मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

प्रो.परिमळा अंबेकर

विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं.  हिन्दी में कहानियाँ  अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677

‘‘ बस तरबतदी एन इल्ल…. नन हाट्या … निन…‘‘  दमदार भद्दी गाली की भारी भरकम आवाज की खरखराहट ने, दोनों कानों में ठुसे सेलफोन से बह रही नूरजहाॅं के गले की फैज के नगमें की आवाज  काट डाली . दनदनाती हुयी वह आवाज… मेरे दोनों कानों के परदे पर दस्तक देने लगी… !  खिडकी के गिलास से सटाये रखी  मेरा  सर  हठात दायीं ओर मुड गया. बस में नीम अंधेरा छाया हुआ था . बगल की औरत  खडी हो गयी थी और बडबडाने लग गयी थी. देवरहिप्परगी बस स्टैंड पर नये चढे पैसिंजरों से टिकट कटवाकर, अपना काम खत्म होते ही सीटी बजा कर बस का कंडक्टर  ड्राइवर को बत्ती बुझाने का आदेश दे चुका था . बस देवरहिप्परगी से निकलकर बिजापूर गुलबर्गा हाइवे पर सरपट दौडने लग . शाम के सात सवा सात बज रहे होंगे . बस की खिडकियों  से भीतर आ रही गर्म हवा लोगों के देह पर जमें  पसीने को छूकर उन्हें अजीब सी ठंडक का आभास दे रही थी . जैसे तपती धूम में बर्फ का गोला गले उतरते -उतरते सुकून पैदा कर रहा हो !! डा्रइवर के बत्ती के बुझाने से  बस में अंधेरा धीरे धीरे पसरने लगा … एक एक करके पैंसिंजर अपने जगह  बैठे- बैठे उूॅंघने लग गये. कोई  छोटा मोटा गाॅंव आता, बस एक दो लोग उतर रहे थे . चढने वाले लगभग कोई  नहीं था . बस सिंदगी गाॅंव पार कर जेवरगी की ओर भाग रही थी . बस के हेड लाइट से निकली रोशनी हाइवे पर ऐसे फैल रही थी मानो कालीराख की तरह जमी दिनभर की धूप को उडा रही हो और ,आगे आगे बस के लिये रास्ता बना रही हो. खिडकी से मैने देखा . जेवरगी की ओर जाने वाला हाइवे का कब्र  रास्ता पार कर अपनी बस दायी ओर धीरे -धीरे मुडने लगी .

अचानक मैने देखा….वह औरत मेरी  सीट के बगल में ऊँची  काली नुकीली पहाड की तरह से खडी थी . अरे यह तो वही औरत है,  जो देवरहिप्परगी  बस स्टॉप  पर बस के आकर लगते ही  हाथ मे कपडे लत्तों से ठुसी एक बैग बगल मे लटकाये, भरी बस में लोगों को चीरती हुई  मेरे बगल की खाली सीट पर आकर  बैठ गयी थी . बैठने की ही देर थी अपने बैग से पापड से भरा पैकेट निकालकर अकेली बैठी बिंदास, कुट-कुट  कुतरने लग गयी थी. उसके साथ में एक बूढी औरत, दो मर्द आदमी भी चढे थे . बैठे -बैठे मेरा क्यूरियस आॅब्सरवेशन मन ने यह मान कर ही तसल्ली पाया कि साथ बैठी बूढी उस औरत की सास है, आगे जगह बनाकर बैठे वे दोनो मर्द  ससूर और पति . और मेरे बगल की वह औरत, मेरे आब्सर्वेशन के खत्म होने तक पापड का पैकेट खतम करके, मूॅंग फल्ली के दानो को , एक -एक करके अपने मुॅंह में ठूसते जा रही थी और बडे चाव से जुगाली भी कर रही थी. मैने देखा, अब वही औरत, होसपेट के गन्ने के माफिक पतले डंटल सी काले लंबे हाथों को सीधा उठाकर ऊँची  आवाज में बडबडा रही है . ‘‘ मेरा घर तो इधर है, तू कहाॅं ले जा रहा है   बे … मादरचोद…. बस को रूका …तेरी… ‘‘ फिर एक और दमदार गाली. गाली सुनकर मैं घबरा तो नहीं गयी  लेकिन बस में फैली उस नीम अंधेरे को चीरती फैल रही उस आवाज की खरखरास से जरा सहम जरूर गयी . उत्तर कर्नाटक का अपना इलाका  .. तेज धूप और गर्मी में बहने वाली लूॅं के लिये जितना नामचीन है उससे भी अधिक ताजबीन है अपने दमदार गालीगलौज भरी जमीनी कन्नड बोली के खांटेपन के लिये . आप लोग अगर गलत न माने तो मैं , आत्मीयता के लहजे में बता ही दूॅं , यह इलाक लगभग कर्नाटक का बिहार परदेस है, बिहार परदेस . डीलडौल में रख रखाव में .

मुझसे पहली सी मोहोब्बत … मेरे मेहेबूब न माॅंग … फैज के शब्द नूरजहा का स्वर …उसी लय के ताल और मेल में हिलता डुरता मेरा सर … . कररर….. की चींखती सी ध्वनि से बस रूक गयी . ब्रेक के लगने की देरी थी…. बस में उॅूंघ रहे सारे पैसिंजर…. ऐसे हडबडा कर गिरते -गिरते सम्हल गये… मानो दबडे में भरी मुर्गियाॅं, दबडे के उठाने से, क्यां- क्यां की आवाज के साथ पंख फडफडा कर, सारी देह को बिखरा कर उडकर धुप… सी फिर जमीन पर जम जाती हैं. इस सबसे बेखबर , उस औरत का मेलो ड्रामा चालू था . ड्राइवर ने  पीछे मुडकर … कंडक्टर की ओर प्रश्नांकित नजर से देखा . जवाब में कंडक्टर ने राइ….ट कहते ऐसे सीटी मारी… जैसे कुछ हुआ ही न हो . बस फिर से दौडने लगी . सारे पैसजर फिर से सहमकर अपनी अपनी  सीटपर बैठे उूॅंघने लग गये . लेकिन पिछले का्रस पर दायी आरे जेवर्गी की ओर जाने के रास्ते पर मुडी बस  हठात् खडी हो गयी, मेरे बगल की वह औरत तो वैसी ही खडी थी . और उसका बडबडाना भी लगभग जारी तो था ही,  लेकिन यह बडबडाहट धीरे धीरे और ऊँची और नुकीली होते जा रही थी . बार -बार गालियों से तानों से भरभरकर , बस को रूकवाने के लिये कह रही थी. और मै सहमी सी बैठे बैठै ज्वार  के लेही की तरह फूट रहे उसकी गालियों को गिनते जा रही थी . उन गालियों के अभिधार्थ, व्यंजनार्थ में खोया मेरा मन गिनती में पिछडता गया,  लेकिन उसके हाथों की अदा के साथ साथ गालियों की रफ्तार बिना टूटे बिना रूके बढते ही जा रही थी .

मैनें अपनी जगह  से कुछ आगे झुककर औरत के बगल में बैठी उस बूढी की प्रतिक्रिया देखने की कोशिश की , जो रिश्ते में उसकी सास लगती थी . मेरा पारिवारिक ज्ञान तगडा था. लेकिन यह क्या… वह बुढिया तो सीटपर पैर खींच उकडू बैठे उूॅंघ रही थी . सर का पल्लू नाक तक खिंचा हुआ था . अंधेरे में ही मैने देखा,  वह तो निर्विकार …सो रही है… !! बस रोकने के लिए आवाज दे रही वह औरत और भी कुछ कह रही थी . बस के सुनसानेपन में उसकी तीखी खनकती आवाज तीर की तरह बरस रहे थे . ‘‘ चल तूझे मैं घर जाकर देख लेती हूॅं … बोल रही हूॅं यहीं है मेरा घर… ले कहा जा रहा बे सा….  . गाली की ध्वनि इतनी लंबी खिंच गयी कि सुनकर आसपास के लोग अपनी जगह पर ही हिलडुल कर,  फुसफुसाकर च्…च्…. करते नाराजगी जताने लगे . ‘‘ दो सीट के उस पार बैठे उस औरत के पति और ससूर ने न मुडकर देखा और न कुछ कहना ही मुनासिब समझा . बस की रफ्तार के साथ हिचकोले खाते उनके सफेद टोपी से ढके सर नजर आ रहे थे . जैसे कसम ले रक्खे हो मुडकर न देखने का . शांतनु तो बेबस था … बच्चे को गोद में ले जाती गंगा को न रोकने के लिये… तो क्या इस औरत का पति भी,उसके पुकारने पर भी मुडकर न देखने के लिये अभिशप्त है ..?

 खैर …कोई  सुने या न सुने मैं उसे गौर से सुन रही थी . तभी पीछे की सीट पर बैठी औरत के उद्गार मेरे कानों से टकरा गये …. ‘‘ देव्वा बडकोंडंग काणतद…यव्वा ‘‘ ;साया चढा लगता है गे अम्मा…द्ध तो क्या .. यह सब वह औरत नहीं बोल रही है ….पिछले हाइवे मोड पर बस के दायें मुडते ही लंबे तोप की तरह मेरे बगल में खडी यह औरत…..औरत नहीं ..? तो क्या मैं एक भूत के बगल में बैठी हूॅं … ?  मेरी सिट्टी पिट्टी गुम .. !! हडबडाकर सीट के बगल में बिखरी पत्रिका, सेलफोन, इयर फोन को कांपते हाथों से बटोर कर बैग में ठूसने लगी . मेरा बाबास्ता पहली बार था … भूत को सुनने का… उसे इतने करीब से देखने का … . उसके गाली-गलौच से भरी भाषा के गलगाजी में डूबे मेरे मन को अब जाकर भान पडा… वह औरत बीच- बीच में नीम के पेड का जिक्र क्यूॅं करते आ रही थी !! दिन में देखे भूतप्रेतों के फिल्म ही काफी थे मुझे रातभर डराने के लिये . लेकिन यहाॅं तो लाइव टेलीकास्ट चल रहा था . उस औरत का चेहरा सामने की ओर था . उस रात में भी, डरता मन यह कह रहा,  था … झुककर उसके चेहरे को देखॅूं …. भूत सवार औरत दिखती कैसी है …? बस में अंधेरा भी भरा था और अनजान भय ने भी मुझे रोके रखा  . सामने के सीट के रेलिंग पर दोनो हथेलियों का मुठ्ठी बांधकर हाथ पैर अकडाये खडी उस औरत को लांघकर मैं दूसरी जगह  जाऊ  भी तो कैसे…? तभी एक और जुमला उसके मुॅंह से ऐसे उछला …. इतना भद्दा इतना अश्लील …. जिससे उसके सास -ससुर और पति की निर्विकारता टूटे या न टूटे अगल -बगल के कुछाध बस के पैसिंजरों की निर्विकारता जरूर टूट गयी .

बस के सामने के कोने की सीट से एक पुरूष की आवाज जलती फुलझडी की तरह सुरसुरा गयी  .. ‘‘
हेण्ण्मक्कळु …  हिंग माडद छोलो अल्ला … ‘‘ . औरत जान… क्या ऐसा करे तो अच्छा लगता क्या .. इसके सुनने की देरी थी, कि पिछले सीट के दायें कोने से एक स्त्री की आवाज पटाखे की तरह फूट पडी …. ‘‘ हेंगसरंदर थोडे माना मर्वादी… ब्याड एन …‘‘ ?  औरतों का ऐसा न करने की पुरूष के हिदायत के साथ उठी स्त्री की आवाज ने औरत की मर्यादाहीन व्यवहार पर बडा सा प्रश्न चिन्ह लटका दिया . तभी बडबडाती बूढी सास ने अपनी हथेली को एक अजीब अंदाज में हिलाती , भीतर ही भीतर झुलसती रस्सी  की तरह करकाये मुॅंह से अपनी ओर से जुमला टीप दिया  ‘‘ एल्ला ना कंडीनी… सुटगोंड सुडगाड सेरिद्रु… नन्न जीवा हिंडताळ अकी ‘‘ . ;सब मै जानती हूॅं, मरकर मरघट भरने पर भी मेरा जान खाती है ओ.. द्ध उस बुढिया के नाटकीय हावभाव, और प्रतिक्रिया से मेरे चेहरे का भय धुलकर हल्की सी हॅंसी तारी होने लगी . अपने बहू के भीतर की बहू से आक्षेप जता रही थी वह बुढिया . तभी बहुत देर से सुरसराते पडा पटाका हवा लगने से अचानक फटने के अंदाज में सामने से बेटे और ससूर की चुप्पी फटपडी . .  इस बीच उस औरत का गला कुछ भारी पड गया . लगातार गलेपर जोर देकर चिल्लाने से शायद आवाज की पेटी दब गयी होगी … भला गला  भी कितनी देर काम करे .. ?

इस हडबडी से कुछ राहत मिलने से मेरे मन में सवाल एक -एक कर उठने लगे . तो क्या स्त्री मुक्ति स्त्री स्पेस के सारे अकादमिक चर्चाओं में औरत के भूत औरत की अवस्था को जोडना भी अनिवार्य है ? यह प्रश्न गंभीर भी था, साथ ही उतना ही व्यंग्य और हास्यास्पद . तो क्या औरत से जुडी मर्यादाएॅं उसके भूत बनने के बाद भी उसका पीछा नहीं छोडेंगी . सामाजिक सलीके क्या स्त्री भूत को भी पालना होगा ? कंडक्टर की सीटी की आवाज से साथ ही बस की एक्सिट् के दरवाजे की बत्ती के जलने से मेरी विचार सारणी  टूट गयी . जेवर्गी … जेवर्गी कहते कंडक्टर पैसजर को नीचे उतारने लगा . अरे यह क्या…. मैंने देखा..  बस के रूकने की देरी न थी… अब तक अपना घर पीछे छूट जाने को लेकर अंटशंट बकते हुये बिफर रही वह बागी औरत, विधेय गाय की तरह अपने कपडे के बैग को बगल में दबाये, सास के पीछे -पीछे रास्ता बनाते हुये सीढियाॅं उतर कर सबकी  आॅंखों से ओझल हो गयी . पीछे से कंडक्टर को टिकट थमाकर, बाकी छूट्टे के पैसे के लिये बूढा बस का दरवाजा थामे खडा था . बस के नीचे से बेटे ने आवाज देकर कहा ‘‘ यप्पा… जल्दी बा….चिल्लर रोक्का मुंदिन अमावस्सीगी इसकोंड्रातू … गडाने बा ‘‘ उतरने के लिये जल्दी मचाते बेटे को सुनकर छुट्टे , अगली अमावास को लौटाने का वादा कंडक्टर से लेते, अपना धोती टोपी सम्हालते हुये  वह भी नीचे उतर गया . सीटी की आवाज से बस जेवर्गी बस स्टैंड से निकलकर गुलबर्गा हाइवे पर दौडने लगी . तो क्या ये लोग हमेशा से इस बस में इस रास्ते से आते- जाते रहते हैं ? बस का निश्चित जगह पर पहुॅंचते ही उस औरत का वह डरावना व्यवहार इन सभी के लिए क्या मामूल है ? जिस सहजता और सरलता से वह औरत बस से नीचे उतर ,चली गयी थी उतनी ही गंभीर और गुंथे हुवे प्रश्नों के जाल मेरे मन में फैलते जा रहे थे.


कहीं  कंडक्टर फिर से बत्ती न बुझा दे... मैंने अपनी सीट से थोडा सरकते हुए. कंडक्टर की ओर मुॅंह करके पूछ ही लिया ‘‘ तो क्या यह औरत हमेशा …. इस तरह … भूत… का… चढना  …यानी  उसका ….इस तरह . चिल्लाना …? कंडक्टर की अजीब सी हॅंसी से जाहिर हो रहा था कि मैं अपनी अज्ञानता मूर्खता को सरेआम जाहिर कर रही हूॅं . फिर भी मेरे पूछने के अंदाज और व्यवहार से कुछ सहज होकर शिष्टता बरतते हुए कहने लगा . ‘‘ मैडम…..लगभग तीन महीने से मेरी डयूटी लगी है इस रूट पर . तब से यही नाटक देख रहा हूॅं . ‘‘  मेरे अगले प्रश्न के पूछे जाने के अंदाज को भांपकर फिर उसकी हॅंसी उसके मूॅंछों में ही खिलगयी . कहने लगा ‘‘ ओ बस्या साला अब तीसरी शादी करेगा . साला बांझा कहीं का…मादर…चो… ‘‘ आदतन मुॅंह से निकली गाली को जरा भीतर की ओर दबाते फिर कहने लगा ‘‘ बेचारी वो जलकर मर गयी . इधर पास के फरताबाद के, मेरे ही गाॅंव के हैं ये लोग मैंडम . अबकी बार ,ये बूढे खूसट रिश्ते की लडकी से बस्या की फिर से शादी बनाने के पिल्यान में हैं . ‘‘ फिर एक कडवे गाली का भभका उसके होंटों पर ही तैर कर रह गया . मैं फिर कुछ और पूछना चाह रही थी लेकिन लगा फिर से कहीं वह मूॅंछों में ही न हॅंस दे. मैं थोडी देर चुप रही . अगले ही क्षण लगा … एक और बार ही सही … चलो पूछ ही लूॅं … . जलकर मरी औरत….!! औरत के देह चढकर बोल रही भूत  औरत….!! घंटेभर का ड्रामा करके सबको धता बताकर सहजता से बस से उतर जाने वाली औरत !! ओफ् हो… एक औरत के  भीतर कितनी औरत… !!



अनजान ही मेरे मुॅंह से उद्गार निकल पडा …. बेचारी औरत !! मेरे प्रश्न किये बिना ही इस बार कंडक्टर ने , मूंछोंवाली अपनी उसी हॅंसी से मेरी ओर देखते कहा. ‘‘ काय की बेचारी औरत मैडम …तुमे नै मालूम … ये सब उसका नाटक है नाटक . बडी खांटी है वह औरत . जब से बस्या की शादी की बात सुनी है ,तब से बोलती है उसके आंग में बस्या की पैली औरत का भूत सवार हुआ है … और  बडे मजे से, बस्या और उन खडूस बुढ्ढों को हर अमावास्या चक्कर कटवा रही है … मरघट का …साला बस्या को अच्छा पाला पडा इस बार …. हा… हा …. हा ….. !! हॅंसते ही उसने जोर से सीटी मार दी . बस की सारी बत्तियाॅं बुझ गयी . बस में फिर से नीम अंधेरा छा गया . कंडक्टर की हॅंसी का उजास सारे बस में पसरने लगा . रात के नौ…. सवा नौ का वक्त होगा . अपनी बस …गुलबर्गा की ओर मुंह  किये दौड रही थी . एक मुक्त खुला -खुला सा बोध मेरे मन में भी दौडने लगा. बस की रफ्तार से खिडकी से ठंडी हवा भीतर बहकर आ रही थी . मैने अपना सर पिछले सीट पर टिका दिया . खिडकी से देखा … अंधेरे में जैसे अंधेरे भरे मंजर दूर -दूर छूटे जा रहे थे . मेरे मुॅंह से अनायास ही निकल पडा  ‘‘ … चलो जिंदा औरत तो औरत के काम आये न आये, औरत भूत तो औरत के काम आ गयी ”  . सर उठाकर अगल बगल में झांका … कहीं कोई  सुन तो नहीं लिया ..? सभी को इत्मिनान से उॅूॅंघता हुआ पाकर …  मैने भी आॅंखें मूॅंद ली… . मेरी आॅंखों के सामने वही औरत सर पर के पल्लू की छोर को दाॅंतों में खोंसे , मुस्कुराते हुये खडी थी . कुतरे हुये पापड….मूगॅंफली  का स्वाद अबतक उसके चेहरे पर लरज रहा था !! कहीं दूर….. नूरजहाॅं, फैज के नगमों को फिर से गाने लगी…. !! दूसरे ही अंदाज मे…. !! मुझसे पहली सी मोहब्बत … मेरे मेहबूब न माॅंग … !!

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ISSN 2394-093X
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