धर्मराष्ट्रवाद और राजनीति-खतरनाक गठजोड़ की नयी परंपरा

1914-15 में ही शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का दखल नहीं  और न  ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सभी  को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता।इसीलिए गदरपार्टी जैसे आंदोलन एकजूट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़ कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.हमारा ख्याल है कि भारत  के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है उससे हम बचा लेंगे. रोहित वेमुला की आत्महत्या पर चल रहे आन्दोलन  के दौरान अचानक से जेएनयू में पिछले कुछ वर्षों से मनाई जाने वाली महिषासुर जयंती और दुर्गा पर संसद में बवाल मच गया.केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने वही काम किया जो 26 पहले उस समय प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह द्वारा संसद में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने वाले बिल को संसद में बहस के लिए रखे जाने के बाद बीजेपी के वरिष्ठ नेता श्रीलालकृष्ण आडवानी ने किया था। उस वक्त बीजेपी मुसीबत में आ गयी थी.

बिल का समर्थन आरएसएस की विचारधारा  के विरूद्ध था और विरोध जनमत के . उस वक्त लालकृष्ण आडवानी ने रथ यात्रा निकाल कर देशभर में ध्रुवीकरण का जो माहौल तैयार किया उसकी परिणिति बाबरी मस्जिद के गिराने और उसके बाद हुए भयानक हिंदू मुस्लिम दंगों से हुई. क्या इतिहास खुद को दोहराने जा रहा है,  आज राजनैतिक माहौल ऐसा संकेत दे रहे हैं.चुनाव जीतने का सबसे आसान तरीका दंगों से बनाए गए ध्रुवीकरण का है,  जिसका शिकार हमेशा गरीब दलित मुसलमान और सिख जैसे कमजोर वर्ग बने हैं.जिनके जनसंहार भी राजनैतिक दलों की जीत का कारण है  यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सच है. महाबली विष्णु, महिषासुर-दुर्गा और राम-रावण के बीच हुए संघर्ष सांस्कृतिक संघर्ष हैं .रामयण में वर्णित राम-रावण संघर्ष आर्य-अनार्य के बीच हुआ सांस्कृतिक संघर्ष हैं. राम और रावण दोनो ही हिंदू थे. धर्म को लेकर उनमें कोई विवाद नहीं था.यह लड़ाई नस्ल की थी. पुराणों में सुर-असुर देवता-राक्षस, आर्य-अनार्य और द्रविड वर्गों की नस्लों के रूप में ही पहचान की गयी है।राम आर्य हैं,  श्रेष्ठ हैं और रावण अनार्य हैं इसलिए श्रेष्ठ नहीं है.यही मान्यता आज तक संघर्ष का कारण बनी हुई है. यहां तक की हनुमान, बाली, सुग्रीव जैसे रामायण के कई पात्रों को वनवासी बनाने की भी असफल कोशिशें भी होती रही हैं.

जबकि दुनिया भर में आदिवासी किसी भी धर्म का हिस्सा  नहीं है। उनका अपना धर्म है अपनी संस्कृति है. जो कहीं-कहीं  35-40  हजार साल या उससे भी अधिक पुरानी मानी गयी है.जबतक कोई धर्म अस्तित्व में नहीं आया था. सभी धर्म केवल आस्था पर टिके हुए  हैं. आजतक किसी भी धर्म का वैज्ञानिक आधार साबित नहीं हो पाया है,  लेकिन संस्कृति की प्रमाणिकता दुनिया भर में पाषाण युग की जगह-जगह मिली चित्राकारियों में दिखायी देती है. यह ब्राह्मणवादी आस्था है जो हिंदू धर्म को करोड़ो साल पुराना बताती है जबकि यह साबित किया जा चुका है कि  उस समय पृथ्वी पर मानव जाति का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिला बल्कि उस वक्त तो डायनासोर जैसे जीव यहां रहा करते थे. पुराण इतिहास नहीं हो सकते प्रमाणित होते हुए भी कुछ वर्गों द्वारा यह सच स्वीकार नहीं किया गया.धार्मिक भावनायें या आस्था वैज्ञानिक सोच पर आधारित नहीं होती,  इस कमजोर पक्ष को केवल दैवीय शाप का डर या दंगों से ही जिंदा रखा जा सकता , है जिससे कुछ ताकतवर लोगों के आर्थिक उद्देश्य जुड़े हों उनसे लड़ना असंभव होता है.जितना पैसा धार्मिक संस्थानों  के पास है उतना तो सरकार के पास भी नहीं है.

इस पैसे का भारतीय नागरिक वर्ग को आजतक  कितना फायदा पहुंचा है इसपर भी गंभीर चर्चा  की    जरूरत है आखिर यह उन्हीं का पैसा है. इक्कीसवीं सदी में  दुनिया में कई जगहों पर उभरते नए धार्मिक आतंकवाद से धर्म,राष्ट्रवाद र्और संस्कृति के मायने बदल रहे हैं. इस संघर्ष में स्त्री और वंचित वर्ग भयानक हिंसा का शिकार बन रहे हैं.भारत में उसके विरोध की आवाज चाहे वह कन्हैया की हो या उसके साथियों की, उसी भगतसिंह की आवाज है उसका राष्ट्रवाद है,  जिससे डरकर 23 साल के युवा को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था और आज इस आवाज से डरकर सरकार राष्ट्रद्रोह साबित करनेकी
तैयारी कर रही है.

( सुजाता पारमिता थियेटर और आर्ट क्रिटिक तथा साहित्यकार हैं . संपर्क : sujataparmita@yahoo.com )

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ISSN 2394-093X
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