्न सिफारिशेें हैंः-
1. ब्लाक स्वास्थ्य अधिकारी को प्रजनन योग्य आयु की महिलाओं की मृत्यु व मातृ मृत्यु की सभी घटनाओं का शाब्दिक शव विच्छेदन और विश्लेषण करना चाहिए। इस शाब्दिक शव विच्छेदन व उसके विश्लेषण के आधार पर जिले व राज्य में मातृ स्वास्थ्य मंे सुधार के लिए कदम उठाए जाने चाहिए।
2. सभी मातृ मृत्यु की सार्वजनिक जांच जिला विकास अधिकारी (डीडीओ) या कलेक्टर द्वारा की जानी चाहिए जैसी कि तमिलनाडु राज्य में की जा रही है।
3. व्हीएचएससी व नागरिक समाज संस्थाओं को शाब्दिक शव विच्छेदन में शामिल किया जाना चाहिए ताकि सीबीएमडीआर संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर सके और बेहतर व मजबूत बन सके।
संपर्क:  charm456@gmail.com

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ISSN 2394-093X
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