आतंक के साये में

सुशीला टाकभौरे  

चर्चित लेखिका. दो उपन्यास. तीन कहानी संग्रह , तीन कविता संग्रह सहित व्यंग्य,नाटक, आलोचना की किताबें प्रकाशित. संपर्क :9422548822

मेरा नाम शोला है, मगर मैं बुझी-बुझी सी रहती हूँ. बहुत दिनों से सोच रही हूँ, सबको बता दूँ अपने मन के भय की बात, मगर कह नहीं पा रही हूँ. बात ही कुछ ऐसी है, सबके सामने कैसे कहूं? फिर भी मन का भय बार-बार करवट लेता है और मैं सहम कर रह जाती हूं.

दो आंखें मुझे हमेशा घूरती हुई नज़र आती हैं. हो सकता है, वे घूरती न हों, सिर्फ देखती हों. मगर उनका देखना मेरे दिल में तेज धार की तरह क्यों उतरने लगता है? उन आंखों की बनावट भी कुछ अलग प्रकार की है. दोनों आंखें भौंह के पास नाक की हड्डी की तरफ सिमटी हैं, फिर भी फैली दिखती हैं. आंखों के आस-पास काला घेरा है, जो आंखों की सफेदी अलग से बताता है. आंखो की यह सफेदी भी मुझे हमेशा डराती है. इस सफेदी के कारण वे आंखें ठहरी हुई शान्त झील जैसी लगती हैं- ठहरी हुई शान्त झील, जैसे बर्फ की तरह जमी हो.

मैं जानती हूं, ऊपर से सर्द सफेद आंखें अन्दर से इतनी ठंडी नहीं हो सकतीं. उनके भीतर आग है. होगी ही, इसकी संभावना ही मुझे दहलाती है. यद्यपि मैं आग से नहीं डरती. आग से खेलना कोई बड़ी बात नहीं है. आग उतनी खतरनाक भी नहीं होती. खतरनाक होती है, इस तरह की आग जो सर्द सफेदी के पीछे छिपी हो.

किस्सा आज का नहीं, काफी दिनों पहले का है, बल्कि बरसों पुराना. हमारे आपस के सम्बन्ध अपनत्व पूर्ण हैं. हंसना, मुस्कराना, नमस्कार, बातें करना, यहां तक कि चर्चा, विचार विमर्श होता रहता है. हंसते-मुस्कराते समय वे आंखें सामान्य रहती हैं, तब उन आंखों से डर नहीं लगता. मगर अपने काम में व्यस्त रहते हुए, कभी क्षणभर के लिए उधर नज़र उठ जाएं और वे आंखें मुझे ही घूरती दिखें, तब मैं अंन्दर तक भयभीत हो जाती हूं.

साभार गूगल

आजकल हर तरफ आतंकवाद का बहुत जोर है. यह जोर आज़कल का नहीं, बरसों पुराना है. लोग आतंकवाद की खुलेआम चर्चा करते हैं, उसकी भर्त्सना करते हैं.आतंकवाद देश के लिए ही नहीं, हम सबके लिए भी खतरनाक है. मैं भी इन खतरनाक लोगों से डरती हूं. डरना ही चाहिए. आतंक किसी भी प्रकार का हो, होना ही नहीं चाहिए. आतंक से आतंकित करने का उद्देश्य खतरनाक होता है. किसी सौम्य चेहरे की सौम्य आंखें किसी खतरनाक इरादे से, किसी को घूरती हुई देखें तो वह भी किसी आतंकवाद से कम नहीं है.

मैं एक सामान्य नागरिक हूं. मेरा सीधा सरल जीवन है. सामान्य शिक्षा, सामान्य नौकरी, सामान्य रहन-सहन, सामान्य जीवनशैली है मेरी. मुझे किसी से न लेना है, न देना. मेरे अपने बच्चे हैं, पति है. समाज के अन्य लोगों से मेरा विशेष लेना देना नहीं है. लेकिन ये बातें कुछ वर्ष पहले की हैं. अब मैं कुछ विशेष बनती जा रही हूं. शिक्षा उतनी ही है, नौकरी भी वही है, घर-परिवार भी वही है. मगर इनके अतिरिक्त मेरे कुछ काम बढ़ गए हैं.मैं अपने पिछड़े दलित समाज के विषय में सोचने लगी हूं. विषमतावादी, जातिवादी समाज-व्यवस्था के विषय में विचार करने लगी हूं. जाति व्यवस्था के विरुद्ध तर्क-वितर्क के साथ बोलने लगी हूं.

अपना स्थान समाज में निश्चित करने लगी हूं. निश्चय ही यह स्थान बहुत पहले से नीचा रहा है. अब तर्क-वितर्क और सतर्क चेष्टा के साथ उसके नीचा न होने और ऊपर क्यों न होने पर विचार करने लगी हूं. मैं कबीर, रैदास, पेरियार, फुले, बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष और उनकी विचारधारा को समझने लगी हूं. विचार करने की स्वतन्त्राता हमेशा सबको रही है. चाहे वह गुलाम हो, अछूत हो, फांसी के तख्ते पर खड़ा हो, या अन्धेरी कोठरी में बन्द हो.

मुझे याद है, उन दिनों मैं अन्धेरे में ही थी. यद्यपि कालेज जाती थी. बी.ए. फाइनल में थी. फिर भी मेरी यह शिक्षा सिर्फ किताबी शिक्षा थी. इस शिक्षा से मेरे विचारों में कभी कोई किरण नहीं फूटी, न ही कभी किरणों की ओर आगे बढ़ने की इच्छा जागी थी. मैं अन्धेरी कोठरी में बन्द थी. जैसे रात के अन्धेरे में कुछ नहीं सूझता, उसी प्रकार अन्धेरी कोठरी में बन्द मैं अन्धेरो में जीवन की बात सोचती थी, क्योंकि उजाला कभी मिला ही नहीं था.

जो उजाले से निकालकर अन्धेरे में बन्द कर दिए जाते हैं, उनकी बात अलग है, क्योंकि वे उजाले को जान चुके होते है. लेकिन मैं तब अन्धेरे को ही जानती थी. अन्धेरे में पैदा हुई, अन्धेरे में बड़ी हुई और अन्धेरे में ही शिक्षित हो रही थी. तब यही मेरा जीवन था. अन्धेरे का प्रकाश की ओर देखना, वैसे तो अच्छी बात है. मगर यहां बात अलग है. शायद किसी ने कभी यह बात न सुनी हो, कि अन्धेरा प्रकाश से मिल जाए तो प्रकाश भी अन्धेरा बन जाता है. आप विश्वास नहीं करेंगे, यह समाज का गणित है, जो गांव-शहर की हर सड़क पर, हर गली में, हर मकान की दीवार पर हल किया हुआ मिलेगा. कोई उलझन नहीं, कोई तर्क नहीं, निश्चित रूप से हल किया हुआ सवाल का प्रतिफल भी निश्चित है. अन्धेरे का प्रकाश के साथ योग (बराबर) अन्धेरा.

हां, कभी ऐसा हुआ है, सुना भी है और देखा भी है- प्रकाश का अन्धेरे से मिलना (बराबर) प्रकाश. मगर ये अलग बातें हैं, इनके अन्जाम भी अलग हैं. मैं कह रही थी, अन्धेरे में होने की बात . इतना जरूर कहूंगी, मैंने उन दिनों जान लिया था- किसी का नाम मात्रा प्रकाश होने से वह उजाले का पर्याय नहीं हो जाता. जैसे कि किसी नेत्राहीन का नाम नयनसुख होने मात्रा से, वह नयनसुख नहीं होता.

उन दिनों मैंने ब्राह्मण पुत्र प्रकाश को देखा था वह प्रकाश बस नाममात्र का प्रकाश था, एकदम डरपोक, शरीर से दुबला-पतला, निश्चय और दृढ़ता में भी कमजोर. मुझे देखते हुए देखकर वह डर गया था. झट से उसने मुझे सावधान कर दिया था, ”पगली, ऐसा कहीं हो सकता है?” उसके कहने का तात्पर्य था, तुम कहां कदमों के नीचे का अन्धेरा और मैं कहां बादलों के उस पार का उजाला. उसके विचारों का स्पष्ट उल्लेख था, ‘तुम कहां दलित अछूत कन्या और मैं कहां सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण कुमार.’

वह मुझे निम्न और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानता था. वह अपने आपको प्रचण्ड सूर्य, आसमान का तारा समझता था. यही उसने सुना था, यही सीखा था. यही उसकी मानसिकता थी. चलो, अच्छा हुआ- इस तरह मुझे असलियत मालूम हुई. असल में मैंने उसकी सच्चाई जान ली थी. सच कहूं तो मैं बहुत खुश हूँ कि उसके चंगुल में नही फंसी. नहीं तो, पछतावे के सिवा और क्या मिलता? उन दिनों मुझे गुस्सा बहुत आया था, भले ही मैं अन्धेरे में थी. मगर अपने होने का पूरा अहसास था. दिशा ज्ञान नहीं था. मगर, “जिस दिशा में निकलूंगी, उस दिशा को चीर दूंगी.” यह पूरा विश्वास था.

अन्धेरे में रहते हुए, मैं अधिकतर अपने आसपास ही देखती थी. वहां कुछ दिखाई नहीं देता था, तब आंखे बन्द कर लेती थी. इस तरह दिन, महीने, बरस बीतते गए और मैं उस अन्धेरी, सीली जगह से ऊंचे पठारी क्षेत्रा की एक नगरी में आ गई. मैं बाबा साहब अम्बेडकर की कर्मभूमि में, बाबासाहब की दीक्षाभूमि की नगरी में आ गई. यहां की जमीन सख्त है, जमीन पर अन्धेरा कम है. शायद धरती से सूर्य की दूरी कम है, अथवा शायद यहां सूर्य की किरणें बहुत प्रखर हैं. जो भी हो, मगर यह सच है, यहां मेरी आंखे बहुत चौंधियाई सी रहती थीं.

यह बात मुझे बाद में पता चली कि सूर्य सिर्फ उजाले का नहीं रहता, विचारों का भी होता है. यहां उजाले के सूरज की तरह, विचारों का सूरज भी चमकता है. चकाचैंध परिवर्तनशील विचारों की थी. धीरे-धीरे मैंने देखने का अभ्यास किया और फिर सचमुच देखने लगी. जब देखना सीखा, तब ज्यादा ही गहराई से देखने लगी. इस धूप की नगरी में, पहले से रहने वाले, अपने लोगों से भी ज्यादा प्रखर रूप में देखने लगी. साथ ही प्रखर रूप में विचार भी करने लगी.

बस, यहां से मेरे जीवन में बदलाव आया. मेरी आंखें बाहर देखने के साथ-साथ अपने अन्दर भी देखने लगीं. और जब मैंने अपने भीतर देखना शुरु किया, तब से मैं दूसरों के अन्दर-अन्तर्मन में भी देखने लगी. किसी का चेहरा देखकर और उसका आचार-व्यवहार देखकर, मैं उसके मन के भाव समझ जाती. ऊपर से सब ठीक-ठाक होने पर भी, मन के भीतर छिपे भेदभाव-दुराव भाव को ताड़ लेती.

धीरे-धीरे कुछ लोगों ने मान लिया कि मैं भी कुछ हूं. और वे किंचित रूप से मुझसे खिंचे-खिंचे रहने लगे. उनका विरोध मेरे लिए खुशी की बात नहीं है. उनका विरोध मुझे भयभीत कर देता. यद्यपि वे हंसते, मुस्कराते हुए मुझे यह टाईटल भी दे चुके थे, “आपका नाम ही शोला है. आप तो सूरज हो. आपके रहते अन्धेरे की बात कैसे होगी?”
अन्धेरे में रहने वाली मैं, अब स्वयं सूरज कही जा रही हूं- यह सत्य है या व्यंग्य? पता नहीं. लेकिन मैं जानती हूं, वे इस सूरज को कभी भी ढक देंगे. बिलकुल उसी तरह, जैसे किसी मुर्गी को बन्द करने के लिए, उसके ऊपर टोकरी या डलिया रख दी जाती है.

मेरा नाम शोला है. मैं आसमान का सूरज नहीं, धरती का दीपक हूं. स्वयं अपना तेल, अपनी बाती जलाकर, अपने आसपास का अन्धेरा हटाने का प्रयास कर रही हूं. मैं किसी का अहित नहीं कर रही, फिर भी डरती हूं. कुछ लोगों को मुझसे शिकायत है. मेरी प्रशंसा करने वालों में मेरे दुश्मन भी हैं, जो नहीं चाहते कि मैं दीपक की तरह जलूं. वे चाहते हूं, मैं जलूं मगर उजाले की बात न करूं.

धीरे- धीरे यह हुआ कि मैं दीपक की तरह जलते हुए उजाले की बात भी करने लगी, उजालों को जिन्दा रखने की बात भी करने लगी. तब धीरे-धीरे मेरे आसपास निस्तब्धता छाने लगी. यह निस्तब्धता नहीं थी, लोग जानबूझ कर चुप रहने लगे थे. किसी को धोखा देने की तरह लोग अचानक ठहाके लगाकर हंसते, खूब जोर-जोर से बातें करते, फिर अचानक चुप हो जाते, जैसे कुछ हुआ ही न हो. अक्सर खाने-खिलाने की बातें की जातीं. विशेष आग्रह के साथ, घर से खाने की चीजें लाकर खिलाने की बात कही जाती. लोग खा लेते, पानी भी पी लेते, मगर फिर स्तब्धता छा जाती, जैसे यह सब कुछ भी नहीं. जो है वह तो मन में है- उसे कौन, कैसे बाहर निकाल सकता है?

साभार गूगल

किसी को नकारने का यह तरीका बहुत खूब है- उपेक्षा करो, ध्यान ही मत दो. ध्यान देकर भी ध्यान मत दो. बात करके भी बातें मत करो. उसकी सुनकर भी कुछ न सुनो. उसके कहने – सुनने के समय तुरन्त दूसरों से बातें करने लगो. मैं उनकी इन बातों को समझने लगी थी.कभी कभी मुझे आभास होता कि मैं अपने हाथ मल रही हूं. जैसे मैंने अपना कुछ खो दिया है. मगर नहीं, जो खोया, वह मेरा था ही नहीं. वह तो मात्रा दिखावा था, उनका अपनेपन का दिखावा. दिखावे के पीछे का सच, जब अपने आप सामने आने लगे, तब यह दुख की नहीं, खुशी की बात होती है. मुझे भी खुश होना चाहिए. मगर मैं खुश नहीं हो सकती. यह खुश होने की बात नहीं है, दुखी होने की बात है, “क्यों लोग दिखावे के पीछे सच को छिपाकर रखते हैं? क्यों बहरुपियापन रखते हैं? क्यों दोमुंही बातें करते हैं?”

कुछ दिनों से मन शांत रहने लगा था. अच्छी तरह मालूम हो गया था, सदियों से यही होता आया है, शायद आगे भी होता रहता, फिर सम्भावना यह बनने लगी कि अब आगे ऐसा नहीं चल सकेगा. समाज व्यवस्था में परिवर्तन – जिन परिवर्तनवादी लोगों के प्रयास से यह सम्भावना बनी है, उन लोगों में मैं भी शामिल हो गई हूं. मैं भी तकरार, फटकार, ललकार के साथ अपने अस्तित्व की, अपने अधिकारों की बातें करने लगी हूं. विषमतावादी पुरानी परम्पराओं को तोड़ने की बातें और समतावादी नई सम्भावनाओं को जोड़ने की बातें मैं करने लगी हूँ.

लोगों को आश्चर्य भी है, अन्धेरे में उपजी, बुझी-बुझी सी, कम अक्ल, कम शक्ल, कम-कम, क्यों कमबख्त बनती जा रही है? लेकिन लोग मुंह पर कुछ नहीं कहते हैं. यदि कहते तो वाद-विवाद और तर्क-वितर्क से बात का स्पष्टीकरण हो जाता. लोग जानतें हैं, बात उनके पक्ष में नहीं है, इसलिए वे इसे अस्पष्ट रूप में ही खत्म करना चाहते हैं. खत्म करने की बात है, उसी बात का खतरा है. लोग पत्ता-पत्ता, डाल-डाल नहीं, जड़ को ही खत्म करना चाहते हैं.

कौन हैं वे लोग ? किस बात से नाराज हैं ? क्यों नाराज हैं? किससे नाराज हैं? यह सब स्पष्ट है, फिर भी अस्पष्ट बनाकर रखा जाता है, कुछ इस तरह, “नहीं, नहीं. हम वे लोग नहीं, हमें कोई ऐतराज नहीं. हम किसी से नाराज नहीं. हमें किसी की प्रगति से नाराजगी नहीं.”ऐसे ही कुछ लोग मेरे साथ हैं. नहीं, मैं उनके साथ, उनके बीच हूं. उनकी नजरें मुझपर हैं और मैं उनसे भयभीत हूं.

उनमें वह विशेष आंखों वाला व्यक्ति विशेष है, जिसने समाज को वर्णवादी -जातिवादी परम्पराओं में जकड़े रहने का, पुरानी रूढि़वादी परम्पराओं को चिरजीवी बनाए रखने का बीड़ा उठाया है. उसने ही जैसे इस बात का प्रण किया है कि वह अपने सनातन मार्ग के विरोधियों को समाप्त कर देगा. समता, सम्मान और स्वतन्त्रता के अधिकारों की बात करने वाले समतावादी मूलनिवासियों को अकेले ही खत्म कर देगा. वह छल, बल और प्रपंचो के द्वारा, साम-दाम-दण्ड-भेद के द्वारा, पुनः विषमतावादी, जातिवादी मनुवादी- वर्णवादी परम्पराओं को स्थापित करके, चिर स्थाई रखना चाहता है. उसकी आंखों में मुझे भयानक आतंकवाद नजर आता है.

आकाशवाणी से समाचार प्रकाशित होते हैं, समाचार पत्रों में खबरें छपती हैं, दूरदर्शन पर भी बताया जाता है- सरकार आतंकवादियों से निपटने के यथा-संभव प्रयत्न कर रही है. सरकार के कार्यों को और उसकी सराहना को भी मीडिया वाले बताते रहते हैं. यह खुला आतंकवाद है. सबके सामने आतंकवादी निडरता के साथ लोगों की नाकों में चने डालते हैं. खुले आम उनका विरोध किया जाता है. आतंकवाद के विरुद्ध खुलेआम मोर्चे बनाए जाते हैं, ताकि उसे खत्म किया जा सके.

मेरी समस्या अलग है. यहां घने जंगल और सुनसान रास्तों की बात नहीं है. यहाँ बन्दूक और तलवार जैसे हथियारों की बात भी नहीं है. न ही सेना या सुरक्षा बल बुलाने की जरूरत है. जरूरत सिर्फ इस बात की है- यह पता लगाया जाए कि वे आंखे मुझे इस तरह क्यों घूरती हैं? मेरे लिए कभी कोई सरकारी सहायता नहीं मिल सकेगी- मैं जानती हूं. यदि मेरी हत्या हो जाए तो किसी को यह पता भी नहीं चलेगा कि मेरी हत्या किसने की? और क्यों की? न ही यह पता लगाने की कोशिश की जाएगी कि असली हत्यारे कौन हैं? क्योंकि इन बातों को पूरे प्रयत्नों द्वारा छिपाया जाएगा. उनका ऊपर का मुखौटा सहज ही अपनापन, सद्भावना और संवेदना बताता रहेगा.

उनकी बेईमानी वे जानते हैं. खुलेआम बेईमानी करते हैं मगर खुद पर कभी शर्म नहीं करते. वे अपने छल और प्रपंचों के द्वारा लोगों को सही बात समझने नहीं देते. हमारे कुछ अपने लोग भी ऐसे हैं कि न तो वे खुद इन बातों को समझ पाते हैं, न ही किसी ईमानदार के समझाने पर समझते हैं. खैर, इतनी दूर की बात, हत्या की बात नहीं सोचना चाहिए. चिन्ता का कारण यह है कि इन आतंकवादी नजरों का उद्देश्य किसी निर्दोष की हत्या करना है, तो इनसे कैसे बचा जाए ?

उनकी साम, दाम, दण्ड, भेद की बात मैं बहुत पहले से जानती हूं. उनकी इन नीतियों के जाल में बिना उलझे, साफ-साफ बच गई हूं. मगर मृत्युदण्ड का उनका ब्रह्मास्त्र सबसे कठोर और निर्दयी है. कब क्या हो जाए- कुछ कह नहीं सकते, इसलिए मन ही मन भयभीत हूं. भय से घबराकर माफी मांग लूं और उनके बताए पुराने रास्ते पर चलने लगूं- यह तो अब मेरे लिए संभव नहीं है. साथ में, उनकी भी बात है. वे मुझे पहचान गए हैं. अब वे मेरे सरल और निर्बल होने का विश्वास नहीं कर सकते. भले ही वे क्षमा करें. भले ही वे दया करें. मीठी-मीठी, चिकनी-चुपड़ी बातें करें, मगर अन्त वही होगा, जो दण्ड विधान का अन्तिम सत्य है- मृत्युदण्ड !

निर्दोषों को मृत्युदण्ड देने का इतिहास है. जिस तरह क्राईस्ट को सूली पर टांगा गया था. उसी तरह हमारे विद्रोही क्रान्तिकारी विचारकों, समाज सुधारकों और परिवर्तनवादी महापुरुषों, सन्तों को देश निकाला और मृत्युदण्ड देकर उन्हें चुप करा दिया गया. आतंक के साथ में जीवन, मौत की सूली पर रहता है. मुझे मृत्युदण्ड दिया जा सकता है. मगर किस कसूर का? आतंकवाद का लक्ष्य है- बेकसूरों को भयभीत करना, उन्हें नेस्तनाबूत कर देना. इस छिपे आतंकवाद पर पुलिस की नजर क्यों नहीं जाती?

विषमतावादी – जातिवादी लोगों के इस आतंकवाद को जड़ांे से उखाड़ने के लिए सवर्ण समाज के सुविधा-सम्पन्न समझदार लोग आगे क्यों नहीं आते? चुप रहकर या चुपके-चुपके शह देकर, वे इस आतंक से बेकसूर निरीह, दलित, शोषित मूलनिवासी लोगों को भयभीत क्यों बनाये रखना चाहते हैं?

उनकी चालबाजी तो देखो. आतंक खुद फैलाते हैं, मगर कसूरवार ठहराते हैं – निर्दोष गरीब, पिछड़े आदिवासी, शूद्र अछूत बहुजनों को. इनको डराकर, अग्निकाण्ड- हत्याकाण्ड और सामूहिक नरसंहार करके इन्हें भयभीत रखते है. इन पीडि़तों को और अधिक पीडि़त करते हैं. उनकी आतंकवादी भावनाओं, विचारों और उन नजरों से मैं भयभीत हूं- साथ ही सतर्क भी, हमेशा चैकस, हर बात को ताड़ते हुए, हर परिवर्तित बात को आंकते हुए.

देखते देखते आजकल सब कुछ बदलने लगा है. जैसे कोई शुद्ध शाकाहारी कहलाने वाला व्यक्ति मुर्गी को दाना डाले, तो आश्चर्य होता है. मुझे भी आश्चर्य होने लगा है. आजकल मुझे भी दाना डाले जाने या चुग्गा चुगाए जाने की, प्रक्रिया का प्रयत्न किया जाने लगा है.

मैं चुप हूं, तटस्थ हूं. मेरे देखते, मेरे जैसे कई लोग उस चुग्गे के जाल में फंसे हैं. बाद में चुग्गा नहीं, बस जाल ही रह गया. फिर भी वे जाल को छोड़ नहीं सके, अथवा अब वह जाल उन्हें नहीं छोड़ रहा है. मंै इन सब बातों को देख रही हूं और समझ भी रही हूं.

अचानक एक विशेष घटना हो गई है. कई बरसों के बाद प्रकाश मिला. एकदम कमजोर, बूढ़ा जैसा. मगर आन-बान-शान वही है. बड़प्प्न का रौब चेहरे पर झलकता है. मुझे देखकर तपाक से बोला, “ओह शोला, तुम कैसी हो?” मेरे मन में आया, कसकर एक झापड़ उसके चेहरे पर लगा दूं. मेरी निर्भीकता करवट बदलती है. मैं कई बरसों से त्रस्त, आतंक के साये से मुक्त होना चाहती हूं. मैंने निर्भीकता से कहा, “मैं आपसे बेहतर हूं. हर  बात में बेहतर.”

वह मेरा मुंह देखने लगा. मेरे भीतर शोले भड़कने लगे. सदियों पुरानी आग, जो ज्वालामुखी के भीतर दबी थी, अचानक मेरे भीतर विस्फोट की स्थिति में आ गई. मैंने उससे कहा, “आप कैसे हो? जरा अपने आपको भी देखो. अपनी कमजोरी कबूल करो. अपनी बेईमानी कबूल करो.”

वह कुछ समझा नहीं. मगर वह समझ गया, मैं बिल्कुल बदल गई हूं. वह समझ नहीं पा रहा था, मुझसे कैसे बात करे? फिर भी वह ठहरा रहा. शायद वह मेरे बदलाव का कारण जानना चाहता था. वह बहुत ही मिठास के साथ बोला, “सुनो, मुझे बताओ, क्या तुम्हें किसी ने धोखा दिया है?”
मैं चीख पड़ी, “हां, तुमने. तुमने. तुम धोखेबाज, धूर्त, कुटिल, क्रूर, दुष्ट और कायर हो.”
वह बहुत अपनेपन के साथ हंसा. फिर बहुत प्यार के साथ बोला, “शोलू, तुम अभी भी मुझे चाहती हो. अब मैं भी जातिवाद नहीं मानता. चलो, हम शादी कर लेते हैं.”
मैं हंसी. हंसती रही. बहुत देर तक हंसती रही. फिर मैंने व्यंग्य से कहा, “क्या यह तुम्हारी सामाजिक समता की चाल है?”
वह गम्भीरता के साथ बोला, “सामाजिक एकता और समरसता एक ही बात है.”
मुझे गुस्सा आने लगा. मैंने गुस्से से कहा, “अब तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते. मैंने सबको पहचान लिया है. हर बात को परख लिया है. तुम्हारी सद्भावना मात्रा दिखावा है, एक मुखौटा है.”

वह क्रूरता के साथ हंसा. फिर बहुत कुटिलता के साथ सम्बोधन करते हुए बोला, ”मूर्ख, तुमने अपने आपको क्या समझ लिया है? क्या मैं सचमुच तुमसे विवाह कर लूंगा? कहां तुम? कहां मैं? तुम्हारी मेरी कभी कोई बराबरी नहीं हो सकती. तुम जहां पहले थी, मेरे लिए आज भी वहीं हो. चौथे क्रमांक से भी नीचे, सबसे अन्तिम क्रमांक पर अन्त्यज, अछूत.

और मेरे भीतर विस्फोट हो गया. पता नहीं क्या-क्या हुआ? मेरे आसपास गरम लावा बह रहा है और मैं शांत चित्त, सन्तोष के साथ, निश्चिन्त हो गई हूं. लोग उस ब्राह्मण कुमार की आकस्मिक मृत्यु के कारणो की खोज कर रहे हैं, उसी तरह जैसे शम्बूक की तपस्या के कारण ब्राह्मण के बालक की मृत्यु की खोज की गई थी. मगर मैं निश्चिन्त हो गई हूं. अब मैं आतंक के साये से मुक्त हूं. जो लोग मुझे बरसों से, आतंक से भयभीत बनाए हुए हैं, मैं अब उन लोगों को, उन आंखों को खोजने लगी हूं.

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ISSN 2394-093X
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