कर्मानन्द आर्य की कवितायें: अगली पीढ़ी की लड़की और अन्य

कर्मानन्द आर्य

कर्मानन्द आर्य मह्त्वपूर्ण युवा कवि हैं. बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाते हैं. संपर्क : 8092330929

काठमांडू का दिल

लड़कियां जो सस्ता सामान बेचकर
लोगों को लुभाती हैं
लड़कियां जो जहाजी बेड़े पर चढ़ने से पहले
लड़कपन का शिकार हो जाती हैं
उन्हीं को कहते हैं काठमांडू का दिल
पहाड़ तो एक बहाना है
उससे भी कई गुना शक्त है वहां की देह
उससे भी कहीं अधिक सुन्दर हैं
देहों के पठार
और अबकी बार जब भी जाना नेपाल
उसका बचपन जरुर देख आना
होटल में बर्तन धोते किसी बच्चे से ज्यादा चमकदार हैं उनकी आँखें
नेपाल में आँखे देखना
थाईलैंड नहीं
जो आवश्यकता से अधिक गहरी और बेचैन हैं
फिर दिल्ली के एक ऐसे इलाके में घूमने जाना
जिसे गौतम बुद्ध रोड कहते हैं
जो कई हजार लोगों को मुक्त करता है
उनके तनाव और बेचैनी से
वहां ढूँढना वह लड़की जो सस्ता सामान बेचकर
जहाज ले जाती है अपने गाँव

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मिलन

पैरों की धूल चढ़कर बैठ जाती है माथे पर
उसे उतारता नहीं हूँ
तुमसे प्यार है तो तुम्हारी धूल भी पसंद है मुझे
यानी प्यार में सुखी होने के लिए
वह सब करता हूँ जो पसंद भी नहीं
पुरुष का अहंकार नहीं
यह प्यार है
जिसमें बन जाना होता है छोटा
झुक जाना होता है जमीन तक
चलना होता है लंगड़ाकर
गिरकर, और गिरना होता है
यह प्यार ही है
झुकता हूँ, चलता हूँ, दौड़ता, हांफता हूँ
फिर गिर पड़ता हूँ
गिरकर होता हूँ सुखी
इसी क्रम में चढ़ती है धूल, थकती हैं साँसें
कोई पड़ाव नहीं आता
प्यार के लिए

जाने कितने बरस, जाने कितनी सदियाँ
बीत चुकी हैं
दौड़ रहा हूँ, भाग रहा हूँ
मिलन की चाह है
अभी तक आधा अधूरा है मिलन

पढ़ें मैं अपनी पीढ़ियों में कायम हूँ, मैं इरोम हूँ

प्रतिमान

कविता की कचहरी में
हमारे लिखने से कई लोग
संदेह से भर गए हैं कि तुम लिखने कैसे लगे हो
कमजोर है तुम्हारी भाषा
मटमैले हैं तुम्हारे शब्द
अभी तो अक्षर ज्ञान लिया है तुमने
कैसे लिख सकते हो, तुम
सुनहरी सुबह, दशरथ मांझी के हौसले सी होती है
मौसम,
मेरी कॉम जैसा होता है
और मिज़ाज
फूलनदेवी सा
कैसे लिख सकते हो तुम कि तराई की औरतें
अपना देह बेचकर जहाज लाती हैं
भूख ईलाज है धनपशुओं के लिए
कैसे लिख सकते हो तुम

कैसे लिख सकते हो
सताए हुए लोग क्रांति का बीज बोते हैं
भूख से बिलखकर
कविता नहीं लिखी ग्वाले ने
जब बाजार में सजी कविता
वह नहीं था दूधिये का पैरोकार
कैसे लिख सकते हो तुम
परिंदे की उड़ान से बनी
लड़ते आदमी की देहें
बहुत घायल हैं
कैसे लिख सकते हो तुम
कविता हमारी पहचान है
इस इलाके में तुम कैसे ?
अनगढ़ है भाषा
टूटे हुए हैं शब्द
काँप रही है इनकी भंगिमा

माई बाप !
लिखने दीजिये हमें
अभी तो लिखनी है हमें अगली सदी की कविता
हम तैयार कर रहे हैं
संगीत की सुन्दरतम धुन
कला के मोहक रंग
कविता में चाहतों का इच्छित इतिहास
आदमी के आदमखोर होते जाने की पीड़ा
नगर से गाँवों की तरफ
लगातर बढ़ रही धुंध
हमें लिखने दीजिये पोथी
हमारी यही अनगढ़ता प्रतिमान बनेगी एक दिन
हमारी कविता में

पढ़ें : कर्मानन्द आर्य की कवितायें

साथ

पेड़ चाहता है ऊँचा उठे
धरती चाहती है फैले
सूरज चाहता है किसी भी तारे से
अधिक चमकदार और गहरा दिखाई दे उसका चेहरा
हवा चाहती है निर्झर
नदी चाहती है समुद्र से सुन्दर हो उसकी काया
सड़क चाहती है सभ्यतायें उसकी हमसफ़र हों
मैं मनुष्य होकर

कुछ नहीं चाहता था
सिवाय इसके कि दुनिया बच्चेदार और खूबसूरत बनी रहे
हवा चले तो गीत बजें
हाथ सलामत रहें तो रोटी का जुगाड़ रहे
सच बोलें तो दोस्त खड़े हों साथ
तरक्की हो
कसरत करें तो मोहतरमा की सेहत बढ़े

मैंने वह सब किया है जो मनुष्य होने के नाते करते हैं लोग
पर आज मुआफ़ी मांग रहा हूँ दोस्त
मैंने अगली सदी के लिए कुछ नहीं किया
नदियों को पंगु किया
पेड़ोंके तोड़ दिए पाँव
खोद डाला चट्टानों का दिल
और तो और
ड्रग्स तक बेचा है मेरी सदी के लोगों ने

प्रकृति के सहारे जीने वाले मेरे दोस्त
न्याय के कटघरे में खड़े अपने इस दोस्त को बताओ
अगली सदी का मनुष्य किसके पापों की सजा पायेगा

पढ़ें कर्मानंद आर्य की कवितायें : वसंत सेना और अन्य

अगली पीढ़ी की लड़की

हमारी कोई ब्रांच नहीं है
हमारी कोई सीरीज नहीं है
हमारी कोई श्रृंखला नहीं है
हम इस दुनिया में बिलकुल अकेली हैं
हमसे मिलना तुम
हम लड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम दौड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम काम करती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम असंगठित मजदूर हैं
सभाभवन की
जहाँ दहाड़ती हैं राजा की आवाजें

मुखविर हैं काली मूछें
हम चुहियायें हैं व्यवस्था की
हम अठारह से चौबीस हैं
हमारी किताब की गिनती ख़त्म हो जाती है चालीस बाद
लोगों को पसंद नहीं आते हमारे सूखे स्तन
जैसे चंद्रमा उतरता है
काली अँधेरी नदी में वैसे ही उतर जाती हैं हम
वैसे उतरती है हमारी उम्र
हम सेब नहीं रह जातीं
हम अनार नहीं रह जातीं
हम कटहल हो जाती हैं भाषा में
हमें खाती जाती है हमारी चिंता

सुनो बाबू !
ये जो तुम रात भर खेलते हो हमारे साथ लुकाछिपी
करते हो मर्यादा तार-तार
बनाते हो पतनशील
पत्नी और वेश्या को एक साथ मिला लेने का करते हो स्वांग
प्रेमिकाओं के तलछट पर रगड़ते हो माथा
यही वे करने लगें
तब बताओ क्या कहोगे तुम
क्या करोगे तुम जब बगावत की वेदी पर डाल दें वे
गंदी सोच का कूड़ा
जो पतनशील हैं
वे ज्वलनशीलहो गई हैं इन दिनों
वहीव्यवस्थाकी जंजीर तोड़कर
जी रहीं हैं काठ का जीवन

हम वही हैं हमारी कोई ब्रांच नहीं है
नहीं है हमारा संघ
नहीं है हमारी शाखा !!

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