जाघों से परे ‘पार्च्ड’ की कहानी: योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित

संजीव चन्दन 


रिहाई के 3 दशक बाद


8 वें दशक में अरूणा राजे की फिल्म थी रिहाई. यह फिल्म प्रवासी मजदूरों के गांव में पीछे छूट गयी पत्नियों की कहानी है. प्रवासी मजदूर घर की आर्थिक रीढ़ हैं, उनके भेजे पैसों से घर चलता है. घर और पत्नी से दूर रहते हुए वे अपनी यौन जरूरतों की पूर्ती के लिए कोठों पर जाते हैं. इस बीच लगभग महिलाओं और पीछे छूट गये बच्चों और बूढ़ों के गांव में नासिरूद्दीन शाह के रूप में एक युवक आता है, जो एक- एक कर सभी महिलाओं, छूट गई पत्नियों को शिड्यूस करता है, सहमति से या थोड़ी जबरदस्ती कर, वह सब के साथ संबंध बना पाने  में सफल होता है. फिल्म का अंत प्रदेश से वापस आये पति (विनोद खन्ना) और विवाहेत्तर यौन संबंध बना चुकी पत्नी ( हेमामालिनी) के बीच ‘स्त्रीअधिकार’ संबंधी बहस के साथ होता है और साथ ही पति के मान जाने के साथ भी. पूरी फिल्म एक बाहरी, शहरी और कुलीन दृष्टि से बनी फिल्म है. कथानक और दृश्य संयोजन की दृष्टि से भी- ग्रामीण महिलाओं के यौन संबंधों पर कुलीन कल्पना की चरम उपस्थिति है एक महिला के साथ मिट्टी के गड्ढे में सेक्स, जहां वह मिट्टी काटने जाती है. रिहाई के पात्रों का सामाजिक परिवेश भी स्पष्ट है. प्रवासी पति लकड़ी का काम करते हैं- कारीगरी और मजदूरी, पत्नियां गांव में श्रमकार्य करती हैं- इस परिवेश के साथ जाति लोकेशन भी प्राय: स्पष्ट है.

उसके लगभग तीन दशक बाद फिल्म बनी है लीना यादव के निर्देशन में ‘ पार्च्ड’. कहानी का परिवेश ग्रामीण और पात्रों का सामाजिक लोकेशन प्रायः वही, जो रिहाई का है. इस फिल्म की नायिकायें, उनका पति, परिवार और कुनबा गांव में ही रहता है- गुजरात के एक गांव में. घर की आर्थिक गतिविधियां संचालित करती हैं स्त्रियां- एक गैरसरकारी संगठन के लिए सिलाइ, बुनाई,एम्ब्रायडरी का काम करके. मर्द, पति- पुत्र आदि, आर्थिक रूप से महिलाओं पर निर्भर हैं. यह फिल्म उनकी यौनिकता को सहज ढंग से अपने कथानक के केंन्द्र में रखती है-  थोड़ी- बहुत काल्पनिक विसंगतियों के बावजूद इस फिल्म को रिहाई से अलग ‘बाहरी दृष्टि’ से मुक्त कहा जा सकता है, यही फिल्म की खासियत है और सार्थकता भी. अभी विस्तार से इसे समझने के पहले, जरा इसपर भी गौर करते हैं कि यह फिल्म अभी लगभग साथ में बनी फिल्म ‘पिंक’ से अलग और स्त्री की दृष्टि से बेहतर क्यों है?

पिंक से बेहतर क्यों 

पार्च्ड की महिलायें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, अपने निर्णय खुद लेती हैं और बेटे के इस ललकार को कि ‘देखते हैं बिना मर्द के यह घर कैसे चलता है’  उपेक्षा और आत्मविश्वास से उड़ा देती हैं. जबकि पिंक की नायिकाओं को अपनी एजेंसी नायक के महानायकत्व की पुष्टि के लिए गंवा देनी पड़ती है. पिंक में स्त्री की पक्षधरता के लिए पुरूष का ‘संरक्षक’ अवतार उन्हें अपने पितृसत्ताक डैने में समेट लेता है -उत्पीड़क भी हम, संरक्षक भी हम- पिता रक्षति कौमार्ये, भर्ता रक्षति यौवने.रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा:, न स्त्री स्वातंत्र्यमहर्ति.

योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित

पार्च्ड की कहानी सेक्स को धूरी में रखकर घूमती है- स्त्री की यौनिकता के इर्द-गिर्द. शुरू के दृश्यों से ही स्त्रियों के आपसी अंतरंग बातचीत, हंसी- मजाक के परिवेश उपस्थित होते हैं, जिसमें उम्र की सीमायें टूटकर परस्पर साख्य बनता दिखता है. चारो स्त्रियों के जीवन की कहानी उनकी यौनिकता की धूरी से संचालित होती है. सबसे छोटी लड़की ‘जानकी’ जब अपने प्रेम और पढ़ाई को छोड़कर विवाह करके ससुराल में बसने के लिए विवश की जाती है, तो उसका सामना एक ऐसे पति से होता है, जो अपनी ‘मर्दानगी’ की जांच के लिए एक बार ‘यौनकर्मी’ के पास जाता है, तो जाता ही रहता है- विवाह के बाद भी. उसके लिए जानकी का मतलब है- उसकी ‘मर्दानगी’ की परीक्षा का एक और टारगेट- जिसे वह पहली रात में क्षत- विक्षत करता है- भावना और शरीर, दोनो ही स्तरों पर.


दूसरी स्त्री है, जानकी की सास ‘रानी’.अपनी उम्र के चौथे दशक में पहुंची रानी के पास मोबाइल है, जिसपर कोई पुरूष आवाज उसे निरंतर फोन करता है, प्रेम निवेदन करता है. विधवा जानकी पहले तो इस आवाज के प्रति उत्सुक होती है, फिर खिझती है- कोई किशोर समझकर डपटती है और फिर हमउम्र आशिक जानकर उसका निवेदन स्वीकार कर लेती है. रानी अपने विधवा होने के अहसास के साथ अपनी यौन- इच्छाओं के प्रति दोहरे भाव में है. पति, जो अब नहीं है, शराब- हिंसा और सेक्स को एक साथ उसपर इस्तेमाल करते हुए उसकी यौनिकता को कुचल चुका है- जो नियमित तौर पर बाजार की स्त्रियों के पास भी जाता है- रानी अपने बेटे को भी अपने बाप के रास्ते पर जाते देखती है. रानी की यौनिकता का एक और पहलू है, अपनी सहेली ‘लाजो’ के प्रति ‘ साख्य’. पति से प्रताड़ित होकर आई अपनी सखी लाजो के अर्धनग्न शरीर पर मलहम लगाते हुए संकोच के साथ ही सही वह लाजो को अपना ब्लाउज भी उतारने देती है.

तीसरी स्त्री है ‘ लाजो’. लाजो रानी की सहेली है. उसकी कोई संतान नहीं है और जैसा कि इस देश की अधिकांश समझ है , बच्चा नहीं होने के लिए स्त्री ही दोषी होती है- लाजो भी ऐसा ही समझती है. उसका पति भी हिंसक, शराबी है और उसे ‘बांझ’ होने का अहसास देता रहता है. रानी से उसकी दोस्ती प्रागाढ़ है- पति से पीट कर और शरीर पर जख्म लिये जब वह रानी के पास आती है तभी रानी उसके अर्धनग्न शरीर पर कोई लेप करती है, उसके ब्लाउज उतारकर तो वह रानी के ब्लाउज भी उतार देती है- यह उनकी दोस्ती का ऐंद्रिक स्वरूप है. जब उसे यह पता चलता है कि बच्चा न होने के लिए सिर्फ स्त्री ही कारण नहीं होती है,बल्कि पुरूष भी कारण हो सकता है, तो वह पहले तो आश्चर्य से भर जाती है, लेकिन यही जानकारी उसे किसी और पुरूष के पास जाने के लिए प्रेरित करती है, ताकि वह उसके सहवास से एक संतान पा सके.संतान पाने की उसकी कामना इसलिए नहीं है कि वह अपने पति या समाज को बता सके कि वह बांझ नहीं है, या इसलिए भी नहीं कि वह अपने पति का वंश चलाने के लिए प्रतिबद्ध है. बल्कि संतान की कामना उसकी अपनी है- अपने मातृत्व के लिए.

रिहाई का एक दृश्य

वह उस समय और भी अचंभित रह जाती है, जब संतान के लिए किसी तांत्रिकनुमा रहस्यमय पुरूष/प्रेमी के पास एक गुफा में पहुचती है और सहवास के लिए आदतन लेट कर अपने कपड़े पांवों से ऊपर उठाती है, तो पुरूष उसके पैरों पर अपना सिर रख देता है, इस अचंभे के साथ उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं- सम्मान के प्रत्युत्तर में और अपने अस्तित्व के अहसास के साथ. पुरूष आद्यांत चूमता है, प्यार करता है, और कुछ मिनटों के इंटेस ऐंद्रिक दृश्य में वह भी सक्रिय होती है- यौन संबंध में अपनी रूटीन पैसिव भूमिका से बाहर निकलकर. उसे आश्चर्य,दुःख और क्षोभ तब भी होता है, जब वह अपने पति से अपने गर्भवती होने की सूचना देती है- पति उस संतान को अपना नहीं मानता, वह सवाल करती है कि ,’यह गर्भ तुम्हारा क्यों नहीं हो सकता!’ दरअसल उसके पति को यह पता है कि संतान न होने का कारण वह स्वयं है, लेकिन अबतक वह लाजो को इसके ग्लानिर्भाव से भरता रहा था. और अंतत: लाजो का पति अपनी ही क्रूरता की मौत मरता है.

बिजली  गांव में ही नृत्य-नौटंकी कंपनी में काम करती है. वह पहले रानी और फिर लाजो की भी मित्र बन जाती है- धीरे- धीरे इन सबकी नेता भी, सबको अपनी कुंठाओं से बाहर निकालने का मार्ग दिखाती हुई, खुद के लिए भी तय करती हुई. कंपनी में काम करते हुए उसका एक और पेशा वेश्यावृत्ति ( यौनकर्म नहीं) भी है. प्रतिदिन- रात अलग-अलग पुरूषों के साथ उसे जाता हुआ देखने वाला उसका प्रेमी उसे हमेशा महत्वपूर्ण महसूस कराता है. वह अपने अस्तित्व के प्रति विश्वास के भाव से भरे जाती है, जब उसका वही प्रेमी उसकी आंखों की प्रशंसा करता है- पहली बार उसकी देह पर टिकी निगाहों से अलग यह निगाह उसे आह्लादित कर देती है, लेकिन जल्द ही वह ख्वाब से यथार्थ में वापस धकेल दी जाती है, जब उसका प्रेमी उसकी देह के आर्थिक दोहन की भावी योजना उसके सामने रखता है. इस बीच कंपनी में नई लड़की के आने और ग्राहकों के उसपर लट्टू  होने से वह व्यथित है- व्यथा, कुंठा और आक्रोश में ही एक गलत ग्राहक के चुनाव के बाद वह अप्राकृतिक यौन संबंध और सामूहिक बलात्कार का शिकार होती है- इस पीड़ा और अपमान के क्षण में ही उसे अपने प्रेमी का ताना सुनाई पड़ता है- दृश्य में उसका चेहरा नहीं दिखता, वह चेहरा विहीन एक पुरूष मात्र हो जाता है.



बहनचो…. नहीं, भाई चो…..गालियों का उलटा संसार बनाम स्त्री का प्रतिकार….

इन चार स्त्रियों की कहानी, पीड़ा की कहानी, संघर्ष और प्रतिकार की कहानी इनकी यौनिकता के इर्द- गिर्द ही आकार लेती है- क्योंकि आर्थिक रूप से बहुत हद तक स्वतंत्र इन स्त्रियों की पीड़ा और उनके दोयम होने के अहसास देते मर्दवादी वर्चस्व के मूल में इनकी यौनिकता है- लेकिन इनकी दुनिया इससे आगे भी है- इनके यौन- अंगो, इनकी यौन- आकांक्षाओं से आगे, जिसे वे हासिल कर लेना चाहती हैं. लेकिन यह समाज, उसका दैनंदिन, उसकी भाषा उन्हें खीच- खीचकर उन्हें उनके ही यौन अंगों में सिमटा देना चाहता है, उनके अपने ही अंगों से उन्हें डरा देना चाहता है. फिल्म के एक दृश्य में बिजली के नेतृत्व में पार्च्ड की चार नायिकायें न सिर्फ गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठकर आजादी के सारे पर निकलती हैं, बल्कि आजादी की आवो- हवा में सांस लेते हुए इस समाज के द्वारा अपने लिए तय दायरे और अपने के खिलाफ उसके भाषाई आतंक का प्रतिकार करती है- स्त्रियों को केंद्र में रखकर बनी गालियों को उलट कर गालियां रचती हैं, मर्दों को केंद्रित गालियां.

साख्य का साहस: सास- बहु का याराना 

हवाखोरी के इस सैर का सबसे बड़ा हासिल है, दो पीढ़ियों का आपसी साख्य- सास- बहु का याराना. रानी अपनी बहु जानकी को अपने बेटे के लिए चुन कर लाई है. उससे प्यार करती है, और परंपरा निभाती हुई उसपर शासन भी. वह चाहती है जानकी उसके बेटे को संभाल ले इसलिए उसपर खीझती भी है, लेकिन बेटे और अपने मृत पति का साम्य देखते हुए उसके प्रति सहज संबंध भी महसूस करती है. हवाखोरी के लिए निकलते हुए जब जानकी भी उसके साथ ले आयी जाती है, तो सहजता और भी स्पष्ट होती है- जिसका अंतिम प्राकट्य है अपनी बहु के साथ उसका खड़ा होना, बेटे के घर छोड़ने और उसकी धमकी के दौरान जानकी का ढाल बन जाना और अंतत: अपनी बहु का उसके प्रेमी से विवाह करा देना, इस हिदायत के साथ कि इसे पढ़ाना जरूर .



‘ हां, कहने के साहस से ही ना कहने की ताकत आती है:

फिल्म की तीनो नायिकायें अपनी उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं, जहां उन्हें उनके रिटायर होने, एक उम्र जी लेने का अहसास घेर लेता है उन्हें- उम्र के चौथे दशक के आस- पास. इस उम्र की शहरी मध्यवर्गीय महिलायें अपनी जिंदगी दी लेना चाहती हैं, हाल ही में इस वर्ग से रचना कर्मियों ने चालिस की औरतों पर कवितायें लिखकर इस उम्र का उत्सव मनाया, लेकिन यह सुविधा इन नायिकाओं को नहीं है. बिजली को उसके स्टेज और उसके व्यवसास से उसका रिटायरमेंट उसे साल रहा है, तो रानी अपने अकेलेपन और अपनी उम्र से आक्रांत है. उसकी आक्रांतता फोन पर उससे आशिकी का इजहार कर रहे गुमनाम आशिक पर प्रकट होता है, जब बिना उसे देखे- जाने उसे लगता है कि वह कहीं चालीस पार और छेड़ने वाला कहां 16- 17 का लड़का- वह उस पर खीझती है, इसके बावजूद कि वह चाहती है कि कोई उसे प्यार करे. आगे चलकर अपने आशिक को वह हां कहने का साहस कर पाती है. और यही हां कहने  का साहस पैदा कर लाजो जान पाती है कि वह भी मां बन सकती है. हां कहने के साहस के बाद ही फिल्म की नायिकायें पूरे मर्दवादी समाज को समवेत ना कहने का साहस कर पाती हैं- यह ना कहने का सबसे बड़ा साहस है, जो पिंक के नारेनुमा ना से बड़ा है- संरक्षकत्व में ना कहने से ज्यादा बड़ा – फिल्म का सबसे बड़ा कथन है -‘ मर्द नहीं इंसान बनना सीख.’ मर्द के आदमी न बनने तक यह समवेत ना ज्यादा पावरफुल है- पार्च्ड का वह ‘ ना’ भी ज्यादा असरकारी है पिंक की कचहरी में ना के ड्रामे से ज्यादा, जब बिजली अपनी आंखों के रास्ते दिल में उतरने वाले प्रेमी का असली मकसद जानती है और ना कहती है.

पार्च्ड एक फिल्म के रूप में, एक टेक्सट के रूप में अपने चरित्रों के बेहद करीब है. आर्थिक रूप से आंशिक तौर पर स्वतंत्र ग्रामीण महिलाओं के यथार्थ पर अपना बाहरी नजरिया नहीं हावी होने देती, जैसा कि रिहाई के मामले में अपनी सदिच्छाओं के बावजूद यह संभव नहीं हो पाया था- यह फिल्मकारों की दृष्टि और विषय से ट्रीटमेंट का भी अंतर है. फिल्म में स्पष्टत: तो सामाजिक लोकेशन का जिक्र नहीं है- लेकिन परिवेश नायिकाओं के लोकेशन का संकेत जरूर दे रहा है. इस सामाजिक लोकेशन की स्त्रियों पर बात होना अभी शेष है- इस लोकेशन की महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थितियों पर शोध अभी शेष है.

पार्च्ड की कहानी उसी समाज के एक बड़े हिस्से का यथार्थ है, जहां ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र होना रंगों से भी तय होता है- जहां इसी फिल्म में रानी की सशक्त भूमिका निभा चुकी तनिष्ठा चटर्जी से उसके काले रंग पर तंज किया जाता है और उसकी जाति और उसके कलर का कांबिनेशन का विमर्श किया जाता है!

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ISSN 2394-093X
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