हाशिए की पीड़ा की शाश्वत अभिव्यक्ति : ‘मैं साधु नहीं’

डॉ. विमलेश शर्मा

राजकीय कन्या महाविद्यालय अजमेर, राजस्थान  में हिन्दी की प्राध्यापिका. संपर्क : vimlesh27@gmail.com

समय शाश्वत है औऱ इसके साथ- साथ सहमतियाँ और प्रतिरोध चलते रहते हैं। कुछ मान्यताएँ देश, काल , परिस्थतियों के साथ उपजती हैं । जो उनके बहाव के साथ चलती है वे अनुकूल पर जो विसंगतियों का कारक बनती हैं वहाँ एक प्रतिरोध उपजता है।  यह प्रतिरोध वस्तुतः सामाजिक वर्जनाओं के प्रति और असत्य के प्रति होता है। आज जहाँ सत्य हाशिए पर है वहाँ पर संवेदनाओँ की बात करना हास्यास्पद लगता है परन्तु अदीब इन संवेदनाओं को अपनी लेखनी से हर काल , परिस्थिति और सरोकारों को उकेरता रहा है।  ये कलमें उन तमाम स्थितियों पर अपनी संवेदनशील नजर डालती है जिन पर समाज सिर्फ बहस करता है। इन्हीं भावों को लेकर हीरालाल राजस्थानी का काव्य संग्रह ‘मैं साधु नहीं’ एक सच्चा विरक्तिभाव और लेखकीय प्रतिबद्धता  लिए हमारे समक्ष उपस्थित होता है। अपने कहन से लेखक यह भी स्पष्ट कर देता है कि प्रतिबद्ध होना कट्टर होना नहीं है। प्रतिबद्धता गतिशीलता को साथ लेकर चलती है। इस संकलन में लेखक आहत है सामाजिक संरचना के वीभत्स पहलुओं  से, स्त्री विरोधी सोच से और उन तमाम पहलूओं से जिनसे शोषण जन्म लेता है, शायद इसीलिए इन कविताओं में व्यवस्था के प्रति विरोध है, एक प्रतिकार है , एक संवेदना है तमाम हाशिए के लिए और एक चिंता है मानवता को बचाने के लिए।  आज जब सभी सभ्यताएँ अतिवादी विकास के मुहाने पर खड़ी हैं  और हर ओर शहरीकरण और आधुनिकीकरण हावी है तब हर व्यक्ति सूकून की तलाश में  गाँवों की ओर रूख करना चाहता है ।  परन्तु इसके ठीक उलट लेखक का  मानना है कि गाँव से शहर भले हैं। इसके पीछे है मनुवादी सोच औऱ जातिगत समीकरण जो गाँवों में अब भी पूरी वीभत्सता के साथ मौजूद है । शहर कई -कई स्थितियों में बेहतर हैं क्योंकि वहाँ न जाति-धर्म का भेद है और ना ही खून के रंग का  भेद। हालांकि कई शहरों में स्थितियाँ उलट है परन्तु बनिस्पत गाँवों के ऐसे शहर बहुत कम हैं-
गाँव से शहर भले/ जहाँ न ठाकुर का कुआँ/ न मनुवादी मुंडेरे/ नगर निगम का पानी/ जो बिना भेदभाव के/ गली-कूचों की रगों में/संचारित हो..

कवि इस संकलन में हाशिए की सभी संवेदनाओं को ज़ज़्ब करता है । स्त्री संवेदनाओं और संघर्ष पर संग्रह में सर्वाधिक कविताएँ हैं जहाँ लेखक उसके समकक्ष खड़ा होकर उन स्थितियों को महसूसने का प्रयास करता है जिसे स्त्री इल्म और हुनर में बराबरी का हक रखते हुए भी सदियों से झेलती आई है। सर्वश्रेष्ठ, गाँव से शहर भले, शोषक और चलन कविता इन्हीं भावो को लेकर हमारे समक्ष उपस्थित होती है।  इन कविताओं में स्त्री है, उसका शोषित पक्ष है, परिवार है और पुंसवादी सोच से टकराव भी है। सर्वश्रेष्ठ कविता स्त्री पुरूष के अहं के टकराव की अभिव्यक्ति है। जहाँ वे दोनों ही अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और परिणामतः रिश्तों में एक तनाव उपज़ता है। गाँव से शहर भले  कविता एक अजीब सी तसल्ली देती है कि “गाँव से शहर भले हैं /जहाँ स्त्रियाँ/रूढ़ियों की कील नहीं समझी जाती.” । वह स्त्री के उस शोषण को महसूस करता है जिसे वो सदियों से भोगती आयी है और उन्हीं भावों को साधारणीकृत करते हुए वह शोषित पलों में अपने आपको एक स्त्री रूप में पाता है और लेखकीय संवेदना का विस्तार शोषक कविता की इन पंक्तियों में देखा जा सकता  कि “शोषण जब मेरा होता है तो मैं अपने-आपको/ स्त्रियों की कतार में पाता हूँ।”
तकनीक के दौर में आज भले ही दुनिया हथेली में सिमट गई हो परन्तु इस क्रांति का एक बहुत बड़ा खामियाजा नई पीढ़ी अवसाद और अकेलेपन के रूप में भुगत रही है। आज हर ओर गलाकाट प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या का माहोल है। परिणामतः व्यक्ति भीड़ं में रहकर भी अकेला है। शख्शियत कविता इसी अजनबीपन को इंगित करती है परन्तु साथ ही कवि सकारात्मक भी है कि अगर आत्मविश्वास औऱ मनोबल है तो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी डटा रह सकता है- लहरों की तरह, उछालें, तोहमतें की छीटें, मेरे दामन पर, मगर , मैं खड़ा था , चट्टानों की तरह!! इस संग्रह की कविताओँ में वस्तुतः वही चिंता लघुतर कलेवर में है जो प्रसाद की ‘कामायनी’ में है और यही कारण है कि सभी वर्ग इन कविताओं में अपनी समस्याओं के साथ आ खड़े हुए हैं। वे स्त्री हो या पुरूष दोनो से ही अहं को त्यागकर समरस जीवन जीने की बात करते हैं। इसीलिए वे शरीरों से आगे बढ़ने की बात कहते हैं- “ आओ ,हम दोनों ही, इंसान बनने की कोशिश करें, जो शरीरों से आगे, मानवता के मापदण्ड स्थापित करती हो!”

लेखक अनेक सामाजिक विषयों पर अपनी कविता ठेठ देसी  ढंग से रखता है क्योंकि आम जन की परेशानियाँ वैश्विक नहीं है । वह रोज इन्हीं अनुभवों से गुज़रता है। दहेज जैसी सामाजिक विसंगति पर वे अपने विचार ‘चलन ’ शीर्षक कविता में लिखते हैं और बहुत सधे हुए शब्दों में कह देते हैं कि धनवान हो या गुणवान दोनों ही प्रकार के वर खरीदना आज सुलभ हो गया है, “आखिर! दहेज का चलन जो है”। कवि वस्तुतः एक अकुलाहट को जीता है। घटित को शब्दों में बदलने की प्रक्रिया में अनेक शब्द गिरते हैं,बैठते हैं और जब किसी दबाव वश बाहर नहीं निकल पाते हैं तो सड़ने लगते हैं। इसीलिए वो लिपिबद्ध होना चाहते हैं । इसीलिए लेखक लिखता है औऱ उन तमाम कुचालों का जिक्र करता है जो सदियों से धर्म और जाति व्यवस्था के नाम पर फैलायी जा रही है।  वह कहता है सदियों से यह जो खेल खेला जा रहा है आज भी उतने ही शातिराना ढंग से समाज में उसकी रवायतें मौजूद हैं।  गाँव की खाप पंचायत हो या शहर का सफेदपोश तबका सभी अपना काम करने में माहिर हैं। “गाँव की खाप हो / या शहर की लॉबी हो/ उत्पीड़न का तांडव/ अपनी घाघ बुद्धि से / मानवीय मूल्यों को/  घायल करने का दाव / आज भी नहीं चूकता ।”(खेल की जाति, जाति का खेल ) हाशिए के उस वर्ग की पीड़ा को जो सदा से अभावों में रहा है उसे बखूबी ‘मंदिर और मैला’ कविता मे उकेरा गया है।

आज विसंगतियों से भरे इस युग में अगर किसी चीज़ को वाकई बचाना है तो वह है मानवता और इसके बचाव में उन दकियानूसी  और रूढ़िवादी मूल्यों को तोड़ना आवश्यक है  जो तथातथित वैदिक परम्परा की देन है । इस प्रक्रिया में वह पुरजोर आवश्यकता महसूस करता है इतिहास के पुनर्लेखन की जिससे मानवीय मूल्यों पर केन्द्रित मापदण्डों का पुनर्निर्माण किया जा सके। इसीलिए वे दकियानूस धार्मिक ग्रंथों को वेस्ट मैटिरियल मानते हैं और बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट की ही तर्ज़ पर सार- सार को गहि ले ,थोथो देय उड़ाय की बात कहते हैं। कवि संवेदना शब्दों से प्रभावशाली वर्ग की गंधाती ,बजबजाती औऱ सड़ांध मारती हुई संस्कृति पर प्रहार करने की कोशिश करते हैं- “वेस्ट मटिरियल की तरह पड़े/ ये रामायण/  महाभारत/ कुरआन/ बाईबिल और / वेद पुराण इत्यादि को गला कर/ कुछ मानवीय मूल्यों पर केन्द्रित मानदण्डों का पुनर्निमाण आवश्यक है।”
पूँजीकरण, शौषण और बेलगाम काली पूँजी के बल पर हर असहाय को दबाया गया है। भावनाओं से खेल कर उसे वास्तविक विषयों  से दूर किया गया है। अन्याय पर टिकी व्यवस्था में अहिंसा एक असंभव कल्पना है और कवि मन बारीकियों से इन तमाम पहलूओं  को देखता है। वह समाजवाद के उस पक्ष से आहत है जिसे एक आदर्श रूप में देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ धर्म हर पल रंग बदलता है और एक असहाय ना जाने किन आशाओं के झरनों की तलाश में जीवन जिए चले जाने की फ़िराक में जीता है। इन कविताओं में कवि कहीं आशान्वित होता है ,कहीं बागी होता है और कहीं हताश होता है। कवि आशान्वित है क्योंकि वह कलम का धनी है और  यही कलम संघर्ष के खिलाफ लड़ती है और,“ बहुत बारीक सी उन संवेदनाओं को साकार करती/जो मेरे मन में /पल-पल बढ़ रही होती/और /मेरी अँगुलियों को/ संगठित होना सिखा / मुझे साधु(निकम्मा)/ होने से भी बचाती है। ”

कविताओं के शिल्प पर बात की जाए तो यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि वैचारिकता को जिस सहजता का जामा पहनाकर कविताएं प्रस्तुत की गई हैं वह सिर्फ हीरालाल राजस्थानी ही कर सकते हैं। कवि का शिल्प के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि कवि का मंतव्य शायद भावों और चिंताओं को उस आम जन तक पहुँचाना रहा है जहाँ से ये ग्रहण की गई हैं। यहाँ कोई बिम्ब विधान नहीं है, ढाँचे के प्रति बुनाव़ट का प्रयास नहीं है क्योंकि कवि उस हाशिए की पीड़ा को अभिव्यक्त करना चाहता है जो अपने निजपन में परिवेश में आए तमाम बदलावों  के बावजूद आज भी उतना ही सहज है, सच्चा है जैसा पहले था ।

संकलन की 60 से अधिक कविताएं नाना विषयों को सहेजती हुई चलती हैं परन्तु मानवीय संवेदना को स्वर प्रदान करना और उसे बचाए रखने की जद्दोजहद इन कविताओं का मूल स्वर है।  लेखकीय प्रतिबद्धता समाज में घट रहे खौफनाक मंजर को ना सिर्फ अनुभव करती है वरन् वह उसे बाहर से भी देखना चाहता है। यहाँ लेखकीय तटस्थता अनेक मंजर देखती हुई आखिरकार उस नतीजे पर पहुँचती है कि स्वार्थ के पैमाने पर उतरती संस्कृति एक दिन व्यापार में बदल जाती है।  स्त्री और दलित कविताओं के केन्द्र में है जो यह बताता है कि कवि मन संवेदनाओं को बारीकी से पकड़ने में कुशल है। वस्तुतः ये कविताएं उस वर्ग की चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसका वास्तविक सौन्दर्य मानवता का शुद्ध रूप है। स्पष्ट है इस उद्देश्य के साथ कविता के सौन्दर्य को बनावटीपन और सायास  अलंकारों से अलंकृत करने की कहाँ आवश्यकता है । ज़ाहिर है ऐसे शब्द तो अपनी प्रकृति से ही मानवीय पगडंडियों से चलते हुए ह्रदय के गह्वरों में सौन्दर्य के झरने स्वतः ही ढूँढ लेंगें।

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ISSN 2394-093X
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