धर्म और स्त्री

निवेदिता
मैं कुछ दिनों पहले दिल्ली में एक गोष्ठी में गयी थी। जहां मेरी मुलाकात स्वामी शिवानंद से हुई। उन्हें पर्यावरण के मुद्दे पर अपनी बात रखने के लिए बुलाया गया था। हमारे देश में धर्म के नाम पर बाबाओं ने जो कुछ कुकर्म किया है उसकी वजह से मुझे बाबाओं से काफी अरुची है। पर उन्हें जब सुना तो लगा कि ये जनता के बाबा है। उनकी बातों ने मुझपर गहरा असर किया। मैं उसी असर में उनसे मिलने गयी और कहा बाबा आपको सुनकर अच्छा लगा और स्नेह से उनकी तरह हाथ बढ़ाया । अचानक उनके शिष्य ने मुझे घकेल दिया और कहा कि बाबा के शरीर को छुए नहीं। मैं अपमान से भर गयी। मैंने कहा बाबा आप तो अभी प्रकृति  की बात कर रहे थे। प्रकृति की कल्पना हमारे शास्त्रों में भी स्त्री के रुप में की गयी है। क्या स्त्री के छूने से आप अपवित्र हो जायेंगे। बाबा तैयार नहीं थे कि कोई स्त्री ऐसे सवाल कर सकती है। वे लज्जित हुए और जवाब नहीं दे सके। मुझे लगा कम से कम वे लज्जित तो हुए पर आज भी हमारे देश में औरतें अपवित्र मानी जाती हैं। जो धर्म के ठेकेदार हैं स्त्रियों के मंदिर और मसिजद जाने पर प्रतिबंध लगाते हैं और बड़ी बेशर्मी से इसके पक्ष में तर्क देते हैं। शनी मंदिर और हाजी अली की दरगाह में औरतों के प्रवेश के बहाने कम से कम इस देश में यह बहस का मुद्दा तो बना ।

दरअसल जब हम धर्म की बात करते हैं तो उसके भीतरी तहों में झांकने की जरुरत होती है। मैं लोगों के जीवन में धर्म के गहरे असर से इंकार नहीं करती । शायद यही वजह है कि मार्क्स  ने  धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि धर्म हृद्यहीन विश्व का हृद्य है। अगर धर्म के पास हृद्य होता तो दुनियां में धर्म के लिए मर-खप जाने वाली स्त्री के खिलाफ धर्म षड़यंत्र करता हुआ नजर नहीं आता। दुनिया में इतने दुख नहीं होते, इतनी असमानताएं नहीं होतीं, इतनी अनिश्चिताएं नहीं होतीं तो शायद धर्म इतना फलता -फूलता नहीं। इतने लंबे अनुभवों के बाद मैंने यही पाया है कि घर्म स्त्रियों के जीवन में दुख लेकर आता है। धर्म स्त्रियों को अपवित्र समझता है। धर्म स्त्री के शरीर से धृणा करता है। धर्म स्त्री के शरीर पर कब्जा जमाता है। सवाल यह है कि जिस धर्म की रचना पुरुषों ने की उस धर्म में स्त्री के लिए क्यों जगह होगी। दुनिया का कोई धर्म ऐसा नहीं है जहां स्त्री का दर्जा कमतर नहीं है। स्त्रियां अपने जीवन में धर्म द्वारा किए जा रहे इस विभेद को झेलती रहती हैं।

मुझे याद है बचपन में अक्सर हम सारे भाई, बहन शाम को प्रार्थना करते थे। पर जब मेरी माहवारी होती तो उस दौरान भगवान के घर में हमारा प्रवेश निषेध रहता। मैं अक्सर मां से सवाल करती रहती थी मेरा ये खून अपवित्र क्यों है? जो खून हमारे बदन  से रिसता है, जिसकी वजह से स्त्री को मां का दर्जा मिलता है वही खून समाज के लिए ,धर्म के लिए अपवित्र है। धर्म ने स्त्री के लिए सुचिता जैसे शब्दों का इजाद किया।  उसकी रक्षा के लिए नयी नयी तरकीब निकाले। इतिहास बताता है कि दुनिया में स्त्री पर एकाधिकार के लिए धर्म का सहारा लिया गया। यूरोपीय सामंत घर से बाहर जाने पर अपनी पत्नियों  को कमरपेटिया पहनाते थे। जो लोहे की बनी होती थी। जिसमें आगे-पीछे मल-मूत्र त्यागने के लिए छेद बने रहते थे। दक्षिण भारत में भी इसका रिवाज था। मरुगुब्ल्लिा के नाम से लोहे और सोने की कमर पट्टियां बनती थीं। मरुगुब्ल्लिा और सिगुब्ल्लिा तेलगू शब्द हैं। सिग्गुब्ल्लिा का अर्थ होता है लाज-रक्षक पदक । मरुगुब्ल्लिा का अर्थ है मर्मांगों को छुपाने वाला।  यह सब पातिव्रत्य  घर्म के रक्षा के नाम पर होता। आज भी धर्म के नाम पर स्त्री के लिए तरह तरह के बंधन हैं।

मनुस्मृति से लेकर अनेक ग्रथों में इसकी चर्चा है कि स्त्री को क्या करना है और क्या नहीं। धर्म जिस तरह आत्म सम्मोहन में फंसकर  विवके का घ्वंस करता है उसका सबसे वीभत्स रुप  धर्मिक नरंसंहार और साम्प्रदायिक दंगों में देखा जा सकता है। वहां एक पक्ष धर्म के लिए मरता है, दूसरा पक्ष धर्म के लिए मारता है। और जब स्त्री का सवाल हो तो धर्म सबसे वीभत्स रुप में सामने आता है। सती प्रथा से लेकर मंदिरों की दासियों की अनगिनत गाथाएं हमारे पास है। सामंतवादी व्यवस्था में सबसे ज्यादा इसकी शिकार औरतें होतीं रही हैं। धर्म के नाम पर जब मुसलमान औरतों को सार्वजनिक रुप से कोड़े से उघेड़ा जाता है और हिन्दू स्त्री को नंगा कर  धुमाया जाता है या एक स्त्री को डायन, चुडैल कह कर मारा जाता है तो उसके पीछे उसका धर्मिक होना होता है। स्त्री का बलात्कार कर दुशमन के धर्म से बदला लिया जाता है। मुझे लगता है ऐसे धर्म के साथ रहने से अच्छा है कि स्त्रियां खुद को विधर्मी कहें। या फिर अपने लिए एक नए धर्म  की रचना करें जो सह्दय हो और सभी तरह के विभेदों से मुक्त हों। क्योंकि ये  धर्म स्त्री का धर्म नहीं है। ये धर्म मनुष्यता के साथ खड़ा नहीं है। धर्म के इस चेहरे की रचयिता स्त्री नहीं हो सकती।
लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता निवेदिता स्त्रीकाल के संपादन मंडल की सदस्य हैं . 

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ISSN 2394-093X
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