जायसी और पद्माकर की नायिकाओं के व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष का तुलनात्मक अध्ययन

आरती रानी प्रजापति

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी. संपर्क : ई मेल-aar.prajapati@gmail.com

किसी भी व्यक्ति के चरित्र निर्माण में समाज की अहम भूमिका होती है| समाज ही हमें बचपन से लेकर मृत्यु तक के आचार, व्यवहार को सिखाता है| व्यक्ति जहां रहता है वही उसका समाज है| उस जगह के नियम-क़ानून उसे मानने ही पड़ते हैं| यही नियम-क़ानून व्यक्ति के चरित्र को बनाते बिगाड़ते हैं.

स्त्री के चरित्र निर्माण में समाज की महत्वपूर्ण भूमिका है| प्रसिद्ध लेखिका सिमोन का कथन ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है’ सही ही है| समाज की व्यवस्था ही स्त्री-पुरुष को उनके अंतर बताती है| स्त्री को घर संभालना है और पुरुष को बाहर काम करना है ये समाज के द्वारा ही तय होता है| प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर समाज को समेटे रहता है.

नारी समाज का अभिन्न अंग है. आदिम समय में स्त्री-पुरुष दोनों समान महत्व रखते थे. वह ऐसा समय था जब मनुष्य को काम सम्बन्ध बनाने की पूरी स्वतंत्रता थी. वह जब चाहे जिससे चाहे रज़ामंदी से संबंध बना सकता था. उस समाज में स्त्रियों को भी इस क्षेत्र में आज़ादी थी. वे अपनी मर्जी से किसी से भी संबंध स्थापित कर सकती थी. एकनिष्ठता का वहाँ कोई दायरा नहीं था. किंतु जैसे-जैसे समय बदला नारी की स्थिति खराब होती गई. उसे समाज में स्थापित पितृसत्ता ने गुलाम बना दिया. समाज में नारी के विभिन्न रुप मिलते हैं जैसे बेटी, पत्नी, माँ, बहन, प्रेमिका आदि. नारी के ये विभिन्न रुप पितृसत्ता की देन हैं. पितृसत्ता स्त्री को इन सम्बंधों में कैद कर उसकी स्वतंत्रता को पूरी तरह से छीन लेती है. उसे आदर्श पत्नी, माँ, बहन, बेटी बनने पर मजबूर किया जाता है. स्त्री को बालपन से ही उसके क्रियाकलापों (स्त्रियोंचित) समझाये जाते हैं वैसा ही व्यवहार करने को उसे बाध्य किया जाता है. ये सभी कुछ स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण रखने के लिए किया जाता है. स्वतंत्र स्त्री अपने हक़ की मांग कर सकती है| जिसे समाज बर्दाश्त नहीं करता इससे उसकी सत्ता कमजोर पड़ने लगती है.

साहित्य में भी स्त्रियों की दशा का चित्रण होता आया है| साहित्य के आदिकाल की यदि बात करें तो उसमें भले ही स्त्री केन्द्रित साहित्य नहीं लिखा गया, राजाओं की प्रशंसा ही की गयी थी तब भी उस काव्य के माध्यम से हम उस काल की स्त्रियों की दशा को समझ सकते हैं| पृथ्वीराज रासो के माध्यम से ये जान सकते हैं कि क्यों कैमास मारा गया| जबकि उसने कोई अपराध नहीं किया था| वह अपनी प्रिया के साथ रति में लीन था| लेकिन वह स्त्री राजा को पसंद थी इसलिए वह किसी और की हो जाए ये कैसे संभव था| यानी स्त्री को संपत्ति माना जाता था| संपत्ति पर कोई हक़ कैसे कर सकता है? स्त्री केन्द्रित कोई साहित्य भले ही न हो पर यदि उसमें स्त्री पात्र आता है तो उसके व्यक्तित्व के माध्यम से हम उस समाज को समझ सकते हैं| हिंदी साहित्य के मध्यकाल में स्त्रियों की अलग ही दशा देखने को मिलती है. जायसी-युग में स्त्री का पतिव्रता रुप अधिक मिलता है और रीतिकाल में प्रेमिका का.

जायसी कालीन साहित्य में नारी– जायसी के युग में स्त्री के विभिन्न पक्ष देखने को मिलते हैं| इस साहित्य में स्त्री के पतिव्रता रूप की प्रशंसा की गयी है| किन्तु पत्नी की इच्छाओं को वहां कोई स्थान नहीं दिया गया| पत्नी वह जो पति के हर कार्य को पूरा करे और उसे साधना करने दे| किन्तु पत्नी को कोई अधिकार वहां नहीं दिए गए| भक्तिकालीन समाज ने स्त्री पर शंका करने का बीड़ा उठाया| वह बात-बात पर स्त्री को ताड़ना देने की भी बात करता है| भक्तिकालीन समाज एक ऐसा समाज है जिसने स्त्री पर अविश्वास किया और उसकी बार-बार परीक्षा लेता है| मीरां इस समाज में अधिकारहीन स्त्री को अधिकार देने की बात करती है| वह भक्ति का अधिकार जो पुरुषों को प्राप्त है और स्त्रियों को कुल की लाज का हवाला देकर उनसे छीन लिया जाता है| भक्तिकालीन साहित्य में पुरुष कवि स्त्री की इसलिए निंदा करते हैं कि वह उसे विषय या संसार में लगाए रखती है| उसे साधना में बाधा दिखाई देती है स्त्री| साहित्य की कृष्ण काव्य धारा ने स्त्री के अन्य पक्षों को भी सामने रखा वह स्त्री की स्वतंत्रता की बात करते हैं| वह ऐसी स्त्री की कामना करते हैं जो अपने प्रेम के लिए सब-कुछ छोड़ कर आये. राम-कृष्ण की बाल लीलाओं के माध्यम से एक माँ की भावनाओं का भी वहां चित्रण किया गया है| इसकाल में सूफी काव्य परम्परा भी मिलाती है| जिसमें स्त्री को थोडा सम्मान दिया गया है| सूफी स्त्री में ईश्वर की झलक देखते हैं| इस कारण वहां स्त्री सामान की नज़रों से देखी गयी है पर समझने की बात ये है कि वहाँ हर स्त्री ईश्वर नहीं है| हर कण में ईश्वर के सिद्धांत को सूफी नहीं मानते| उनके लिए वही स्त्री ईश्वर हो सकती है जो देखने में अद्वितीय हो| अन्य कोई गुण उसके लिय मान्य नहीं है| बस देखने में इतनी सुन्दर हो कि लगे सब सुन्दर चीज उसी की उपज है| यदि कोई और सुन्दर स्त्री उन्हें दिख जाए तो शायद वे भी प्रतीक बन जायेगी पर क्योंकि सूफी कवियों को समाज में ये स्थापित नहीं करना था इसलिए ऐसा कुछ उन्होंने नहीं दिखाया| अधिकांश सूफी काव्य में दो स्त्रियाँ नायिका होती हैं|  इन प्रेमाख्यान काव्यों में चित्रित नायक-नायिका भारतीय पारिवारिक संरचना को बताते हैं. हिंदी साहित्य के इतिहास में डॉ. नगेंद्र लिखते हैं- प्रेमाख्यान-रचयिताओं ने, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लमान, भारतीय वातावरण एवं हिंदू समाज की मर्यादाओं के अनुरूप ही नायक-नायिका का चित्रण किया है. भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहु-विवाह की अनुमति थी, अत: इनके नायक भी प्राय: एक से अधिक विवाह करते हैं जबकि नायिकायें, भारतीय परम्परा के अनुसार पातिव्रत्य का पालन करती हुई अंत में सती हो जाती है.1

एक वो जो किसी राजा की पत्नी है दूसरी वह जिसमें ईश्वर का रूप कवि दिखाना चाहता है| नायक जो पहली स्त्री को छोड़ कर दूसरी को पाने के लिए जाता है पर जैसे ही नायक ईश्वर की झलक मिलने वाली स्त्री को पा लेता है वह भी सामान्य रानी बन जाती है.

जायसी के समय को देखे तो यह काल स्त्री के पक्ष से काफी महत्वपूर्ण है| जिस तरह से समाज में स्त्री थी और उसी को कवि लिख रहे थे| भक्तिकालीन साहित्य, समाज में व्याप्त पितृसत्ता को मजबूत करता है| कृष्णकाव्य परम्परा इसका अपवाद लग सकती हैं पर ऐसा है नहीं| यह सच है कि कृष्ण काव्य ने स्त्री को प्रेम करने की स्वतंत्रता दी पर वहां वह भक्ति की आड़ लेकर एक पुरुष के अनेक स्त्रियों से सम्बन्ध दिखाते हैं वहां किसी भी आलोचक की नज़र नहीं जाती| भक्तिभाव रखने वाले सामान्य जन कृष्ण की इस बात की प्रशंसा करते हैं कि वह एक ही समय में रास लीला व अन्य क्रियाएं करते हैं| सूरदास की बात आते ही आलोचकों को परकीया प्रेम उचित लगता है. जबकि यही आलोचक रीतिकाल में परकीया प्रेम-चित्रण की निंदा करते हैं. सूरदास के काव्य में ज्ञान पर प्रेम की जीत दिखाई गई है. कृष्ण की बांसुरी बजते ही गोपियाँ सब-कुछ छोड़ कृष्ण के पास चली आती हैं. तब वह उचित बात हो जाती है पर रीतिकाल की इसी बात के लिए आज तक रीतिकाल आलोचकों की मार सह रहा है. भ्रमरगीत की गोपियाँ इसलिए जानी जाती हैं क्योंकि वे अपने प्रेम के लिए ज्ञान को तर्क सहित त्यागती हैं.

पद्माकर कालीन साहित्य में नारी – रीतिकाल में स्त्री को केंद्र बनाकर काव्य रचना की गई है. जायसी के समय में जो स्त्री ताड़ना की अधिकारी थी वहीं रीतिकाल में मान करती, प्रेम के लिए अपने प्रियतम को बुलाती दिखाई देती है. वहाँ स्त्री को किसी कवि ने तुच्छ साबित करने की कोशिश नहीं की. रीतिकाल में भले ही परकीया महत्वपूर्ण है पर वहाँ स्वकीया भी अपनी आदर्श स्थिति में दिखाई देती है. रीतिकाल में कवि सामंजस्य करके चलते हैं. स्वकीया और परकीया दोनों को सम्भाव से वहाँ चित्रित किया गया है. रीतिकाल में नारी पूरी तरह स्वतंत्र हैं. वह अपने मन के कामातुर होने पर प्रियतम को बुलाना भी जानती हैं और यदि उनका प्रियतम किसी दूसरी स्त्री के पास जाकर आता है तो वह उसे सुनाती भी हैं. वहाँ कवि उसे ये अधिकार देते हैं कि वह अपने पति जिसे जायसी के समयकी पितृसत्ता व्यवस्था परमेश्वर बना देती है उसे व्यग्यांत्मक, प्रत्यक्ष रुप से सुना कर, अपना रोष प्रकट कर सके. भक्तिकाव्य में कृष्ण के अन्य स्त्रियों से सम्बंध बनाने पर जो स्त्रियाँ उस पर रोष नहीं जता पाती वहीं वे इस कमी को रीतिकाल में पूरा कर देती हैं.
पलनु, पीक, अंजनु अधर, धरे महावरू भाल.
आजू, मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल.2

यहाँ नायिका व्यंग के माध्यम से नायक को कह रही है| उसे रोष है नायक पर वह उसे सुनाती है| जायसी के समयकी कोई भी स्त्री अपने पति को इस तरह नहीं कह पाती| कवि की मानसिकता में ही नहीं था कि स्त्री भी पुरुष पर व्यंग कर सकती है| वह तो स्त्री को मात्र ताड़ना का अधिकारी बना देते हैं बिना इस बात को सोचे के उसकी मानसिक दशा क्या होती होगी अपने भावों को कुचलते समय.

रीतिकाल में समाज में हेय दृष्टि से देखे जाने वाली गणिका भी नायिका बन जाती है. रीतिकाल के कवियों ने गाणिका को सामान्य स्त्री की भांति ही संवेदनशील समझते हुए उसके हर मनोभावों को चित्रित किया गया है. स्वकीया के जो भेद जैसे आगतपतिका, प्रवत्स्यपतिका आदि मिलते हैं वही गणिका के लिए भी चित्रित हो रहे हैं. रीतिकाल में सर्वत्र स्त्री ही स्त्री दिखाई देती है. ये स्त्री भले ही पुरुष द्वारा चित्रित है, पर क्या समाज में ऐसी स्त्रियाँ नहीं थी? नायिका भेद सिर्फ दरबारी स्त्रियों पर लिखा गया हो ऐसा भी नहीं है. वहाँ हर तरह की स्त्री है. रीतिकाल की एक अन्य शाखा रीतिमुक्त कवियों की है. इस शाखा में आलम, बोधा, घनानंद, ठाकुर जैसे कवि आते हैं. ये कवि प्रेम को अपने काव्य का विषय बनाते हैं. इन कवियों ने स्त्री के प्रेमिका रुप का चित्रण किया है. यहाँ इनके काव्य में स्त्री को प्रेयसी का मान दिया गया जो अब तक साहित्य में नहीं मिल रहा था| सूर की गोपियाँ भी प्रेमिकाएँ हैं पर घनानंद और सूरदास में रात-दिन का अंतर है| घनानंद स्त्री को इतना मान देते हैं, कि अपनी रचनाओं में स्त्रीही बन जाते हैं. वह भी इस बात को समझते हैं कि प्रेम का चित्रण पुरुष के द्वारा यदि हो भी जाए तो वह इतना स्वभाविक नहीं बन पाएगा. प्रेम में डूबे यह कवि एक अलग ही आदर्श की स्थापना करते हैं.
पदमावत की कथावस्तु- ‘सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पद्मावती रुप और गुण में जगत में अद्वितीय थी. उसके योग्य वर कहीं न मिलता था. उसके पास हीरामन नाम का एक सुआ था जिसका वर्ण सोने के समान था और जो पूरा वाचाल और पंडित था. एक दिन वह पद्मावती से उसके वर न मिलने के विषय में कुछ कह रहा था कि राजा ने सुन लिया और बहुत कोप किया. सूआ राजा के डर से एक दिन उड़ गया. पद्मावती ने सुनकर बहुत विलाप किया.


सूआ वन में उड़ता‌-उड़ता एक बहेलिया के हाथ पड़ गया जिसने बाज़ार में लाकर उसे चितौड़ के एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया. उस ब्राह्मण को एक लाख देकर चितौड़ के राजा रत्नसेन ने उसे ले लिया. धीरे-धीरे रतनसेन उसे बहुत चाहने लगा. एक दिन जब राजा शिकार को गया तब उसकी रानी नागमती ने, जिसे अपने रुप पर बड़ा गर्व था आकर सूए से पूछा कि ‘संसार में मेरे समान सुंदरी भी कहीं है?’ इस पर सूआ हँसा और उसने सिंहल की पद्मिनी का वर्णन करके कहा कि उसमें और तुममें दिन और अंधेरी रात का अंतर है. रानी ने इस भय से कि कहीं यह सूआ राजा से भी पद्मिनी के रूप की प्रशंसा न करे, उसे मारने की आज्ञा दे दी. पर चेरी ने उसे राजा के भय से मारा नहीं, अपने घर छिपा रखा. लौटने पर जब सूए के बिना राजा रतनसेन बहुत व्याकुल और क्रुद्ध हुआ तब सूआ लाया गया और उसने सारी व्यथा कह सुनाई. पद्मिनी के रूप का वर्णन सुनकर राजा मूर्च्छित हो गया और अंत में वियोग से व्याकुल होकर उसकी खोज में घर से जोगी होकर निकल पड़ा. उसके आगे-आगे राह दिखाने वाला वही हीरामन सूआ था और साथ में सोलह हजार कुँवर जोगियों के वेश में थे.

कलिंग से जोगियों का यह दल बहुत जहाजों में सवार होकर सिंहल की ओर चला और अनेक कष्ट झेलने के उपरांत सिंहल पहुँचा. वहाँ पहुँचने पर राजा तो शिव के मंदिर में जोगियों के साथ बैठकर पद्मावती का ध्यान और जप करने लगा और हीरामन सूए ने जाकर पद्मावती से यह सब हाल कहा. राजा के प्रेम की सत्यता के प्रभाव से पद्मावती प्रेम में विकल हुई. श्रीपंचमी के दिन पद्मावती शिवपूजन के लिए उस मन्दिर में गयी, पर राजा उसके रूप को देखते ही मूर्च्छित हो गया, उसका दर्शन अच्छी तरह न कर सका. जागने पर राजा बहुत अधीर हुआ. इस पर पद्मावती ने कहला भेजा कि समय पर तो तुम चूक गये; अब तो इस दुर्गम सिंहलगढ़ पर चढ़ सको तभी मुझे देख सकते हो. शिव से सिद्धि प्राप्त कर राजा रात को जोगियों सहित गढ़ में घुसने लगा, पर सवेरा हो गया और पकड़ा गया. राजा गंधर्वसेन की सारी सेना हार गयी. अंत में जोगियों के बीच शिव को पहचान कर गंधर्वसेन उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला कि ‘पद्मावती आपकी है जिसको चाहे दीजिए’. इस प्रकार रतनसेन के साथ पद्मावती का विवाह हो गया और दोनों चितौड़गढ़ आ गये.

रतनसेन की सभा में राघवचेतन नामक एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी. और पंडितों को नीचा दिखाने के लिए उसने एक दिन प्रतिपदा को द्वितीया कहकर यक्षिणी के बल से चंद्रमा दिखा दिया. जब राजा को यह कार्रवाई मालूम हुई तब उसने राघवचेतन को देश से निकाल दिया. राघव राजा से बदला लेने और भारी पुरस्कार की आशा से दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन के दरबार में पहुँचा और उसने दान में पाये हुए पद्मावती के कंगन को दिखाकर उसके रूप को संसार के ऊपर बताया. अलाउद्दीन ने पद्मिनी को भेज देने के लिए राजा रतनसेन को पत्र भेजा, जिसे पढ़कर राजा अत्यंत क्रुद्ध हुआ और लड़ाई की तैयारी करने लगा. कई वर्ष तक अलाउद्दीन चितौड़ घेरे रहा, पर उसे तोड़ न सका. अंत में उसने छलपूर्वक संधि का प्रस्ताव भेजा. राजा ने उसे स्वीकार करके बादशाह की दावत की. राजा के साथ शतरंज खेलते समय अलाउद्दीन ने पद्मिनी के रूप की एक झलक सामने रखे हुए एक दर्पण में देख पायी, जिसे देखते ही वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा. प्रस्थान के दिन जब राजा बादशाह को बाहरी फाटक तक पहुँचाने गया तब अलाउद्दीन के छिपे हुए सैनिकों द्वारा पकड़ लिया गया और दिल्ली पहुँचाया गया.

पद्मिनी को जब यह समाचार मिला तब वह बहुत व्याकुल हुई; पर तुरन्त एक वीर क्षत्राणी के समान अपने पति के उद्धार का उपाय सोचने लगी. गोरा, बादल नामक दो वीर क्षत्रिय सरदार 700 पालकियों में सशस्त्र सैनिक छिपाकर दिल्ली पहुँचे और बादशाह के पास यह संवाद भेजा कि पद्मिनी अपने पति से थोड़ी देर मिलकर तब आपके हरम में जायेगी. आज्ञा मिलते ही एक ढँकी पालकी राजा की कोठरी के पास रखी गयी और उसमें से एक लोहार निकल आये. शाही सेना पीछे आते देखकर वृद्ध गोरा तो कुछ सिपाहियों के साथ उस सेना को रोकता रहा और बादल रतनसेन को लेकर चितौड़ पहुँच गया. चितौड़ आने पर पद्मिनी ने रतनसेन के कुभंलनेर को राजा देवपाल द्वारा दूती भेजने की बात कही जिसे सुनते ही राजा रतनसेन ने कुभंलनेर को जा घेरा. लड़ाई में देवपाल और रतनसेन दोनों मारे गये.

रतनसेन का शव चितौड़ लाया गया. उसकी दोनों रानियाँ नागमती और पद्मावती हँसते-हँसते पति के शव के साथ चिता में बैठा गयीं. पीछे जब सेना सहित अलाउद्दीन चितौड़ पहुँचा तब वहाँ राख के ढेर के सिवा कुछ न मिला.’3

पद्माकर का जगद्विनोद एक लक्षण ग्रन्थ है जिसमें कवि ने समाज में मिलने वाली विभिन्न स्त्रियों का वर्णन किया है| ये स्त्रियाँ समाज के घर-घर में व्याप्त हैं| पद्माकर ने स्त्रियों के कुछ पक्षों को ही सामने रखा है| माँ, बेटी, बहन इनके जगद्विनोद में नहीं मिलती किन्तु विवाहित नारी के जीवन के विभिन्न पक्षों को पद्माकर ने बखूबी चित्रित किया है.

जायसी और पद्माकर दोनों के समाज में काफी अंतर है. यह परिवर्तन समय के लम्बे अंतराल के कारण आया है. जायसी भक्तिकाल के रचनाकार हैं और पद्माकर रीतिकाल के जायसी दरबार में बैठ कर काव्य रचना नहीं कर रहे थे पर उनकी नायिकायें दरबार की स्त्री हैं. वह आम घर की महिलायें नहीं हैं. पद्माकर दरबार में बैठकर काव्य रचना कर रहे थे किंतु उनकी नायिकायें दरबार में रहने वाली आरामपरस्त स्त्रियाँ प्राय: नहीं हैं. पद्माकर की स्त्रियाँ दरबारी कम और घर-घर में मिलने वाली औरतें ज्यादा हैं.

समाज में वही स्त्री नैतिक रुप से उच्च मानी गई है जो अपने पति की ही होकर रहे. उसे कहीं दूसरे पुरष की तरफ देखने का अधिकार भी समाज नहीं देता. यदि स्त्री ऐसा करती है तो समाज उसे ताने दे देकर ये एहसास करवाता है कि तुमने गलती की. पुरुष को भारतीय समाज परस्त्री गामी होने पर कोई उल्हाना नहीं देता पर स्त्री के लिए हर जगह बंधन हैं| वह चाह के भी दूसरे पुरुष से सम्बन्ध नहीं बना सकती| समाज में विवाह एक ऐसी संस्था है जिसने स्त्री को पूरी तरह पितृसत्ता का गुलाम बना दिया है| स्त्री के पैदा होते ही उसे इस सामाजिक संरचना में ढलना सिखाया जाता है| उसे एक पुरुष की होकर रहना सीखाया जाता है| वही समाज उस स्त्री (पत्नी) को त्यागने की बात कर देता है यदि उसे ईश्वर की झलक दिखाई देती हुई पद्मावती दिखती है| पुरुष या नायक-भेद में स्वकीया जैसी कोई अवधारणा नहीं मिलती| मतलब एकनिष्ठता का कोई मानदण्ड़ पुरुष के लिए नहीं था. बल्कि उसे दूसरी स्त्री का मार्ग दिखाने वाले को (सूफी काव्य में) गुरु माना गया| ये समाज के कैसे नियम हैं जो पुरुष के लिए अलग और स्त्री के लिए अलग हैं.


जायसी के समयमें सूफी काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया| सूफी काव्य जिस स्त्री में ईश्वर की झलक देखी जाती है उसे पाने के लिए संसार के तमाम बंधनों से मुक्त होना पड़ता है| अधिकतर सूफी काव्यों में दो स्त्रियाँ चित्रित हुई हैं एक जो पत्नी है जिसे माया कहा जाता है दूसरी स्त्री जिसको पुरुष पाने के लिए सारे काव्य में संघर्षरत रहता है इसी स्त्री में ईश्वर की झलक देखी जाती है| सूफी कवियों ने समासोक्ति के माध्यम से अपनी बात कहने का रास्ता अपनाया.

मालिक मोहम्मद जायसी कृत पदमावत हिन्दी साहित्य में अपना अलग स्थान रखता है| यह ग्रन्थ प्रतीकात्मक शैली में लिखा गया है ऐसा सभी मानते हैं| इस ग्रन्थ की नायिका पद्मावती को ईश्वर, रत्नसेन को ईश्वर प्राप्ति के लिए उत्सुक भक्त, और नागमती को माया माना गया है| पदमावत में चित्रित समाज दरबारी है| वहां दरबार की संस्कृति देखने को मिलती है| रानी नागमती और पद्मावती दरबार में रहने वाली स्त्रियाँ हैं| घर-घर में मिलने वाली कामगार, घरेलू श्रम करने वाली स्त्री का यहाँ अभाव है इसलिए इस काव्य में नारी की वास्तविक स्थिति प्राय: देखने को नहीं मिलती.


वहीँ पद्माकर के जगद्विनोद में कवि लिख तो रहे थे दरबार में बैठ कर पर उनका लेखन उन्हें उस दरबार से निकाल कर जनमानस में पहुंचा देता है| कवि पद्माकर ने जिस समाज को देखा वह वैसा ही उसे लिख देते हैं| कुछ पद जगत विनोद के भी उसकी दरबारी संस्कृति को दिखाते हैं पर ऐसे पद 5-6 से ज्यादा नहीं हैं| पद्माकर ने नायिकाओं को तीन भागों में विभाजित किया है-
१.स्वकीया
२.परकीया
३.गणिका
स्त्री के लिए स्वकीया जैसे भेद स्थापित किए गए है पर पुरुष के लिए ऐसे कोई भेद नहीं है| उसके लिए कहीं नहीं आता कि उसे ऐसा होना चाहिए| पद्माकर का समाज भले ही स्त्री के नज़रिए से कुछ स्वतंत्रता वाला दीखता हो पर एक पतिव्रता को भी वहां तुलसी की मानसिकता का युग ही झेलना पड़ रहा था.

पदमावत  में स्त्री को ईश्वर की झलक के रुप में चित्रित किया गया है. वही स्त्री इस काव्य की नायिका है. भले ही पदमावत  में स्त्री को ईश्वर माना गया है पर यह विचार करना चाहिए कि क्या सभी स्त्रियाँ वहाँ भगवान बन जाती है? ऐसी स्त्री जिसमें ईश्वर की झलक दिखाई दे कौन है? क्या कोई भी स्त्री वहाँ ईश्वर की झलक बनती है? नहीं पदमावत में कई स्त्रियाँ है पर वहाँ पद्मावती ही वह स्त्री है जिसमें कवि ईश्वर की झलक दिखाते हैं. पदमावत में कई स्त्रियाँ पद्मावती के समान ही सुंदर है. उनमें भी वैसा ही सौंदर्य है जैसा पद्मावती में पर सिर्फ पद्मावती को ईश्वर की झलक बना दिया गया है. रामचंद्र तिवारी लिखते हैं- ‘सूफियों ने अपने साध्य परमतत्व को परम सौंदर्य के रुप में देखा और नारी-सौंदर्य में उसका प्रतिबिम्ब अनुभव किया. इसलिए नारी-सौंदर्य की खान सिंहल-द्वीप जायसी के लिए खुदा के नूर को अवतरित करने की प्रेरणा-भूमि बन गया. सर्वश्रेष्ठ सुंदरी पद्मिनी के रुप में उन्होंने उस ज्योति ले अवतरण की कल्पना की. जायसी ने कुरानशरीफ की कयामत वाली कथा को भी इसी में सम्मिलित कर लिया.’4


यहाँ रामचन्द्र तिवारी नारी सौंदर्य की बात कर रहे हैं किंतु वे भूल जाते हैं कि सूफियों ने सभी नारियों के सौंदर्य में परमसत्ता की झलक नहीं देखी है. जो सौंदर्य में भी अति कर जाये लगे कि अब सभी कुछ इसी की आभा है वही स्त्री उनके लिए ईश्वर की झलक हो सकती है. ऐसा करके कवि सुंदर स्त्री का सम्मान कर रहे थे किंतु कम सुंदर का मजाक भी बना रहे थे. पदमावत में नागमती के साथ कवि ऐसा ही करते हैं.



पदमावत में एक स्त्री को ईश्वर की झलक बना के प्रस्तुत किया गया है. जगद्विनोद के कवि स्त्री को ईश्वर बनाने की कोशिश नहीं करते बल्कि उसकी दयनीय दशा को स्पष्ट करते हैं. पद्माकर के समय में भी स्त्री से अपेक्षा की जाती थी कि वह मन, वचन काया से पति में ही रत रहे जबकि उसी जगद्विनोद में परकीया नायिकाएं भी हैं जिससे पता चलता है कि समाज में पुरुष के दूसरी स्त्री से भी सम्बन्ध होते थे. स्त्रियाँ भी दूसरे पुरुषों से संबंध रखती थी किंतु आदर्श स्वकीया की मानी गई है.
निज पति ही के प्रेममय जाको मन बच काइ.
कहत सुकीया ताकि को लज्जासील सुभाइ॥5

स्त्री के विभिन्न पद और रूप पितृसत्तात्मक समाज की उपज है. जिसमें स्त्री को मात्र पितृसत्ता के बंधनों तक सीमित कर दिता जाता है. उसे इस प्रकार बना दिया जाता है मानो कोई गुलाम हो जो अपने मालिक के आदेश के पूर्व की सारी व्यस्थायें कर के दे दे. समाज में जो स्वरुप स्त्री का है वह पुरुष को वर्चस्ववादी और स्त्री को एक दास के रुप में स्थापित कर देता है. समाज की मान्यताओं के अनुसार उत्तम पत्नी वही है जो अपने पति के पहले जागे, बाद में खाए| समाज के बन्धनों को स्त्री पर लाद दिया जाता है उसे बार-बार आदर्श पत्नी बनने पर मजबूर किया जाता है.

स्त्री का यह रुप विवाहिता या कहे स्वकीया के लिये दिया गया उत्तम उदाहरण है. परकीया स्त्री स्त्री के लिये ये स्थिति नहीं है. पद्माकर समाज में प्रचलित स्वकीया के रुप का चित्रण करते हुए लिखते हैं:
खान पान पीछू करति सोवति पिछले छोर .
प्रान पियारे तें प्रथम जगत भावती भोर॥6
वहीं पदमावत में रानी पद्मावती रत्नसेन के बाद जागती है
बिहँसि जगावहिं सखी सयानी| सूर उठा उठु पदुमिनि रानी.7

दोनों ही नायिकाये मध्यकालीन समाज में चित्रित की गयी हैं पर एक नायिका वो है जो पति के आगे-पीछे चाकर की तरह घुमती है जिसपर घर की पूरी जिम्मेदारी है| पद्माकर की नायिका जो पत्नी होने के कारण श्रेष्ठ है उसकी स्थिति भी अच्छी नहीं है. उसको समाज में कोई स्वतंत्रता नहीं है. उसे पूरे दिन काम करने हैं और रात में भी पति के सोने के बाद सोना है. हमारे समाज में देर से जागती हुई स्त्री को सहन नहीं किया जाता इसलिए समाज स्त्री को बचपन से ही इस तरह के जीवन की आदत डलवाता है ताकि वह अच्छी पत्नी बन सके. दूसरी नायिका वो है जो आराम से जीवन व्यतीत कर रही है| पद्मावती जैसी नायिकायें हमें अपने समाज में नहीं मिलाती क्योंकि ये दरबारी स्त्रियाँ है पर पद्माकर की नायिकाए हमें अपने समाज में रोज देखने को मिलाती है| पद्मावती का व्यक्तित्व यहाँ एक साधारण स्त्री की तरह नहीं दीखता क्योंकि वह राजमहल की स्त्री है.

पदमावत में रानी पद्मावती को बहुत कोमल दिखया गया है. ये भी उसके समाज का एक हिस्सा है. दरबार में रहने वाली स्त्री खासकर रानी मेहनतकश नहीं हो सकती. उसके व्यक्तित्व में मेहनत है ही नहीं. उसे दूसरों पर आश्रित होना पडता है. वह हर काम दूसरों से करवाती है. वह नायिका इतनी कोमल है कि उसे गुलाब के फूल भी तकलीफ देते हैं. जायसी की नायिका न आम जीवन से सम्बंधित है और न ही उससे है साधारण स्त्री की स्थिति का बोध होता है. जायसी ने इस कोमलपन का वर्णन पद्मावती के रुप को और बढ़ाने के लिए किया है.
का धनि कहौं जैसि सुकुवारा. फूल के छुएँ जाइ बिकरार.
पँखुरी लीजहि फूलन्ह सेंती. सो नित डासिह सेज सुपेती.
फूल समूच रहै जो पावा. ब्याकुलि होइ नींद नहिं आवा.
सहै न खीर खाँड औ घीऊ. पान अधार रहै तन जीऊ.
नसि पानन्ह कै काढ़िअ हेरी. अधरन्ह गड़ै फाँस ओहि केरी.
मकरी क तार ताहि कर चीरू. सो पहिरें छिलि जाइ सरीरू.
पालक पाँव कि आछहिं पाटा. नेत बिछाइअ जौं चल बाटा.8

पद्माकर ने भी ऐसी नायिका का वर्णन किया है जो काफी नज़ाकत भरी हैं पर पूरे जगदविनोद में ऐसी स्त्रियों की छवि कम ही देखने को मिलती है. क्योंकि जगद्विनोद के रचनाकार का उद्देश्य ऐसी स्त्रियों को चित्रित करना नहीं था जो दरबार की ही हो. क्योंकि पद्माकर दरबार में बैठ कर ही लिख रहे थे. उनके पाठक के दरबारी लोग होते थे जो इस तरह की दिनचर्या से भली-भांति परिचित थे. यदि पद्माकर या अन्य कवि कोमलांगी, नज़ाकत से भरी स्त्रियों का वर्णन करते तो राजाओं व अन्य दरबारियों को उसमें कोई रस नहीं मिलता. पद्माकर ने जगद्विनोद में कुछ छंद ही दरबार की स्त्रियों की दशा और उनकी सामाजिक स्थिति को चित्रित करने के लिये रखे हैं. पद्माकर की नायिका मखमल के बिछोने पर भी असहज महसूस करती है.
सुन्दर सुरंग नैन सोभित अनंगरंग अंग अंग फैलत तरंग परिमल के.
बारन के भार सुकुमार को लचत लंक राजै परजंक पर भीतर महल के.
कहै पदमाकर बिलोकि जन रीझै जाहि अंबर अमल के सकल जल थल के.
कोमल कमल के गुलाबन के दल के सु जात गड़ि पाइन बिछोना मखमल के.9

पद्माकर और जायसी की नायिकाओं के इस पक्ष को देखे तो हम पायेंगे कि ये नायिकायें आम घर की नहीं है, दरबारी है. यह ऐसी स्त्री हैं जो पूरी तरह से काल्पनिक हैं| समाज में दरबार की स्त्रियों के लिए ऐसी ही कल्पना प्रचलित है| ऐसी स्त्री कैसी जीवित रह सकती है जो खाना ही न खाती हो| ऐसा मनुष्य क्या तो काम करेगा? सभी प्रकार के कार्यों के लिए ऊर्जा चाहिए वह ऐसे मनुष्य में कैसे आयेगी जो कुछ भी न खाता हो और पान-फूल पर ज़िंदा हो| पद्मावती इतनी कोमल है कि गुलाब का फूल अगर उसकी शैय्या पर रह जाए यो वह व्याकुल हो जाती है. उसे नींद नहीं आती. पद्माकर की नायिका इतनी कोमल है कि उससे बालों का ही भार सहन नहीं होता. तिस पर सभी कवियों के सौंदर्यबोध में लम्बे बालों वाली स्त्रियाँ ही शामिल थी. सौंदर्य का प्रतिमान माने जाने वाले ये लम्बे बाल नायिकाओं से सहन ही नहीं होते तो भी कवि का सौंदर्य-बोध नहीं बदलता.

समाज की एक प्रबल संस्था विवाह की है जिसमें स्त्री को पुरुष के घर विवाह के उपरांत जाना पड़ता है| इस संस्था में स्त्री का सब कुछ पीछे रह जाता है. वह अपने माँ-पिता के घर में बड़े चाव से पलती है और एक दिन उसे कोई पुरुष अपने घर ले जाता है जहां उसे उस परिवार की मर्यादा को निभाना होता है| शादी सिर्फ स्त्री की ही होती है ऐसा नहीं है पर विवाह में सब कुछ स्त्री ही त्यागती है| विवाह-संस्था से स्त्री के स्वभाव पर भी काफी असर पड़ता है| एक लड़की जो जब-तब खेल सकती थी, कहीं भी जा-आ सकती थी विवाह के बाद उसे संयम और मर्यादापूर्ण जीवन में रहना पड़ता है| ऐसा नहीं है कि शादी होते ही कोई महिला अपने आप बदल जाती है पर समाज उसे शुरू से ही इस तरह बनाता है कि वह बदलने को मजबूर हो जाती है| विवाह की परम्परा को अक्सर साहित्य में दिखाया जाता है| किस तरह से स्त्री अपने को बदल लेती है सब सहने की आदि हो जाती है, साहित्य इस सच से हमें रु-ब-रु करवाता है.

पद्मावती अपनी सखियों के साथ सरोवर पर नहाने जाती है| वह प्रसन्नचित्त है पर एकाएक उसे ध्यान आता है कि ये सुख अब ज्यादा दिन का नहीं है| पति के घर जाना है फिर जाने पिता के घर कब आना हो| आज ही सब खेल खेल लो| पद्मावती की सखियाँ उससे यह सब कहती हैं| पद्मावती को पदमावत में राजकुमारी दिखाया गया है पर यह सब राज-ठाठ धरे के धरे रह जाते हैं| कोई भी कितना ही राजा क्यों न हो पर स्त्री को विवाह करके दूसरे घर जाना ही पड़ता है| पद्मावती राजकुमारी है| वह चाहे तो अपने मर्जी चला सकती है पर क्योंकि वह स्त्री है इसलिए वह यह जानती है कि उसे अपने होने वाले पुरुष के अधीन ही रहना होगा| वास्तव में स्त्री हर जगह परतन्त्र है. स्त्री जिस जगह होती है उसकी परतंत्रता वैसे ही तय होती जाती है. पितृसत्ता का वह रुप नहीं मिलेगा जो दरबार में है. आज की बात करूँ तो निम्न, मध्य और उच्च वर्ग में स्त्री की अलग-अलग तरह की पराधीनता देखने को मिलती है. निम्न वर्ग में वह मार भी सहती है, घर-बाहर के काम भी करती है. उच्च वर्ग में वह अलग-अलग नियम कायदों से संचालित होती है. मध्यम वर्ग में वह तमाम नैतिकताओं को झेलती है. स्त्री की इसी स्थिति पर उमा चक्रवती कहती हैं-
‘विश्व के अधिकत्तर हिस्सों के दर्ज इतिहास की अधिकांश अवस्थाओं में स्त्री पराधीनता का वजूद रहा है. लेकिन इस पराधीनता की हद और स्वरुप का निर्धारण सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारक करते रहे हैं. दूसरे शब्दों में, स्त्री का परिवेश उसकी पराधीनता की प्रकृति को तय करता है’.10

पितृसत्ता में घिरी पद्मावती रानी से साधारण स्त्री के रूप में आ जाती है| समाज में हर स्त्री विवाह के बाद किस तरह से अपने परिवार से बिछुड़ जाती है पद्मावती के इस पक्ष का इससे पता लगता है|
ऐ रानी मन देखु बिचारी| एहि नैहर रहना दिन चारी||३||
जौ लहि अहै पिता कर राजू| खेलि लेहु जौ खेलहु आजू||४||
पुनि सासुर हम गौनब काली| कित हम कित एह सरवर पाली||५||
कित आवन पुनि अपने हाथां| कित मिलिकै खेलब एक साथा||६||11


मानो विवाह न हुआ कोई बंधन हो गया| बचपन से स्त्री किसी न किसी के आश्रय में रहती है| उसे कहाँ आना-जाना है ये घरवाले ही तय करके है| पद्मावती अपने मायके में हर जगह जा आ सकती है पर ससुराल में उसे इतनी स्वतंत्रता नहीं मिलेगी उसे डर है इस बात का| अपने खेल छूट जायेंगे ये सोच के वे दुखी है| पद्मावती जो कि इस ग्रंथ की नायिका है और एक उच्च घराने की स्त्री है वह इतना चिंतित है तो आम स्त्री की दशा का अंदाजा लगया जा सकता है. पद्माकर की नायिका इसलिए चिंतित है कि पति चाहता तो उसे बहुत है पर उसे मायके नहीं जाने देता| एक स्त्री जो अपने परिवार को छोड कर आती है विवाह के बाद उसका अपने संबंधियों से कोई नाता नहीं रह जाता. उसे हर काम अपने पति से पूछ कर उसकी इच्छा अनुसार करने पडते हैं. पद्माकर की नायिका का व्यक्तित्व सिर्फ जगद्विनोद में ही नहीं बल्कि समाज में नारी की दशा को भी बताता है. पद्मावती और उसकी सखियाँ अपने खेल और न भविष्य में मिल पाने की चिंता से दुखी है पर पद्माकर की नायिका अपने घरवालों के चिंता से परेशान है| उसे दुःख है कि वह अपने घर नहीं जा पाती|
मो बिन माइ न खाइ कछु पद्माकरत्यों भई भाबी अचेत है|
बीरन आए लिवाइबे कौं तिनकी मृदु बानिहूँ मानि न लेत है|
प्रीतम कों समुझावति क्यों नहीं ए सखी तूँ जु पै राखति हेत है|
और तौं मोहि सबै सुख री दुख री यहै माइकै जान न देत है||12

शादी के पहले और बाद स्त्री मन में कई डर होते हैं| ससुराल कैसा होगा? पति कैसे स्वभाव का होगा? सबसे ज्यादा डर उसे शादी के बाद स्थापित होने वाले शारीरिक संबंधों से होता है|  स्त्री का यह डर एक स्वाभाविक स्थिति है हर स्त्री के मन में ये डर होता है| स्त्री के मन का यह डर समाज में काम सम्बंधों की वर्जना का परिणाम है. समाज में स्त्री को काम सम्बंधों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती. उसे काम क्रिया से पूर्व कोई ज्ञान इस विषय में नहीं होता. स्त्री का काम सम्बंधों की बात करना भी अपराध माना जाता है. उसे बचपन से ही इस तरह से पोषित किया जाता है मानो काम संबंध कोई अपराध हो पर उसी काम संबंध को जब स्त्री विवाह करती है तो अनिवार्य बना दिया जाता है. स्त्री को अनेक वर्जनाओं का पालन समाज में करना पडता है. जिस कारण उसे पति से शादी के समय काफी डर लगता है. ये स्त्री का ही सामाजिककरण है क्योंकि इस क्रिया को लेकर पुरुष में कोई डर नहीं होता. बल्कि पुरुषों में इस अवसर पर उत्साह देखने को मिलता है. यदि पुरुष की तरह स्त्री समुदाय भी इस सब बातों से अवगत हो तो उसमें भय-लाज न हो और यह सम्बंध मधुर बन सके. जायसी की नायिका पद्मावती राजदरबार में रहती थी पर फिर भी उसे समाज की नैतिकताओं से बाँधा गया. काम की बातों के बारे में वह अनजान थी. संयोग के लिए जाते समय पद्मावती चिंतित हो उठती है.
सँवरि सेज धनि मन भौ संका. ठाढ़ि तिवानि टेकि कै लंका.
अनचिन्ह पिउ काँपै मन माहाँ. का मैं कहब गहब जब बाँहाँ.
बारि बएस गौं प्रीति न जानी. तरुनी भइ मैमंत भुलानी.
जोबन गरब कछु मैं नहिं चेता. नेहु न जानिउँ स्याम कि सेता.
अब जौं कंत पूँछिहि सेइ बाता. कस मुँह होइहि पीत कि राता.
हौं सो बारि औ दुलहिनि पिउ सो तरुन औ तेज.
नहिं जानौं कस होइहि चढ़त कंत की सेज.13

जायसी के समयसे रीतिकाल तक आते-आते नारी की ये स्थिति नहीं बदली थी. आज भी नहीं बदली है. आज भी हम शादी से पूर्व लड़कियों को ऐसी उहा-पोह में देख सकते हैं. किंतु पद्माकर की नायिका रति से बहुत ही ज्यादा डरती है. इस डर में वह रति भी नहीं चाहती.
अति डर तें अति लाज तें जो न चहै रति बाम.
त्यों मुग्धा को कहत हैं सुकबि नवोढ़ा नाम॥14
स्त्री-पुरुष का वह सम्बंध जो उनके बीच प्रेम को स्थापित करने वाला होता है उसमें स्त्री का इस तरह से भयभीत होना उसे हमेशा के लिए पुरुष के प्रथम स्पर्श के सुख से वंचित कर देता है. स्त्री के काम संबंधों की जानकारी जरुरी है कामसूत्र में वात्स्यायन कहते हैं-‘वात्स्यायन का कहना है कि सम्भोग के लिए कामशास्त्र का ज्ञान परम आवश्यक है क्योंकि यदि स्त्री अथवा पुरुष दोंनो में से कोई भी भयभीत, लज्जांवित अथवा पराधीन होता है तो ऐसे समय जिन उपायों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें कामशास्त्र ही बतलाता है.’15

उच्च वर्गों में पुरुषों को वेश्याओं के पास काम संबंधों को समझने के लिए भेजा जाता था. उनकी इस विषय में शिक्षा होती थी. वही समाज में नारी के लिए ऐसा कहीं प्रावधान नहीं था. तभी वह हर वक्त काम सम्बंधों से डरी हुई रहती है. स्त्री को यदि सही तरह से इन संबंधों के बारे में बताया जाए तो उसे भी इन सभी में रुचि लगे पर समाज की नैतिकताओं ने सदियों से स्त्री को इस सुख से वंचित कर रखा है. जिसके कारण वह रति के पहले अनुभव से डरती हैं. मध्यकालीन नायिकायें चाहे वह जायसी के समयकी हों या रीतिकाल की अपनी सामाजिक पितृसत्तात्मक संरचना के कारण रति से डरती थी. ये ठीक है किंतु उनके इस व्यक्तित्व का एक अन्य समाजिक पहलू भी है. आदिकाल से ही समाज में बाल-विवाह की कुप्रथा जोर पकड़ने लगी थी. बाल-विवाह, अनमेल विवाह दोनों स्त्री के रति के प्रति डर के अहम कारण हैं. यौवन से युक्त लड़का अपनी अज्ञातयौवना को काम की नज़रों से देखता है जिससे वह हमेशा घबराती है. इसका कारण उसका अबोध न कम उम्र का होना है. ऐसे में पद्माकर व जायसी की नायिकाओं का डर उनकी कम उम्र के कारण भी अधिक जान पड़ता है.

नागमती रानी है पर उसे इस बात का हर समय खतरा रहता था कि रत्नसेन कहीं दूसरी स्त्री के मोह में आकर उसे छोड न दे. नागमती और अन्य स्त्रियाँ अपने पिता के घर को छोडकर रत्नसेन के पास आई हैं. वे अच्छे से जानती हैं कि रत्नसेन किसी स्त्री के मोह में पड़ गया तो वह उन्हें छोड देगा. नागमती को ये चिंता हर वक्त सताती है क्योंकि हीरामन तोता अब चितौड में था. वह पद्मावती के रुप की चर्चा यदि रत्नसेन से कर देता तो वह उसे पाने के लिए भी दौड पडता. जायसी के प्रबल समर्थक भी कवि की इन नासमझी को समझते हैं. प्रेम इस तरह पैदा नहीं होता इस पर शुक्ल जी कहते हैं-
‘किसी के रुपगुण की प्रशंसा सुनते ही एक बारगी प्रेम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक नहीं जान पड़ता. प्रेम दूसरों की आँखों नहीं देखता अपनी आँख देखता है. अत: राजा रत्नसेन तोते के मुहँ से पद्मावती का अलौकिक रूपवर्णन सुन जिस भाव की प्रेरणा से निकल पड़ता है वह पहले रूपलोभ ही कहा जा सकता है. इस दृष्टि से देखने पर कवि जो उसके प्रयत्न को तप का स्वरूप देता हुआ आत्मत्याग और विरह विह्वलता का विस्तृत वर्णन करता है वह एक नकल सी मालूम होती है’.16

यानि रानी नागमती रत्नसेन की मानसिकता को जानती है. इसलिए वह हर वक्त डरी रहती है. यहाँ नागमती की इस स्थिति को भली प्रकार समझा जा सकता है कि वह किस तरह असुरक्षा में जीती है. कहीं कोई उसकी जगह न आ जाए. कोई उसकी पटरानी की जगह न ग्रहण कर ले. यहाँ उसकी सामाजिक स्थिति को साफ समझा जा सकता. वह विद्रोह नहीं कर रही बस चाहती है कि किसी तरह सुआ रत्नसेन से पद्मावती के रुप की चर्चा न कर दे.
जौं यह सुआ मँदिर महँ रहई. कबहुँ कि होइ राजा सौं कहई.
सुनि राजा पुनि होइ बियोगी. छाँड़ै राज चलै होइ जोगी||17

पुनि होइ बियोगी मतलब पहले भी ऐसा हुआ होगा. शायद नागमती को पाने के लिए उसके प्रेम में बेसुध होकर वह दौड़ पड़ा हो. तब नागमती सुंदर लगती थी अब कोई और सुंदर लग सकती है. पद्मावती से नागमती को डर उसकी सुंदरता के ही कारण है. पद्मावती के अन्य गुणों को जायसी ने आकर्षण का कारण नहीं बनाया है. इससे तत्कालीन समाज और उसमें स्त्री की दशा का पता लगता है. स्त्री के गुण को बड़े से बड़ा कवि नकार रहा है. बस आकर्षण है तो सौंदर्य के कारण. इस सौंदर्य की सार्थकता भी तब तक है जब तक उससे अधिक सौंदर्यवान नहीं मिल जाती.

जहाँ पदमावत  में स्त्री इस बात से चिंतित है कि उसका पति दूसरी के पास चला जायेगा वहीं पद्माकर की नायिका को पता है कि उसका पति किसी अन्य स्त्री के पास गया है वह दु:खी होती है पर वह एक कदम भी उठाती है. जिससे वह मध्यकाल की अन्य स्त्रियों से आगे दिखाई देती है. वह स्त्री पडोस में गये अपने पति को वहीं जा कर पकड़ कर लाती है. स्त्री को ऐसा करने की कहीं अनुमति नहीं है. जायसी होते तो वह इस स्त्री को फिर माया कहलवा देते पर पद्माकर ऐसा नहीं करते. नागमती वर्ष भर से ज्यादा अपने विरह में निकाल देती है. अपमान को सहते हुए. पद्माकर की नायिका अपने पति से नहीं डरती है. ये नायिका दब कर बैठने वाली स्त्री नहीं है वह मौके पर कदम उठाने वाली स्त्री है. इस स्त्री ने किन मानसिक तनावों को झेला होगा. सामजिक रुप से अपनी वास्तविक स्थिति को कितना आंका होगा तब जाकर उसने ये कदम उठाया.
रोस करि पकरि परोस तें लियाई घरै पी कों प्रानप्यारी भुजलतनि भरै भरै.
कहै पदमाकर न ऐसो दोस कीज्यो फिरि सखिन समीप यों सुनावति खरै खरै.
प्यौ छ्ल छ्पावै बात हँसि बहरावै तिय गद्गद कंठ दृग आँसुन झरै झरै.
ऐसी धनि धन्य धनी धन्य है सु वैसो जाहि फूल की छरी सों खरी हनति हरै हरै.18

नायिका –भेद के इस अंग के कारण हम ये समझ पाते हैं कि उस समय जिसे हम मध्य्काल कहते हैं ऐसी भी स्त्रियाँ थी जो कोई भी कदम उठा लेती थी. ये स्त्रियाँ अपने अपमान को सहने वाली आम महिलाओं में से नहीं है अपितु वे जाकर पति का सामना करती है ये सोचे बिना के उसका परिणाम क्या होगा. नायिका-भेद को आलोचक बहुत बुरी निगाह से देखते हैं. वे इस भेद से स्त्रियों की दशा को नहीं समझना चाहते बस आलोचना करते हैं. हिंदी के परिष्कारक माने जाने वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी नायिका-भेद के बारे में कहते हैं-
‘जहाँ तक हम देखते हैं स्त्रियों के भेद-वर्णन से कोई लाभ नहीं, हानि अवश्य है; और बहुत भारी हानि है. फिर हम नहीं जानते, क्या समझकर लोग इस विषय के इतना पीछे पड़े हुए हैं. आश्चर्य की बात है कि इस भेद-शक्ति के प्रतिकूल आज तक किसी ने चकार तक मुख से नहीं निकाला.’19


द्विवेदी जी नायिका-भेद को बुरा-भला कहते हैं. मान लेते हैं कि उनकी बात ठीक भी है पर क्या उस 200 साल के साहित्य में ऐसा कुछ नहीं जिसके कारण उसे पढ़ा जाना चाहिये? नायिका-भेद हमें उस समाज में स्त्रियों की जो दशा थी उसे बताता है. स्त्री का मनोविज्ञान पेश करता है. यह बात हम तभी समझ सकते हैं जब हम स्त्री की दशा को उसके उत्पीड़न को समझने की जरूरत महसूस करेंगे. जिन स्वतंत्र स्त्रियों की रीतिकाल में कल्पना है वह पितृसत्तात्मक सोच वाले समाज को पसंद आनी मुश्किल है. हमारे प्रिय आलोचकों को खंडिता नायिका पसन्द आती है. जो अपने पति के दूसरी जगह जाने पर चित्रित की गई है. रोती-मन मार कर बैठने वाली. विद्रोह करने वाली या अपने मन के अनुसार प्रेमी का चयन करने वाली स्त्रियाँ इन्हें पसंद नहीं आती. इन्हें पितृसत्तात्मक ढ़ांचे में ढली हुई औरत ही श्रेयस्कर लगती है.
क्रमशः

संदर्भ सूची 


1. डॉ. नगेंद्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.152 
2.  जगन्नाथदास रत्नाकर, बिहारी-रत्नाकर, दोहा-22
3.  रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.101-103
4.  डॉ.रामचंद्र तिवारी, मध्ययुगीन काव्य-साधना, पृष्ठ-68
 5. पद्माकर कृत जगद्विनोद, छंद 17
 6.  वही, छंद 18
 7. मलिक मुहम्मद जायसी कृत पदमावत  
 8. पदमावत-485 
 9. जगद्विनोद-12   
 10. उमा चक्रवर्ती, जाति समाज में पितृसत्ता, अनुवादक- विजय कुमार झा, 
  11.पदमावत, पद-60
 12. जगद्विनोद-137
 13. पदमावत, पद- 300 
  14.जगद्विनोद, छंद 38
  15.श्री देवदत्त शास्त्री, , कामसूत्रम्- वात्स्यायन, आमुख, पृष्ठ-11
  16.रामचंद्र शुक्ल, त्रिवेणी, सम्पादक कृष्णानंद, पृष्ठ-34 
  17.पदमावत, पद-85
  18.जगद्विनोद, छंद-70
  19.महावीर प्रसाद द्वेदी, रचना संचयन, पृ.-179

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