नागार्जुन के उपन्यासों की दलित पक्षधरता

श्याम लाल गौड़


प्राध्यापक,श्री जगदेव सिंह संस्कृत महाविद्यालय,सप्त ऋषि आश्रम हरिद्वार.



नागार्जुन ने अपने समाज में निरन्तर गिरते मानव मूल्यों को देखा है। वे बचपन से निम्न वर्गीय अभावों से ग्रसित रहे। वे ऊँच-नीच, छुआ-छूत, अस्पृश्यता, ब्राह्मण-शूद्र के भेद-भावों को देखते हुए आ रहे थे। इन विषम परिस्थितियों ने नागार्जुन को सोचने के लिए बहुत कुछ दिया है। इन समस्याओं पर लिखा जाना स्वाभाविक था क्योंकि वे समस्याएॅं आज भी जीवन्त हैं। वे  खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं।


नागार्जुन व्यक्गित दुःख पर न रुककर व्यापक दुःख पर प्रकाश डालते हैं। नागार्जुन सामाजिक चेतना सम्पन्न रचनाकार थे, अतः इन रूढ़ियों के विरुद्ध वे विद्रोह करते दिखाई देते हैं। उन्होंने अपने ‘इमरतिया’ उपन्यास में हरिजन वर्ग के साथ पूर्ण सहानुभूति व्यक्त की है। उनकी दृष्टि में सब समान हैं। इस उपन्यास में उपन्यासकार ऐसेे ही विचारों को अभिव्यक्ति देता हुआ कहता है कि ”इसी तरह मेहतर भी सफाई का काम कर चुकने के बाद नहा-धो ले, कपड़ा पहन ले फिर हमारे साथ बैठकर वह पूजा पाठ में क्यों नहीं शामिल होगा, आत्मा तो एक ही है, शरीर का चोला अलग-अलग हो सकता है।“


नागार्जुन जाति-पाॅंति की भावना को समाज के लिए अभिशाप मानते हैं। वरुण के बेटे उपन्यास का मोहनमाॅंझी कहता है- ”मैथिली महासभा, राजपूत सभा, दुसाध महासभा आदि जो भी साम्प्रदायिक संगठन हैं, सभी का वायकाट होना चाहिए। इन महासभाओं के नेता आम लोगों की एकता में दरार ड़ालने का ही एक मात्र काम करते हैं।“

नागार्जुन ने अपने आंचलिक उपन्यास ‘बलचनमा’ में भी सर्वहारा वर्ग के जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। वे इतने सजीव और वास्तविक हैं कि शब्दचित्र की भाॅंति हमारे समक्ष घटित हो रहा हो ऐसा प्रतीत होता है।
एक निम्नवर्गीय किसान परिवार जो सदियों से शोषण और दमन का शिकार होता चला आ रहा है। बंधुआ मजदूर होकर गाॅंव के जमींदारों के यहाॅं काम करना और बदले में मुश्किल से दो वक्त की रोटी कमा पाना। आकस्मिक घटनाओं जैसे बीमारी, शादी-व्याह आदि के लिए जमींदारों से कर्जा लेना। यदि एक बार कर्ज की चपेट में आये तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसी कर्ज भॅंवर में फॅंसकर रह जाते हैं। कभी भी उससे उऋण नहीं हो पाते। इस तरह जमींदारों के शिकजें में उन गरीबों के घर, खेत, बैल, भैंस, सब आ जाते हंै। और इस तरह वे उनके इशारों के गुलाम बने घूमते हैं। जरा सी भूल-चूक उनके लिए मौत का बुलावा हो जाता। ऐसा ही एक उदाहरण जब ‘बलचनमा’ का बाप जमींदार के बाग से एक आम चुरा लेता है। मालिक को पता चलने पर उसके साथ जो सलूक किया जाता है वह दृश्य अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है।
‘‘मेरी दादी कांपते हाथों मालिक के पैर छुए है। उसके मुॅंह से बेचैनी में यही एक बात निकलती रही है कि दुहाई सरकार की मर जाएगा ललुआ। छोड़ दीजिए सरकार। अब कभी ऐसा ना करेगा। दुहाई मालिक की। दुहाई माॅं-बाप की और माॅं रास्ते पर बैठी हाय-हाय करके रो रही है और में भी रो रहा हूँ। मेरी छोटी बहन की तो डर के मारे हिचकी बॅंध गयी है।’’

बाल्यावस्था से ही जीवन संघर्ष जीवन को और अधिक तपाते हैं। इसी तपन में तपता बलचनमा पेट की आग की खातिर वह सब कुछ उस उम्र में करता है, जो उम्र उसकी खाने खेलने की है। पिता के मृत्यु के पश्चात बलचनमा अल्पायु से ही काम में जुट जाता है। यही नियति बन चुकी है उन परिवारों की जहाॅं अभावों ही अभावों का जाल फैला है। सुबह की फिक्र में शाम गुजरती है। और शाम की फिक्र में सुबह ऐसा ही एक दृश्य बलचनमा की जिन्दगी का-”दादी ने मना किया था, अभी खाने-खेलने के दिन है, इसी समय जोत देगी जो कलेजा सूख जायेगा, इस पर माॅं बोली थी कि अभी से पेट की फिक्र नहीं करेगा तो बेहतरा हो जाएगा।“

परवशता को भाग्य मान लेना और जीवन यापन के लिए जमादारा­ पर पूरी तरह निर्भर रहना तथा उनकी ही दया दयालुता पर जिंदा रहना ही सम्भव है, ऐसा विश्वास इस वर्ग के दिमाग म­ घर कर गया है। ऐसा ही एक उदाहरण जब बलचनमा 14 वर्ष की आयु म­ अपने मालिकों के यहाॅं काम पर जाता है, इसके बदले में उनकी मालिकाइन क्या देना चाहती है। और उसकी दादी किस प्रकार अपनी हीनता का प्रदर्शन कर काम के बदले म­ रोटी-कपड़ा माॅंगती है।

मेरी कमर म­ फटी-सी मैली-सी बिस्ठी झूल रही थी। बिस्ठी न तो लंगोटी है न कच्छा, कपड़े के लीरे अगर तुम कोपीन की भाॅंति पहन लो वही हमारे यहाॅं बिस्ठी कहलाएगी। मालिकाइन ने बिस्ठी की ओर इशारा करके कहा कपड़ा हमसे पार नहीं लगेगा। यह सुनकर दादी ने दाॅंत निपोड़ दिये चेहरे पर झुर्रिया­ और लकीरा­ में ­ बल पड़ गया। दोना­ हाथ जोड़कर वह गिड़-गिड़ाई ‘‘क्या कमी है मालिकाइन आप लोगा­ के यहाॅं? आप ही का तो आसरा है, नह° तो हम गरीब जनमते ही बच्चा­ को नमक न चटा द­। अरे, अपना जूठन खिलाकर अपना फेरन-फारन पहनाकर ही तो हमारा पर्तपाल करतीं हैं।“2


बलचनमा जब जमादार के यहाॅं काम करने लगता है, और काम करने म­ उससे भूल-चूक या देर सबेर होती, तो उसे डाॅंट-डपट तथा मार-पीट का तो सामना करना पड़ता था इतना ही नही कभी-कभी उसे भूखे पेट भी रहना पड़ता था। गाली गलाॅज का सामना तो उसे बात-बात पर करना पड़ता था। उसने यह सब पेट की खातिर सहने-सुनने की आदत सी डाल ली थी अन्यथा थोड़ा बहुत मिलता था वह भी नहीं मिलता। इस प्रकार कितना लाचार और असहाय होकर जबरन यह सब सहना पड़ता है, जोकि नहीं सहना चाहिए।


”गालियाॅं सुनकर दो-चार दिन तो मुझे थोड़ी बहुत तकलीफ हुई, पर बाद में कान खूब पक्के हो गये। गद्धा, सूअर, कुत्ता, उल्लू…. क्या नहीं कहती थी वह मुझे? उनका गुस्सा चुपचाप सह जाना मुझे सीखना पड़ा। एक बार दोपहर को घास लाने में जरा देर हो गयी, बैशाख-जैठ की जलती धरती, तो घास छीलने म­ बड़ी कठिनाई होती है। पच्चीसा­ जगह खुरपी चला चलाकर तंग आ जाओगे फिर भी टोकरी भर घास नहीं होगी, लेकिन जो देवी कई-कई देवड़िया­ वाली हवेली के भीतर छाॅंह म­ आराम से बैठी हुई हो। उन्ह­ अपनी यह दिक्कत तुम समझा पाओगे भइया, उनके लिए सारी धरती रही नरम-नरम दूबा­ से भरी। सो उस रोज घास लेकर जब मैं  जरा देर से पहुॅंचा, तो मालिकाइन हु-हुआ उठी, मर क्यों न गया? बड़े नवाब के नाती हुए हो। कहीं बैठकर बाप के साथ कोड़ी खेल रहा होगा, और देर हो गयी घास नहींमिलती है। खुरपी भोथी है, बेंट ढीला पड़ गया था।……………… पचास बहाने बनाता है। मुॅंहझौसा इतना कहकर जब उन्ह­ संतोष न हुआ तो झाडू उठा लाई और मेरी पीठ पर सात बार झटाझट बरसा दिए। मैं ए­चकर वहीं बैठ गया ईह-ईह कर उठा।“

जब जमादारा­ के यहाॅं कोई नौकर होकर था, तो उसे वह जानवरा­ से भी बदतर निगाहा­ से देखते थे। घर का जो भी गन्दा खराब और बेकार खाना होता था, उसे वह नौकरा­ को दे देते थे। ऐसा ही एक दृश्य बलचनमा का जब उसे इसी प्रकार बचा झूठा बेकार खाना मालिकाइन देती, वह भी बड़े एहसान के साथ। वह जब बहुत खुश होती तो सूखा या बासी पकवान, सड़ा-आम, फटे दूध का बदबूदार छैना या जूठन की बची हुई कड़वी तरकारी देती हुई मुझे कहती- बलचनमा ऐसी अच्छी चीज तेरे बाप-दादा ने भी नहीं खाई होगी। दही जब बहुत खट्टा हो जाता था, उससे बदबू आने लगती थी और वह उनके अपने या किसी पड़ोसी के खाने लायक न रह जाता तब मुझे मिलता। मैं  उस दही को कुत्ते की भाॅंति खा लेता। याद आता है कि एक बार जास्ती खट्टा और दुर्गन्ध रहने से उस दही को नहीं खा पाया तो मालिकाइन ने सजा दी थी- अगले दिन खाना नहीं मिला था।’’


बेबस और निस्सहाय बचलनमा की जमींदारा­ के व्यवहार और नीयत के प्रति एक अजीब सी आह भरी टीस निकलती है। उस भाग्य निर्माता के लिए जो भाग्य के नाम पर कितना कुछ इन्सान को सहने पर मजबूर और लाचार कर देता है। बेबसी म­ वह सब कुछ सहता अवश्य है, किन्तु उसम­ इतनी चेतना जागृत अवश्य होती है कि भाग्य का खेल एक वर्ग विशेष को ही क्या­ नचाता है। क्या अर्थहीनता के कारण या शक्ति सामथ्र्य साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतिया­ के कुचक्र से परे होने के कारण? आखिर विभेद क्या­?

”अच्छा तो भगवान करते ही हैं। चार परानी का परिवार छोड़कर मेरा बाप मर गया, यह भी भगवान नेे ठीक ही किया। भूख के मारे दादी और माॅं आम की गुठलिया­ का गूदा चूर-चूर कर फाॅंकती  हैं, यह भी भगवान ठीक ही करते हैं। और सरकार आप कनकजीर और तुलसीफूल के खुशबूदार भात, अरहर की दाल, परवल की तरकारी, घी, दही, चटनी खाते है , सो यह भी भगवान की ही लीला है। चौकोर कलम बाग के लिए आपको हमारा दो कट्टा खेत चाहिए और हम­ चाहिए अपने चैकोर पेट के लिए मुट्ठी भर दाना।“

बलचनमा के इस कथन म­ नागार्जुन ने भेदभाव की कशक को उभारा है और यह दर्शाया है, भगवान के नाम पर अन्धी श्रद्धा को। बलचनमा उपन्यास म­ अनेक ऐसे स्थल हैं, जहाॅं सर्वहारा का सजीव प्रतिबिम्ब झलकता है।
‘कुम्भीपाक’ उपन्यास भी नागार्जुन का ‘आम वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करने वाला उपन्यास है। इसम­ भी एक ऐसा स्थल है जहाॅं इस वर्ग का यथार्थ चित्र मिलता है। जहाँ  इस वर्ग के प्रतिनिधि रिक्शा चालक की भावनाआ­ और मजबूरी से खिलवाड़ होता हुआ दर्शाया है। अपनी मेहनत की भी मजदूरी न मिलने पर आक्रोश व्यक्त करता हुआ सफेद पोश डाकू रिक्शावाले ने थूककर कहा- ”कसाई कहीं का किस सफाई से गरीबा­ का गला काटता है! और अन्दर कुर्सी पर बैठकर नानी को फोन कर रहा होगा……..।“

सम्पादक महोदय जो पहनावे से सम्पन्न नजर आते हैं  और एक रिक्शा चालक से दुअन्नी के लिए झगड़ा करते हैं। वह भी एक मिनिस्टर के बंगले पर। रिक्शा चालक पहले तो बड़ा तैंस म­ आता है और सम्पादक के पीछे-पीछे कमरे तक चला जाता है, किन्तु चपरासी के कहे शब्दा­ म­ धनाढ्य वर्ग और आज की व्यवस्था पर जो व्यंग्य और कसिस थी, वह आज का वास्तविक यथार्थ है



”चपरासी मुस्कराया अरे इन्हीं कोठिया­ के अन्दर तो अन्याय पनाह लेता है आकर। सरकार अभी इन्ह° कोठिया­ और बंगला­ म­ कैद है, उसे तुम तक पहुॅंचने म­ दस-बीस वर्ष लग जाएॅंगे अभी।“
यही सर्वहारा वर्ग का यथार्थ चित्र है। वह अपने हक के लिए आवाज भी नहीं उठा सकता। उसकी आवाज दबा दी जाती है।

‘गरीबदास’ उपन्यास का प्रमुख पात्र गरीबदास नामक एक नाटे कद का सांवली सूरत का एक अधेड़ साधु वेश वाला व्यक्ति है। जिसम­ हरिजन वर्ग के प्रति विशेष लगाव और हमदर्दी है। वास्तव म­ तो गरीबदास के स्वर म­ स्वयं नागार्जुन का ही प्रतिरूप झलकता है। उन्हा­ने अपने स्वर को गरीबदास का स्वर और कार्य बनाकर उपन्यास म­ अवतरित किया है। यह सब नागार्जुन का सर्वहारा वर्ग के प्रति असीम सहानुभूति का प्रतिफलन है। अपने बच्चा­ को बाराखड़ी का अभ्यास करवाने के लिए हरिजना­ ने अपनी उस छोटी बस्ती के अन्दर ही एक ‘शाला’ खोली थी। इस शाला की निगरानी का भार भगत लछमनदास ने अपने ऊपर खुशी-खुशी ले लिया था। गरीबदास इस शाला के लिए हर महीना तीस रुपए का इंतजाम करते थे। बीस रुपए शिक्षिका को मिलते थे, दस रुपए और कामा­ के लिए रखे रहते थे। लेकिन यहाॅं तो गरीबदास ने मजदूरी करते हुए ही इस शाला का इंतजाम किया था।


क्या मजबूरी थी? मजबूरी यह थी कि गाॅंव के प्राइमरी स्कूल म­ हरिजन बच्चा­ के प्रति सवर्ण परिवारा­ के बच्चा­ का सलूक तिरस्कारपूर्ण तो था ही, आतंकजनक भी था। पिटाई के डर से हरिजन बच्चे अक्सर वहाॅं से भाग जाते थे। बार-बार की शिकायता­ के बाद भी जब स्थिति म­ सुधार नह° हुआ तो गरीबदास ने इधर के बच्चा­ की पढ़ाई के लिए अलग इंतजाम किया। चार्टा­ के ऊपर एक फोटो दीवार म­ चिपका दिया गया था।“


गरीबदास की निम्न वर्ग के प्रति निष्ठा और कार्यशैली का अनूठा उदाहरण है कि किस प्रकार उनमें गरीब बच्चा­ के भविष्य के प्रति जागरुकता है। और इसी कारण वे सवर्णों के दुव्र्यवहार वश निम्न शोषित वर्ग के बच्चा­ के लिए उनकी ही बस्ती म­ एक पाठशाला खोलते हैं। जिसका भार वे स्वयं उठाते हैं। खुद मजदूरी कर पाठशाला चलाना और पूरी व्यवस्था करना गरीबदास का ही कार्य था। स्कूल की अध्यापिका भी उन्हा­ने अपनी ही बस्ती की एक विधवा स्त्री को बनाया। जिससे उनको तो सहायता मिलती थी, साथ ही एक बेसहारा स्त्री को इज्जत का काम कर जीविका  चलाने का अवसर मिलता है।

उनकी पाठशाला की यह खास बात थी कि उसम­ आम छुट्टी रविवार को भी उनका स्कूल बन्द  नह° रहता था, बल्कि उनकी पाठशाला म­ छुट्टी उन दिना­ रखी जाती थी। जब उसकी खास जरूरत होती। जैसे जिन दिना­ खेता­ म­ अधिक काम रहता तब पाठशाला बन्द रहती, या फिर तीज त्यौहारा­ पर, जिससे सामाजिक उत्तदायित्व भी पूरा होता रहता। गरीबदास बच्चा­ के मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं , कि बच्चा­ को यदि कोई अच्छी बात मनवाना हो तो किस तरह उन्ह­ आकर्षित करना चाहिए, इसीलिए उन्हा­ने अपने बच्चा­ की पाठशाला म­ राष्ट्रीय त्योहारा­ पर बच्चा­ को भरपेट जलेबी पूड़ी खिलाने का काम शुरू किया था। इससे बच्चे खुश तो होते ही थे, साथ ही यह उनम­ पढ़ाई के प्रति आकर्षण पैदा करने का जरिया भी था।


इतना ही नहीं वे समूचे गाॅंव बस्ती के शुभ चिंतक थे, गाॅंव म­ कहाॅं क्या हो रहा है, और क्या करना है? कौन सी बात लोगा­ के लिए हितकर रहेगी कौन सी नह° आदि बाता­ का भी गरीबदास ध्यान रखते थे। वे अपने वर्ग के लोगा­ की भावनाआ­ और समस्याआ­ के प्रति सचेत होकर उस ओर अग्रसर रहते थे। एक बार भजन-कीर्तन के लिए एकत्रित मण्डली के कुछ लोगा­ म­ से भगत को गरीबदास गाॅंव का हाल समाचार सुनाने को कहते ह®। और भगत द्वारा गाॅंव के प्रत्येक निम्न वर्ग के व्यक्तिया­ म­ डर और दहशत समाज की बात जानकर गरीबदास मन ही मन बहुत व्याकुल होते हैं। और आई हुई समस्या के समाधान के लिए रात-रात भर जाग कर घूम-घूम कर उपाय निदान सोचते रहते हैं । वे दूसरा­ के लिए इतने व्याकुल हो जाते हैं , कि अपना खाना-पीना तक भूल जाते और चिन्तन कर कोई न कोई हल निकालने म­ जब सफल हो जाते तब ही कुछ अन्न जल ग्रहण करते। इस तरह की बैचेनी वाले पात्र गरीबदास पर ‘‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिंअधमाई’ वाली पंक्ति चरितार्थ होती है। उनके स्वयं से ही चल रहे द्वन्द्वात्मक युद्ध का एक उदाहरण ‘‘बाबा गरीबदास की चहल-पहल थमी नहीं  थी अपनी परछाई से ही बातें करने का जी कर रहा था।’’



गरीबदास ठमककर खड़े रह गये हाथ उठाकर अपनी परछाई से बोले, ‘तू उसका क्या कर लेगा?’ मालिक लोग चमारा­ की बस्ती को फूंक द­गे सौ पचास इन्साना­ को जलाकर खाक कर द­गे, तो भी मालिक लोगा­ का तू क्या बिगाड़ लेगा? थाने का दरोगा उन्हीं  की बिरादरी का है, यह खुले आम उनकी तरफदारी करता चलेगा। एस0पी0 कमजोर दिलवाला हरिजन है, उसके ऊपर-नीचे ज्यादातर बड़े अधिकारी ऊँची जातिया­ के ही लोग जमे हुए हैं । यह बेचारा तेरे लिए क्या हलाक होगा! तू ठहरा बापू जी का प्यारा हरिजन बालक, तेरे लिए स्वर्ग का फाटक खुला हुआ है। नियम-निष्ठा से रहेगा तो तेरे को इसी जनम म­ संत रैदास की तरह लोग पूज­गे, तब यही मालिक लोग तेरी तारीफ अखबारा­ म­ छपवाया कर­गे। तब तेरी कुटिया छता­ वाली, कई मंजिला­ की विल्डिंग की तरह अंधेरी रात म­ भी दूर से दमका करेगी। तेरे महर्षि की यह प्रतिमा तब संगमरमर वाले चबूतरे को बाॅंस के छोटे बाड़े म­ घेर-घारकर महर्षि को नह° रखा जाएगा, तब हरिजन मन्त्री कारा­ पर लद कर तुमसे परामर्श करने आय­गे बेटा।“


जब गरीबदास परहित के ध्यान समुद्र म­ गोते लगाते तो उन्ह­ स्वयं के मन का होश नह° रहता। यदि  बैठे हुए सोच रहे ह®, तो घण्टा­ बैठे ही रहते। यहाॅं तक सोच म­ डूब जाते कि अपने को भी दूसरा­ के लिए न्योछावर कर देते। ऐसे ही सोच का एक उत्कृष्ट उदाहरण, ”गरीबदास पालथी मारकर दीवार के सहारे बैठ गये। तटस्थ भाव से मन के पंछी की उड़ान देखने लगे, अपने आपको सम्बोधित करके गरीबदास ने बोलना शुरू किया- बेटा, हिम्मत से काम लो। बेधड़क आगे की तरफ कदम बढ़ा। ऐसा नहीं करेगा तो दुनिया तेरा कचमूर निकाल देगी। धनिये की तरह पीसकर लोग तुझे चट कर जायेंगे।

सौ पचास जीवा­ का भला करने से तुझे थोड़े बहुत उल्टे सीधे काम करने पड़­गे सिर्फ फासला तय करना, सिर्फ चलते जाना काफी नहीं होगा, नये सिरे से तुझे पगडंडियाॅं बनानी हा­गी, नई राहा­ के निर्माण की कोशिश म­ हो सकता है, तेरे पंख बार-बार झुलस जाय­ तू बुरी तरह घायल हो जाय, नई राह­ बनाने के सिलसिले म­ यह सब झेलना होगा तुझे।“

अन्ततः नागार्जुन का चिन्तन गरीबदास के समाज की उस व्यवस्था पर किया गया है, जहाॅं समाज का प्रतिष्ठित धनाढ्य वर्ग, आम जनता के लिए यदि कुछ करता है, तो उसका अंकुश उसको उस लाभ के प्रतिरूप म­ झेलना पड़ता है। संस्था, समिति तथा आश्रम के रूप म­ चलने वाली सामाजिक व्यवस्थाएॅं जो आप शोषित या सामाजिक विक्षिप्तता प्राप्त लोगा­ के लिए कार्य करती है। इन्हीं  वर्ग की मुहताज होकर उनके इशारे पर चलती है। वहाॅं भी उन्ह­ स्वतन्त्रता प्राप्ति नहीं ऐसा ही एक चिन्तन गरीबदास के माध्यम से आम जनता के हितार्थ किया गया।


‘‘नये सिरे से दस-बीस बालका­-बालिकाआ­ की भर्ती करके एक आश्रम भी चालू किया जा सकता है, बाबा ने सोचा लेकिन, आश्रम चलाने के लिए शुरू म­ ही दस-बीस हजार रुपये चाहिए, दस-बीस एकड़ जमीन चाहिए, आश्रम की बुनियाद तभी पक्की होगी जब मालिक लोगा­ म­ से दो एक प्रभुआ­ का जमकर सहारा लिया जायेगा। गरीबदास तू जिस मालिक का सहारा लेगा, उसी  के हुक्म चल­गे न तेरे आश्रम म­। जो मिनिस्टर, जो बड़ा हाकिम तेरे आश्रम को दस-बीस हजार की सरकारी मदद दिवायेगा, वह क्या या­ ही तेरे को खुला छोड़ देगा? फिर एक दूसरा झंझट भी तो लगा रहेगा, वह झंझट वह झमेला ऐसा होता है कि बड़े-बड़े आश्रमा­ का मटियामेट हो जाता है, जिन बालका­ और बालिकाआ­ को तू उनके बचपन म­ ही अपने आश्रम म­ घेर-घारकर रखना शुरु करेगा। उनके माँ-बाप, उनके रिश्तेदार, उनके पुराने मालिक बीच-बीच म­ उन्ह­ आश्रम से खिसकाते रह­गे, तब तू क्या करेगा? तेरे आश्रम का भट्टा नहीं बैठ जाएगा? धीरे-धीरे सिखाया-पढ़ाया हुआ तोता जब पिंजड़े से उड़ जाता है, तो दिल को भारी कचोट नह° पहुॅंचेगी? गाॅंधी जी को जिन्दगी म­ चार बार अपने आश्रमा­ का अन्त देखना पड़ा था। अंग्रेज सरकार भी बापू के पीछे पड़ी रहती थी। कभी जेला­ ठुका लेती थी, कभी बड़े लाट की कोठी म­ उनके फलाहार का इन्तजाम करती थी। अपने समाज के दकियानूस लोग बापू जी को पसन्द नहीं करते थे- सेठा­ म­ से कुछ तो जरूर ऐसे थे जो कि आश्रम को नये सिरे से स्थापित करने म­ उनकी मदद के लिए हमेशा आगे-आगे रहे……………।“



अन्ततः यही कहा जा सकता है कि गरीबदास आम जनता के हितैषी और शुभचिंतक के रूप म­ उपन्यास के अन्दर अवतरित हुए हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन परहित के लिए समर्पित रहा। उन्हा­ने तन, मन तथा धन से असहाय जनता के दर्द को समझा और दूर किया, उनके साथ ही साथ उपन्यास के अन्य पात्र कपिल बाबू, माया, भगत-आदि भी स्वयं म­ एक अनूठा व्यक्तित्व लिए उभरे हैं, किन्तु नागार्जुन ने सबसे अधिक गरीबदास पात्र को ही दलित चेतना के हित के लिए कार्यरत दिखाया है।

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ISSN 2394-093X
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