लोहिया का स्त्री विमर्श

मेधा


आलोचक , सत्यवती महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती है . संपर्क :medhaonline@gmail.com

राम मनोहर लोहिया की ख्याति एक राजनेता के साथ-साथ एक मौलिक चिंतक के रूप में है. कोई शक नहीं कि लोहिया का समाज-विवेक बराबरी के न्यायबोध से गहरे भीगा हुआ है. बराबरी का मूल्य ही स्त्री और पुरुष के बीच मौजूद असमानता खोजने के लिए लोहिया को उकसाता है और लोहिया बिना शक इस मामले में अपने समय के चिंतन से कोसों आगे निकल जाते हैं. लेकिन उनके स्त्री विषयक चिंतन पर विचार करने से पहले कुछ ताजा-तरीन आंकड़ों पर गौर करें. विडंबना है कि भारत में जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ी है वैसे-वैसे औरतों पर अत्याचार भी बढ़े हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ें कहतें हैं कि साल 2014 में 36,735 महिलाओं के बलात्कार के मामले दर्ज हुए जो कि 2013 में दर्ज बलात्कार के मामलों से नौ फीसदी अधिक है. लगभग साठ हजार महिलाओं का अपहरण किया गया. साढे आठ हजार महिलाएं दहेज हत्या का शिकार हुईं. और लगभग सवा लाख महिलाएं पति की क्रूरता का शिकार हुईं. आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि हम हमारे देश की आर्थिक समृद्धि के आंकड़े भले ही तेजी से न बढ़ रहे हों लेकिन महिलाओं के प्रति हर तरह की हिंसा के आंकड़े साल दर साल बढ़ते ही जा रहे हैं. आज देश भर में प्रतिदिन लगभग 848 महिलाएं बलात्कार का शिकार हो रही हैं.


ये आंकड़े आजादी के सात दशक बाद भी स्त्री के शोषण की कथा कहते हैं. शोषण की इस कथा का रूप बदल-बदल कर जारी रहना हमारी सामाजिक संरचना और राजनीतिक व्यवस्था में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक मूल्यों को दर्शाता है. लोहिया ऐसे राजनीतिक चिंतक हैं, जो स्त्री के शोषण के कारणों की जड़ पर चोट करते हैं और इसका समाधान स्त्री की राजनीतिक भूमिका में तलाशते हैं. आज से कई दशक पहले जब देश की राजनीति की चिंता में स्त्री विमर्श परिवार नियोजन, स्त्री-शिक्षा, बराबर वेतन आदि के मुद्दों तक सीमित था और स्वयं भारतीय स्त्रीवाद भी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत नहीं था, तब ही लोहिया ने भारतीय राजनीति के स्त्री विरोधी स्वर को पहचान कर उस पर प्रहार किया -‘‘देश की सारी राजनीति में, कांग्रेसी, कम्यूनिस्ट अथवा समाजवादी, चाहे जानबूझकर कर या परंपरा के द्वारा, राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है और वह यह है कि शूद्र और औरत को, जो पूरी आबादी के तीन-चौथाई है, दबा कर और राजनीति से दूर रखो.’’ सालों पहले लोहिया का कहा वाक्य आज भी स्त्रियों के संदर्भ में उतना ही सच है, जितना उस समय था. महिला आरक्षण विधेयक का सालों से संसद में अटके रहना इसका प्रमाण है.

औरत और मर्द की गैरबराबरी को लोहिया सभी किस्म की गैरबराबरी का आधार मानते हैं. उनका कहना है-‘‘नर-नारी की गैर-बराबरी शायद आधार है, और सब गैर-बराबरी के लिए, या अगर आधार नहीं है, तो जितने भी आधार हैं, बुनियाद की चट्टानें हैं, समाज में गैरबराबरी की और नाइंसाफी की, उनमें यह चट्टान सबसे बड़ी चट्टान है. मर्द-औरत के बीच की गैर-बराबरी, नर-नारी की गैर-बराबरी.’’ लोहिया के इस कथन में यह बात अंतर्निहित है कि गैरबराबरी का पहला पाठ कोई भी व्यक्ति अपने बालपन के लैंगिक संदर्भ में सीखता है. यह गैरबराबरी या तो भाई-बहन के बीच की होती है या माता-पिता के बीच की या परिवार में किसी अन्य रिश्ते में प्रदर्शित होती है. गैरबराबरी का बीज व्यक्ति के भीतर यहीं से जन्म लेता है और बाद में वह हर तरह की गैरबराबरी में तब्दील होता है. इसीलिए लोहिया को समतामूलक समाज के निर्माण के लिए लैंगिक विषमता को मिटाना अनिवार्य और पहला राजनीतिक कर्म लगता है. तभी उन्होंने कहा है-‘‘कई सौ या हजार बरस से हिंदू नर का दिमाग अपने हित को लेकर गैर-बराबरी के आधार पर बहुत ज्यादा गठित हो चुका है. उस दिमाग को ठोकर मार-मार के बदलना है. नर-नारी के बीच में बराबरी कायम रखना है.’’

लोहिया के स्त्री संबंधी विचार की खासियत यह है कि वह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहीं, वरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखते हैं, जैसा कि आमतौर पर स्त्रीवादी चिंतक नहीं देख पाते. शायद इसीलिए उनके समाधान में वह व्यापकता और स्थायीत्व बहुत नहीं होता जो लोहिया के समाधन में दिखाई पड़ता है. इसका एक प्रबल नमूना है घरेलू हिंसा का. पिछले दो दशकों में घरेलू हिंसा को लेकर नारीवादियों ने काफी आंदोलन किया. संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप के कारण सरकार ने भी घरेलू हिंसा संबंधी कानून बनाए. आज घरेलू हिंसा को सामाजिक चौकीदारी से रोकने के लिए ‘बेल बजाओ’ अभियान जोरो पर रहा है. पर लोहिया ने 70 के दशक मंे ही घरेलू हिंसा पर गंभीर चिंता प्रकट की और इस समस्या को केवल स्त्री की समस्या न मानकर उसके मूल कारण तक पहुंचने का प्रयास किया है. भारत में घरेलू हिंसा जितनी मर्दवादी मानसिकता का परिणाम है, उससे कहीं-कहीं ज्यादा घोर विषमता को तरजीह देने वाली सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में  है. जिस व्यवस्था में किसी भी तरह से कमजोर व्यक्ति को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार नहीं मिलता, उस व्यवस्था में वह अपने से कमजोर के ऊपर अपनी लाचारी की हिंसा बरसाता है.


 लोहिया के अनुसार ‘‘भारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है. सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं, लेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैं इतनी और कहीं नहीं. हिंदुस्तान का मर्द इतना ज्यादा सड़क पर, खेत पर, दुकान पर, जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता है, जिसकी सीमा नहीं. जिसका नतीजा होता है कि वह पलटा जवाब तो दे नहीं पाता, दिल में भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता है, तो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है.’’ ऐसे में केवल कानून बना देने भर से स्त्री अपने घर में सुरक्षित हो जाएगी या हमें उस व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचना होगा जो गैरबराबरी के सारे आयामों को समाप्त कर मनुष्य के भीतर गरिमा, शांति और समरसता की संभावना को पैदा होने दे? यकीनन काननू इस बुराई से लड़ने में तात्कालिक तौर पर मददगार जरूर होगी.लोहिया का स्त्री- विमर्श कई मायनों में अपने समय के नारीवादी विमर्श से कहीं आगे था. लोहिया के नर-नारी संबंधी विचार अपने आप में क्रांतिकारी विचार थे. आज तक समाज की पितृसत्तात्मक संरचना जिस औजार के सहारे स्त्री को अपने अधीन रखती आई है, लोहिया उसी पर चोट करते हैं. देह मानकर उसकी शुचिता में स्त्री को कैद करने का काम किया गया.

प्रकृति ने स्त्री को जो अनुपम या अद्भुत और अद्वितीय सृजन क्षमता दी है, संभवतः उससे ईर्ष्या कर पुरुष ने उसे ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनाकर उसे सदियों तक शोषित किया. लोहिया यौन-व्यवहार के दोहरे मापदंडों का कड़ा विरोध करते हैं- ‘‘यौन-पवित्रता की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद आमतौर पर विवाह और यौन के संबंध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं. सारे संसार में कभी न कभी मर्द व औरत के संबंध शुचिता, शुद्धता, पवित्रता के बड़े लम्बे-चैड़े आदर्श बनाए गए हैं. घूम-फिर कर इन आदर्शों का संबंध शरीर तक सिमट जाता है और शरीर के भी छोटे से हिस्से पर.’’लोहिया आधुनिक भारतीय पुरुष के असमंजस को पहचानते हैं, जिसकी नींव अंग्रेजों की औपनिवेशिक मौजूदगी में नवजागरण के समय पड़ी थी. उसे एक ओर तो उसकी संतान को पढ़ा-लिखाकर आधुनिक  बनाने वाली मां चाहिए यानी एक ऐसी औरत जो बुद्धिमान, शिक्षित और चतुर हो. दूसरी ओर वह भारतीय संस्कृति का वाहक भी बने यानी संस्कृति में औरत की जो भूमिका तय की गई है, वह उसका निर्वहन करें. वह सीता और सावित्री की भांति पतिव्रता एवं आज्ञाकारिणी हो.

कहने का आशय यह कि वह उनके कब्जे में हो. नवजागरण के मनीषियों ने आधुनिक भारत की स्त्री के लिए यही कसौटी तय की थी और यही कसौटी कमोबेश आज तक चल रही है. इसका अच्छा नमूना ‘नारि नर सम होहिं’ का नारा देनेवाले और हिन्दी-नवजागरण के अगुआ भारतेन्दु हरिश्चंद्र के इस कथन में मिलता है-‘‘जिस भांति अंग्रेज स्त्रियां सावधान होती हैं, पढ़ी लिखी होती हैं, घर का काम-काज सम्हालती हैं, अपने संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना सत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और देश की संपत्ति-विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहायता देती हैं….. उसी भांति आर्यकुल ललना भी करें…….इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूं कि इन गौरांगी युवती समूह की भांति हमारी कुललक्ष्मीगण लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमें.’’ लोहिया भारतीय पुरुष की इस फांक को समझते हैं और उस पर चोट करते हैं- ‘‘नर चाहता है कि नारी अच्छी भी हो, बुद्धिमान भी हो, और उसकी हो, उसके कब्जे में हो. ये दोनों भावनाएं परस्पर विरोधी हैं. अपनी किसको बना सकते हो? उस मानी में अपनी, जो हमारे कब्जे में रहे. मेज को अपनी बना सकते हो, कमरे को बना सकते हो, शायद कुत्ते को भी बना सकते हो किसी हद तक. यानी निर्जीव या अगर सजीव भी है, तो किसी ऐसे को ही बना सकते हो, जिसकी सजीवता संपूर्ण नहीं. जिसकी सजीवता संपूर्ण है, उसको अगर अपने अधीनस्थ बना देना चाहते हो, तो फिर वह चपल, चतुर, सचेत, सजीव – सजीव उस अर्थ में  जीव वाले अर्थ में नहीं- जिंदादिल जिन्दा शरीर, तेज बुद्धिमान नहीं हो सकती.’’

लोहिया का स्त्री विषयक चिंतन स्त्री मात्र पर विचार नहीं करता. स्त्री और पुरुष के बीच कोई जीव विज्ञान आधारित अंतर उनकी समस्या नहीं है. एक राजनीतिक व्यक्ति की तरह लोहिया की चिंता एक राजनीतिक स्त्री की खोज करना है. लोहिया यह खोज देशकाल के बोध से विहीन सिद्धांत-चिंता से नहीं करते. उनकी यह खोज एक राष्ट्रवादी राजनेता की चिंता से उपजी है. जाहिर है स्त्री के आदर्श को खोजते समय वह भारतीय राष्ट्रवाद का पुनर्पाठ करते हैं. इसी पुनर्पाठ का एक उदाहरण है – सावित्री के बरक्स द्रोपदी की एक नई व्याख्या प्रस्तुत करना. यह व्याख्या लोहिया को नवजागरण के दौर के भारत-चेता मनीषियों की परंपरा में रखती है, यानी स्त्री का आदर्श लोहिया भी नवजागरणकालीन चिंतकों की तरह भारत की संस्कृति-कथा के भीतर से ही ढूंढते हैं. लेकिन अनिवार्य रूप से यह परंपरा लोहिया से जुड़कर ‘दूसरी परंपरा’ बन जाती है, यानी लोहिया संस्कृति कथा के भीतर से नवजागरण के दौर के चिंतकों से कहीं अलग अपना आदर्श चरित्र खोजते हैं. एक बानगी देखें- ‘‘द्रौपदी महाभारत की सबसे बड़ी औरत है, इसमें कोई शक नहीं है.महाभारत के नायक का नाम कृष्ण है, उसी तरह  से महाभारत की नायिका का नाम कृष्णा है. कृष्ण-कृष्णा.

आज के हिन्दुस्तान में द्रौपदी की उसी विशिष्टता को मर्द और औरत ज्यादा याद रखे हुए हैं कि उसके पांच पति थे. द्रौपदी की जो खास बातें हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं जाता.दुनिया की कोई औरत, किसी भी देश की, किसी भी काल की ज्ञान, हाजिर-जवाबी, समझ, हिम्मत की प्रतीक उतनी नहीं बन पायी जितनी कि द्रौपदी.’’ लोहिया द्रौपदी के हतप्रभ कर देने वाले व्यक्तित्व को ही भारतीय स्त्री का प्रतीक मानते हैं और भारतीय मानस में बसे सावित्री के प्रतीक के संदर्भ में सवाल उठाते हैं कि क्या कोई पुरुष भी सावित्री की तरह पत्नीव्रता हुआ है? यदि नहीं तो ‘‘फिर इतना साबित हो जाता है कि जब कभी ये किस्से बने या हुए भी हों, तब से लेकर अब तक हिन्दुस्तानी दिमाग में उस औरत की कितनी जबर्दस्त कदर है जो अपने पति के साथ शरीर, मन, आत्मा से जुड़ी हुई है और वह पतिव्रता या पातिव्रत धर्म का प्रतीक बन सकती है. इसके विपरीत मर्द का औरत के प्रति उसी तरह का कोई श्रद्धा या भक्ति या प्रेम या अटूट प्रेम का कोई किस्सा नहीं है.’’लेकिन लोहिया के स्त्री-चिंतन की सीमा भी यही है कि द्रौपदी को भारतीय स्त्री का प्रतीक मानते हुए वह भी अन्य संस्कृतिचिंतकों की भांति स्त्री को राष्ट्रवादी मुखौटे के भीतर रख कर ही देखते हैं, उससे बाहर नहीं .

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles