अकेली कुहुक को जवाब मिले


गुंजन भाटिया

वीगन, एनीमल राइट्स कार्यकर्ता। ‘Living by loving ब्लॉग लिखती हैं। शिकागो में रहती हैं।. संपर्क :gunjan.bhatia@gmail.com

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष 


20 अप्रैल 2016 – सुबह के चार बजे . 


यूकी – मेरी झबरैली डॉगी – की मनुहार भरी हुंकार ने मुझे नींद से उठा दिया. उसे अपना कंबल ओढ़ाकर, अपने पास बुलाकर, पानी देकर बहलाने-फुसलाने की सारी तरकीबें मैंने आजमा लीं  पर वह नहीं ही मानी . आखिर मैं उठकर बैठ गई – क्या चाहिए तुम्हें … ? उसने दरवाज़े का रुख किया. उसे जाना ही था. इस मुंह अंधेरे के वक्त, बेमतलब वह कभी उठाती नहीं ….. मैंने स्वेटर पहना और दरवाज़े के बाहर निकली. वह पूंछ हिलाकर कृतज्ञता ज़ाहिर कर रही थी. सड़क आते ही उसने अपना सुबह का काम निबटाया और हम आगे बढ़ने लगे. साथ लगे पार्क में हमारी रूटीन सैर आम तौर पर सुबह सात से नौ के बीच और रात की सैर देर 12 बजे तक होती है. आज इतनी सुबह सड़क पर अलग सा सन्नाटा था. रात की चुप्पी कितनी अलग होती है, सुबह के इस सुकूनदेह सन्नाटे से. अजब किस्म की भयावहता होती है रात के सन्नाटे में. तब मैं सड़क के हर मोड़ पर मानसिक रूप से पूरी तरह चौकस घर लौटने की जल्दी में रहती हूं. आज सुबह के चार बजे, भव्य किस्म की शांति , एक नए जादुई संसार में ले जा रही थी. सड़क के दोनों किनारों के पेड़ों पर चहचहाती चिडि़यों की संगीत लहरी सड़क पर पसरी निस्तब्धता को तोड़ रही थी .

यूकी और मैं उन सुरों का पीछा करते हुए आगे बढ़ रहे थे . एक सुरलहरी से अगली सुरलहरी तक. अचानक महसूस हुआ, इस मोहक सुरलहरी का जवाब दूसरी ओर के पेड़ों की हरियाली से आ रहा है. पूरा माहौल जैसे एक संगीतमय शो था जिसमें स्टेज के एक ओर से चिडि़यों की कुहुक गूंजती और जुगलबंदी में बिलकुल वैसा ही जवाब दूसरी ओर के पेड़ों की शाखों से आता. इस जुगलबंदी में एक अलग किस्म की कुहुक बीच-बीच में सुनाई दे रही थी . इसका अंदाज़ अलग था. लंबा खिंचने के बाद एक प्रश्नचिह्न पर ख़त्म होता सा ! हर बार यह पुकार किसी दूसरे कोने से नहीं लौटती. एक कसक सी मन में उठी. इस जवाब ढूंढती कुहुक को सुनकर एक डाॅक्यूमंट्री ‘Racing Extinction’ का पहला दृश्य याद आया जहां कुआई प्रजाति की आखिरी बची नर चिडि़या की अकेली कुहुक से फिल्म की शुरुआत होती है जिसका जवाब नहीं आता…..मैं फुटपाथ के किनारे खड़ी हो गई – पेड़ों की शाखाओं को निरखती, संगीत की स्वरलहरियों के जादू को पहचानती जो अब हर दस मिनट में धड़धड़ाती आवाज़ से टूट रहा था जैसे पत्थर पर सख्त रबर के चक्के रगड़ खा रहे हों.

इंसानों के नींद से उठने के आसार दिखने लगे थे. हर गाड़ी के पास से गुज़रने के साथ साथ हवा में गूंजती संगीत लहरी धीमी होती चली गई. धीरे धीरे गाड़ी की घरघराहट और मशीनों के शोर के बीच पक्षियों के गाने की आवाज़ शांत हो गई. अपने घर लौट आई हूं. जब मैं यह लिख रही हूं, यूकी अपने बिस्तर पर गहरी नींद सो रही है और मैं उन लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं जिन्होंने सड़कों के किनारे इन घने पेड़ों को बचाए रखा. शायद वे जानते थे कि एक दिन ये पेड़ प्रकृति का एक विराट रंगमंच बनेंगे जहां धरती की सबसे ख़ूबसूरत सिम्फ़नी का मंचन होगा और हम इस संगीतलहरी को हर सुबह सुनेंगे. कैसे भूल सकती हूँ कि दो दिन बाद ही पृथ्वी दिवस (World Earth Day ) है और मैं अपने सभी मित्रों से यह पोस्ट पढ़ने का अनुरोध कर सकती हूं. हम इंसानों की बहुत बड़ी दुनिया में रह रहे हैं – अपनी मशीनों और यंत्रों के साथ, अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों के साथ, अपनी परेशानियों और आकांक्षाओं के साथ. लेकिन पशु-पक्षियों की दुनिया आज भी हमारे बीच जि़ंदा है – चुपचाप, छिपी हुई, लगभग अदृश्य क्योंकि हम खुद अपनी आंखें खोलकर इन्हें देखना और इसका संज्ञान लेना नहीं चाहते.

मेरी गुज़ारिश है आपसे कि अगले दो दिन, आप अपने इर्द गिर्द ग़ैर इंसानों के जीवन को देखें.  देखें कि वे आपस में कैसे रहते हैं, कैसे लड़ते हैं, कैसे गीत गाते हैं, कैसे प्यार का इज़हार करते है. पेड़ों को देखें और उनपर चहकती चिडि़याओं को देखें, कुत्ते और बिल्लियों को देखें, गाय-बकरी , मुर्गियों, कीड़ों को देखें – वे सब हमारी खूबसूरत धरती का हिस्सा है. अगले कुछ दिन आप अपनी धरती पर अपनी स्पेस और अपने मुकाम को देखें कि इस ज़िंदा प्रजाति को हम अपनी इंसानी दुनिया में कितनी जगह दे पाए है और कितनी जगह दी जानी चाहिए थी. खुद उन्हें देखें और अपने बच्चों को भी देखने दें. उन्हें हम पहचानेंगे तभी उस खूबसूरत खजाने को संभालकर रख पाएंगे और उनके साथ अपने दरकते रिश्तों को सुधार पाएंगे. उन्हें हम पहचानेंगे, तभी यह भी समझ पाएंगे कि कहां हमारी ज़रूरतें और इच्छाएं खत्म होती हैं और उनकी शुरू होती हैं. शायद तभी हम उनके संगीत को लौटाना भी सीख पाएंगे.तब कोई अकेली पुकार जवाब का इंतज़ार करती नहीं रह जाएगी.

और एक कविता 
इस धरती पर बहुत आहिस्ता चलो

इस धरती पर आहिस्ता
बहुत आहिस्ता चलो
बहुत संभाल के साथ
ताकि हमारी सांसों की आवाज़
दब न जाए हमारी इच्छाओं के बोझ से
बची रहे हमारे लिए जगह
और बचे रहें हम ।

इस धरती पर बहुत आहिस्ता चलो
बहुत प्यार के साथ
कि हमारी रूह महसूस कर सके
घर का सुकून
हमारी हथेलियां याद रखें
ज़ख़्मों को सहलाना
और दिल उमग कर गा सके
उड़ते परिंदों का गाना

इस धरती पर बहुत आहिस्ता चलो
क्योंकि इसी से बने हैं हम
नदियां हमारी शिराओं में बहता रक्त है,
शाखों वाले पेड़ हमारी हड्डियां
जीव जंतु इस धरती के
हमारी मासूम परछाइयां

इस धरती पर बहुत आहिस्ता चलो
बहुत एहतियात के साथ
ताकि तब भी हमारे लिये
आराम करने को जगह हो यहां
जब हम रह जाएं सिर्फ़ एक कतरा हवा …….

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ISSN 2394-093X
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