कवयित्री सोनी पांडेय साहित्यिक पत्रिका गाथांतर की संपादक हैं. संपर्क :dr.antimasoni@gmail.com
विवाह के छः वर्षो के बाद गाँव जाना मेरे लिए रोमांचक था, पिताजी ने नौकरी मिलते ही शहर में मकान बनवा लिया, यही हम पाँचों भाई-बहनों का जन्म हुआ. गाँव में बिजली पानी के अभाव के कारण बड़ी बहन गाँव जाने में मुँह सिकोड़ती, छोटी मासूम और संकोची जिसके कारण माँ उसे साथ ले ही नही जाती, बचती मैं, माँ की हरफनमौला बेटी मैं गाँव जाने के नाम पर स्कूल तक छोड़ देती. गाँव मेरे लिए प्रकृति की सुन्दर झाँकी थी, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान, लड़कियों की स्वच्छन्द हँसी, बड़े बुजुर्गों का हास-परिहास मुझे बहुत गहरे तक छूता, कहना न होगा कि यही मेरे अन्दर के साहित्यिक कीड़े को पोषण मिला. माँ कहती है कि मैं झटपट बन्ना-बन्नी और सहाना (गीत) बना लेती थी और हमारी टोली के गीत आकर्षक हो जाते थे. यहाँ जीवन संगीत उद्दान बहता है वसन्त में आम के मौर, महुए की सुगंध के साथ-साथ कोयल की मधुर तान वातावरण में उल्लास और उमंग भरता दुवार पर मण्डली जमती फगुवा, चैता, बिरहा, का दौर आधी रात को अपने चरम पर पहुँचता. अम्मा बड़ी माँ के साथ खिड़की में बैठकर सुनती और कभी-कभी डायरी में लिखती थी. मीरा के पदों को फगुवा के धुन पर अम्मा बड़ी खूबसूरती से गाती-
‘‘मन मोहे मुरलिया वाला सखी……….-2
अधर सुधा रस मुरली राजत, उर वैजन्ती माला सखी…
अम्मा के गले में मृदंग बजता, खनकदार आवाज और गजब की क्षमता घंटो अकेले गाती. होली में औरतों की टोली आँगन में और पुरुष दरवाजे पर फगुवा गाते, औरतें कीचड़, मिट्टी, रंग,पानी,आदि लम्बा घूँघट तान कर दूर से फेंककर भाग जातीं, पुरुष और जोश में गाते. पुरोहित जी एक बहुत सुन्दर गीत गाते जो मुझे आज भी याद है. करि पूजन की तैयारी, विदेह कुमारी / सब सखियाँ मिल पूजन करती, पहनी गुलाबी साड़ी… विदेह…
मंगल यादव नहले पर दहला मारते / पिया कई गईलें कवल करार
फगुनवे मेें आये….फगुवा के बाद चैता की बारी आती…. माँ का गाया चैता…
‘‘बन गईलीं बन की जोगिनियाँ हो रामा. पिया के करनवा मैं अक्सर अपनी मण्डली में आज भी गाती हूँ. मैनें देखा है ग्राम्य जन-जीवन का सहज और सरल प्रवाह लोक-गीतों में देखने को मिलता हैं.रोपनी करते हुए एक लय में श्रमगीत गाती औरतों का कंठ और हाथ एक साथ चलता.
कहानी आगे बढ़ाती हूँ क्योंकि लोक-गीतों पर लिखते-लिखते कहानी उपन्यास हो जाएगी. बाबा के मृत्यु के बाद आँगन में दण्डवार पड़ा पुस्तैनी बड़ा आँगन सिमट गया. बाबूजी की नौकरी व्यवसाय और शिक्षक संघ की राजनीति के कारण गाँव की सारी जिम्मेदारी अम्मा पर आन पड़ी, अम्मा अब फसल के दिनों में गाँव जाती, चौखट लांघ खेतों के मेढ़ पर खड़े हो खाद-बीज, रोपनी सोहनी सब कराया, आलोचकों के दौर चले, इन सब से बिना डरे माँ मोर्चे पर डटीं रहीं, पिताजी ने समर्थन किया.खूब पैदावार होती, विरोधी परास्त हो घर गए. गाजीपुर का परगना पचोत्तर सब्जी के बेल्ट के रुप में विख्यात है, उँगली से जमीन कुरेद के बीज बो दो लौकी, कोहंड़े, भतुवा, नेनुवा की बेलें पड़ोसी के छप्पर लांघकर दुश्मनों तक के छत पर विजय पताका फहरा आती. बाबा के मरने के पहले हम गाँव बहुत कम जाते, जिसके कारण लोगों से घुलना-मिलना नहीं हो पाता किन्तु उनके मरते ही गाँव जाने का जो क्रम शुरु हुआ वह विवाह तक अनवरत चलता रहा. मेरे सामने पहली बार लम्बे प्रवास पर जो समस्या उत्पन्न हुई वह टोले की लड़कियों से मित्रता करना था, लड़कियाँ हमारे शहरी विशिष्टता से दूर भागती और मैं अन्दर-अन्दर दुखी रहती.
माँ ने उपाय निकाला, मेरे तीन सलवार कुर्ते को मिलाकर तिरंगा झण्डा पहनाया लाल फीते से चोटी बाँधी मैंने शीशे में देखा, बिल्कुल उनके जैसी भर डाली चना देकर बड़े पिताजी के बेटी के साथ भरसाँय भेजा.भरसाँय गाँव के बाहर था, शाम होते ही पूरे गाँव की लड़कियों और औरतों का हुजूम उमड़ता, गोड़िन गुनिया की माई बारी-बारी से सबका भूजा भुनती, कई बार आपस में औरतें लड़कियाँ लड़ पड़तीं, गुनिया की माई कलछुल पटककर खेदती, ‘‘ई-हमार भरसाँय है तोहन लोगन क दुवार ना.’’ एक तरफ कुँवर बाबा की पिण्डी बड़े से चबुतरे पर जहाँ बच्चे उछल-कूद करते, दूसरी तरफ चार खल करीने से लगे जहाँ एक लय में तीन-तीन चार-चार औरतों के मूसल गिरते, औरतें हरे धान का चूड़ा कूट रहीं थी. मुझे देखते ही चहक उठी अरे गुनिया महरानी जी के बोड़ा बिछाव’’, शिकायत किया, ‘‘काहें छोटकी मलकिन तोहें भेजली धिया, संदेशा पठवती गुनिया जा केले आवत’’आज लेट अइसे ही होत रहल.’’ गुनिया मुझसे एक साल बड़ा था, उस वक्त चैदह वर्ष का रहा होगा, ब्याह हो गया था, पत्नी गौने थी. गुनिया हमारे घर बचपन से आता था, माँ उसे अनाज दे देती और वह शाम को भुजा कर दे जाता. कभी-कभी दिन में उसकी माँ भी आती, घर में झाड़ू लगाना लिपना पोतना आदि कर जाती, अम्मा हमारे कपड़े अपनी साड़ियाँ जब भी गाँव आती ले आतीं और गुनिया की माई को देतीं, त्योहारों में नये देती, तरज-त्योहारी देना कभी नहीं भूलती.
हम गुनिया की माई को काकी कहते और वो हमें अधिकतर महरानी कहती. गुनिया और उसकी छोटी बहन गुनिया को छोड़कर पिता जो परदेश कमाने गये दोबारा लौट कर नहीं आये, उसने हार नहीं माना अकेले अपने दम पर बच्चों को पाला और भर माँग पियर सिन्दूर भरे बाट जोहती रहीं कि कभी तो परदेसी लौटेगा. माँ का उपाय सार्थक सिद्ध हुआ मेरा तिरंगा परिधान विजय गीत गाता वापस लौटा, शीघ्र ही मुनिया, कनक और सीमा सखी बनीं, हमने कुँवर बाबा के थान पर शपथ लिया कि कभी मित्रता नहीं तोड़ेंगे. दोपहर में मेरा दलान गुलजार हुआ लड़कियां मेजपोश के कपड़े लेकर आतीं और हम सब अम्मा से कढ़ाई सीखते, कभी-कभी फिल्मी गीतों के धुन पर गीत बनाते. शाम को हमारी टोली बाग की ओर जाती जहाँ सगड़ा पर बने पुलिया पर बैठकर पंचायत होती, योजना बनती, टोले भर की बहुओं की नकल उतारी जाती. मनचले उधर से गुजरते तो कनक तमक कर कहती- का ताकत हवे रे, माई-बहिन ना हई का.’’ लड़के फुर्र हो लेते.इनके साथ ही मैंने सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, कूटना, फटकना सीखा. पहली बार अम्मा की चोरी चूड़ा कूटा, हाथों में छाला पड़ा तब जाना हरे धान के मीठे चूड़े का रहस्य.गुनिया का गौना हुआ, कनिया (नयी दुल्हन) देखने का प्लान बना, लाख मनाहट के बाद भी दोपहर में हमारी शैतान मण्डली मुनिया के साथ घर पहुँचा.
खपरैल का टूटा-फूटा मकान जिसे छा-छोपकर किसी तरह रहने लायक बनाया गया था. दरवाजे पर देशी गाय बँधी थी जिसे गुनिया की माई ने इसी वर्ष खरीदा था ताकि बहू को गोरु की कमी न खले. हमारे आँगन में धमकते ही खुश हो गयी, बहू की कोठरी में जाकर बेटे से कहा- ‘‘पंडिताने की लड़कियाँ कनिया देखने आयी हैं.’’ गुनिया लजाते हुए बाहर निकला, लड़कियों का समवेत ठहाका गूँजा. गुनिया की पत्नी साँवली-सलोनी, तीखे नैन नक्स, उम्र कोई-पन्द्रह सोलह वर्ष, पियरी पहने बोरा पर गठरी बनी बैठी थी. मुनिया ने घूँघट उठाकर मुँह दिखाया, उसने दोनों आँखें बंद कर रखी थी. कुछ देर मुनिया भाभी के हाथ के बने कढ़ाई, सिलाई के सामान दिखाती रही. गुनिया की माँ ने बहू का घूँघट उठा कर कहा इनसे का लजात हऊ, इन्हने लोगन क सेवा- टहल बजावे के है, बहू का चेहरा स्याह हो गया.अगली छुट्टियों में बड़े पिताजी की हमउम्र बेटी का ब्याह पड़ा मैं ग्रेजुएशन अंतिम वर्ष की छात्रा थी, गुनिया दो बच्चों का बाप बन चुका था, काकी सुबह-सुबह ही आ धमकती बर्तन-चैका, झाड़ू- बहाड़ू लगा कर माँ का पैर दबाती कभी हमारे पैरों में भी तेल लगाकर मालिश करती.
लावा वाले दिन हम सब गाते-बजाते भरसाँय पहुँचे, गुनिया की माँ लावा लिए पहले से बैठी थी, गुनिया भरसाँय झोंक रहा था, पत्नी दाना भूज रही थी. रस्म खत्म होने पर सबने नेग दिया, मैंने कहा-‘‘काकी अब आप को आराम मिला बहू ने काम सम्भाल लिया.’’काकी रुआँसी हो गयी- ‘‘अरे का धिया कपूत परदेस कमाये जो ए कहत हऊँ.’’ गुनिया तमतमा उठा, लाठी फेंककर उठते हुए चिल्लाया-‘‘त का जिनगी भर इ-बभनन क जूठ चाटी’’ गुनिया के बागी तेवर अप्रत्याशित थे, बड़ी माँ ने सबको चलने का इशारा किया गुनिया की माई रोती रही, एम0ए0 अन्तिम वर्ष में मेरी भी शादी हो गयी. गाँव सपना हो गया, मायके जब जाती गाँव का प्रोग्राम बनता और बिगड़ता, छः वर्ष बीत गए, मैं दो बच्चों की माँ हो गयी. अबकी माँ ने दृढ़ संकल्प किया दो बच्चें हो गए और अभी तक शादी की पूजा बाकी है. हम निश्चित समय पर गाँव पहुँचे, कनक और सीमा भी मायके आयी हुई थीं, मिलते ही समय पंख हुआ. अगले दिन दिनभर पूजा-पाठ चलता रहा, शाम को माँ से कहा- ‘‘काकी नहीं आयी मैं उनके लिए साड़ी लेकर आयी थीं, बड़ा कर्ज है उनका कितनी सेवा की है. माँ ने मुस्कुराते हुए
कहा-‘‘कहलवाया तो था, शायद बीमार हो, आजकल बहुत अस्वस्थ रहती हैं, तुम जाकर मिल आओ, इस समय भरसाँय में मिल सकती हैं.
मैं सखियों संग भरसाँय चली. दूर से ही भरसाँय ठण्डी दिखाई दे रही थी. गुनिया की माई कुँवर बाबा के पास वाले टीले पर बैठी ना जाने देर शून्य में क्या निहार रही थी ? जो देखा वह स्तब्ध करने वाला था, अब गुनिया की माई बाट जोहती है कि लड़कियाँ भर-भर डाली अनाज लेकर आएंगी और उसकी मड़ई गुलजार होंगी. ओखल इधर-उधर लुढ़के पड़े थे. मुझे देखते ही बुढ़िया मैली साड़ी के कोर से आँसू पोछते हुए बोली. ‘‘इ का हो रहा है बहिनी, अब, न कोयी कलछुल में लिट्टी पकवाता है न आगी माँगता है, लोग चूड़ा बालेश्वर बाबा के मशीन पर कूटाते हैं, हित-नाथ को रस-दाना नहीं, चाय नमकीन देते हैं. लड़कियाँ अब एक -दूसरे के घर कम ही जाती हैं, काहें प्रेम मर रहा है और फफक पड़ी. मैंने चुप कराते हुए माथे पर साड़ी रख हथेलियों पर पैसा रखा अनायास ही सर पैरों की ओर झुक गया उनकी सेवा मातृत्व से तनिक कम नहीं थी,
बुढ़िया ने लपकर हाथ थाम लिया, ‘‘काहें जनम नाश कर रही हैं महरानी जो, मरद छोड़ गया, अब गुनिया भी परदेश कमाता है, मेहर बच्चों को भी ले गया. कहाँ भरुँगी. मेरा गला रुँध गया, आवाज कंठ में फँस गयी, सीमा खिंचते हुए लेकर चली. आते हुए मुझेे अपने ही बनाये गीत पर क्रोध आ रहा था-‘‘मोहें शहरी पिया दिलादो मेरी माँ/गंवार पिया ना आवेला.’’ कुँवर बाबा का चबुतरा टूट-फूट गया था सबके दुवार अब चाहरदीवारी में कैद हो चुके थे, बच्चे कान्वेन्ट में शहर पढ़ने जाते हैं, आँगन में चार-चार दण्डवार पड़ चुके थे, बाग-बगीचे उजड़ रहे हैं, सगड़ा पाट कर परधान ने कब्जा जमा लिया था, मेरे बाबा का बनवाया हुआ बंगला जहाँ पंचायत लगती थी, चारो गाँव के बारात डेरा डालते थे अब उजड़ कर अपनी विवशता पर सुबक रहा था. आत्मा चित्कार उठी- ‘‘उफ्फ, महज आठ वर्षों में मेरा गाँव शहर बन गया.’’