आज़ादी मेरा ब्रांड उर्फ कोई वक्त गलत नहीं होता

विजेन्द्र सिंह चौहान 


क्या कभी चाय की दुकान पर, नुक्कड़ पर , कचौड़ी के ठेले पर किसी स्त्री को अकेले चाय , कचौड़ी और नुक्कड़ के गप्प का आनंद लेते देखा है, नहीं, क्योंकि पब्लिक स्पेस पर अकेली महिला हमारे समाज के लिए कल्पनातीत है , या फिर घर के चौखटे को लांघने और दुश्चरित्र होने की प्रमाण ! अनुराधा बेनीवाल की किताब ‘ आजादी मेरा ब्रांड’ की समीक्षा से गुजरते हुए विजेंद्र सिंह चौहान स्त्री के पब्लिक स्पेस में भागीदारी के सुख का जायजा ले रहे हैं. यह अच्छा है कि अपनी छोटी बेटी को किताब पढने के लिए प्रेरित करते हुए वे नई पीढी के लिए पिता के रूप में ‘खाप के खौफ से मुक्ति’ का सन्देश देते हैं.

इस बार  सबलोग के स्त्रीकाल कॉलम के लिए ‘ आजादी मेरा ब्रांड’ के बहाने नई पीढी के पिता का तैयार –मानस. 



किसी भी स्त्री की कहानी पढ़ते हुए मुझे डर लगता है खासकर अगर कहानी में कोई सच्चाई हो, पुरुषों को स्त्रियों की कहानी से डरना ही चाहिए क्यों कि स्त्री  की हर कहानी एक आरोपपत्र होती है, मुझे तो लगती है अपने पर।  यायावारी आवारगी भी मैं तीन बार में कोशिश करके खरीद सका पहले दो बार राजकमल जाकर वापस आ गया, हिम्मआत नहीं हुई…तीसरी बार बिटिया (तेरह साल) को साथ ले गया उसीसे खरीदवा ली… अनुराधा के बारे में जितना पता था यानि एक आज़ाद ख्याल लड़की जिसने फार्मल स्कूल जाने के बजाए शतरंज खेलने को चुना और फिर एक दिन अकेले घूमने निकल पड़ी यही सब उसे बताया और उसने – वॉउ… से अनुराधा का स्वागत किया..मैं भी ऐसा ही ट्रैवल करुंगी का घोष भी। दावे से नहीं कह सकता पर शायद मुझे अच्छा लगा।
अभी किताब को पढ़ना शुरू करना बाकी था और मुझे पता था ये मुश्किल होने वाला था…औरत की  आज़ादी से हम सब डरते हैं। फिर से अपनी बिटिया मिष्टी का ही सहारा लिया…मिष्टी तुमने किताब पढ़नी शुरू की ? इसका शुरुआती हिस्सा- आजा़दी मेरा ब्रांड, फेवरेट,  खोलकर दी… इतनी हिंदी की उसे आदत नहीं पर उसने कोशिश की..लेकिन ‘पेट में तितलियॉं उड़ने’ पर आकर अटक गई… अब हिम्मत का मौका मेरा था…लाओ मैं पढ़कर सुनाता हूँ…फिर मैं पढ़ने लगा… लड़को के साथ सोने के प्रकरण को कब डरपोक बाप ‘लड़कों के साथ होना’ पढ़ गया मुझे पता ही नहीं चला.. मिष्टी  अब दूसरे कमरे में चली गई  और मुझे मालूम है कि आजादी का हर लफ्ज मुझ पर एक सवाल है पर मिष्टी के लिए जो दुनिया चाहिए उसके लिए जरूरी है कि सवालों से मुँह न मोड़ा जाए… इसलिए किताब पढ़ी तो पूरी गई ही,  अलबत्ता विद पेट में तितलियॉं

दरअसल आजादी मेरा ब्रांड हिन्दी में अपनी किस्म की पहली किताब होने के कारण इसे पढ़ने के लिए अपने कई सहज इलाकों से बाहर आना जरूरी है। मसलन रोहतक के गॉंव से निकलकर यूरोप के शहरों की सोलो बैकपैकर्स यात्रा पर निकलने के बीच की यात्रा में जो कुछ अनुराधा की जिंदगी में होता है वह सब ही हिन्दीर के पाठकों के लिए पर्याप्त झटके देने के लिए काफी है। यायावरी हिन्दी जगत के लिए एक पूरी तरह मर्दाना स्पेस है तिसपर एक लड़की सो भी अकेले न केवल इस स्पेस में अतिक्रमण करती है वरन बाकायदा इस घोषणापत्र के साथ के साथ करती है कि ये बाहर जान बेकाम का है, आवारगी है, किसी और की हो न हो मेरी आज़ादी है। इस किताब को सीधा साधा यात्रा वृत्तांत भी तो नही कहा जा सकता न। प्रस्तावना में स्वानद किरकिरे अनुराधा को भाव भिवोर शब्दों में नए जमाने की भारतीय फकीरन करार दे देते हैं जो इस मायने में सही है कि बिना फकीरन हुए पैरों में यात्राएं मचलती ही कहॉं हैं।  अनुराधा  भारतीय महिलाओं की मोबिलिटी पर लगी बेड़ियों पर जिस किस्म के सवाल उठाती हैं उनसे साफ होता है कि आज़ादी मेरा ब्रांड यूरोप की सड़कें नापना भर नहीं है यह भारतीय मानस की गांठे खोलने की जद्दोजहद है। हमारे समाज में लड़कियॉं यूँ ही बिना काम के नहीं टहलतीं, लड़की का बाहर जाना बिना किसी काम के अकल्पनीय है, क्योंक जाएगी लड़की बाहर ? क़्या करने ? लड़के अक्सोर कह देते हैं मैं जरा टहल के आता हूँ, ‘’बाहर होके आता हूँ’’ लेकिन ये शब्दो कभी लड़कियों के मुँह से नहीं सुने जाते- मैं जरा टहलकर आती हूँ। स्वाभाविक है जो समाज स्त्री  के टहलने, बाहर जाने को लेकर इतना अधिक आशंकित है,  वो भला उसके बाहर घूमने के लिए सुविधाएं भी क्योंकर जुटाने लगा ?  नतीजतन हमारे समाज की औरतें धुमक्कड़ होती ही नहीं। उनमें घुमक्ड़ी के संस्कार ही नहीं पनपते, आश्चर्य नहीं कि अनुराधा विदेश में बस गई जिन भारतीय स्त्रियों का वर्णन अपनी यात्रा में करती हैं वे भी इस आजा़दी की छाया से वैसे ही दूर दिखाई देती हैं जैसी भारत में बसी औरतें।

किताब के बारे में खुद अनुराधा बेनीवाल से सुनें

आज़ादी मेरा ब्रांड (यायावरी आवारगी का पहला पड़ाव) लिखना अनुराधा बेनीवाल के लिए आसान था या मुश्किल कहना कठिन है लेकिन मुझे इसे पढ़ते लगातार लगा कि अनुराधा की यह यात्रा कहानियॉं एक ऐसा दस्तावेज है कि बिना खुद को भीतर टटोले इसे पढ़ पाना आसान नहीं। यद्यपि अनुराधा कोई आरोप नहीं लगातीं, लगभग कहीं भी फैसलाकुन नहीं होती। किसी व्यक्ति, शहर, वक्त को एकबारगी अच्छा या बुरा करार नहीं दे देंतीं लेकिन सच तो यही है कि किसी भी स्त्री , खासकर भारतीय स्त्री  की सच्ची कहानी होती एक आरोपपत्र ही है। हालांकि एक फेसबुक संवाद में उन्होंने इसे लिखने को भी आसान काम नहीं माना है – ”ऐसा नहीं है के लिखते हुए घबराहट मुझे नहीं हो रही थी। लेकिन फिर पापा के वो शब्द याद आये, “अनु अपने से ऊपर उठ के लिखना, तुम्हारी नहीं एक लड़की की कहानी है, साक्षी भाव से लिखना। जब लिखोगी तब तुम अनु नहीं एक लेखिका हो जो अनु की यात्रा के बारे में लिख रही है।” जाने कहाँ तक सफल हुई हूँ अनु को कह पाने में, लेकिन कोशिश पूरी की है।”

लेखिका ग्रामीण चौकड़ी में 

बाहर-भीतर का यह आज़ाद आख्यान उन्हें आरोप पत्र नहीं लगता– ”मेरी किताब आरोपपत्र नहीं बस एक पत्र है समाज के नाम, के आज़ादी नहीं है और होनी चाहिए। स्त्री पुरुष दोनो ही जकड़े लगते हैं कोई किसी तरह तो कोई किसी।”  इसके बावजूद मेरा डर कायम था। । मेरे डर लंदन, पेरिस, एम्ट् नहर्डम, बर्लिन, प्राग, बुडापेस्टा आदि शहरों से नहीं हैं इन शहरों से हासिल अनुराधा की आज़ादी से हैं, अच्छा चलो हासिल नहीं कहते सिर्फ आज़ादी की खोज से कह लेते हैं पर है ये खतरनाक ही, कम से कम उन सभी ढॉंचों के लिए तो निश्चित खतरनाक है जो इन यूरोपीय देशों से दूर बहुत दूर यहॉं सहारनपुर, भरतपुर या खुद अनुराधा के शहर रोहतक या भिवानी में औरत को ठीक उसी कैद में बनाए रखना चाहते हैं जिसमें वह है।  हमारे समाज के मानस में काबिज पुरुष स्त्री की सहजता से बहुत डरता है, स्त्री के मन में अगर यूँ अकेले बेकाम टहलने की इच्छा जागने लगे तो यह यकीनन उस जकड़ के कमजोर हो जाने की निशानी मानी जाएगी जिसके बल पर औरत को अब तक कैद रखा जा सका है। स्त्री अगर अपनी छोटी बड़ी इच्छाओं की इज्जत करना शुरू करती है तथा उनके त्याग के महिमामंडन से आज़ाद होती है तो ये उसकी ऐसी आजादी होगी जिसे उससे छीनना संभव नहीं रह जाएगा। पुस्तक में एक-एक सबसे प्रभावशाली वाकया अनुराधा की इतालवी मित्र रमोना से जुड़ा है, जो अनराधा को घुमंतु बनाने और अपनी इच्छाओं की इज्जत करना सिखाने में अहम भूमिका अदा करता है। रमोना जिस सहजता से दोस्तों के साथ चलने की जि़द के सामने झुकने की बजाए अपनी स्नान करने की इच्छा  को तरजीह देती है फिर लेखिका और उनके एक पुरुष मित्र के सामने बेहद सहजता से कपड़े बदलती है, इसका प्रभाव लेखिका की जिंदगी के फलसफे पर गहरे पड़ता है। एक पाठक के रूप में भी हम इस प्रकरण पर ठिठके बिना आगे नहीं बढ़ पाते।  

लेखक अपनी बिटिया के साथ 

यूँ आज़ादी मेरा ब्रांड हिन्दी का पहला बैकपेकर ट्रेवलॉग (महिला), है जो लंदन में बसी अनुराधा का महीने भर में यूरोप के कुछ शहरों की यात्रा की कहानी भर है। जैसा प्रस्ताकवना में स्वानंन्द किरकिरे कहते हैं- “किसी का यात्रा वृत्तांरत ही तो है”, किंतु हम जानते हैं ये इससे कुछ ज्यांदा है। बहुत ज्यादा है। इसमें आज़ादी की जो खोज है, स्त्रीं की आज़ादी की खोज वही इसका कुल हासिल है । लेकिन ये यात्राएं बाहर की उतना शायद नहीं है जितनी भीतर की, दरअसल भीतर की ही हैं, पूर्वग्रहों से आज़ादी की, फैसलाकुन होने से आज़ादी की, सही या गलत करार देने के सुख से आजादी की – लेखिका एक ही निष्क,र्ष पर पहुँचती है कि कोई फैसला आखिरी नहीं- ज्यों ज्यों दुनिया घूमती हूँ एक ख्यािल पक्का होता जाता है कि जैसे धरती पर कोई भी समय गलत नहीं होता है। हर घड़ी कहीं न कहीं का सही वक्त‍ बता रही है ऐसे ही न कोई शहर गलत है, न कोई गली गलत है, न ही कोई इंसान गलत है: कहीं न कहीं सब एकदम फिट हैं।

आज़ादी का अनुराधा ब्रांड भी अंतिम नहीं है न ही ये दुनिया या देश की तमाम लड़कियों के आज़ादी का ‘हाउ टू’ कोटि का प्राईमर ही है,  किंतु अनुराधा की आज़ादी के मैप का एक खाका जरूर है जो सच्चा है जिससे कोई कुछ सीखे न सीखे लेकिन औरत की आजादी के खिलाफ तबके को सिहरन इससे जरूर होगी।

ब्‍लॉगर व स्‍तंभकार (डा) विजेंद्र सिंह चौहान हिन्‍दी के शुरूआती ब्‍लॉगरों में से हैं। यूनीकोड-पूर्व युग में उनके संपादन में ‘इत्रिका’ हिन्‍दी की आरंभिक इंटरनेट पत्रिका थी। इनकी पुस्‍तक ‘मीडिया व स्‍त्री:एक उत्‍तर विमर्श’  भारतेंदु हरिश्‍चंद्र राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार (भारत सरकार) से सम्‍मानित कृति है। इसके अतिरिक्त एक पुस्‍तक, कई लेख, शोध आलेख, ईप्रकाशन। डाक्‍टरेट शोध साहित्‍येतिहास पर है तथा पोस्‍ट-डाक्‍टरेट स्‍वतंत्र शोध दिल्‍ली के सिटीस्‍केप में दिक् व काल (टाईम व स्‍पेस) पर है।  हिन्‍दी ब्‍लॉग संबंधित उनके शोधकार्य “Vernacularly Yours: A Look at the question of complex linguistic identity on Hindi Blogosphere”  , डीजी तांत्रिक तेवर : हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत की संरचना व सरोकारों का अध्‍ययन”,  Hermeneutics of Hypertext सराहे गए हैं।
विजेंद्र ब्‍लॉगजगत में अपने ब्‍लॉगों मसिजीवी व हिन्‍दी ब्‍लॉग रिपोर्टर  के लिए जाने जाते हैं। जबकि आफलाइन जीवों के लिए दैनिक जनसत्‍ता में ब्‍लॉगजगत की चर्चा का उनका स्‍तंभ ‘चिट्ठाचर्चा’ भी वे लिखते थे।
  संप्रति: दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्‍ली कॉलेज में हिन्‍दी विभाग में असिस्‍टेंट प्रोफेसर ।

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ISSN 2394-093X
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