ब्राह्मणवाद का प्रतीक है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय

 अरविन्द गौड़


(यह आलेख समकालीन रंगमंच पत्रिका के ‘‘रंगकर्म और प्रशिक्षण‘‘ पर केन्द्रित नये अंक में प्रकाशित होने जा रहे मूल आलेख का एक अंश है, जो अरविन्द गौड़ के साथ पत्रिका के संपादक और वरिष्ठ रंगकर्मी राजेश चन्द्र द्वारा की गयी बातचीत पर आधारित है। पत्रिका का यह अंक फिलहाल प्रेस में है और इसी भारत रंग महोत्सव के दौरान पाठकों के समक्ष होगा। हमारे विशेष आग्रह पर संपादक ने यह आलेख स्त्रीकाल के पाठकों के लिये उपलब्ध कराया है. आलेख,  इस उम्मीद के साथ कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय वर्तमान व्यवस्था के तहत अपनी ब्राह्मणवादी जड़ता से मुक्त होने की ओर बढ़ेगा. )





भारत में नाट्य प्रशिक्षण से जुड़ी जो सबसे कड़वी सच्चाई है, वह यह कि यहां नाट्य प्रशिक्षण सिर्फ एक संस्थान की परिधि तक सीमित रह गया है। ऐसी धारणा स्थापित कर दी गयी है कि आप यदि एनएसडी से प्रशिक्षित हैं तो ही आप प्रशिक्षित हैं, अन्यथा आप प्रशिक्षित नहीं हैं, आप अमैच्योर हैं। एक साज़िश के तौर पर स्थापित की गयी इस धारणा से पूरे हिन्दुस्तान के थियेटर का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है। निस्संदेह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एक महत्वपूर्ण संस्था है, जिसने थियेटर की समझ बनाने में, उसके तकनीकी विकास में एक बड़ी भूमिका निभायी है, लेकिन जो भी लोग वहां से निकल कर आये, उनका सिर्फ ट्रेनिंग से काम नहीं चला। उन अभिनेताओं ने, निर्देशकों ने बाहर जाकर काम किया, अपने आप को एक्सप्लोर किया तब कहीं जाकर वे अपनी पहचान बना पाये।

ऐसे प्रशिक्षण संस्थान की अलग-अलग भाषाओं में ज़रूरत थी, लेकिन हुआ उल्टा। एक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तो बनाया गया, लेकिन उसका विकेन्द्रीकरण नहीं किया गया। तो जिस प्रशिक्षण को लोगों तक भाषा के स्तर पर, बोलियों के स्तर पर पहुंचना चाहिये था, वह राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली तक सीमित हो कर रह गया। भारतीय रंगमंच में प्रशिक्षण की जो संभावनाएं थीं, वे सांस्कृतिक नीति और दृष्टि के अभाव में एक सीमित दायरे में क़ैद होकर रह गयीं। दूसरा यह कि आप किस तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं, किस तरह का प्रशिक्षण होना चाहिये, प्रशिक्षण क्यों होना चाहिये या भाषा और समाज और व्यक्ति का क्या सम्बन्ध है, इन बुनियादी सवालों को बिल्कुल नज़रअन्दाज़ कर दिया गया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को लेकर यह परिकल्पना थी कि कुछ छात्र आयेंगे जिन्हें प्रशिक्षण देना है। आप किस भाषा में प्रशिक्षण देंगे इसका कोई मापदंड नहीं था। अब कोई केरल से आ रहा है, कोई आंध्र से आ रहा है, कोई असम से आया है, आप उन सब को दिल्ली में बुला कर हिन्दी के नाटक करा रहे हैं। मतलब उनकी मौलिकता को ख़त्म कर रहे हैं। हिन्दी में नाटक कराने का मतलब राष्ट्रीय हो जाना नहीं है। असम का लड़का अगर अपनी असमिया भाषा में प्रशिक्षण ले, केरल का लड़का वहीं पर ले, आंध्र का लड़का वहीं पर ले, यहां तक कि भागलपुर का लड़का अपनी भाषा में प्रशिक्षण ले तो वह ज़्यादा काम कर सकता है और अलग चीज़ें एक्सप्लोर कर सकता है।

प्रशिक्षण

तो यह जो प्रशिक्षण को कण्ट्रोल किया गया है, उसकी वजह से पिछले 50-60 सालों में जो भारतीय स्वरूप बनना चाहिए था रंगमंच का, वह नहीं बन पाया। बार-बार यह सवाल उठा है कि अगर एनएसडी का डिसेन्ट्रलाइजे़शन हो जाये तो शायद यह बंद न हो जाये। हम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय कहते हैं, लेकिन राष्ट्र का स्वरूप क्या है, नेशनैलिटी क्या होती है इसे बिना सोचे-विचारे इन सब को हमने केंद्र में लाकर रख दिया। कहने को हमारे पास राष्ट्रीय प्रशिक्षण संस्थान है, लेकिन उस संस्थान का पूरे देश के रंगमंच में क्या वाकई कोई योगदान है, इसको भी देखने की ज़रूरत है।

डिसेन्ट्रलाइजे़शन नहीं होने की वजह से ही आज यह हालत है कि अलग-अलग भाषाओं में नहीं, बल्कि भाषाओं को कण्ट्रोल करके जब तक आप सिर्फ़ हिन्दी में नाटक कर रहे हैं, तब तक तो आप नाटककर्मी या निर्देशक हैं, अन्यथा आपको कोई पूछने वाला नहीं है। अगर आप पर मुहर लग जाती है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तो आप हैं, वरना आप चाहे कितने ही बड़े एक्टर हो जाइये, लेकिन आपके पास एनएसडी की मुहर नहीं है तो आप बेकार हैं। यह जो नज़रिया पनपा है, इसका नुकसान काफी हुआ है। नतीज़ा यह हुआ कि रंगमंच से जहां भाषा का विकास होना चाहिये था, वह और भी गतिरुद्ध ही होता गया। हिन्दी में आज जो भी ख्यातिप्राप्त निर्देशक मौजूद हैं, उनमें से अधिकतर हिन्दी की पृष्ठभूमि से नहीं बल्कि अन्य भाषाओं से आये हैं। चूंूंकि शुरुआत से ही हमने उन्हें  हिन्दी तक सीमित कर दिया, इसलिये वे अक्सर मजबूरीवश हिन्दी में थियेटर कर रहे हैं।
तो प्रशिक्षण का यह जो एक संकीर्ण और नकारात्मक रवैया रहा, उसके कारण ट्रेनिंग की जो अहमियत थी और जो सिस्टमैटिक चेन्जेज़ आने चाहिये थे, उनका पूरा पूरा अभाव दिखा। 60 सालों के बाद भी हम बार-बार यह बात करते हैं कि डिसेन्ट्रलाइजे़शन होना चाहिये, यह होना चाहिये, वह होना चाहिये। इसी का दूसरा पहलू है कि पूरे देश भर में अभिनय प्रशिक्षण का व्यवसायीकरण हुआ और कुशल व्यापारियों ने प्रशिक्षण के नाम पर तीन-तीन महीने की दूकानें खोल लीं। ये दूकानें अभिनय के प्रशिक्षण को और ही दिशा में ले जाती हैं। आप एडमिशन लीजिये और अंततः आपका लक्ष्य मुंबई में है।

रंगमंच के प्रशिक्षण के बाद क्या करना है, किस तरह से रोज़गार की व्यवस्था होगी, किस तरह से समाज में जायेंगे, इसका कोई व्यापक ब्लूप्रिंट एनएसडी के पास नहीं था। नतीज़ा यह हुआ कि वहां से निकलने वाले अधिकांश अभिनेता सिनेमा में चले गये। जिनको पैसा और ख्याति प्राप्त हो गयी, उन्हें लगा कि यह तो बहुत बड़ा माध्यम है। किसी माध्यम में जाना ग़लत नहीं है, लेकिन रंगमंच का प्रशिक्षण लेने के बाद अभिनेता का एक मात्र लक्ष्य सिनेमा हो जाता है तो कहीं न कहीं प्रशिक्षण में कुछ ख़ामी है, कुछ गड़बड़ी है जिसकी छान-बीन करने की ज़रूरत थी, पर आज तक यह नहीं की गयी। नतीज़ा यह है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का कोई प्रोफेसर रिटायर होता है तो अपना भविष्य थियेटर में नहीं तलाश करता है, वह अपना भविष्य हिन्दी सीरियल में या सिनेमा में तलाश कर रहा होता है। इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है। यह अपने आप में एक त्रासद और हास्यास्पद स्थिति है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि जो ज़िन्दगी भर रंगमंच के प्रति प्रतिबद्धता की बात करते नहीं थकते, उनको आगे के विकास के रास्ते थियेटर में नहीं मिलते। आखि़र इनके अनुभव का लाभ अगली पीढ़ी को क्यों नहीं मिल पाता? उनको वैकल्पिक रास्ते तलाश करने पड़ते हैं, दिल्ली छोड़ कर मुम्बई में रहना पड़ता है।

रंगमंच के प्रशिक्षण के सन्दर्भ में जो सबसे बड़ी ख़ामी हमारे पूरे सिस्टम में है, वह यह कि वहां एक्टर को संभालते नहीं है। समाज में क्या हो रहा है, क्या अंतद्र्वद्व हंै, क्या चुनौतियां हैं, सोशल-पाॅलिटिकल इश्यूज़ क्या हैं, हमारे आसपास किस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं, जातिगत ढांचा क्या है, हमारी धार्मिक भावनाओं और उनके पीछे के आडम्बर के बीच में क्या है, हमारा समाज कहां जा रहा है- यानी जो सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल समाज में दिखाई देती है, वह थियेटर में नहीं आ रही है। प्रशिक्षण में तो निश्चित रूप से नहीं आ रही है।

नाटक में तो कभी-कभार मंच पर खड़ेे होकर आप किसी मुद्दे पर बातें कर लेते हैं, लेकिन हाॅल से बाहर आने के बाद आपका कोई कन्सर्न या जुड़ाव नहीं रहता। कहने को आप सामाजिक नाटक करते हैं, लेकिन वास्तव में समाज से एक्टर जुड़ेे यह काम प्रशिक्षण करता है। प्रशिक्षण के अभाव में समाज से आपका वास्तविक रिश्ता नहीं बनता, सिर्फ नाट्य रिश्ता बनता है, व्यावसायिक अथवा प्रोफेशनल रिश्ता बनता है। वहां से आप रिसोर्सेज़ को उठा कर ले आते हैं और इस्तेमाल कर लेते हैं, लेकिन उस समाज के प्रति आपकी ज़िम्मेदारी कुछ नहीं है। समाज के साथ कोई गहरा जुड़ाव नहीं होने की वजह से ही प्रशिक्षण के बाद एक्टर इधर-उधर भाग जाते हैं। अवार्ड के लिये या किसी और चीज़ के लिये जुगाड़बाज़ी और बहुत ही निकृष्ट किस्म के समझौते करते हुए दिखाई देते हैं। अगर आप समाज से थियेटर को जोड़ते हैं, तो रीढ़ की हड्डी बनेगी एक अभिनेता की, उसको मालूम होगा कि क्या चल रहा है। तो मुझे लगता है एक चालू किस्म का प्रशिक्षण काफी नहीं है। प्रशिक्षण का जुड़ाव आगे व्यापक रूप में समाज के साथ होना ज़रूरी है।

प्रशिक्षण के बाद हम देखते हैं कि एक्टर के पास रोज़गार की बहुत ज़्यादा संभावनाएं नहीं हैं। आपने उसके लिये कोई ढांचा नहीं बनाया तो उसका भी एक प्रभाव पड़ता है। पिछले 60 साल में, मुझे लगता है संस्थागत प्रशिक्षण के मामले में समाज पीछे रह गया है। देश के अंदर क्या चल रहा है, इससे हमारे प्रशिक्षण का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। दिल्ली के अंदर होते हुए भी, मात्र चार किलोमीटर दूर भ्रष्टाचार का आन्दोलन हो रहा है, लेकिन उसके प्रति उसकी कोई संवेदना नहीं है। दामिनी वाली घटना मंडी हाउस से पांच किलोमीटर दूर हो रही है, लेकिन संस्था का उससे कोई जुड़ाव नहीं होता। हमारे आसपास लगातार धार्मिक कट्टरपंथ बढ़ता जा रहा है, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, एक दूसरे के प्रति भरोसा ख़त्म होता जा रहा है, लेकिन आपका उससे कोई जुड़ाव नहीं है, न आप कोई जुड़ाव रखना चाहते हैं। किसी भी समाज से कट कर मनुष्य का प्रशिक्षण नहीं हो सकता, विशेष कर संस्थागत प्रशिक्षण तो बिल्कुल भी नहीं।

अरविंद गौड़ विद्यार्थियों के बीच

जहां तक पाठ्यक्रम की बात है, तो वह भी 30-40 साल पुराना है। आज तक पाठ्यक्रम की समीक्षा तक नहीं हुई है। आप कब तक उधार की चीज़ों से प्रशिक्षण देते रहेंगे? एक्टर को जो संस्थागत प्रशिक्षण दिया जा रहा है वह भी काफी महंगा है। महंगा सेट, महंगे काॅस्ट्यूम, सब चीज़ महंगी, पूरा माहौल ही पैसा खर्च करके तमाशा देखने वाला। भारतीय ज़रूरतों के हिसाब से यह प्रशिक्षण पर्याप्त नहीं हो सकता, क्योंकि भारतीय रंगमंच को किफ़ायती बनाना ज़रूरी है। सेट, काॅस्ट्यूम वगैरह का कम खर्चीला होना बहुत ज़रूरी है। क्रियेटिव होकर साधारण चीज़ों से नाटक करना ज़रूरी है।

जब आप प्रशिक्षण देते हैं छात्र को, तो उसे वे सभी मनमाफिक साधन सौंप देते हैं जो उसे बाहर नहीं मिलेंगे। एक्टर को जब ये साधन बाहर नहीं मिलते तो प्रशिक्षण से उसने जो क्षमता हासिल की है, वह उसके अनुसार काम नहीं कर पाता। इससे पता चलता है कि आप छात्र के लिये दिक्कतें पैदा कर रहे हैं। आप क्यों उसे बाहर की ज़रूरतों के हिसाब से, हमारे समाज की ज़रूरतों के हिसाब से, भाषा के हिसाब से, राज्यों के हिसाब से, हमारे क्षेत्रीय और आसपास के जो जुड़ाव हैं, उन चीज़ों के हिसाब से प्रशिक्षण नहीं देते? यह सिर्फ तभी हो सकता है, जब आप छात्रों को प्रत्येक राज्य के पास जाने दीजिये, हर भाषा और बोली के पास जाने दीजिये। आप नियंत्रण मत कीजिये, शायद वह अपने आप समाज से टकराते टकराते चीज़ों को बदल दे। मुझे लगता है यह सबसे बड़ी दिक्कत है हमारे प्रशिक्षण की।

आप समाज से अलग नहीं हैं, आप उसका हिस्सा हैं। आप बाकी समाज को नीची नज़र से देखेंगे या कहेंगे कि आप ही का प्रशिक्षण प्रशिक्षण है, बाकी कोई काम नहीं कर रहा है, तो यह एक नकारात्मक पहलू है। दूसरी तरफ़ एक और परम्परा है, जो इप्टा की परम्परा है कि ग्रुप अपने लोगों को खुद ही प्रशिक्षित करता है। वह जो परम्परा है, वह आज सबसे ज़्यादा ताक़तवर दिखायी देती है। वह बंगाल के खेमे में दिखायी देती है- चाहे श्यामानन्द जालान हांे, उत्पल दत्त हों, शम्भू मित्र हों, वे स्वयं को और अपने अभिनेताओं को हर चीज़ में स्वयं प्रशिक्षित करते थे। यह एक कठिन प्रशिक्षण होता है, जिसमें कड़े अनुशासन की उपस्थिति होती है।

महाराष्ट्र में ही देखिये, वहां तो कोई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नहीं बैठा हुआ है, फिर एक से एक जो बढ़िया अभिनेता हमें दिखायी पड़ते हैं वहां पर, उनको किसने प्रशिक्षित किया है? एनएसडी ने तो नहीं किया। वे उन परम्परागत समूहों में रहते हुए प्रशिक्षित हुए हैं, जो सांस्कृतिक आन्दोलन के बीच से निकल कर आये थे। पूरे गुजरात में या आन्ध्र के अंदर जो बड़े-बड़े अभिनेेता पनपे, उनमें से कितने थे जिनका एनएसडी से कोई लेना-देना रहा है? तो कर्नाटक से लेकर विभिन्न राज्यों के समूहों के अंदर ट्रेनिंग की एक समृद्ध परम्परा रही है, जिसका एक स्पष्ट स्वरूप अब बनता दिखायी दे रहा है। उन सबकी भूमिका को नकार कर, एक दंभ के साथ जब आप कहते हैं कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने भारत के रंगमंच में सबसे बड़ी भूमिका अदा की तो यह एक बहुत बड़े झूठ से ज़्यादा कुछ नहीं है।

टीम कबीरा खडा बाजार में

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जब नहीं था, तब क्या पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, शम्भू मित्र और उत्पल दत्त नहीं थे? या हबीब तनवीर नहीं थे क्या ? औरों को छोड़िये, इब्राहिम अल्काज़ी खुद नहीं थे क्या? इब्राहिम अल्काज़ी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित छात्र नहीं हैं। तो यह समझना बहुत ज़रूरी है कि हम सिर्फ एक संस्थान का इतना आतंक फैला दें, कि सिर्फ उसने ही थियेटर में काम किया है, सिर्फ वही अंतिम संस्थान है, यह अपने आप में एक ऐतिहासिक झूठ है, भूल है। आपके पास सरकारी संसाधन हैं, तो आप उन संसाधनों के बल पर एक झूठ फैला चुके हैं कि आपने ही थियेटर के प्रशिक्षण में काम किया है, हालांकि इससे तथ्य नहीं बदल जायेंगे। उससे पहले अनगिनत लोगों ने बेहद महत्वपूर्ण काम किया है। बंगाल में तापस सेन ने प्रकाश से संबंधित जितने अनूठे प्रयोग किये, क्या आज तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में वैसा कुछ हो पाया?
ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं। जब उत्पल दत्त कोलकाता के मैदान में नाटक करते थे, तो जो दर्शक उनको मिलते थे, कई बार 8 से 10 लाख तक, इतने दर्शक क्या इस संस्थान को 50 साल में भी मिले हैं? इसके भारत रंग महोत्सव जैसे आयोजन के अंदर कुल मिला कर जितने दर्शक आते हैं, उतने दर्शक हमारे एक दिन के नुक्कड़ नाटक में होते हैं। हम सुबह नुक्कड़ नाटक शुरू करते हैं, शाम तक अगर हम 20 नुक्कड़ नाटक करते हैं तो हमें उससे ज़्यादा दर्शक मिल जाते हैं। तो यह समझना बहुत ज़रूरी है कि प्रशिक्षण के लिये सिर्फ एनएसडी ही अंतिम जगह नहीं रही है। उसका योगदान है, योगदान को हम मना नहीं कर रहे हैं, लेकिन समानांतर रूप से दूसरे लोगों के योगदान को भी हम छोटा नहीं कर सकते।

यह एक महत्वपूर्ण बात है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थानों में आकर हम अपनी जड़ों से कट जाते हैं। जहां से आप निकले हैं, जहां लौट कर आपको काम करना चाहिये, जिनके साथ आपको जुड़ना चाहिये, उस जगह और वहां के लोगों को आप हिकारत के साथ देखने के आदी बन जाते हैं। कहीं न कहीं इसकी जडें़ प्रशिक्षण के अंदर हैं, जहां पर उनको बाक़ी समाज से काट दिया जाता है, और काटने के बाद बताया जाता है कि आप विशिष्ट हैं। इस तरह कुछ-कुछ वैसी ही मानसिकता, वैसा ही बोध आपके अंदर भरा जाता है, जैसे एक ज़माने में कहा जाता था कि आप आर्यन रक्त हैं, शुद्ध रक्त वाले हैं, और बाक़ी यहूदी और आप उन पर राज करने के लिये निकल पड़तेे थे। तो यह जो एक आक्रामकता, या कहिये कि विशिष्टताबोध छात्रों में पनपता है, यह प्रशिक्षण की बहुत बड़ी खामी है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आज ब्राह्मणवाद का प्रतीक बन गया है। उसका मानना है कि हम जो कर रहे हैं वही श्रेष्ठ है, वही मानक है। हम जो बोल रहे हैं वही सच है। ब्राह्मणवाद के इसी गढ़ को बचाये रखने के लिये विगत साठ सालों में हिन्दुस्तान में और प्रशिक्षण संस्थान खुलने नहीं दिये गये। वे आज तक नहीं खुल पाये क्योंकि आप रेसिस्ट हैं। जैसे शूद्रों को गीत नहीं सुनना चाहिये, इसलिये उनके कानों में पिघला हुआ शीशा डाल देते थे, बिल्कुल इसी प्रकार, आप जो प्रशिक्षण दे रहे हैं वही अंतिम है, और बाकी लोगों को उसे नहीं सुनना-सीखना चाहिये, इसके लिये आप जिनको प्रशिक्षण देते हैं, उनके अंदर एक ब्राह्मणवादी श्रेष्ठताबोध उत्पन्न करते हैं। यह बहुत ही नकारात्मक दृष्टिकोण है, यह सामंती दृष्टिकोण है कि हमारे पास जो है वह दूसरों के पास नहीं होना चाहिये। इसकी वजह से डिसेन्ट्रलाज़ेशन नहीं हो पाया है। अगर डिसेन्ट्रलाज़ेशन हुआ होता तो ये क़िले टूटते, क़िलेबंदी टूटती, वह आर्यवादी-सवर्णवादी व्यूह टूट जाता जो आज तक क़ायम है।

भ्रष्टाचार के खिलाफ शो

हमारे संस्थानों में दिये जाने वाले तथाकथित प्रशिक्षण की यह बहुत बड़ी कमी है कि वह समाज और देश से नहीं जुड़ पाया। उन अनगिनत लोगों के अनुभव और योगदान को नकार कर, जिन्होंने हिन्दी और भारतीय रंगमंच के विकास के लिये अपना जीवन लगाया, क्या रंगमंच की कोई शिक्षा पूरी हो सकती है? आप सामाजिक-राजनीतिक रंगमंच की हमारी समृद्ध परंपरा को इसलिये नकारते हैं, क्योंकि आप सरकार से मदद लेते हैं। सरकार यदि अपना दायित्व समझ कर भी मदद देना चाहे, तब भी आप अतिरिक्त वफ़ादारी दिखाने के लिये सरकारी अफसरों, सचिवों-उपसचिवों की चमचागिरी में घुटनों के बल रेंगने लगते हैं। यह जो एक जुगाड़बाज़ी हमारे संस्थानों में आ गयी है, उसने प्रशिक्षण का बहुत नुकसान किया है। जब उनके अपने आदर्श नहीं होंगे, अपना दृष्टिकोण नहीं होगा तो छात्रों तक क्या पहुंचेगा। कोई भी संस्थान वहां के कर्मचारियों से, शिक्षकों से और अपने माहौल से बनता है। हम नाटकों में तो शोषण के खि़लाफ़, असमानता के खि़लाफ़ आवाज़ उठाते हैं, पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ही बात करें तो वहां पर पिछले 10-15 सालों से अस्थायी कर्मचारी काम कर रहे हैं, जिनके बारे में आप ख़ामोश बने रहते हैं। नाटक में क्रांति कर देंगे, भ्रष्टाचार, जातिवाद और ग़रीबी जैसे तमाम मुद्दों पर बात कर लेंगे, लेकिन व्यवहार में सब उल्टा हो जाता है। संस्था के इस माहौल का प्रशिक्षण पर असर पड़ना लाज़िमी है।

अस्मिता थियेटर में हमारा जो प्रशिक्षण का तरीका है, उसमें हम अभिनेता को पहले इन्सान बनाते हैं, एक्टर बाद में बनाते हैं। अच्छा इन्सान बनेगा तो एक्टर अपने आप बन जायेगा। पहले अच्छा इन्सान बनाना हमारी प्राथमिकता में है, एक्टर बनाने की प्रक्रिया बाद में शुरू होती है। रंगकर्मी को पहले पता होना चाहिये कि समाज में क्या चल रहा है, आसपास क्या घटित हो रहा है, सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे क्या होते हैं, हमारे समाज के अंतर्विरोध क्या हैं, जातिगत सम्बन्ध किस तरह चीज़ों को प्रभावित करते हैं, शिक्षा में असमानता क्यों है, लैंगिक भेदभाव क्यों है या अमीरी-गरीबी और छोटा आदमी बड़ा आदमी क्यों है। शहर के अंदर स्लम की समस्या, सरकारी अस्पतालों की बदहाली, किसानों की समस्या, सरकार के वादों और उनके अमल में अंतर जैसे तमाम मुद्दे हमारे लिये बेहद महत्वपूर्ण हैं, और इनसे रूबरू होते हुए हमारे एक्टर संवेदनशील बनते हैं।
हमारा तरीक़ा है कि एक्टर खुद को पढ़ने के साथ-साथ समाज को भी पढ़े और क़िताबों को भी। इस तरह उसके अंदर परिवर्तन की शुरुआत होती है। हम उनको क्लासरूम प्रशिक्षण नहीं देते, बल्कि व्यावहारिक प्रशिक्षण देते हैं और एक ऐसी प्रक्रिया से गुज़ारते हैं, जिसमें उन्हें प्रेमचन्द, मंटो, यशपाल, भीष्म साहनी, कृष्णचंदर, इस्मत चुगतई, उदय प्रकाश, श्रीलाल शुक्ल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, सर्वेश्वर जैसे प्रमुख साहित्यकारों की लेखनी को भी जानने का मौक़ा मिलता है। समान रूप से उन्हें अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य से भी जुड़ने के लिये प्रेरित किया जाता है। हम उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जाकर काम करने का व्यावहारिक अनुभव लेने देते हैं। इससे उनका अनुभव बढ़ता है, उनके अंदर सवाल पैदा होते हैं और उनका दृष्टिकोण बड़ा होता है।
हमारे पास लड़के उसी समाज से आते हैं, जिस समाज के अंदर समस्याएं हैं। वे उन समस्याओं को समझने से लेकर उससे निकलने का रास्ता खुद एक्सप्लोर करते हैं। हम उन्हें उपदेश नहीं देते कि आप जेन्डर से सम्बंधित भेदभाव मत करो। हम उन्हें एक बराबरी की भावना से युक्त माहौल में डालते हैं ताकि वे अपने अनुभव से सीखें। तो इस प्रकार जब बुनियादी मुद्दों से उनकी ट्रेनिंग शुरू होती है, तो अभिनेता स्वदेश दीपक के ‘कोर्ट मार्शल‘ जैसे नाटक को समझ के कर पाते हंै। वे ‘अ वूमैन एलोन‘ और ‘अम्बेडकर और गांधी’ जैसे नाटक को एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करके हज़ारों छात्रों के बीच लेकर जा सकते हंै, उन पर शिद्दत के साथ बात कर सकते हैं।

‘अम्बेडकर और गांधी’ सिर्फ वही अभिनेता कर सकता है, जो इस समाज के अंतर्द्वन्द्व  को समझ पा रहा हो। जो यह जानता हो कि जाति क्या होती है, वर्ण व्यवस्था क्या होती है, सवर्ण और अवर्ण के बीच के संघर्ष क्या हैं, किस तरह से दलित आन्दोलन खड़ा हुआ और आज वह कहां तक पहुंचा है। समाज में आज भी जाति ख़त्म क्यों नहीं हो रही, इलेक्शन के वक्त जाति कैसे मुद्दा बन जाती है, जब इन मुद्दों को वह समझ पायेगा तब ही ‘अम्बेडकर और गांधी‘ को कर पायेगा। यह हमारे लिये सिर्फ एक प्रस्तुति नहीं है, हमारे प्रशिक्षण का आधार भी है। इसके माध्यम से हम आज़ादी के पूरे आन्दोलन को समझा पाते हैं, साथ ही आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक आज़ादी के मायनों को भी समझा पा रहे हैं।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का सबसे बड़ा दोष है कि वह उस तरफ़ देख ही नहीं पाता। वहां के छात्रों को इन आन्दोलनों के बारे में ख़बर भी नहीं होगी कि इनका अर्थ क्या है। हमें अभिनेता को अलग से ट्रेन्ड करने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि साम्प्रदायिकता क्या होती है। वह ‘अमृतसर आ गया‘ जैसा नाटक पढ़ रहा होता है, कर रहा होता है, उसकी स्क्रिप्ट बना रहा होता है, तो उसका प्रशिक्षण खुद ब खुद उसी के साथ-साथ चल रहा होता है। हम उन्हें क्राफ्टमैन नहीं बनाते, बल्कि समझदार और संवेदनशील बनाने का प्रयास करते हैं। उन्हें समकालीन आन्दोलनों के साथ जोड़ते हैं, खुद भी जुड़ते हैं। एक थियेटर की संस्था भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ आन्दोलन की नींव बनती है, इससे बड़ी ताक़त प्रशिक्षण की क्या हो सकती है? हमारा अभिनेता हड़बड़ी में नहीं है कि प्रशिक्षण लिया और चले गये मुम्बई, या यहां-वहां ऑडिशन देते फिर रहे हैं। अस्मिता थियेटर ग्रुप ने अपना प्रशिक्षण हबीब तनवीर, शम्भू मित्र, उत्पल दत्त, बलराज साहनी, गुरुशरण सिंह, सफदर हाशमी और इप्टा आन्दोलन की पूरी परंपरा से विकसित किया है। हमारी प्रशिक्षण पद्धति में इस समूची विरासत से आयी हुई पूंजी है, जिसको हम युवाओं के साथ साझा करने की कोशिश कर रहे हैं।

हबीब तनवीर का प्रसिद्ध नाटक चरणदास चोर

इस समय अस्मिता जैसा प्रशिक्षण कई अन्य संस्थाएं भी अलग-अलग स्तरों पर दे रही हैं। वे अपने-अपने समूहों और इलाक़ों में काम करने की कोशिश कर रही हैं। यह प्रशिक्षण की एक समानान्तर और बहुव्यापी पद्धति है। ऐसा नहीं कह सकते कि यह सिर्फ एक क़बीले के अंदर मिलेगी। क़बीले में तो सरकारी पद्धति होती है। इस पद्धति के अन्तर्गत आज सैकड़ों विद्यार्थी काम कर रहे हैं, और ऐसा नहीं है कि उनके अभिनय में कोई कमी है। रंगमंच से लेकर व्यावसायिक माध्यमों एवं सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप के मामलों में भी इस धारा के विद्यार्थियों ने हर बार खुद को श्रेष्ठ साबित किया है।

चूंूंकि हमें अभिनेता को तैयार करना है, सिर्फ मानसिक तौर पर ही नहीं बल्कि शारीरिक तौर पर भी करना है, इसलिये हम उन्हें शारीरिक प्रशिक्षण भी देते हैं। आवाज़ से लेकर तमाम जो अभिनय के पक्ष हैं, उन पर व्यावहारिक रूप में काम करने की कोशिश करते हैं। यह व्यावहारिक प्रशिक्षण रोज़ाना 8 से 10 घंटे तक चलता है, और एक तरफ वह संस्थागत प्रशिक्षण है जो एक चारदीवारी में बंद कमरों में चल रहा है। दोनों ही प्रशिक्षण के तरीकों को हमें देखना पड़ेेगा।

हम देखेंगे कि अस्मिता के स्कूल का जो प्रशिक्षण है, वह सीधे समाज से मुख़ातिब है। नुक्कड़ नाटक हो रहे हैं, पढ़ाई हो रही है, छोटे-छोटे संवाद हो रहे हैं, कॉलेज में छात्रों के बीच में यह सब हो रहा है। यह प्रशिक्षण व्यावहारिक है और हिन्दुस्तान में इसी तरह के प्रशिक्षण की ज़रूरत है। हिन्दुस्तान के थियेटर को इप्टा की, हबीब तनवीर की, उत्पल दत्त की, शंभू मित्र की ज़रूरत है, गुरुशरण सिंह की ज़रूरत है जो आतंकवाद के समय में भी गांव-गांव में जाकर नाटक कर रहे थे, धमकियों के बाद भी जिनको सुनने के लिये लाखों लोग खड़ेे हो जाते थे, या सफ़दर जैसे रंगकर्मी की, जिन्होंने जनता के तमाम मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक किया। ऐसे बहुत सारे समूह और लोग हैं जो पटना, भागलपुर, बेगूसराय, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, आज़मगढ़, कानपुर, भोपाल, उज्जैन, चंडीगढ़, कुरुक्षेत्र, हिसार, रायगढ़ आदि से लेकर देश के सुदूर इलाक़ों, गांवों-कस्बों में काम कर रहे हैं, जिन्होंने बिना किसी करियरवादी या पैसा कमाऊ मक़सद के, गुमनाम रह कर रंगकर्म के लिये अपनी ज़िन्दगी न्योछावर की है और कर रहे हैं। उन सबके त्याग और तप से भरे योगदान को नकार कर, उस पद्धति को नकार कर आप कहें कि हम ही श्रेष्ठ हैं, किसी को भी भला कैसे स्वीकार्य हो सकता है? हिन्दुस्तान के थियेटर में जो प्रशिक्षण की पद्धति विकसित हो रही है, वह जनता के बीच में सीधे-सीधे काम करने वाले समूहों में हो रही है, ऐसे समूह जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों से सीधे-सीधे टकरा रहे हैं और यही उनकी ताक़त भी है।

अस्मिता के नाटकों में दर्शकों को भी हम ऑडिटोरियम में बातचीत करके ट्रेन्ड कर रहे होते हैं। समाज में नाटक की भूमिका सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं होती। सिर्फ व्यवसाय करना यदि उसका मक़सद हो तो वह और कुछ भले हो, नाटक नहीं हो सकता। आप सोशल-पाॅलिटिकल थियेटर करके भी प्रोफेशनल हो सकते हैं, अपने पैरों पर खड़ेे हो सकते हैं। आज अस्मिता थियेटर अपने पैरों पर खड़ा है, तो वह किसी ग्रांट के सहारे नहीं खड़ा है, बल्कि अपनी कार्य-पद्धति की वजह से ही खड़ा हुआ है। हमने समझौते नहीं किये इसलिये अपनी ठसक के साथ काम कर रहे होते हैं। तमाम ख़तरों को उठा कर काम कर रहे होते हैं।

तो यह जो ख़तरे उठाने वाली प्रशिक्षण पद्धति है अभिनेता को तैयार करने की, वह ऐसा अभिनेता तैयार करती है जो समाज को समझे, समाज के साथ जिसका एक सम्बन्ध हो, जो खुद को समझे, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलाव आ रहेे हैं, क्या चुनौतियां आ रही हैं, केवल भारत के स्तर पर ही नहीं, दुनिया के स्तर पर भी क्या बदलाव आ रहे हैं, मार्केट कैसे मनुष्य को कुचल कर आगे बढ़ रहा है, कॉरपोरेट कैसे सरकारें बना रहे हैं, कैसे सरकारों को अपने इशारे पर नचा रहे हैं- अगर अभिनेता की नज़र इन चीज़ों पर नहीं है, तो अभिनेता कभी भी जी.पी. देशपांडे जैसे लेखकों के नाटक नहीं कर सकता। वह राजेश कुमार के नाटक नहीं कर सकता, अगर वह समझ नहीं पा रहा कि सत्ता में बैठे कुछ लोग कैसे समाज में लोगों का शिकार करते हैं, कैसेेे राजनीति के शीर्ष स्तर पर धर्म के नाम पर उत्पीड़न किया जाता है, कैसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और धार्मिक उन्माद को वोट बैंक में बदला जाता है।

अगर प्रशिक्षण इन सवालों से बचने की कोशिश कर रहा है, तो आप वास्तविक अभिनेता को तैयार नहीं कर रहे। आप अभिनेता के नाम पर एक क्राफ्टमैन बना रहे हैं, पर इस तरह तो आप उसे एक आधा-अधूरा प्रशिक्षण देकर छोड़ देंगे। अस्मिता जैसे समूह इन मुद्दों पर ध्यान दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत में यह पद्धति जो लोगों से जुड़ी हुई है, उसकी ज़रूरत है। आगे आने वाले समय में इसी पद्धति का बोलबाला देश में दिखाई देगा। आज प्रमुख भूमिका इसी प्रशिक्षण की है जो छोटे-बड़े समूहों के अंदर दिये जा रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में कौन से छात्र जा रहे हैं? वे इन्हीं समूहों से निकल कर, यहीं से ट्रेन्ड होकर तो जा रहे हैं। अगर आप कहते हैं कि आप तीन साल में अभिनेता बना देते हैं, तो आप एकदम नौसिखिया को लीजिये न। लेकिन नहीं, आप आवेदकों से यह अपेक्षा रखते हैं कि उसने पहले काम किया हो, तीन साल या पांच साल काम किया हो, पांच-छह नाटकों में काम किया हो। क्यों नहीं आप इन शर्तों को हटा देते हैं? एकदम नये को लीजिये जो थियेटर करना चाहता है।

वास्तविकता यही है कि आप उन्हीं समूहों से छात्र ले रहे हैं, आप उन्हीं समूहों पर निर्भर हैं जो ज़िन्दगी के साथ प्रशिक्षण को जोड़ रहे हैं, फिर यह अहंकारवादी दृष्टिकोण क्यो? जब तक यह समाप्त नहीं होगा, हमारे नाट्य विद्यालय की प्रशिक्षण पद्धति देश के काम नहीं आयेगी। महत्वपूर्ण बात यह है कि थियेटर की ज़रूरत क्या है? वह समाज के लिये है या समाज थियेटर के लिए है? हमें नाटक करने समाज में ही जाना है, समाज हमारे पास नाटक देखने क्यों आयेगा? लोगों के पास जाने की ज़रूरत हमें है। आप प्रशिक्षण को समाज-निरपेक्ष बना देते हैं, थियेटर को इतना महंगा बना देते हैं कि बिना ग्रांट के, बिना सरकारी मदद के थियेटर नहीं हो सकता। छात्र को प्रारंभ से ही सरकारी संरक्षण, सरकारी ग्रांट पर आधारित काम करने का आदी दिया जाता है, चाहे ट्रेनिंग के दौरान उसे मिलने वाली छात्रवृत्ति हो, या उसके बाद मिलने वाली स्काॅलरशिप, परियोजना कार्य, इन्डीविजुअल ग्रांट अथवा प्रोडक्शन ग्रांट। कहीं न कहीं यह निर्भरता ट्रेन्ड एक्टर को भी कमज़ोर करती है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकलने वाला छात्र एक्टिंग के हथियारों से लैस है, लेकिन उस हथियार का इस्तेमाल संस्कृति मंत्रालय करेगा, मानव संसाधन मंत्रालय करेगा। जिस दर्शक के लिये आप नाटक कर रहे हैं उस पर आपको भरोसा होना चाहिये। इसके लिये साहस चाहिये, जो आपके अंदर नहीं है। आप डरते हैं।
रीढ़ की हड्डी होने का एहसास तभी होगा, जब आप अपने संसाधनों से चीज़ेें बनायेंगे। कमी सरकार की भी है क्योंकि उसके पास कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है। सरकार क्यों ग्रांट देती है, इसलिये न कि उससे समाज को लाभ होगा? जब एक नाटक होता है, तो उससे समाज को डायरेक्ट लाभ क्या है? ठीक है कि कलाओं का संरक्षण हो रहा है, लेकिन उससे हासिल क्या हो रहा है? क्या नाटक वास्तव में समाज में जा रहा है? उसमें किस प्रकार के सवालात उठाये जा रहे हैं? दिक़्क़त यह है कि ग्रांट को हमने अपना हक़ मान लिया है। एक बार यह सिलसिला शुरू होते ही आपका नाटक की तरफ से ध्यान हट जाता है। आप ग्रांट से लेकर कमिटियों में जगह पानेे, अवार्ड लेने, फेस्टिवल का आमंत्रण पाने के लिये एक ऐसे चक्रव्यूह में दाखि़ल हो जाते हैं जो कहीं न कहीं आपको अंदर से भ्रष्ट बना देता है, समझौतावादी बना देता है। कलाकार स्वभाव से समझौतावादी और मौक़ापरस्त बन गया तो उसकी आवाज़ में दम कहां होगा? सामंत ने पैसा दिया और अपने आंगन में जो चाहा करवा लिया।
अगर हम इस कड़वे सत्य को ध्यान में रखते हुए प्रशिक्षण देंगे, तभी उसकी गंभीरता को समझेंगे। जब श्रेष्ठता का दंभ समाप्त होगा तो शायद आप दूसरों से सीखेंगे, अभी आप दूसरों के अनुभव से नहीं सीख रहे। आप दूसरों से सीखना नहीं चाहते क्योंकि आपको लगता है आप अंतिम हैं। रंगमंच के प्रशिक्षण की प्रक्रिया बंद कमरों में कोरा ज्ञान बघारते हुए नहीं पूरी हो सकती। रोज़ाना हम सीख रहे होते हैं कि यह नहीं होना चाहिये, यह होना चाहिये। लगातार ग़लती करके सीखना, जो आपने किया उसको बार-बार दुहराना और अपने जैसे और ट्रेनर्स को ट्रेन्ड करना, स्कूल-कॉलेज के साथ काम करना, लगातार समाज के संपर्क में रहना- यह सब क्यों नहीं हमारी प्रशिक्षण पद्धति का हिस्सा बन सकता है? क्यों छात्र सिर्फ क्लासरूम में बैठ कर पढ़ें? और उसके बाद आप उसको जुगाड़बाज़ी सिखा देते हैं। रंगमंच के समूचे परिदृश्य को आपने कैसा बना दिया है? राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के फेस्टिवल में अगर कोई नहीं आये तो आपके लिये वह रंगकर्मी नहीं है, निर्देशक तो कतई नहीं है। शिक्षण संस्थान होने के बाद भी आपने अभिनेता और निर्देशक होने के प्रमाण पत्र जो बांटने शुरू कर दिये हैं, उससे बहुत बड़ा नुकसान हुआ है और इससे बचने की ज़रूरत है।
ये कड़वे सवाल हैं, शायद पसंद भी न आयें, लेकिन अगर हम बैठ कर बातचीत करें, वास्तव में कुछ परिवर्तन चाहें तो इन कड़वे सवालों से टकराने की ज़रूरत है। ऐसा किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। अपनी आलोचना बहुत ज़रूरी है। कोई भी समाज तब ही आगे बढ़ता है, जब वह आत्मालोचन करता है। यदि वह स्वयं अपना महिमामंडन करता है कि हम महान हैं, तो वह समाज अपने ही केन्द्र में, अपनी ही धुरी पर गिर रहा होता है, और अंततः धराशायी हो जाता है। यह न हो कि किसी ने आपके बारे में कुछ कह दिया तो वह आपका विरोधी हो गया। आपने उसको लक्ष्य कर लिया, दुश्मन करार दे दिया और अपने सारे परमाणु बम, सारी मिसाइलें उसकी तरफ तान दीं। यह जो कबाइली नज़रिया है, उससे बाहर निकलने की ज़रूरत है, क्योंकि यह हमारे थियेटर के विकास में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है।

लेखक परिचय
वरिष्ठ रंगकर्मी, निर्देशक एवं अस्मिता थियेटर ग्रुप के संस्थापक-संचालक बहुचर्चित रंगकर्मी अरविन्द गौड़ समकालीन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर केन्द्रित नाटकों की प्रस्तुति के लिये जाने जाते हैं। रंगमंच को जनान्दोलनों के साथ जोड़ने का महत्वपूर्ण प्रयास। जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों के साथ जुड़ाव रखने के साथ अरविन्द गौड़ ने नुक्कड़ नाटकों की एक नयी ज़मीन तैयार की है और उसे बदलते दौर के नये सवालों के साथ जोड़ा है। नुक्कड़ नाटक को आम लोगों और युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका। रंगमंच में आने से पहले उन्होंने कुछ समय तक इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में कार्य किया है। दिल्ली विश्यविद्यालय में गेस्ट फैकल्टी के तौर पर योगदान देने के अलावा आपने स्टेनफोर्ट एवं हाॅवर्ड यूनिवर्सिटी में नाट्य कार्यशालाओं का संचालन भी किया है।

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