ताकि बोलें वे भी, जो हैं सदियों से चुप

अनिल अनलहातु 

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी एवं अंग्रेजी की कविताएं प्रकाशित. “प्रतिलिपि” कविता सम्मान’2015. संपर्क :analhatukavita@gmail.com, 08986878504

(आज मनु स्मृति दहन  दिवस  के  दिन , भारतीय  महिला  मुक्ति  दिवस  के  दिन, आयें  हम सबके प्रिय  साहित्यकार  उदय प्रकाश  की  कविता  ‘ औरतें ‘ पर  बनी  छोटी  फिल्म  देखें  और  अनिल  अनलहातु के  द्वारा फिल्म  एवं  कविता  की  समीक्षा  भी  पढ़ें .)  


“बस अड्डे या रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर खड़ी हैं यह पूछती हुई कि
उन्हें किस गाड़ी में बैठना है और जाना कहां है इस संसार में”|


ये औरतें ही हैं जिन्हें नहीं पता होता कि उन्हें कहाँ जाना है इस संसार में, क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि उनका पता क्या है।  क्या उनका कोई पता होता है और क्या होता भी है ? पूरे विश्व मे औरतें ही हैं जिनका  कोई पता नहीं होता, कोई बता सकता है कि उनका क्या पता है? सच्चाई तो यह है कि यही सच्चाई है, कि उनका कोई पता नही होता, उनका कोई घर नहीं होता,  इसीलिए उनका कोई पता नही होता , वे बेघर होती हैं,उनका अपने नाम से अपना कोई घर नहीं होता , वह घर जिसमे उन्हें  रहने दिया जाता है वह कभी उनके पिता का होता है , कभी भाई का होता है , कभी पति का होता है, तो कभी पुत्र का होता है। वे बेघर होती हैं क्योंकि उनकी कोई ज़मीन नहीं होती है, न धरती के क्षेत्रफल मे , न व्यक्ति के रूप मे,  न उनका कोई आकाश होता है।  वे ताउम्र किसी और के घर में, किसी और के रहमो-करम  पे रहती हैं और इसीलिए हारकर कहती हैं –
‘एक औरत हार कर कहती है -तुम जो जी आये, कर लो मेरे साथ
बस मुझे किसी तरह जी लेने दो”
उदय प्रकाश की कविता ‘ औरतें ‘ पर  आधारित  छोटी  फिल्म  



उपर्युक्त पंक्तियाँ दयनीयता की पराकाष्ठा हैं,जहां इस पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने स्त्रियों को शुरू से रखा है, इस देश में एकमात्र  स्त्रियाँ हीं  भूमिहीन हैं।  सवर्णों , अवर्णों, पिछड़े वर्गों ही नहीं दलितों के पास भी भूमि है , भूमि है तो  उनका घर भी है , घर है तो उनके लिए एक स्पेस है, एक देश है , एक देश है तो उनकी एक पहचान है , एक पहचान है तो उनकी अपनी अस्मिता है । और अस्मिता है तो हजारो वर्षों के बाद भी इस निकृष्ट  ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लड़कर दलितों ने अपनी  पहचान , अपनी ज़मीन वापस ले  ली  है या ले लेंगे। यह अकारण नहीं है कि स्त्रियों को माहवारी के समय में अस्पृश्य समझा जाता है और उनका उन दिनों मंदिरों मे प्रवेश वर्जित होता है, जिस तरह से दलित अस्पृश्य समझे जाते थे और उनकी छाया तक से ब्राह्मण दूषित हो जाते थे और उनका भी  मंदिरों मे प्रवेश वर्जित था । इसीलिए इस पितृसत्ता ने स्त्रियों को भूमि में, घर  में कोई हिस्सेदारी नहीं दी ,उसे भूमिहीन और बेघर बनाए रखा । यही कारण है कि उनका कोई  अपना घर नही होता, अपना स्पेस नहीं होता,  अपना कोई देश नही होता और इसीलिए उनकी न कोई पहचान होती है, न अस्मिता । पहचान और अस्मिता रहित वे महज शरीर होकर रह  जाती हैं,  जिस पर  भिन्न-भिन्न  समयों मे भिन्न-भिन्न पुरुषों का कब्जा होता है।  उनके इंसान होने के अधिकार को इस पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा  छिन लिया गया है और उन्हें एक पण्य मे तब्दील कर उनका एक सामान,माल के रूप मे उपयोग और उपभोग करने की  निर्बाध स्वतंत्रता पुरुषों को सौंप दी है। तभी हमारे पुराण और ग्रंथ उद्घोषणा करते हैं – ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ कहना  न होगा कि यहाँ वीर कौन है और वसुंधरा से तात्पर्य किसका है.

अपनी पहचान और अस्मिता से रहित एक स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता, वह हमेशा किसी पुरुष के अस्तित्व के साये में जीती है , तभी वह लगातार सुहागन बने  रहना चाहती है, ताकि पति के अस्तित्व के तले उसका भी अस्तित्व सुरक्षित रह सके। किन्तु वहाँ भी वह सुरक्षित नहीं है, इसीलिए ”सोती -सोती अचानक चिल्लाती है,
” क्योंकि
“वह पति या सास के हाथों मार दिये जाने से डरी हुई”
“यद्यपि वह औरत  सुहागन बने रहने के लिए रखे हुए है करवा चौथ का निर्जल व्रत”।
कभी वह बालकनी में खड़ी आधी –आधी रात इंतज़ार करती रहती है अपने शराबी पति का,
जो उसी की  तरह असुरक्षित और बेबस एक दूसरी औरत के घर से लौटने वाला है ।

एक गहन असुरक्षा, संदेह और डर  के घेरे मे जीती स्त्री अपनी छोटी छोटी जरूरतों के लिए भी पति के ऊपर आश्रित होती है क्योंकि उसके पास कोई रोजगार नहीं, न कोई कमाई। इसीलिए पति की तनख्वाह और ख़र्चे के बारे मे दरयाफ्त करने के पहले  वह पिटने को तैयार रहती है-
“संदेह, असुरक्षा और डर से घिरी एक औरत अपने पिटने से पहले
बहुत महीन आवाज़ में पूछती है पति से –
कहां खर्च हो गये आपके पर्स में से तनख्वाह के आधे से
ज़्यादा रुपये ?”
स्त्री जीवन की कैसी ट्रेजडी है कि अपनी यौवनावस्था मे पति की असुरक्षित सुरक्षा मे जीती स्त्री, अपनी वृद्धावस्था को महफूज़ रखने के लिए, अपने बच्चो के भविष्य मे अपने लिए शरणस्थली खोजती हुई फूट-फ़ूट कर रोने लगती है –
“एक औरत अपने बच्चे को नहलाते हुए यों ही रोने लगती है फूट-फूट कर
और चूमती है उसे पागल जैसी बार-बार,
उसके भविष्य में अपने लिए कोई गुफ़ा या शरण खोज़ती हुई”

यह वास्तव मे निंदनीय और चिंतनीय है कि मनुस्मृति मे लिखा हुआ स्त्रियों की गुलामी का वह मंत्र इस इक्कीसवीं सदी मे भी अमोघ बना हुआ है – “पिता  रक्षति कौमारे, भर्ता च यौवने । रक्षन्ति  स्थाविरे पुत्रा: ,न स्त्री स्वातान्त्रयमर्हति ।“

दरअसल यह पूरी कविता ही एक elegy है, एक शोक गीति है, एक मरसिया है। कवि पूरी स्त्री जाति की मृत्यु का शोक मना रहा है। लेकिन शोक गीति के परंपरागत अर्थों और विन्यास को तोड़ती हुई यह कविता एक बड़े वितान और कनवास पर, औरतों की पीड़ा, यातना और संत्रास को समानान्तर सहती  और भोगती सोक मना रही है। इन्हीं अर्थों मे यह  W. H. Auden द्वारा डब्ल्यू॰ बी॰ यीट्स की मृत्यु पर  लिखित कलासिक “In Memory of W. B. Yeats,” की तरह शोक गीति नहीं है और न वाल्ट व्हीटमैन द्वारा अमेरिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पर लिखी शोक गीति “O Captain! My Captain!” ही, क्योंकि  ये दोनों शोक-गीति एक व्यक्ति की मृत्यु से उत्पन्न शोक, दुख और पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हैं, जबकि ‘औरतें’ कविता स्त्रियों की सामूहिक नियति की दर्दनाक और हौलनाक आख्यान है।कविता की शुरुआती पंक्तियाँ ही पाठक को अपने गिरफ्त मे ले लेती है, जब कवि बगैर लाउड हुए,बिना चीखे चिल्लाए बड़ी निस्पृहता से कह देता है कि –
‘उसके साथ अभी ज़रा देर पहले बलात्कार हुआ है’ 
और  टूटे मन और तन लिए हुए टूटी हुई 
‘वह औरत पर्स से खुदरा नोट निकाल कर कंडक्टर से अपने घर
जाने का टिकट ले रही है’
एक बलात्कार को भोगकर वह जा रही है फिर उस घर के लिए जहां उसके हाथ जल गये हैं तवे में और 
उसके ऊपर ‘तेल गिर गया है कड़ाही में खौलता हुआ’। 
उस घर के लिए जा रही है वह बस मे बैठ कर  जहां “ग़लती से उसके ही हाथों फूट गयी थी किस्मत // और फट गया था स्टोव” 

और इसीलिए 
“अस्पताल में हज़ार प्रतिशत जली हुई औरत का कोयला दर्ज कराता है
अपना मृत्यु-पूर्व बयान कि उसे नहीं जलाया किसी ने,
उसके अलावा बाक़ी हर कोई है निर्दोष।”

औरत के हिस्से मे है सिर्फ धिक्कार,संदेह और शताब्दियों लंबा अंतहीन सन्नाटा और सीमाहीन यंत्रणा का मुसलसल दौर, जहां कोई प्यार नहीं है , कोई प्रेम नहीं है क्योंकि प्यार के पहले और प्यार के बाद दोनों ही ज़मीन पर उसके लिए एक ही विकल्प बचता है जहां –
“एक सीलिंग की कड़ी में बांध रही है अपना दुपट्टा” 
क्योंकि
“उसके प्रेमी ने सार्वजनिक कर दिये हैं उसके फोटो और प्रेमपत्र”
या फिर
“वहऔरत नाक से बहता ख़ून पोंछती हुई बोलती है –
कसम खाती हूं,  मेरे अतीत में कहीं नहीं था कोई प्यार,
वहां था एक पवित्र, शताब्दियों लंबा, आग जैसा धधकता सन्नाटा,
जिसमें सिंक-पक रही थी सिर्फ़ आपकी खातिर मेरी देह।”

यह कविता नहीं सभ्यता समीक्षा है। इतिहास मे कोई  सभ्यता कितनी उन्नत  और विकसित है, इसे जानने का एक मानदंड यह है कि उस समाज में स्त्रियों की क्या अवस्था है? इस  लिहाज से देखें तो उदय प्रकाश  जी ने अपने समय और समाज की सभ्यता समीक्षा ही की  है। इस हत्यारी सभ्यता के चेहरे पर पड़े नकाब को नोंच डाला है और उसका वीभत्स और विद्रूप चेहरा अपनी पूरी नंगई में नंगा हो गया है, जहां एक औरत सिर्फ इसलिए खुश है कि तेज़ाब से जलाए जाने के बाद भी उसकी दायीं आँख बच गई है और एक औरत बाहर के अंधेरे को टटोलने के लिए तंदूर में जलती हुई अपनी उंगलियां धीरे से हिलाती है। कवि चीखते हुए कह रहा है कि यह सभ्यता एक हत्यारी तलवार मे बदल चुकी है, जो गर्भ के अंधेरे मे छुपती हुई, जन्म लेने से इंकार करती हुई, कन्या भ्रूणो की ह्त्या के लिए तत्पर खड़ी है ।

यह एक ऐसा वीभत्स बिम्ब है जो कलेजा दहला देता है। उदय जी के पास एक अद्भुत भाषा है और कविताई का एक सर्वथा अलग और नायाब शिल्प । कहते हैं सबसे कठिन होता है सहज होना, क्योंकि भाषा मे वही सरल और सहज होगा जो चीजों को आर–पार देखने की दृष्टि विकसित कर चुका होगा , जिसके पास पीड़ित  और दमित मानवता से जुड़ने की अपार करुणा हो यह कविता उन उत्पीड़ित और दमित स्त्रियों के पक्ष मे एक चीत्कार है, जो
“राजधानी के पुलिस थाने के गेट पर एक-दूसरे को छूती हुईं , 
ज़मीन पर बैठी हैं बिल्कुल चुपचाप,
लेकिन समूचे ब्रह्मांड में गूंजता है उनका हाहाकार।”


तो यह कविता उसी हाहाकार को वाणी देने का एक जबर्दस्त और सफल प्रयास है, ताकि बोलें वे भी, जो हैं सदियों से चुप।

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ISSN 2394-093X
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