बेडटाइम स्टोरीज : ‘ स्वीट ड्रीम्स’: सेक्स पोर्न और इरॉटिका का ‘साहित्य’ बाजार

अर्चना वर्मा

अर्चना वर्मा प्रसिद्ध कथाकार और स्त्रीवादी विचारक हैं. संपर्क : जे-901, हाई-बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डेन, अहिंसा खण्ड-2, इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014, इनसे इनके ई मेल आइ डी mamushu46@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है.

 सनी लियोनी अब कथाकार भी है. फ़िलहाल अंग्रेजी में.

प्रियदर्शन ने इस विषय पर संजाल-समाचार-पत्र ‘सत्याग्रह’ में अपनी टिप्पणी में ज़िक्र किया है कि  सोशल मीडिया पर सवाल उठाया जा रहा है कि क्या हम सनी लियोनी के लेखन को भी साहित्य मानेंगे? एक मई दो हजार सोलह  के जनसत्ता के साहित्यिक परिशिष्ट मेँ इसी लेखन के विषय में सुधीश पचौरी का एक आलेख छपा है – ‘’देहलीला से देहगान तक .”

ये कहानियाँ आपके जाने पहचाने पुस्तक-प्रारूप में नहीं आ रही हैँ. वे आपके ऐण्ड्रॉयड मोबाइल फ़ोन (अगर आपके पास है तो) पर, रोज़ाना एक के हिसाब से, ऐप्स के माध्यम से एक एक करके रात को दस बजे अवतरित होंगी. कुल मिलाकर बारह . शब्दशः बेडटाइम स्टोरीज़’ – “स्वीट ड्रीम्स”. यह ई-बुक विधान के एक प्रकारान्तर में जगरनॉट बुक्स का नया प्रकाशन-प्रयोग है. जगरनॉट बुक्स द्वारा यह प्रयोग ऐप्स के माध्यम से मोबाइल पर प्रकाशित होने वाली पुस्तकों के 101 शीर्षकों से आरंभ किया जा रहा है. ये विशेष रूप से भारतीय पाठक को ध्यान में रखते हुए चुनी गयी किताबेँ हैं. इनमें से एक किताब सनी लियोनी से आग्रहपूर्व लिखवाई गयी कहानियों का संकलन भी है.आग्रहपूर्वक लिखवाई गयी कहानियाँ . आग्रह करने वाला जब प्रकाशक हो, और जिससे आग्रह किया जा रहा हो उसका नाम सनी लियोनी हो तो यह समझने के लिये ज्यादा बुद्धि या कल्पना खर्च नहीं होती कि आकर्षण और आह्वान बाज़ार का है. बाज़ार भी कौन सा? सुधीश पचौरी का आलेख  ‘’देहलीला से  देहगान तक ’’ कहीं विश्लेषण तो कहीं विज्ञापन की मुद्रा में बताता है कि ‘इरॉटिका’ और ‘पोर्न’ का बाज़ार.

सनी लियोनी की ‘साइट’ पर देहलीला, सनी लियोनी की कहानियों में देहगान. सनी की साइट के सिलसिले में सुधीश पचौरी खजुराहो की मूर्तियों की मैथुन-मुद्राओं और सनी की स्टोरीज़ के सिलसिले में हिन्दी के रीति-काव्य की गवाही दिलाकर परम्परा के हवाले से उसकी वकालत भी करते नज़र आते हैँ. उन्होंने इन कहानियों को “अंग्रेजी में देसी इरॉटिक कथा की शुरुआत “ कहा है. परम्परागत ‘’लीला‘’ और ‘’गान’’ में परस्पर तो कोई विरोध नहीं; जैसे रीतिकाव्य की अनेक पंक्तियाँ तत्कालीन काँगड़ा  और राजस्थानी शैलियों मेँ चित्रांकित दिखाई देती हैं और खजुराहो की मैथुन-मूर्तियों मेँ भी काम-अध्यात्म के रचनात्मक मूल्य बोलते हैं; लेकिन शायद विश्लेषण और विज्ञापन में इसी घालमेल की वजह से आलेख की  तर्कपद्धति में पोर्न और इरॉटिका समानार्थी और पर्यायवाची ढंग से प्रयुक्त हो उठे हैँ. जबकि इन दोनो में परस्पर विरोध है. कामोद्दीपन के समान उद्देश्य के बावजूद उनमें स्तरों का विशाल  भेद है जो दो सर्वथा भिन्न तासीर वाली वस्तुओं में बदल जाता है. वैसे ही जैसे पानी की दो परिणतियाँ – भाप और बर्फ़ – तासीर में एक दूसरे के विपरीत हुआ करती है.


इस अन्तर को देखना और समझना ज़रूरी भी है. तो सनी के बहाने उठाया जाने वाला पहला नुक्ता यही है कि पोर्न और इरॉटिका में क्या कोई बुनियादी फ़र्क है? कह दूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं  सनी लियोनी की प्रशंसक हूँ. अन्य बहुत सारे लोगों के साथ मेरी भी यह प्रशंसा उन्होंने अपने व्यक्तित्व की योग्यता से स्वयं अर्जित की है. अंग्रेजी न्यूज़ चैनल सीएनएन-आईबीएन में एक के साप्ताहिक-साक्षात्कार-कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है. “हॉट सीट.” पन्द्रह जनवरी दो हजार सोलह के कार्यक्रम में “हॉट सीट” पर सनी लियोनी उपस्थित थी. साक्षात्कर्ता भूपेन्द्र चौबे. अगर साक्षात्कार आपने देखा है तो  महसूस किया होगा कि कार्यक्रम का नाम ‘’हॉट-सीट’’ बहुत ही सटीक साबित हुआ. एक बहुत ही आक्रामक और अपमानजक प्रश्न-सत्र का बहुत  ही संयत और शालीन गरिमा के साथ  सामना करके सनी ने प्रमाणित किया कि वे एक ‘’ वूमन ऑफ़ सब्स्टेन्स ’’ यानी कि सार-तत्व-सम्पन्न महिला हैं. तो दूसरा विचारणीय नुक्ता यह कि उनके ‘वुमन ऑफ़ सब्स्टेन्स’ होने का कोई अनिवार्य आन्तरिक सम्बन्ध क्या उनके ‘’पोर्न क्वीन” होने या फिर अपने शरीर के प्रति उनके दृष्टिकोण के साथ है? तीसरा नुक्ता भी यहीं दर्ज कर दिया जाय कि क्या उनके विगत व्यवसाय की वजह से लेखक होने का उनका अधिकार या उनके लेखन का स्वरूप सन्दिग्ध हो जाता है? लेकिन इन नुक्तों  को थोड़ा आगे के लिये स्थगित करके यहाँ पहले नुक्ते की तरफ़ लौटा जाय.

नुक्ता असल मेंअपने विस्तार में पूरा दायरा है, बल्कि एक दूसरे को काटते कतरते, उलझते उलझाते दायरों में फँसे हुए दायरे पूरा गुंझल बनाते हैं. कहावत की तरह दोहराई जा सकती है यह बात कि एक जने का “ इरॉटिक” दूसरे जने का “पोर्न” हुआ करता है. दिक्कत तब उठती है जब शहरीकरण, विस्थापन, रोज़गार वगैरह वगैरह वजहों से ये सारे एक दूसरे को काटते कतरते, परस्पर द्वेषग्रस्त दायरे एक साथ एक ही लोकवृत्त में मौजूद होते हैं और वास्तविक जीवन में एक के ‘इरॉटिक’ की भूमि पर दूसरा कोई ‘पोर्न’ की कहानी उत्कीर्ण करने लगता है और विकट दुर्घटनाएँ घटती हैं.स्पष्टतः यहाँ ‘’एक जने’’ का मतलब नितान्त वैयक्तिक विकृतियों या विशिष्टताओं के सन्दर्भ में  ही  “एक अकेले जने” को  समझा जा सकता है. बृहत्तर पैमाने पर ये परिभाषाएँ सामुदायिक हुआ करती हैं और समाज-सापेक्ष व संस्कृति-सापेक्ष भी. समाज के भीतर अनेक लघुतर समुदाय, उनके अनेकस्तरीय पूर्वग्रह, दुरग्रह, विधि-निषेध  के संस्कार, मर्यादाएँ वगैरह हुआ करते हैं. उनका शिकंजा उनके सदस्यों के / हमारे अपने आपे का अंश होता है और उसे खुद से  छील कर न हम अलग कर सकते हैँ और न ही उनसे जुड़े विवादों में प्रायः तर्क और विवेक  की कसौटियाँ कायम रख सकते हैं.

सेक्स, पोर्न और इरॉटिका की शब्दावली को अपने देसी साहित्यिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों में काम-रति-शृंगार और अश्लील मे अनूदित किया जा सकता है. ‘काम’ का कलात्मक कायाकल्प ‘रति’ है और उसका रस-परिपाक शृंगार. शृंगार रसराज है. हमारे देसी साहित्यशास्त्र में शृंगार की यह महत्ता जीवन में ‘कामशक्ति’ की प्रबलता और उसको उदात्त बनाने की ज़रूरत की स्वीकृति से निकली है. रसात्मक परिणति से विचलन परिपाक तक जाने की बजाय ‘अश्लील’ काव्य-दोष होकर रह जाता है. सुधीश पचौरी  के आलेख में रीतिकाव्य और खजुराहो के दृष्टान्त शायद इसी प्रकार के अनुवाद से निकले है. शृंगारिक’ और ‘अश्लील’ की व्यंजना अभिव्यक्ति में संवेदना और सुरुचि के होने या न होने से जुड़ी है. ‘ पोर्न ’ को शायद अश्लील का समकक्ष माना जा सकता है और इरॉटिका को शृंगार का; लेकिन समकालीन विश्व में ‘पोर्न’ के व्यवसाय और बाज़ार ने ख़तरनाक आयाम अख्तियार कर लिये है. इसलिये पोर्न के द्वारा जो  संप्रेषित होता है वह रति और शृंगार की कोमल, मानवीय, सहृदय व्यंजनाओं के सर्वथा बाहर रह जाता है.

हमारे जैसे समाज में तो खास तौर से; फिर भले ही अपनी परम्परा के नाम पर हम कामशास्त्र, कोणार्क, खजुराहो को याद करते या अपने खुले सांस्कृतिक मनोभाव के लिये उसकी गवाही देते दिलाते हों.हमारे जैसे समाज का मतलब, समकालीन सन्दर्भों में समाज के भीतर के अनेक लघुतर समुदाय, उनके अनेकस्तरीय पूर्वग्रह, दुरग्रह, विधि-निषेध के संस्कार, मर्यादाएँ जो  हमारे जीने और रहने की मौजूदा परिस्थितियाँ रचते हैं ; स्त्री की हैसियत से जीने के लिये बेशक विकट ! इन परिस्थितियों को ज़रा ‘पोर्न बाज़ार’ की संवेदनाओं से चालित मानसिकताओं वाले समुदायों के बीच से गुजरते होने की कल्पना के साथ देखिये. वे हमारे निजी तात्कालिक परिवेश का हिस्सा चाहे न हों; या कौन जाने शायद हों ही; उसको हर समय काटते, घेरते, सिकोड़ते, फैलाते दायरे दबाव की तरह मौजूद रहते हैं. और इधर “नैतिक” का हमारा ‘’परम्परागत“ बोध जो अपनी परम्परागत बद्धमूलता  की वजह से ही हमें एक अनैतिक और पाखण्डी समाज बनाता है. हमारा समाज  बड़े पैमाने पर एक अवदमित समाज है जिसे कोढ़ में खाज की तरह पोर्न का एक फलता फूलता सर्व-सुलभ अवैध बाजार मिल गया है.  इण्टरनेट के जरिये घर घर में इस बाजार की मौजूदगी के भी आगे बढ़कर मोबाइल के जरिये अब हर जेब तक में हर समय मौजूद. शब्दशः संसद से लेकर स़ड़क तक हर जगह.

यह एक अवैध बाजार है. यानी कि  यह एक अनियंत्रित बाजार है. वस्तु से लेकर शिल्प तक.  भोग और काम  का खुला खेल – बर्बर और हिंसक ! उपभोक्ता हर समय उत्तेजनाग्रस्त, हमला करने को तैयार मिलेगा. एक अदद स्त्री-देह चाहिये. और स्त्री हर जगह असुरक्षित मिलेगी, क्योंकि हमलावर कहीं भी, कोई भी हो सकता है. काम, रति, शृंगार, इरॉटिका, पोर्न या जो भी स्तर या नाम इस बाज़ार का हो, इसी सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश के भीतर ही सक्रिय होता है और उसे अपदस्थ कर स्वयं संस्कृति में बदल जाता है. साहित्यशास्त्र में रति और शृंगार के उद्दीपनों की महिमा बखानी गयी है. साहित्य में चित्रित उद्दीपनों के अलावा शृंगारिक साहित्य स्वयं भी एक उद्दीपन है. सनी लियोनी ने जब पोर्न को एक कला और खुद को एक कलाकार कहा तो शायद उनका इशारा उद्दीपन की रचना की तरफ़ रहा होगा. कामोद्दीपन की कला यदि इरॉटिका है, और कामोद्दीपन का वाणिज्य-व्यवसाय यदि पोर्न है और इस तर्क से यदि इरॉटिका ही पोर्न भी है और पोर्न भी एक कला है तो  इस वीभत्स और भयंकर विडम्बना पर नज़र डालिये. यहाँ, इस उदाहरण में ‘’कला’’ कैसे  जीवन और यथार्थ को तत्काल ‘’प्रभावित’’, कर्म के लिये ‘’प्रेरित’’ और ‘’अनुकूलित’’ करती है. और उस “कर्म” का नतीजा हमला, बलात्कार, हत्या तक कुछ भी हो सकता है.

अनायास ही देखा जा सकता है कि पोर्न जन-जीवन में घुला मिला है. नकटौरा और खोड़िया जैसे उत्सव होते थे. अब भी होते ही होंगे. बेटे के विवाह में बारात जाने के बाद घर की औरतें विवाह की रात को स्वच्छंद भाव से युगल-सम्बन्ध का उत्सव मनाती हैँ. हिन्दीभाषी प्रदेशों में उसे कहीं खोड़िया, कहीं नकटौरा कहा जाता है. मेरी सीमित जानकारी में  कहँरवा यानी कहारों का नाच, धोबी-नाच , थोड़ा अधिक प्रसिद्ध किस्म का जोगीड़ा कामोद्दीपन के उत्सव और मनोरंजन की वैसी अभिव्यक्तियाँ हैँ जिन्हें भदेस और अश्लील के तट पर रखा जा सकता है. लेकिन वैसी हमलावर, हिंसक और बर्बर परिणति देखी सुनी तो नहीं जैसी आज के बाजारू पोर्न के जरिये घर-बाहर, दफ़्तर-सड़क  हर स्त्री की असुरक्षा में दिखाई देती है. ये अपने समाज और सन्दर्भ-जगत के सामूहिक सामुदायिक उत्सव है. सामूहिक संवेदना और साझेदारी का हँसी ठट्ठा, चुटकुलेबाज़ी, छींटाकशी, छेड़खानी समन्वित विनोद और हास-परिहास उत्तेजना को धारण कर लेते हैँ. उस सन्दर्भजगत से बाहर के व्यक्ति को वे कुरुचिपूर्ण, अश्लील और जुगुप्साजनक तो महसूस हो सकते हैँ लेकिन हिंसक और ख़तरनाक शायद ही कभी . जेब के मोबाइल में पोर्न का एकाकी उपभोक्ता जो शायद तरह तरह के कारणों से विस्थापित, अकेला, अजनबी होने को विवश , और निरंकुश होने को स्वतंत्र है या फिर  शायद ऐसी किसी छूट का हकदार भी नहीं; केवल  मर्दानगी के गर्व में उन्मत्त, शायद असह्य तनाव में केवल यौनांग मेँ परिणत हो जाता है और यौनांग हमले के हथियार में. निस्संदेह कामोद्दीपन की कला के स्थूलतम स्तर पर भी पोर्न और इरॉटिका समानार्थी नहीं हो सकते.

चित्रकला में ‘न्यूड’ को एक कलारूप का दर्जा प्राप्त है. मूर्तिकला मे कोणार्क और खजुराहों की मूर्तियों की मैथुन-मुद्राओं को भी इसी कोटि मेँ जोड़ा जा सकता है और भाषिक अभिव्यक्ति में शृंगारिक साहित्य को भी जिसमे बड़े पैमाने पर भक्ति-साहित्य भी शामिल है. सनी लियोनी की “देहलीला“ और “देहगान”  की वकालत के लिये इनका दृष्टान्त अनावश्यक और अप्रासंगिक है, यह मान लेने के बाद दोनो के अन्तर को रेखांकित करने की कोशिश की जा सकती है.नग्नता सामान्यतः कुरूप और असहनीय होती है. नृतत्व बताता है कि मनुष्य ने जननांगों को ढँकने से अपने सांस्कृतिक जीवन की शुरुआत की, जिसका पहला लक्षण ही प्रकृति का संशोधन  और प्राकृतिकता में परिवर्तन है. कुरूपता को ढँकने के अलावा यह प्रयास काम की उद्दाम ऊर्जा को नाथने का भी रहा होगा. ‘न्यूड’ वस्तुतः कलाकार की आँख से देखी गयी नग्नता है. उसी की दृष्टि है जो ‘नेकेड’ को ‘न्यूड’ में; नग्नता को सौन्दर्य मेँ बदलती है. उसमेँ उपस्थित मानव-आकार सामान्यतः मानव शरीर का आदर्शीकरण होता है. रचनाकार की दृष्टि नग्नता या शृंगारिकता के क्षण को उसके लगभग अभिव्यक्ति के परे के सौन्दर्य को देखती और पकड़ने की कोशिश करती है. सौन्दर्य चेतना की कसौटियाँ बहुत गहराई में जाकर निजी होने के अलावा नैतिक भी हुआ करती हैं. जिसे हम सुन्दर कहते हैँ वह कामोद्दीपक हो सकता है परन्तु अनैतिक कभी नहीं.

 नैतिक का मतलब यहाँ निर्दिष्ट और परिभाषित विधि निषेध की जड़ीभूत मर्यादाओं से नहीं, देह और मन की एकान्वित अखण्डता से है जो नैतिक जड़ताओं को चुनौती देती, ‘सुन्दर’ से परिभाषित होती और नयी नैतिकता की रचना का द्वार खलती है. इसके विपरीत पोर्न का उद्देश्य मनुष्य-देह के उत्सव का या ऐन्द्रिय अन्तरंगता के सम्मान का ; अपने श्रोता, दर्शक या पाठक को उदात्त के स्तर तक उठाने में मदद का प्रतीत नहीं होता. पोर्न का ठेठ स्वभाव कल्पना के लिये कुछ भी बाकी न छोड़ते हुए दर्शक को उत्तेजना के हवाले कर देता है. बाज़ार इरॉटिका का भी होता है किन्तु वह बाज़ार से संचालित नहीं होता. पोर्न के लिये केवल बाज़ार है और बाज़ार के अलावा और कुछ भी नहीं, न मनुष्य, न आनन्द, न जीवन ! वही एक अनुभव है. कामोद्दीपन . वही एक कर्म है. लेकिन वह प्रेम की अभिव्यक्ति भी हो सकता है और वही बलात्कार भी. इरॉटिका अपने सौन्दर्य को जीवित अनुभव में खोजने की प्रेरणा देकर प्रेम की अभिव्यक्ति बनता है, पोर्न बलात्कार की हिंसा और बर्बरता की उत्तेजना देता है. वह देह का, प्रेम का, स्वयं काम का भी अपमान और जीवन का क्षय है.
अगले क़िस्त में जारी…
(सन)सनी लियोनी के बहाने एकाध नुक्ते की बातें -१ शीर्षक से कथादेश के अगस्त में प्रकाशित/ साभार

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ISSN 2394-093X
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