सुनपेड़ हत्या कांड : तथ्य और प्रतिबद्धता

अनिल कुमार 


प्रमोद रंजन, (सलाहकार संपादक, फॉरवर्ड प्रेस )और संजीव चंदन, (संपादक, स्त्रीकाल) के साथ सुनपेड़ से लौटकर 


20 अक्टूबर 2015 को सुनपेड़, फरीदाबाद में दो दलित बच्चों (ढाई वर्ष के वैभव और ग्यारह महीने की दिव्या) को जिन्दा जला दिया गया और उनकी मां रेखा लगभग 70-80 प्रतिशत जल गई। इन बच्चो के पिता जीतेन्द्र ने कहा कि उसका पड़ोसी (एक राजपूत परिवार) उसका दुश्मन है और उसका वंश खत्म करना चाहता है और इसलिए उसने पूरे परिवार को जला दिया। उसके अनुसार, उसे भी जलाने की कोशिश हुई थी लेकिन वह बच गया। भारत में ऐसा होना आम है। जीतेन्द्र जो भी कह रहा है, भारत की जातीय संरचना को देखते हुए कोई भी उसे सही ही मानेगा।

विवाद की शुरुआत पिछले वर्ष अक्टूबर में हुई जब राजपूत परिवार के एक लड़के का मोबाइल नाली में गिर गया। उसने स्वयं मोबाइल न उठाकर पास खड़े दलित परिवार के लड़के को उसे उठाने को कहा। दलित लड़के ने मना कर दिया। इसके बाद दोनों बच्चो में और फिर दोनों परिवारों में झगड़ा हुआ। यह घटना जीतेन्द्र के घर से मुश्किल से दस मीटर दूर एक दुकान पर हुई। इस घटना की पृष्ठभूमि में महिलाओं के साथ बदसलूकी भी बताई जाती है।

इसके बाद, पिछले वर्ष 5 अक्टूबर को छ: लोगों पर हमला किया गया, जिनमें से तीन की मौत हो गई। सभी छ: लोग राजपूत परिवार से थे। हमले का आरोपी जीतेन्द्र का भाई है, जो अभी जेल में है। जीतेन्द्र का कहना है राजपूत परिवार उस हमले का बदला लेना चाहता है। इसी कारण जीतेन्द्र के घर पर हरियाणा पुलिस के सुरक्षाकर्मी तैनात किये गये थे। घटना के दिन तीन सुरक्षाकर्मी वहां मौजूद थे।

गाँव में हर वर्ष दुर्गा जागरण का कार्यक्रम होता है। इसके आयोजन में जीतेन्द्र के भाई का बड़ा योगदान रहता था। कार्यक्रम में राजपूत परिवार भी शामिल होता था। जागरण, जीतेन्द्र के घर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर होता है। 5 अक्टूबर, 2014 को जागरण से लौटते वक्त जीतेन्द्र के घर के पास छ: राजपूतों पर चाकू से हमला किया गया, जिनमें से तीन की मौत हो गई।

इस घटना के बाद पीडित परिवार से मिलने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पूनिया, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सुनपेड़ पहुंचे। इन मुलाकातों के छायाचित्रों में जीतेन्द्र के दोनों हाथो में पट्टी बंधी दिख रही थी लेकिन जब मैं, प्रमोद रंजन, (सलाहकार संपादक, फॉरवर्ड प्रेस )और संजीव चंदन, (संपादक, स्त्रीकाल) 25 अक्टूबर को गाँव पहुंचे तब हमने देखा कि उसके एक हाथ में कुछ भी नहीं हुआ था। यहाँ तक कि रोयें तक नहीं जले थे। दूसरे हाथ की सिर्फ उंगलियाँ ही जली थीं, वह भी ऊपर की तरफ से, जबकि जलने से किसी को बचाने में उंगलियाँ अन्दर की तरफ से जलनी चाहिए। उसने यह भी बताया कि घटना के दिन वह पत्नी और बच्चों के साथ उसी कमरे में सो रहा था। इसके बाद 26 अक्टूबर को हम लोग सफ़दरजंग अस्पताल गये ताकि जीतेंद्र की पत्नी रेखा से उसका पक्ष जान सकें। लेकिन आईसीयू में भर्ती होने के कारण उससे मुलाकात नहीं हो सकी। उसके रिश्तेदारों के अनुसार वह 70-80 प्रतिशत जली थी।

कई राजनीतिक हस्तियों के सुनपेड़ जाने से घटना राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आ गयी। उस समय बिहार में चुनाव हो रहे थे और घटना चुनावी मुद्दा बन गई। केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने ‘कुत्ते को पत्थर’ वाला बयान दिया, जिस पर बिहार के भाजपा के सहयोगी नेताओं ने भी गहरी आपत्ति दर्ज की। 22 अक्टूबर, 2015 को हरियाणा के मुख्यमंत्री सुनपेड में पीडित परिवार से मिले और घटना सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी। अनुसूचित जाति पर अत्याचार का पर्याय बन चुके हरियाणा में इससे पहले कई नरसंहार हो चुके हैं और मांग के बावजूद, सरकारें सीबीआई जांच से बचती रही हैं। आखिर इस मामले में इतनी जल्दी सरकार ने सीबीआई जांच के आदेश क्यों दे दिये? क्या इसके पीछे दलित-विरोधी मानी जाने वाली हरियाणा सरकार की कोई विशेष मंशा थी?

राजपूत महिलाओं के आरोप


हम लोग पीडित और आरोपी परिवार के अनेक सदस्यों से मिले। उन तीन राजपूत महिलाओं से भी मिले, जिनके पतियों की हत्या एक साल पहले कर दी गई थी। उन महिलाओं ने कहा कि ‘हमारे पति मारे गये हैं। उनकी हत्या के आरोप में दलित परिवार के लोग जेल में हैं। अब फैसला आने ही वाला है। ऐसे में हम अपना केस क्यों खऱाब करेंगें?’ राजपूतों की हत्या का मुख्य आरोपी जीतेन्द्र का भाई है। दलित परिवारों के अन्य लोग भी आरोपी हैं। जीतेन्द्र ने बताया कि उसका वकील उसी गाँव का है, जो राजपूत है। जीतेन्द्र के किसी भी परिवारजन ने नहीं कहा कि यह जाति की लड़ाई है। दूसरी ओर, राजपूत परिवार के लोगों का कहना था कि ‘यह सब जीतेंद्र का वकील करा रहा है, जो यहाँ की राजनीति पर कब्ज़ा करना चाहता है।’ गौरतलब है कि सुनपेड़ पंचायत का यह वार्ड पहले अनारक्षित था, जो अब अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गया है। यहाँ से सिर्फ इन्हीं दो परिवारों के लोग निर्वाचित होते रहे हैं।

पुलिस की प्रारंभिक रिपोर्ट में कहा गया है कि आग बाहर से नहीं बल्कि अन्दर से लगाई गई थी। साथ ही, आग पेट्रोल से नहीं केरोसीन से लगी थी। आरोपी पक्ष इसे पति-पत्नी के बीच झगड़े का नतीजा बताते हुए कह रहा है कि आग जीतेंद्र ने खुद लगाई थी।

तथ्य, तर्क और सामाजिक प्रतिबद्धता


मैंने कोशिश की है कि सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर घटना का विश्लेषण किया जाये। पिछले वर्ष के और हालिया कत्लों की जांच सीबीआई कर रही है, जिसके बाद अदालत दोषी और निर्दोष का निर्धारण करेगी। इसलिए मैं कोई निर्णय नहीं सुना रहा हूँ। लेकिन यह सच है कि वहां जाकर मुझे ऐसा नहीं लगा कि यह उस तरह का सिर्फ जाति आधारित मामला है जैसा कि मेरे समानधर्मा मित्रों ने पिछले दिनों सोशल मीडिया पर महज आरंभिक जानकारी के आधार पर प्रकाशित किया था। यही कारण था कि मैं कई दिन तक सोचता रहा कि इस विषय पर कुछ भी न लिखूं। क्योंकि लिखूं तो क्या लिखूं? और कैसे लिखूं? लेकिन मेरी चुप्पी भी क्या राजनीतिक रूप से ठीक स्टैंड होती? क्या यह चुप्पी मेरी सामाजिक प्रतिबद्धता को खंडित नहीं करती? लेकिन अगर मैं उन तथ्यो को लिखता हूं, जो मैंने देखे और महसूस किये, तो मैं इस मामले को लेकर बहुजनों के बीच बन चुकी सामान्य समझ के विपरीत जाता हूं और यह संभव है कि कल मुझे अपने ही बहुजन समुदाय का विरोधी कहा जाए। यही कारण है कि सौ से ज्यादा फोटोग्राफ लेने और लगभग ढाई घंटे से ज्यादा की विडियो रिकॉर्डिंग करने के बाद भी मैंने उसे किसी सोशल मीडिया पर पोस्ट नहीं किया। सोशल मीडिया में घटनाओं को सिर्फ सफ़ेद और काले, सही और गलत के रूप में देखने की प्रवृत्ति है।

प्रतिक्रियाओं का समाजशास्त्र


सुनपेड़ की घटना के बाद फेसबुक पर कई लोगो ने विरोध स्वरूप अपने प्रोफाइल फोटो काले कर लिए। मैं इस पर भी गौर कर रहा था कि किसने अपना प्रोफाइल फोटो काला किया है। इसी बीच भाजपा सरकार में विदेश राज्यमंत्री ने एक गैर-जिमेदराना टिप्पणी की कि ‘अगर कोई किसी कुत्ते को पत्थर मार दे तो क्या इसके लिए भी सरकार जिम्मेदार होगी?’ इन सबका सोशल लोकेशन देखा जाना चाहिए, विरोध करने वालों और क्रूर, गैर-जिम्मेदराना वकतव्य देने वालों, दोनों का। सोशल लोकेशन और चिंतन में गहरा सम्बन्ध है।
सोशल लोकेशन किसी व्यक्ति के सामूहिक, साझा अनुभवों से जुड़ा होता है। मैंने अपने पीएचडी शोध प्रबंध में भी इसका प्रमुखता से जिक्र किया है। जातिगत अत्याचार, विशेषकर अनुसूचित जातियों पर अत्याचार पर कौन बोलेगा, कौन चुप रहेगा और जो बोलेगा वह क्या और कैसे बोलेगा, वह सब पहले से निर्धारित है। जनरल वीके सिंह राजपूत हैं और राजपूत अपनी कथित वीरता के लिए जाने जाते हैं। इसलिए ‘कोई कुत्ते पर पत्थर फेंके तो यह देखना उनका काम नहीं है’ और ‘इसके लिए सरकार जिम्मेवार नहीं है।’ फिर सरकार कौन है, यह सोचने की भी जरुरत है। सरकार और वंचितों का सोशल लोकेशन अलग-अलग है। कुत्ते का किस्सा यहीं ख़त्म नहीं होता। 13 जुलाई, 2013 को भाजपा नेता और उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गोधरा जनसंहार के सन्दर्भ में कहा था, ‘अगर कोई कुत्ता भी मेरी कार के नीचे आ जाए तो मुझे तकलीफ होती है।’ अप्रैल 21, 2010 को मिर्चपुर आगजनी और नरसंहार की शुरुआत अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति के कुत्ते के जाटों पर भौंकने से हुई थी। कुत्ते ने किसी को काटा नहीं था। वह सिर्फ भौंका था। सितम्बर 2010 में भोपाल का एक राजपूत परिवार अपने कुत्ते शेरू को सिर्फ इसलिए घर से निकाल देता है क्योंकि उसे पता चलता है कि उसके कुत्ते ने एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति के घर खाना खा लिया है। अब उसका कुत्ता भी अनुसूचित जाति का अर्थात अछूत हो गया है। एक अछूत को राजपूत परिवार कैसे अपने घर में रख सकता है? तमिलनाडू में एक जाति विशेष के लोग अनुसूचित जाति के लोगों पर सिर्फ इसलिए हमला कर देते हैं क्योंकि अनुसूचित जाति के लोगों के कुत्ते से उनकी कुतिया का संपर्क हो गया। यह उस जाति विशेष के आत्मसम्मान के खिलाफ था।

अनुसूचित और वंचित जातियों पर हो रहे अत्याचार से किसे तकलीफ होती है? जिन्हें तकलीफ नहीं होती है, वे कौन लोग हैं? उनकी सोशल लोकेशन क्या है? कई बार लोग कह देते हैं कि कुछ करने की जगह फलाना सिर्फ लिख देता/देती है। मैं पूछता हूँ कि क्या कुछ लोगो में इतनी भी हिम्मत है कि सामाजिक न्याय की बात करने वाले पोस्ट को लाइक भी कर दें? मेरा उत्तर है नहीं। इसलिए मैं एक लाइक को भी सहमति और समर्थन मनाता हूँ। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि बिहार चुनाव के दौरान इस घटना का सबसे मुखर विरोध जीतनराम मांझी ने किया, उसके बाद रामविलास पासवान और फिर लालू प्रसाद यादव ने? इन नेताओं में कहीं-न-कहीं उनके प्रति संवेदना थी। यह संवेदना उनके सोशल लोकेशन से आती है। चूँकि इस देश में सोशल लोकेशन साझा नहीं है, इसलिए संवेदनाएं भी साझी नहीं हैं ।
सच क्या है, यह बाद का सवाल है। मूल सवाल यह है कि इस घटना के बाद किसकी संवेदना जागी और किसको लगा ये सब तो होता रहता है। क्या देश का अनुसूचित जाति (साथ ही आदिवासी और पिछड़ा) तबका इस स्थिति में पहुँच गया है कि वह अपने मनमाफिक मीडिया, प्रशासन और जनमानस को ब्लैकमेल कर सके? कानून का दुरूपयोग कर सके?

मेरे निष्कर्ष


पहला, सुनपेड कांड की शुरुआत जाति-श्रेष्ठता की मानसिकता के प्रतिरोध से हुई। पिछले वर्ष अक्टूबर में जब एक राजपूत लड़के का मोबाइल नाली में गिर गया तब उसने अनुसूचित जाति के एक बच्चे से उसे निकालने को कहा। अनुसूचित जाति के लड़के ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। इस पर दोनों में झगडा हुआ, जो बाद में दोनों परिवारों के झगडे में बदल गया। मैं इसे सकारात्मक रूप में लेता हूँ। हरियाणा की हिंसा सदियों से शोषित-वंचित वर्गों के प्रतिरोध का नतीजा है। आज कोई किसी की बात सिर्फ इसलिए नहीं मान लेगा कि वह किसी खास जाति से है, जो अपनी बात मनवाने के लिए अपराधिक कृत्य करने से भी नहीं चुकेगा। अगर हत्याएं दलित परिवार ने भी की थीं तब भी मैं उन्हें जायज नहीं ठहरा सकता। लेकिन यह संदेश भी इस घटना में निहित है कि जातिगत श्रेष्ठता के वर्चस्व को अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन जातिगत श्रेष्ठता के वर्चस्व को कैसे चुनौती दी जाए, यह एक अहम सवाल बना रहेगा।



दूसरा, वर्तमान हत्याकांड, दो परिवारों के बीच राजनीतिक संघर्ष और शक का नतीजा है। इसमें जातीय संघर्ष नहीं, जातीय वर्चस्व निहित है। अब तक सिर्फ इन्हीं दोनों परिवारों के बीच पंचायत की सत्ता रही है। पिछले वर्ष या इस वर्ष के हत्या कांड में किसी पक्ष ने नहीं कहा कि उसका साथ उसकी जाति के अन्य गाँववाले दे रहे थे। एक कोण पति-पत्नी में झगड़े का भी है।

तीसरा, जातिगत हिंसा पर प्रतिक्रिया आज भी व्यक्ति के सोशल लोकेशन पर निर्भर है। जातिवाद, भारतीय समाज के पोर-पोर में इस कदर समाया हुआ है कि व्यक्ति की सोच उसके जन्म से पहले ही निर्धारित हो जाती है! जिन लोगों ने सवर्ण समाज में भी जन्म लेकर अपनी मानसिकता बदली है, यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि है। इसका स्वागत होना चाहिए, लेकिन सवर्ण समाज से आने वाले अधिकांश लोगो को आज भी नहीं लगता कि वंचित समाजों की समस्याएं उनकी अपनी समस्या हैं, या कम-से-कम इस देश की समस्या है।

चौथा, उपरोक्ति बिन्दुओं पर विचार करने के बाद हम बाबा साहेब आंबेडकर के शब्दों में कह सकते हैं कि ‘भारत एक राष्ट्र नहीं है बल्कि राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है।’ देश में संवेदनाएं भी सामने वाले और खुद की सामाजिक स्थिति और आइडेंटिटी पर निर्भर करतीं है। जो राष्ट्रवाद की बातें करते हैं, वे या तो पाकिस्तान बॉर्डर की बात करते हैं या फिर अपनी कौम की। उनके अनुसार, आरक्षण राष्ट्रहित में नहीं है। यानी, जिन्हें आरक्षण नहीं मिलता वे ही राष्ट्र हैं। समाज के संस्थानों में जब तक सबकी भागीदारी नहीं होगी, जब तक राष्ट्र साँझा नहीं होगा, जब तक समाज में न्याय होता नहीं दिखेगा, जब तक सामान में संवेदनाएं साँझा नहीं होंगीं, तब तक यही माना जाएगा कि एक समाज पर हुए अत्याचार-हमले के लिए दूसरा समाज ही जिम्मेवार है। इस भावना का दुरूपयोग संभव है, हुआ है और होगा। लेकिन इस परिस्थिति में जब सभी संस्थानों पर चंद लोगो का कब्ज़ा है, ऐसे दुरूपयोग की भी कितनी संभावनाएं हैं? दुरूपयोग के लिए जिम्मेवार कौन है? क्या समाज में सच में न्याय हो रहा है? अगर हो रहा है तब दुरूपयोग संभव ही नहीं है और अगर नहीं हो रहा है तब भी हाशिये के लोगों द्वारा दुरूपयोग संभव नहीं है। सच यह है कि भारत जैसे विविधता वाले समाज में, कुछ बाहुबली कौमों का बोलबाला है, जो अपनी बात मनवाने के लिए अपराधिक कृत्य भी कर सकता है, जिसे मीडिया दबंग कहता है। एक समाज जिसके पास न शासन है न प्रशासन है और न हीं सशक्त राजनीतिक ताकत, उसके पास बहुत कम विकल्प बच जाते हैं।

लेखक समाज शास्त्र पढ़ाते हैं. 

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ISSN 2394-093X
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