रूपाली सिन्हा की कविताएं

रूपाली सिन्हा

त्रिलोचन की कविता पर पी एच डी । स्त्री मुक्ति संगठन के साथ जुडी हैं। अध्यापन और स्वतंत्र लेखन । कविताएँ और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में प्रकाशित।
संपर्क : ई मेल-rssinharoopali@gmail.com

प्रतीक्षा
चलना होगा कितना और
कितनी यात्रा बची है अभी
न जाने कितने मोड़ पार करने हैं अभी
कितनी चढ़ाइयां चढ़नी होंगीं
कितने ढलानों से उतरना होगा
संभल-संभल कर
कितनी धाराएं करनी होंगी पार
बस तैरकर ही
नहीं होगी कोई डोंगी भी
कितनी घाटियों से गुजरना होगा चुपचाप
कितनी शामें बितानी होंगीं उदास
कितनी रातें अँधेरी और दिन उजले
बिना किसी रंग के
करुँगी मैं यात्रा कर रही हूँ
भटकूंगी नहीं रुकूँगी नहीं
क्योकि इस यात्रा के अंतिम पड़ाव पर
खड़ी है मेरी ज़िन्दगी
मेरी प्रतीक्षा में।

परिचय 

एक 


मैं पेड़ नहीं
जो खड़ी रहूँ एक ही जगह
आज्ञाकारी बनकर
तुम जब-तब डाल दो पानी खाद
अपनी मर्ज़ी से
जड़ों से बंधी हुई निःशब्द
छाया और फल देती रहूँ
सहती रहूँ मौसम की मार
और जब ढल जाऊँ
हो जाऊँ चुपचाप निढाल।

साभार गूगल

दो
मैं दीवार नहीं
जिसके सिर्फ कान हों
जो अभिशप्त हो मौन रहने को
ताउम्र
मेरे पास भी हैं सभी इन्द्रियाँ
और जानती हूँ
इनका इस्तेमाल भी।

तीन
मैं चौखट नहीं दरवाज़े की
जिसे जब चाहो लाँघकर
आ जाओ अंदर और
निकल जाओ बाहर
मैं मौन खड़ी रहूँ
मान-मर्यादा की प्रतीक बनकर।

अस्वीकार 

मैं देना चाहती थी चाँदनी
ढेर सारी उपहार में
अँधेरे के आदी तुम
ले ही न सके
कैसे सहते इतनी रौशनी इतना उजाला
तुमने सबकुछ पाया-चाहा
अँधेरे में रखकर मुझे
मैं चाहती रही सबकुछ धवल
पारदर्शी कांच सा
तुम ढकते रहे अपना सच
फरेब की काली चादर के नीचे
जब-जब तुम्हारे अँधेरे पर
मेरे सच का प्रश्नचिन्ह लगा
तुम हो उठे बेकल,असहज और
कभी-कभी हिंसक भी
मैंने तो देनी चाही थी
अपने जीवन भर की रौशनी
पर जैसा कि अक्सर होता है
अँधेरा बहुत कुछ आसान कर देता है
जबकि रौशनी में रहना
हमेशा ही चुनौतियों भरा होता है
अँधेरे में रहने के फायदे और भी बहुत हैं
रौशनी में कहाँ है मुमकिन ऐसा
तुम्हे मुबारक हो तुम्हारा अँधेरा
मैं अपनी रौशनी के साथ
बेफिक्र और मुक्त हूँ।

प्रतीक्षा 

तुम्हारा प्यार
समुद्र की उफनती वेगवती लहर है
तेज़ी से आकर कर देती है मुझे सराबोर
सर से पाँव तक
विस्मित-चकित मैं जब तक कुछ सोचूँ
लौट चुकी होती है उसी गति से
तट पर नहीं छोड़ती कोई भी निशान
हर बार
छोड़ती है मेरे दिल पर पहले से गहरा
कई बार सोचा बह चलूँ
मैं भी उसके साथ
खो जाऊँ उसके अंतस्थल में
लेकिन मेरा वजूद
मिटने से इनकार कर देता है
वैसे क्या बुरा है तट पर खड़े-खड़े ही सराबोर होना?
मैं खड़ी हूँ प्रतीक्षा में
अगली लहर के आने की।

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ISSN 2394-093X
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