मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ, मैं इरोम हूँ

कर्मानन्द आर्य

कर्मानन्द आर्य मह्त्वपूर्ण युवा कवि हैं. बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाते हैं. संपर्क : 88630093492

शर्मिला इरोम के नये निर्णय का स्वागत करते हुए  आइये पढ़ते हैं यह कविता :
( शर्मिला इरोम के लिए जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)

लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक
मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ
लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है
मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ
जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है
कि हम
उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे   हमारी हरी देहों का दोहन  शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है  उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है सोचता है मैं हार जाउंगी
घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न  आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है
आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है

आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे मेरी रखवाली करती है
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई  कितनी लाल और मादक है
क्या सोचते हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ  मैं इरोम हूँ
इरोम इरोम शर्मिला चानू

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ISSN 2394-093X
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