कविता कृष्णपल्लवी की कविताएँ

कविता कृष्णपल्लवी ड़ी


कवियत्री-लेखक, सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता , विशेषकर स्त्री-मजदूरों के बीच सक्रिय। संपर्क :kavita.krishnapallavi@gmail.com

कविताई का हुनर 

वह कठिन समय का जलता सच था.
गंध चिरांयध फैल रही थी
लाशों की बदबू फैली थी
आसपास उन्मादी नारे गूँज रहे थे.
मैंने इस सच को कविता में रखना चाहा.
हृदय व्यग्र था, उत्तेजित था.
कविता बनी, मगर कविता में
कविता कम थी, सच्चाई का
सीधे-सीधे कथन अधिक था.
कवि ने देखा, मुँह बिचकाया
धिक्कारा उसने, ”ऐसे कैसे सुकवि बनोगी?
तुम सब गुड़गोबर कर दोगी.”
कवि ने फिर कविताई का जौहर दिखलाया
झालर-फुँदनों से सच को ही ढँक डाला.
बोली मैं, ”कवि जी, यह कविता पास रखो तुम
काम आयेगी, चर्चा होगी और
बहुत सम्मान मिलेगा.
समय मिला तो हम भी माँजेंगे कविताई
लेकिन अभी ज़रूरत जैसी,
कम कविता और ज्यादा सच से
अपना काम चला लेंगे हम.”
अच्छी होती है कविताई,
दुर्लभ गुण है, लेकिन ऐसे कठिन समय में
सच्चाई और कविताई में चुनना ही हो
अगर हमें तो
सच्चाई को हम चुन लेंगे.
समय मिलेगा अगर कभी तो
कविता की बहुरंगी चादर भी बुन लेंगे.

नालन्दा के गिद्ध 

गिद्धों ने
नालन्दा के परिसर में स्थायी बसेरा बना लिया है.
पुस्तकालय में गिद्ध,
अध्ययन कक्षों और सभागारों में गिद्ध,
छापाखानों में गिद्ध, सूचना केन्द्रों में गिद्ध,
नाट्यशालाओं और कला-वीथिकाओं में गिद्ध.
गिद्ध नालन्दा से उड़ते हैं
बस्तियों की ओर
वहाँ वे जीवित संवेदनाओं, विश्वासों और आशाओं
को लाशों की तरह चीथते हैं,
पराजित घायलों और मृत योद्धाओं पर टूट पड़ते हैं.
फिर गिद्ध मार्क्सवाद से लेकर गाँधीवाद तक की भाषा में
मानवीय सरोकारों के प्रति गहरी चिन्ता जाहिर करते हैं
और तमाम बस्तियों को
अफ़वाहों, शक़-सन्देहों और तोहमतों की
बीट से भरते हुए
नालन्दा की खोहों में वापस लौट जाते हैं.

मेरी मां

मेरी मां
इक माटी का दियना
दिप-दिप जलती बाती.
लंबी रात में
दुख ही साथी
दुख ही सदा संघाती.

मेरी मां
बस दुख की दुल्हनियां
दुख से गांठ जुड़ाती.
दुख का चंदोवा
दुख का मंड़वा
दुखिया सभी बराती.

मेरी मां
इक घायल हारिल
सपन देस की बासी
कनक दीप का
सपना देखे
अनगिन बरत उपासी

मेरी मां
मौसम की मारी
पगली नदी बरसाती.
सावन-भादो
उमड़कर बहती
फिर सूखी रह जाती.

मेरी मां
इक खोई गइया
चौंरे बीच रंभाती.
बिछुड़ गये सब
बछड़े-बछिया
दूध बहाती जाती.

मेरी मां
एक प्यासी गगरिया
नदिया को लिखती पाती.
कोने बैठ
टकटकी बांधे
यादों को दुलराती.

मेरी मां
इक आंसू का कतरा
आंखे जिसे पी जातीं.
जलती-बुझती
रात-अंधेरे
भोर हुए झंप जाती.

मेरी मां
इक अकथ कहानी
सोच फटे यह छाती.
लिख ना सके
कोई बांच न पाये
अनबूझी रह जाती.

गाज़ा के एक बच्चे की कविता 

बाबा! मैं दौड़ नहीं पा रहा हूँ.
ख़ून सनी मिट्टी से लथपथ
मेरे जूते बहुत भारी हो गये हैं.
मेरी आँखें अंधी होती जा रही हैं
आसमान से बरसती आग की चकाचौंध से.
बाबा! मेरे हाथ अभी पत्थर
बहुत दूर तक नहीं फेंक पाते
और मेरे पंख भी अभी बहुत छोटे हैं.

बाबा! गलियों में बिखरे मलबे के बीच
छुपम-छुपाई खेलते
कहाँ चले गये मेरे तीनों भाई?
और वे तीन छोटे-छोटे ताबूत उठाये
दोस्तों और पड़ोसियों के साथ तुम कहाँ गये थे?
मैं डर गया था बाबा कि तुम्हें
पकड़ लिया गया होगा
और कहीं किसी गुमनाम अँधेरी जगह में
बंद कर दिया गया होगा
जैसा हुआ अहमद, माजिद और सफ़ी के
अब्बाओं के साथ.
मैं डर गया था बाबा कि
मुझे तुम्हारे बिना ही जीना पड़ेगा
जैसे मैं जीता हूँ अम्मी के बिना
उनके दुपट्टे के दूध सने साये और लोरियों की
यादों के साथ.

मैं नहीं जानता बाबा कि वे लोग
क्यों जला देते हैं जैतून के बागों को,
नहीं जानता कि हमारी बस्तियों का मलबा
हटाया क्यों नहीं गया अबतक
और नये घर बनाये क्यों नहीं गये अब तक!
बाबा! इस बहुत बड़ी दुनिया में
बहुत सारे बच्चे होंगे हमारे ही जैसे
और उनके भी वालिदैन होंगे.
जो उन्हें ढेरों प्यार देते होंगे.
बाबा! क्या कभी वे हमारे बारे में भी सोचते होंगे?

बाबा! मैं समंदर किनारे जा रहा हूँ
फुटबाल खेलने.
अगर मुझे बहुत देर हो जाये
तो तुम लेने ज़रूर आ जाना.
तुम मुझे गोद में उठाकर लाना
और एक बड़े से ताबूत में सुलाना
ताकि मैं उसमें बड़ा होता रहूँ.
तुम मुझे अमन-चैन के दिनों का
एक पुरसुक़ून नग्मा सुनाना,
जैतून के एक पौधे को दरख्‍़त बनते
देखते रहना
और धरती की गोद में
मेरे बड़े होने का इंतज़ार करना.

पूँजी 

कारखानों में खेतों में करती है श्रमशक्ति की चोरी
वह मिट्टी में ज़हर घोलती है
हवा से प्राणवायु सोखती है
ओजोन परत में छेद करती है
और आर्कटिक की बर्फीली टोपी को सिकोड़ती जाती है.
वह इंसान को अकेला करती है
माहौल में अवसाद भरती है
मंडी के जच्चाघर में राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करती है
स्‍वर्ग के तलघर में नर्क का अँधेरा रचती है.
आत्‍मसंवर्धन के लिए वह पूरी पृथ्वी पर
कृत्‍या राक्षसी की भाँति भागती है
वह अनचीते पलों में
दिमाग पर चोट करती है
युद्धों की भट्ठी में मनुष्यता को झोंकती है.
वह कभी मादक चाहत तो कभी
आत्मघाती इच्छा की तरह दिमाग में बसती है
युद्ध के दिनों में हिरोशिमा
और शान्ति के दिनों में
भोपाल रचती है.

झाड़ू पुराण

झाड़ू से बुहारी नहीं जा सकती हैं लाशें.
झाड़ू दामन पर लगे
खून के धब्बों को साफ नहीं कर सकता.
झाड़ू जली हुई वीरान बस्तियों को
आबाद नहीं कर सकता.
झाड़ू खण्डहरों को रौशन नहीं कर पाता.
और हाँ, झाड़ू स्मृतियों को
बुहार नहीं सकता,
न ही इतिहास को
कूड़ेदान के हवाले कर सकता है.
झाड़ू बदलाव के जज़्बे को
ठिकाने नहीं लगा पाता.
झाड़ू पर सवार जादूगरनी
हमेशा ही एक बच्चे के हाथों
मात खाती रही है.


विरासत

मेरे पास है
एक बीमार गुलाब.
मेरे पास है
एक काला पत्थर
पितरों की विरासत
और नग्न यक्षिणी की एक प्रतिमा.
मेरे पास है सुई-धागा,
कीलें अलग-अलग नापों की,
हथौड़ी, छेनी, निहाई, खुरपी, दरांती
और घंटी और डायरियां और झोले
और गर्भ की स्मृतियाँ
और शरीर पर जले-कटे के निशान
और आत्मा में
कोयला खदानों का अंधेरा
और उमस और टार्चों की रोशनी.
उपेक्षा ने सिखाया मुझे
सुलगते रहना.
दर्द से सीखा मैंने हुनर
भभककर जल उठने का.
आज़ादी चाहिए थी मुझे शुभचिंतकों से
मनमुआफिक विद्रोह के लिए
और मेरे पास वह कायरता भी थी
युगों से संचित
कि इतना समय लग गया ऐसा करने में.

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ISSN 2394-093X
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