फेसबुक की खिड़की से झांकती ललनायें/असूर्यमपश्यायें

निवेदिता

पेशे से पत्रकार. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय .एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’. भी दर्ज कराई है. सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com

सोशल मीडिया ने एक स्पेस दिया है, पब्लिक स्फीअर का एक प्लेटफ़ॉर्म बनाया है, जहां वंचितों ने अपनी दावेदारी ठोक दी है, किसी निर्णायक, संपादक या पितृसत्ताक या ब्राहमणवादी-सामन्तवादी लठैत की दखल को धत्ता जताते हुए. एक वातायन है सोशल मीडिया, फेसबुक उस वातायान के एक रूप, जिसने स्त्रियों को अभिव्यक्ति की आजादी है, पारम्परिक संस्थाओं और मूल्यों की चूलें हिलने लगी हैं. सबलोग के दिसंबर अंक में  स्त्रीकाल कालम के लिए इसी नई फिजां पर कवयित्री, पत्रकार और स्त्रीकाल के संपादन मंडल की सदस्य निवेदिता का लेख. 

अभिव्यक्ति विद्रोह का पहला क्षण हैं . यह बात सबसे ज्यादा इस दौर में समझ में आती है . यह नया दौर जनसंचार का दौर है. जिसने दुनिया को एक सिरे में बांध दिया. हमारे बीच आभासी दुनिया का ऐसा विस्तार हुआ कि समाज की नींव दरकने लगी. फेसबुक एक चारागाह बना जिसने दुनिया के तमाम नस्लों को चरने के लिए जमीन दी. यहां तक तो सब ठीक था पर जैसे ही इस जमीन पर स्त्री ने चरना शुरु किया पृथ्वी हिल गयी. ये एक ऐसा विस्फोट था जिसने समाजिक,पारवारिक ताना-बाना तहस नहस कर दिया. पुरुषों की बनायी दुनिया बिखरने लगी. फेसबुक ईजाद करने वाले मार्क जुकर बर्ग   को भी पता नहीं था कि उनके इस अविष्कार से दुनिया की छवि बदल जायेगी. इस आभासी दुनिया ने हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लिया पर जो उसने दिया वह स्त्री की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बना. उसके लिए निर्धारित आदर्श वाक्य है-‘मैं चुप रहूंगी‘ क्योंकि ज्ञान पर पुरुषों का अधिकार था. वह उसका रचयिता था. ज्ञान कौन रच रहा है और कब वह रचा जा रहा है,इस से ज्ञान का स्वरुप तय होता है. यह बात अब स्त्रियों को समझ में आ रही है. वे जान रही हैं कि कैसे वर्चस्वकारी समूह असमान और अन्यायी सामाजिक संबंध बनाते हैं और उसे बरकरार रखते हैं.

ऐसा नहीं है कि इस माध्यम ने स्त्री को मुक्त कर दिया. या ये माध्यम स्त्री के प्रति ज्यादा संवेदनशील है. जन संचार का सबसे ज्यादा उपयोग स्त्री को बस्तु में बदलने के लिए किया जा रहा है. पर यह इस माध्यम की मजबूरी है कि वह नहीं चाहते हुए भी अभिव्यक्ती की आजादी देता है. उसकी पहुंच घरों की चारदीवारी के भीतर भी है और बाजार में भी है. ऐसा नहीं है कि फेसबुक आने के पहले स्त्री रच नहीं रही थी. लोहा नहीं ले रही थी. समाज से लड़-भिड़ नहीं रही थी. पर इस माध्यम ने उसे व्यक्तिगत आजादी का स्वाद चखाया. वह खुद को खोल रही है, प्रेम गली में विचर रही है, वह लड़ रही है, भिड़ रही है. वह कविता लिखती है,कहांनियां कहती है, मजे लेती है और पोल खोलती है. सारे गोपन कक्ष धाराशायी हो रहे हैं. जब वह फेसबुक वाॅल पर अपनी माहवारी के बारे में लिखती है. जब वह कहती हंै कि  अपने लिए सेनेटरी नैपकीन खरीदने गयी तो दुकानदार उसे काले पोलीथीन में लपेट कर दे रहा था. उसने कहा कि इसे लपेटे नहीं. और वह सेनेटरी नैपकीन को बिना रैप किये सड़क पर निकल गयी. जब वह यह बयां कर रही है तो समाज के बनाये नियमों के विरुद्ध खड़ी होने का साहस कर रही है. वह अपने वाल पर प्रेम का इजहार कर रही है या प्रेम के गोपन कक्षों का भेद खोल रही है. जिस पुरुष समाज ने उसे देह के आगे जाना नहीं, जिसने कभी पुछा नहीं की स्त्री क्या चाहती है .  जिसने ये कहा कि स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग देवता भी नहीं जानते, उसी स्त्री ने पूरी परिभाषा बदल दी. अब खुलकर  उसने कहना शुरु किया कि पुरुष का चरित्र और स्त्री का भाग वह जानती है. अब पुरुष उसके लिए ज्ञान का केन्द्रीय विषय नहीं रहा. वह बाकी संसार को भी जानना चाहती है, और फेसबुक को अपनी ताकत की अजमाईश का मैदान बनाना चाहती है. अपने वाल पर उसके द्वारा लगाये गये सामग्री पर कितने लाईक किये गये वह भी उसकी अपनी मजबूत उपस्थिती का एक स्त्रोत है.


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सामान्य स्त्री के संसार की खबर ये है कि उसमें स्वाधीनता के लिए तड़प है और वह परंपरा के घेरे से बाहर निकलना चाहती है. फेसबुक ने उसके निजी घेरे को तोड दिया. निजी और वैयक्तिगत के भीतर सामाजिक और सार्वजनिक समाया हुआ है. इसलिए स्त्री विर्मश में आत्मवृतों की खास जगह है.-पर्सनल इज पोलिटिकल.  स्त्री अपने जीवन का पाठ स्वंय रच रही है. एक दूसरे की कहानी में इज्जत यानी घर की बात . गोपन की जंजीरो में  स्त्री को बांध रखने के खिलाफ ये विद्रोह है दूसरी तरफ अनुभव की साझेदारी जो दुनिया की स्त्री समुदाय को जोडकर विराट राजनीतिक पक्ष का निर्माण भी कर रही है. जब वह कहती है राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़े. जब वह बाजार के बनाये नियम के विरुद्ध लिखती है. जो बाजार उसे सौर्दय मिथक में बदलना चाहता है और उसकी त्वचा को नर्म,मुलायम और गोरा बनाने की ग्रंथी भरता है तो उसके विरुद्ध वह लिखती है कि अगर काली रात खूबसूरत है तो काली त्वचा क्यों नहीं. दरअसल  पृत सत्ता ने स्त्री के देह का उपयोग किया और और उसी देह को अपवित्र कहा. यह सत्ता तय करती रही खूबसूरत और बदसूरत स्त्री का पैमाना. यह सत्ता यह भी चाहती है कि स्त्री की देह पर उसका अधिकार रहे और वह देह के बाहर खुद को नहीं देखे.



90 के दशक की मशहूर माॅडल लीजा रे ने अचानक तय किया कि वह अपनी सेक्सी छवि को बदल कर दिमाग वाली स्त्री के रुप में खुद को स्थापित करेंगी तो उसके खिलाफ हमले तेज हो गए. यहां तक कहा गया कि ‘बिल्लयां कितना भी गुर्राएं वे अपनी त्वचा का डिजाईन नहीं बदल सकतीं. दरअसल बाजार यही चाहता है कि औरत अपने सौन्दर्य से अभिभूत रहे. तभी वह अपने प्रोडक्ट बेच पायेगा.  कोई सामान खरीदते ही सुदंर स्त्री चुबंन करते हुए या संभोग के लिए तैयार दिखती है. इस मर्दवादी सोच के खिलाफ सड़कों पर जो संघर्ष चल रहा है उसका असर फेसबुक पर भी है. महिलाएं इस माध्यम का इस्तेमाल अपने हक के लिए भी कर रही हैं. पुरुषों की देहगं्रथी के खिलाफ लिखती हैं, उन कामातुर आंखों के खिलाफ जिसकी नजर उसकी देह से आगे नहीं जाती. संचार माध्यमों पर स्त्री की छवि का मतलब है स्त्री की देह का वैभव,उसके रहस्य, उसके गोपन, उसकी लज्जाएं. ये छवि स्त्री को भी असहज बनाये रखते हैं. पर फेसबुक पर आयी लड़कियां अपनी ही देह पर खुल कर लिख रही हैं. अपने शरीर को लेकर वह सदियों से इतनी सहज कभी नहीं रही  जितनी इस सदी में है. केयर फ्री , विस्पर,माला डी, कोहीनूर के माध्यम से अपने मासिक धर्म , उन्मत रति भाव जैसे विषय फेसबुक पर गंभीरता से कर रहीं है. सदियों के बाद एक भरपूर खुली सांस ले पाने में समर्थ दिख रही  हैं. परंरागत समाज की नींव अगर स्त्री की शर्म पर टिकी है तो बेशक वो हिल उठी है . अब वह मानती है यौन शुचिता, पतिवत्रा,सतीत्व जैसे मूल्य स्त्री के सम्मान का नहीं पुरुष की अंहकार, दीनता,और असुरक्षा का पैमाना है. ऐसा नहीं है कि यह सब उसे आसानी से मिला है. उसने अपनी बेड़ियों की कीमत चुकाई है. इस माध्यम ने भी स्त्री को उसके जद में रहने के लिए लगातार घेराबंदी की है. उसे धर्म, जाति और यौन शुचिता के नाम पर घेरने की कोशिश करती रहती है. मेरे अनुभव यही कहते हैं जब कोई स्त्री धर्म , जाति, कट्टरता और लैंगिक सवाल उठाती है तो उसे तरह तरह से अपमानित किया जाता है. पुरुषों की शब्दावली में जितनी मादा गालियां है वह दी जाती है.


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फेसबुक पर दोस्त बनने वाले अधिकांश दोस्तों को मेरा नाम आकर्षित करता है. कई बार धार्मिक कट्टरता के विरु़द्ध खड़े होने पर मुझे मुसलमान करार दिया जाता है. यह हमला दोनों तरफ से होता है. दुनिया का कोई धर्म नहीं है जहां स्त्री का दोयम दर्जा नहीं है.  ये सवाल उन तमाम लोगों को चुभता है जो स्त्री को उसके खोल से बाहर नहीं आने देना चाहते. पृतसत्ता किसी को आसानी से अपने चंगुल से छूट निकलने की इजाजत नहीं देती. यह माध्यम पुरुषों को डरा रहा है. उनके घर दरक रहे हैं. एकनिष्ठ पत्नि, प्रेमिका की परिभाषा बदल रही है. स्त्री के पास अब चुनने की आजादी है. प्रेम करने की आजादी ले ली है उसने. उसके पास संगीतकार है, कवि है,उघोगपति है और दोस्त हैं. हालाकी उसकी ये आजादी जोखिम से भरी है. फेसबुक पर मर्द दाना डाले बैठे रहते हैं कि अब फंसी की तब फंसी. पर स्त्री ने जान लिया है कि इन शिकारियों से कैसे निपटा जाय. वे दाना चुग लेती हैं और फंदे से बाहर निकल आती हैं. पर कुछ पेशेवर शिकारी घात लगाए बैठे रहते हैं. ये नया माध्यम है जिसने स्त्री को आजादी दी है पर अभी अपनी आजादी का पूरा जश्न नहीं मना पा रही है. वह जानती है स्वाधीनता का चुनाव आसान नहीं है. वह खुद भी ड़रती है. स्वाधीनता का मतलब है ख्ुाद अपने फैसले ले सकना. कम से कम फेसबुक ने यह स्पेस दिया है जहां वह अपने को खोल सकती है. लिख सकती है. अपनी राय दे सकती है.

 ये सही है कि फेसबुक पर बहुत कुछ कचरा और कुड़ा रहता है. फेसबुक ने लोगों के पढ़ने-लिखने का समय ले लिया है . आभासी दुनिया का नशा भी है जिस नशे में आप अपनी असली दुनिया भूले रहते हैं. लेकिन ये दुनिया आपको नया रंग -रुप और स्वाद देती है. मुझे लगता है कि मैंने बहुत कुछ नया जाना, समझा और कुछ नये लोग जो मेरे जीवन में आये उसका श्रेय फेसबुक को है. जिसमें कुछ अच्छे दोसत भी बने. मैं अपने मित्रों और परिजनों से कहती हूं कि इस नये माध्यम से भागो नहीं और रोको नहीं. यह माध्यम हमारे लिए नया आकाश है जहां मेघ भी हैं और चमकीले तारे भी . जहां उजाला भी है और गहरा अंधेरा भी. यहां मवाद और पीप से भरे घांव है तो तारों के उझास में आप अपने प्रिय अफसानानिगार और कवि को पढ़ सकते हैं . हमने मंटों समेत कई लिखने वालों को यहां पढ़ा और कई लिखने वालों से दोस्ती की. मुझे हैरानी हुई कि हमने फेसबुक पर मंटों के बारे में जितना पढ़ा और जितने अलग तरह के अफसाने पढ़े शायद उनसब को सिर्फ किताबों में पढ़ना मुमकिन नहीं होता. उनको पढ़ते हुए लिखा भी.

प्रेम से लबालब भरी कविताएं लिखी. फेसबुक ने कविता लिखने के लिए सबसे ज्यादा उकसाया. फेसबुक पर मिली तारीफ आपको हौसला देते हैं कि आप लिख सकते हैं. हमने लिखा-
स्त्रियाँ करेंगी प्रेम  .बार
मत बताना सखी
भीतर.भीतर बहने की कला
मत बताना कि
हम प्रेम से लबालब भरी हैं
और आता है हमें अंधेरो से लड़ना
उन लम्हों का जिक्र मत करना
जो चाँद रातों में
हमारे भीतर उतरता रहा
सृष्टी के अनंत छोर तक फैलते हुए
प्रेम करती रहना
प्रेम
जिन्दगी के लिए
उनके लिए जिनका हिर्दय सूख गया है
प्रेम जो बचाता है देश कोए
लोगों को
प्रेम जो तानाशाह को देता है चुनौति
प्रेम अगर पाप है तो कहना
स्त्रियाँ
करेंगी ये पाप
बार बार

करेंगी प्रेम बार. बार

अगर आप गौर करें तो पता चलेगा कि क्या कुछ लिखा जा रहा है. कौन लिख रही हैं. किस वर्ग और किस समुदाय की महिलाएं हैं. मैंने पाया कि घरेलू महिलाएं , कामगार महिलाएं , काॅलेज,स्कूल जाती लड़कियों के अलावा  स्त्रियों का एक बड़ा समुदाय अपनी बात फेसबुक पर लिख रहीं हैं. मैं मनिषा झा की चर्चा करना चाहुगीं . मनिषा के लेखन को फेसबुक पर इतना पंसंद किया गया कि अब उसकी किताब आ रही है. व्यंगय लिखना सबसे मुशिकल विधा है. उसने सुबोध भैया नाम का चरित्र गढ़ा और उसके हवाले से देश, दुनिया पर टिप्पणी  करने लगी. सुबोध भैया कहते हैं कि इश्क़ करो या सिगरेट पियो सुलगती दोनों में हैं ए लगती दोनों में है.  फिर इश्क़ में डिस्क्लेमर क्यूँ नहीं . इश्क़ करना हानिकारक है . सुबोध भैया ने ऐसे आशिक़ों के लिये नर्क में अलग से डालडा का कढ़ाई लगवाए हैं .

मनिषा की तरह कई लड़कियां लिख रही हैं. पाखी जैसी साहित्यक पत्रिका ने भी कुछ दिन पहले 40 पार की औरतों पर लिखते हुए कहा था कि फेसबुक के माध्यम से ये औरतें सुरक्षित दायरें में इश्क कर रही हैं. इस पर खूब बहस हुई थी. मैंने उनके आलेख पर टिप्प्णी की थी यहां पर उसके कुछ अंश दे रही हूं. ‘‘मैं नहीं जानती की जिन 40 पार की स्त्रियों का जिक्र संपादकीय में किया गया है वे किस दुनिया की स्त्री हैं? जहां प्रेम भी प्रेम जैसा नहीं है. टाइम पास है. सिनेमा का मध्यांतर है. जहां मौज मस्ती के साथ पाॅपकार्न खा लेने भर का ही वक्त है.  प्रेम भारद्वाज की यह स्त्री छलना है, परपुरुष गामीनी है. अपने घर के दायरे को सुरक्षित रखकर प्रेम करती है, मजा लेती है. यह वह स्त्री नहीं है जो प्रेम के लिए मर जाती है या मार दी जाती है. जिसने घरती पर पांव जमाने के लिए खुरदरी जमीन पर अपनी मेहनत से फसल उगायी है. जिसने अपने हिस्से के आसमान के लिए खून से भरे,शोक के फर्श पर सदियां बितायी है. ये कौन स्त्री है? किस वर्ग की? किस दुनिया की जिसे अपने गोपन कक्ष में प्रेम करने की आजादी है. जहां वह प्रेमी के साथ जीती है,पति के साथ सोती है? और यह बेचारा पुरुष कितना मासूम, प्रेम में मरने वाला, जान देने वाला है. राम सजीवन जैसा पुरुष किस दुनिया में रहता है ? काश कि किसी स्त्री के जीवन में इतने संवेदनशील मर्द होते!  सब्जेक्शन आॅफ विमेन में जाॅन स्टुअर्ट मिल कहते हैं-‘पुरुष अपनी स्त्रियों  को एक बाध्य गुलाम की तरह नहीं बल्कि एक इच्छुक गुलाम की तरह रखना चाहते हैं,सिर्फ गुलाम नहीं, बल्कि पंसदीदा गुलाम. इसलिए उनके मस्तिष्क को बंदी बनाए रखने के लिए उन्होंने सारे संभव रास्ते अपनाए हैं.’

हर नैतिकता स्त्री से यही कहती फिरती है कि स्त्री को दूसरों के लिए जीना चाहिए. सच तो यह है पराजित नस्लों और गुलामों से भी ज्यादा सख्ती और कु्ररता से स्त्री को दबाया गया. यह हम नहीं कह रहे हैं यह स्त्री का इतिहास बताता है. क्या कोई भी गुलाम इतने लंबे समय के लिए गुलाम रहा है जितनी की स्त्री? क्या यह स्थापित करने की कोशिश नहीं है कि अच्छे पुरुष की निरंकुश सत्ता में चारों तरफ भलाई,सुख और प्रेम के झरने बह रहे हैं. जिसकी आड़ में  वह हर स्त्री के साथ मनमाना व्यवहार कर सकता है. उसकी हत्या तक कर सकता है और थोड़ी होशियारी बरत कर वह हत्या कर के भी कानून से बचा रह सकता है. वह अपनी सारी दबी हुई कुंठा अपनी पत्नी पर निकाल सकता है. जो अपनी असहाय स्थिति के कारण न पलट कर जबाव दे सकती है, न उससे बचकर जा सकती है. अगर यकीन न हो तो हर रोज मारी जा रही स्त्रियों के आंकड़े को उठा कर देख लें.

 40 के पार की औरतोें अगर प्रेम में इतनी ही पकी होतीं तो हर रोज रस्सी के फंदे से झूलती खबरें अखबारों के पन्ने पर नजर नहीं आती. सच तो यह है कि उसकी पूरी जिन्दगी अपने घर को बचाने में चली जाती है. घर उसके जीने का केन्द्र है. उसके हंसने, बोलने, रोने का. इसलिए उसने घर को अपना फैलाव माना. उसे सींचा. पर इसके पेड़ का फल पुरुषों ने ही खाया. उसे राम सजीवन जैसा न कभी प्रेमी मिलता है न एकनिष्ठ पति. फिर भी वह अनैतिक है. पुरुष को नैतिक और  स्त्री को अनैतिक बनाने की मानसिकता के पीछे यह बताना है कि पुरुष नैतिक रुप से श्रेष्ठ है. नैतिकता और अनैतिकता को लेकर हमेशा से अतंर्विरोध रहा है. जिसका नायाब उदाहरण है टाॅलस्टाय का उपन्यास अन्ना कैरेनिना. अनैतिक अन्ना विश्व उपन्यास की सबसे यादगार चरित्रों में से है.  टाॅलस्टाय के नैतिकता संबंधी विचारों को उसकी कला ध्वस्त कर देती है. जिस समाज में प्रेम अपराध है उस समाज में स्त्री को इस बात की छूट कहां कि वह प्रेम से भरी दिखे. वह प्रेम के लिए जिए. वह प्रेम कविता लिखे. जिस फेसबुक को स्त्री के लिए किसी दरीचे के ख्ुालने जैसा मान रहे हैं, तो फिर उसके खुलेपन  से इतने आहत क्यों? फेसबुक पुरुषों का भी  चारागाह है. जहां वे शिकारियों की तरह ताक में बैठे रहते हैं कि जाने कौन किस चाल में फंसे. दरअसल ये पूरी बहस ही बेमानी है. प्रेम को किसी अलग सदंर्भ में नहीं देखा जा सकता. हमारी सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक और लैंगिक बुनावट तय करती है कि कौन सा समाज किन मूल्यों के साथ जीता है. इसी समाज में ईरोम भी है और अरुणा राय भी. सवाल उठता है कि हम स्त्री को किस तरह से देखते हैं. एक आब्जेक्ट के रुप में या मनुष्य के रुप में ? अगर हम मनुष्य की तरह देखेंगे तो हमें तीसरी कसम का हीरामन ही याद नहीं आयेगा हीराबाई के प्रति भी हमारी गहरी संवेदना होगी. देवदास शराब में डूब कर मर जाता है पारो जिन्दगी से लड़ती है, पलायन नहीं करती. अगर लैेला नहीं होती तो आज मजनूं नहीं होता. न लैला कहती मेरा कब्र वहीं बनाना जहां मैं पहली बार उससे मिली थी. उससे कहना कि मेरी कब्र पर आयें,और सामने क्षितिज की ओर देखें. वहां मैं उसका इंतजार कर रही हूंगी. और जिन आंखों में मजनूं के सिवा कोई समाया नहीं था, वे आंखें हमेशा के लिए बंद हो गयी.
कागा सब तन खाइयो
चुनि-चुनि खाइयो मांस
दुुई अंखियां मत खाइयो

पिया मिलन की आस.

दरअसल प्रेम यही है. इससे इतर कुछ नहीं. वह 40 की पार औरतें हों या फिर 16 साल की मासूम उम्र. जिसे न तो सामाजिक निषेध और न दुनियाबी रस्मों rवाज छू पाते हैं. फेसबुक हो या और कोई माध्यम स्त्री की सबसे बड़ी चुनौति है वह अपने मूल्यों के साथ जब खड़ी होगी तो उसपर हमले होंगे ही. हमारा समाज आज भी स्त्री को मनुष्य मानने से इंकार करता है. इसकी लड़ाई सिर्फ फेसबुक पर नहीं लड़ी जा सकती.  इसके लिए उसे संघर्ष के रास्ते चुनने होंगे. सड़को पर उतरना ही होगा. आभासी दुनिया ने हमें स्पेस दिया है, यह हमसब पर निर्भर है कि हम अपनी जमीन का इस्तेमाल कैसे करते हैं. हम अपनी आजादी से कितनी मुहब्बत करते हैं और उसके लिए कीमत चुकाने को तैयार हैं या नहीं.

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ISSN 2394-093X
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