छुई-मुई

सुशांत सुप्रिय


सुशांत सुप्रिय कथाकार, कवि और अनुवादक हैं. अब तक दो कथा-संग्रह ‘हत्यारे’ (२०१०) तथा ‘हे राम’ (२०१२) और एक काव्य-संग्रह ‘ एक बूँद यह भी ‘ ( 2014) प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद की एक पुस्तक ‘ विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ‘ प्रकाशनाधीन है ।संपर्क: 09868511282 / 08512070086

( अब आप बड़े आदमी हो गए हैं . कार में चलते हैं . छुरी-चम्मच से खाना खाते हैं . विमान से  देश-विदेश की यात्राएँ करते हैं . कॉन्फ़्रेंसों के दौरान पंच-सितारा होटलों में ठहरते हैं . एक पढ़ी- लिखी सम्भ्रांत स्त्री से आपका विवाह हो चुका है . लेकिन अपनी स्मृतियों का आप क्या करेंगे ? कुछ स्मृतियाँ हैं जिनकी जड़ें अन्य सभी स्मृतियों से अधिक गहरी हैं . समय और स्थान की दूरी भी उन्हें आपसे कभी अलग नहीं कर सकती . अक्सर आपका मन आपको वहीं अतीत  में लौटा ले जाना चाहता है जहाँ आपका एक अंश पीछे छूट गया है . जैसे काली रात में आकाश में बिजली कौंधने पर पल भर  के लिए उजाला हो जाता है और आपको क्षणिक ही सही , सब कुछ साफ़-साफ़ दिखाई देने लगता है … )

तो उस गाँव में एक घर है जिसमें मैं रहता हूँ . उस घर के पुरुष जनेऊ पहनते हैं . उस गाँव के बिना इमारत , बिना छत वाले स्कूल में एक मास्टरजी पढ़ाते हैं जिन्हें हम सुकुल मास्टरजी कहते हैं . मैं उस स्कूल में पढ़ता हूँ . उनके सोंटे से डरता हूँ . गाँव के कुएँ के चबूतरे पर खेलता हूँ . गाँव के मंदिर में पिताजी के साथ पूजा करता हूँ . लेकिन गाँव में ऐसे बच्चे भी हैं जो इस स्कूल में नहीं पढ़ सकते . जो कुएँ के चबूतरे पर क़दम नहीं धर सकते . जो गाँव के मंदिर की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकते . जो उस मंदिर में पूजा नहीं कर सकते .

 एक दिन स्कूल के बाद मैं खेलता-खेलता मुसहर टोले की तरफ़ चला गया , हालाँकि उधर जाना मना था . वहाँ एक नौ-दस साल की लड़की तालाब के किनारे मछली पकड़ रही थी . वह लड़की मुझे अच्छी लगी .
” ऐ लड़की , तुम्हारा नाम क्या है ? हमसे दोस्ती करोगी ? हमको मछली पकड़ना सिखाओगी ? ” मैंने धड़कते दिल से पूछा .
” धनिया . ” उसने कहा . हमको अपने साथ इस्कूल ले कर जाओगे ? ”

  अच्छा है , स्कूल में इसका साथ रहेगा , यह सोचकर मैंने जल्दी से हाँ कर दी . हालाँकि मुझे माँ-पिताजी की बात याद आई कि मुसहर टोले में गंदे लोग रहते हैं , उधर नहीं जाना चाहिए . और यह सोचकर कि मैंने मुसहर टोले की एक लड़की को अपना दोस्त बना लिया है , मुझे डर भी लगा . कहीं भैया या दीदी ने देख लिया तो ? माँ-पिताजी को पता चल गया तो ? लेकिन धनिया से दोस्ती का आकर्षण उस डर से बड़ा था .


  फिर क्या था . मैं रोज़ स्कूल से लौटते समय कुछ देर के लिए मुसहर टोले के आगे गाँव के बाहर उगे जंगल में धनिया से मिलने के लिए जाने लगा . कुछ ही दिनों में मुसहर टोले के कई और लड़के भी मेरे अच्छे दोस्त बन गए . कलुआ , बिसेसरा , गनेसी , रमुआ — सब धनिया के साथ वहीं जंगल में घूमते रहते थे . उनकी नाक बह रही होती थी . उनके कपड़े फटे हुए और गंदे होते थे . फिर भी वे मुझे अच्छे लगते थे . वे शहद के छत्ते में आग लगा कर शहद निकाल लेते थे , गुलेल से निशाना लगा कर उड़ती चिड़िया गिरा लेते थे .
” हमको भी गुलेल चलाना सिखाओ न ” एक दिन मैंने ज़िद की .
” तुम्हारे बाबू को पता चला कि तुम हम लोगों के साथ घूमते हो तो तुमको बड़ी मार पड़ेगी . ” धनिया बोली .
” क्यों ? ” मैं यह जानता था लेकिन मैंने बड़ी मासूमियत से पूछा .
” हम लोगों के साथ घूमने-फिरने से , हमारा छुआ खाने-पीने से तुम्हारा धर्म ख़राब हो जाएगा . ” बिसेसर बोला .
” हम नहीं मानते . ” मैंने कहा .

 एक बारह साल के बच्चे के लिए तालाब के पानी में चपटे पत्थर से ‘ छिछली ‘ खेलना सीखना , आम के पेड़ पर चढ़ना सीखना , गुलेल चलाना सीखना और मछली पकड़ना सीखना जैसे काम ‘ धरम ‘ के बारे में सोचने से ज़्यादा ज़रूरी थे . यूँ भी मुझे उनका साथ अच्छा लगता था . इसलिए घर पर पता चल जाने पर मार पड़ने का डर होते हुए भी मैंने उन सबका साथ नहीं छोड़ा .
एक दिन मैंने उनसे पूछा — ” अच्छा , बताओ , मुझे तुम सब लोग क्यों अच्छे लगते हो ? ”
इससे पहले कि मेरे बाक़ी साथी कुछ कह पाते , धनिया तपाक से बोली — ” पिछले जन्म में तुम भी मुसहर रहे होगे , और का ! ” न जाने क्यों यह सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा .
” ये कौन-सा पौधा है ? ” एक दिन तालाब के किनारे घूमते हुए मैंने पूछा . पत्तियों को हाथ लगाते ही वे सिकुड़ जाती थीं , सिमट जाती थीं . जैसे शरमा कर खुद में ही बंद हो रही हों .
” इ छुई-मुई है . ” धनिया बोली .

अगले दिन शरारत में ही मैंने धनिया के पेट में उँगली से गुदगुदी कर दी . वह हँसते-हँसते ज़मीन पर गिरकर लोट-पोट होने लगी . मैं भी उसके साथ ज़मीन पर बैठकर उसकी देह में उँगलियों से गुदगुदी करता रहा . इस सब के बीच मेरा मुँह उसके मुँह के क़रीब आ गया और मैंने उसे चूम लिया . उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया . लाज से उसकी देह ऐसे सिमट गई जैसे वह छुई-मुई की पत्ती हो .
” अरे , तुम तो बिलकुल छुई-मुई जैसा करती हो . ” मैंने कहा .
” धत् ! ” यह कहकर वह वहाँ से भाग गई .
” आज से हमने तुम्हारा नाम छुई-मुई रख दिया है . ” मैं चिल्लाया .

 इसी तरह दिन बीतते रहे . एक दिन स्कूल के बाद जब मैं छुई-मुई और दूसरे दोस्तों से मिलने गया तो उन्होंने मुझे मेरा वादा याद दिलाया कि मैं उन सबको भी अपने साथ स्कूल ले जाऊँगा . अगले दिन के लिए बात तय हो गई . अगली सुबह छुई-मुई और मेरे दूसरे साथी स्कूल के पास मेरा इंतज़ार कर रहे थे . उन्हें लेकर मैं सुकुल मास्टरजी के पास पहुँचा . उन्हें देखकर सुकुल मास्टरजी के माथे पर बल पड़ गए .
” क्या है रे ? आज देर से क्यों आया है ? ”
” मास्साब , ये सब हमारे दोस्त हैं . ये भी हमारी तरह स्कूल में पढ़ना चाहते हैं . ” उनके सवाल का जवाब दिए बग़ैर मैंने कहा .

मास्टर साहब शायद उन सब के बारे में पहले से जानते थे . उन सबको ज़ोर से डाँटकर वे बोले — ” भागो यहाँ से , ससुरो ! अब मुसहर लोग भी स्कूल में पढ़ेंगे ! ”
यह सुनकर छुई-मुई की आँखों में आँसू आ गए . मुझे बहुत बुरा लग रहा था . पर मैं मास्टर साहब के सोंटे से बहुत डरता था . कलुआ , बिसेसर वग़ैरह मास्टर साहब को गाली देते हुए वहाँ से भाग गए . छुई-मुई भी रोते-रोते वहाँ से चली गई .
” कुल का नाम खूब रोशन कर रहे हो , बबुआ ! ” उनके जाने के बाद मुझे सोंटे से मारते हुए मास्टर साहब बोले .
उसी दिन उन्होंने मेरे पिताजी को सारी बात बता दी . उस रात घर पर मेरी खूब पिटाई हुई और छुई-मुई और मुसहर टोले के दूसरे दोस्तों से मेरा मिलना-जुलना बंद करवा दिया गया .इस घटना के एक महीने के बाद पिताजी ने मेरा नाम शहर के स्कूल में लिखवा दिया और आगे की पढ़ाई के लिए मुझे चाचाजी के पास शहर भेज दिया गया .
” गाँव में रहकर यह बुरी संगत में बिगड़ रहा था . ” मुझे शहर तक छोड़ने आए पिताजी ने चाचाजी से कहा .
अब मैं साल में एकाध बार ही गाँव आ पाता . वहाँ भी मुझ पर कड़ी नज़र रखी जाती . मेरा मन छुई-मुई और दूसरे दोस्तों से मिलने के लिए छटपटाता रहता .

फिर स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करके मैंने किसी दूसरे शहर में कॉलेज में दाख़िला ले लिया . गाँव आए हुए मुझे कई साल हो गए , लेकिन छुई-मुई की छवि मेरे भीतर अब भी सुरक्षित थी . अब मैं बड़ा हो गया था . मेरी दाढ़ी-मूँछें निकल आई थीं . मैं शेव करने लगा था . मेरे भीतर छुई-मुई से मिलने की इच्छा बलवती होती जा रही थी . किंतु फिर मेरी नौकरी लग गई . और मैं उधर व्यस्त हो गया .

कई साल बाद पिताजी की मृत्यु के मौक़े पर जब मैं गाँव लौटा तो मैंने पाया कि मेरा गाँव अब पहले वाला गाँव नहीं रह गया था . वह बहुत बदल चुका था .पिताजी के दाह-संस्कार के बाद मैं छुई-मुई और दूसरे साथियों के बारे में पता करने मुसहर टोला पहुँचा .
” धनिया के साथ बहुत बुरा हुआ , बेटा . पैसा-रुतबा वाला लोगन का लड़िका सब ऊ के साथ मुँह काला कर के ऊ का गला घोंट दिया और लास को तालाब में फेंक दिया . ” मुसहर टोले के एक बुज़ुर्ग ने दुखी मन से बताया .

यह सुनकर मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया . मेरा गला सूखने लगा . और मुझे साँस लेने में तकलीफ़ होने लगी .मुझे लगा जैसे मेरी उड़ान का आकाश हमेशा के लिए खो गया हो .
” और बिसेसर , कलुआ वग़ैरह कहाँ हैं ? ” मैंने किसी तरह खुद को सम्भालते हुए पूछा .
” बेटा , ऊ लोग धनिया की मौत का बदला लेने गए . पर हत्यारा सब ने हमार सब बचवा को गोली मार दी . उहे रात ऊ सब का गुंडा लोग आय के मुसहर टोला में आग लगा दिया . ” बुज़ुर्ग की आँखों में अँधेरा भरा हुआ था .
” और धनिया के माँ-बाप का क्या हुआ ? ” मैंने डरते-डरते पूछा .
” ऊ बेचारे भी हमार टोला में लगी आग में जल के मर गए .” बुज़ुर्ग ने रुँधे गले से बताया .
” पुलिस ने कुछ नहीं किया ? ”
” पुलिस तो पैसा-रुतबा वालन की सुने है . हम ही लोगन को डरा-धमका के चली गई . ”

तो यह था मेरे देश की इक्कीसवीं सदी का कड़वा सच ! हर गाँव में खैरलाँजी और मिर्चपुर .  मैं वहाँ से ख़ाली हाथ लौट आया . मुझे लगा जैसे मेरी दुनिया लुट गई हो . हत्यारों की पहुँच ऊपर तक थी . मैं छटपटा कर रह गया .लेकिन  इस घटना से बेचैन हो कर मैंने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया . मैंने गाँव के बचे हुए दलित लड़के-लड़कियों के साथ अपने पुश्तैनी धन से शहर में अपना एक एन. जी. ओ. स्थापित किया जो प्रताड़ित दलितों और आदिवासियों के बीच जा कर उनके पुनर्वास लिए काम करता है और उनके अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करता है .

 मैंने गाँव में और तालाब के किनारे छुई-मुई के पौधे खोजने की बहुत कोशिश की , पर अब गाँव में छुई-मुई का पौधा कहीं नहीं बचा है . गाँव में जगह-जगह पक्के मकान बन गए हैं . बिजली के खम्भे लग गए हैं . एक पक्की सड़क अब गाँव को हाइवे से जोड़ती है . सुकुल मास्टरजी का देहांत हो चुका है . गाँव के जिस बिना इमारत , बिना छत वाले स्कूल से मैंने अपनी शुरुआती शिक्षा पाई थी , उसकी जगह एक पक्के इमारत वाला स्कूल बन गया है . मुसहर टोले के उस पार उगा सारा जंगल कट चुका है . जहाँ पहले छुई-मुई उगती थी , उस जगह अब दुकानें बन गई हैं — डिश टी. वी . और केबल टी. वी. वालों की दुकानें , कोका कोला और पेप्सी बेचने वाली दुकानें . तालाब का ज़्यादातर हिस्सा सूख गया है . जहाँ थोड़ा-बहुत पानी बचा है , वहाँ काई की एक मोटी परत जमी हुई है . वहाँ अब बीमारी फैलाने वाले मच्छर पनपते हैं .

बस एक चीज़ नहीं बदली है — वह है गाँव का मुसहर टोला . वह आज भी उतना ही उपेक्षित , उतना ही अलग-थलग पड़ा हुआ. एक दिन आठवीं कक्षा में पढ़ने वाला मेरा बारह वर्षीय बेटा अपनी’ बायोलाजी ‘ की कापी लेकर  मेरे पास आया .
” पापा , ये ‘ मुमोसिका पुडिका ‘ क्या होती है ? ” उसने पूछा .
” यह एक पौधा होता है जिसे ‘ छुई-मुई ‘ कहते हैं . इसकी पत्तियों को हाथ लगाओ तो ये जैसे शरमा कर सिकुड़ जाती हैं . ” मैंने कहा .
” कितना फ़नी नाम है , पापा ! यह दिखने में कैसी होती है ? ”
कंक्रीट-जंगल वाले इस शहर में अब मैं तुझे क्या बताऊँ बेटा कि छुई-मुई दिखने में कैसी होती है . अब तो गाँव में भी छुई-मुई नहीं बची — मैंने मन में सोचा .
मुझसे अपने सवाल का जवाब नहीं पाकर वह बोला ” कोई बात नहीं , पापा . मैं इंटरनेट पर गूगल में ढूँढ़ लूँगा .”

( यदि आप मुझसे पूछेंगे तो मैं आपको नहीं बता पाऊँगा कि बहती हुई नाक वाले बच्चे मुझे क्यों अच्छे लगते हैं . फटे हुए गंदे कपड़े पहने बच्चे मुझे आज भी क्यों अपने-से लगते हैं . ढाबों में काम करने वाले बच्चों और मुझमें क्या रिश्ता है . फ़ुटपाथ पर जूते पॉलिश करने वाले बच्चों में मैं किन्हें ढूँढ़ता हूँ . लाल बत्ती पर गाड़ियों के शीशे साफ़ करने वाले बच्चों को मैं क्यों हर बार बीस-बीस रुपयों के नोट पकड़ा देता हूँ . इन्हें देखकर मैं क्यों उदास हो जाता हूँ . क्यों मेरा मन करता है कि मैं किसी तरह इन्हें इनका खोया बचपन वापस लौटा सकूँ . यदि आप मुझसे यह सब पूछेंगे तो मैं आपको वाकई यह नहीं बता पाऊँगा कि मुखौटा लगाए , पढ़े-लिखे , तथाकथित सभ्य , साहब लोगों के बीच मैं क्यों एक मिसफ़िट हूँ . धनाढ़्य लोगों के बीच मैं क्यों एक अजनबी हूँ . तथाकथित ऊँची जाति वाले लोगों के बीच मैं क्यों खुद को एक विदेशी जासूस-सा महसूस करता हूँ . छुई-मुई के प्रदेश से . छुई-मुई के काल से . छुई-मुई की जमात से … )

दलित स्त्रीवाद , मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

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संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com  

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ISSN 2394-093X
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