जजिया कर से भी ज्यादा बड़ी तानाशाही है लहू पर लगान



संपादकीय 

सोचता हूँ कि सैनिटरी पैड पर लगाया जाने वाला टैक्स क्या पुरुष लिंग के अहम से उपजा निर्णय नहीं है? क्या निर्णय लेने वाली संस्थाओं पर महिलाओं का नेतृत्व होता तो यह टैक्स लगना या उसे बढ़ाना संभव था? ऐसा इस परिवेश में सोच रहा हूँ जहाँ बमुश्किल 12% स्त्रियाँ ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं और शेष, यानी देश की महिलाओं की बहुसंख्य आबादी, पारम्परिक तौर पर इस्तेमाल किये जाने वाले कपड़ों का ही इस्तेमाल करती हैं. कल्पना कीजिए कि इस देश में व्यवस्था पर महिलायें काबिज होतीं तो क्या वे इस तरह के टैक्स के बारे में सोच भी सकती थीं, नहीं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि एक महिला सांसद सुष्मिता देव के द्वारा इस तरह के टैक्स के खिलाफ जब ऑनलाइन पेटीशन शुरू किया गया तो महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने अपने कैबिनेट के साथ वित्तमंत्री से आग्रह किया कि सैनिटरी पैड को टैक्स मुक्त करने की दिशा में सरकार आगे बढे.

इस देश में 20% से अधिक लडकियां माहवारी शुरू होने के बाद स्कूल छोड़ देती हैं और जो जाती भी हैं, उनमें से एक बड़ी संख्या माहवारी के दिनों में स्कूल नहीं जाती हैं. माहवारी के दिनों में गंदे कपड़ों के इस्तेमाल से खराब स्वास्थ्य की चिंता करने की जगह व्यवस्था सैनिटरी पैड पर टैक्स बढाने में लगी है.

यूं शुरू हुई हैप्पी टू ब्लीड मुहीम

कंडोम और कंट्रासेप्टिव पर नहीं लगाये जाते टैक्स


सैनिटरी पैड महिलाओं के स्वास्थ्य से सीधे जुड़ा मामला है, और उसपर सरकार टैक्स लगाती है, जबकि कंडोम और कंट्रासेप्टिव पर नहीं. हालांकि कंडोम और कंट्रासेप्टिव भी महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा है-खासकर प्रजनन पर आंशिक अधिकार और अनचाहे गर्भ से मुक्ति के प्रसंग में. इन दोनो अनिवार्य उत्पादों का संबंध दरअसल महिलाओं के प्रजनन और सेक्स से जुड़ा मामला है, जिससे पुरुष का अपना वंश जुड़ा है और राज्य की जनसंख्या संबंधी नीति भी, इसके माध्यम से राज्य और परिवार एक हद तक जनसंख्या पर कंट्रोल रखना चाहता है.  लेकिन सैनिटरी पैड  सीधे महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा है, जो असंवेदनशील और पुरुषवादी राज्य के लिए एक गैरजरूरी प्रसंग है. इससे स्वास्थ्य के प्रति राज्य का रवैया भी स्पष्ट होता है, जिसके तहत अपने स्वास्थ्य की रखवाली नागरिक का निजी मुद्दा है.

माहवारी पर बात की झिझक हुई ख़त्म


माहवारी के प्रति रवैया और कुंठा 


पिछले दिनों एक शिक्षिका ने बताया कि उसके स्कूल में जब लड़कियों को सैनिटरी पैड बांटने की बारी आती है तो एक अजीब सा माहौल होता है. शिक्षिकाएं इसे बांटने से बचना चाहती हैं. वह स्कूल सह-शिक्षा का स्कूल है. साथी लड़के और किशोर छात्र तथा पुरुष सहकर्मी क्रमशः लड़कियों और शिक्षिकाओं के लिए भी कथित असहज माहौल बनाते हैं. माहवारी के दिन घरों में भी सहज माहौल वाले नहीं होते. आज जब महिलाओं का एक हिस्सा इस पर खुलकर बात करना शुरू कर रही हैं तो उन्होंने कई प्लेटफ़ॉर्म पर बताया है कि कैसे घरों में पुरुष सदस्यों से इसे छुपाया जाता है या कपड़े इस्तेमाल करना, उन्हें धोना-सुखाना कितना गुप्त मिशन सा होता है. ऐसी स्थिति में गंदे कपड़ों का या गीले कपड़ों का इस्तेमाल उनके लिए बीमारियाँ लेकर आता रहा है. माहवारी को अपवित्र भी माना जाता है. एक ओर प्रजनन को पवित्र मानने वाला समाज, देवियों की योनि की पूजा करने वाला और पत्त्थर की मूर्तियों की कथित माहवारी में निकले कथित खून को प्रसाद स्वरुप लेने वाला समाज इन अनिवार्य दिनों से गुजर रही स्त्रियों को अपवित्र मानता है. महिलाओं ने पीढी-दर-पीढी इस मानने को आत्मसात भी कर लिया है. परिणाम स्वरुप माहवारी उनके लिए एक कुंठा लेकर आता है. इस कुंठा के खिलाफ भी मुखर स्त्रियों के एक समूह ने जंग छेड़ रखा है. अपनी बात कह रही हैं, कविताओं में दर्ज कर रही हैं.

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सरकार को क्या करना था क्या करने लगी 


स्वास्थ्य सरकारों की जिम्मेवारी है. उसे माहवारी के प्रति अपवित्रता और गुप्तता के भाव के खिलाफ अभियान चलाना चाहिए था. और साथ ही महिलाओं के लिए सैनिटरी पैड की अबाध और मुफ्त उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए थी. लेकिन इसके विपरीत वह कर लगाती है, कर बढाते जाती है- जिसका परिणाम होगा इस सुविधा से महिलाओं का और वंचन. ऐसा इसलिए होता है कि व्यवस्था पुरुषों के द्वारा पुरुषों के लिए संचालन के अधोषित दर्शन से संचालित होती है. स्त्री उसके लिए एक अलग-‘अदर’ पहचान है. न सिर्फ सैनिटरी पैड के सन्दर्भ में बल्कि में अन्य मामलों में भी ‘अलग पहचान’ का यह भाव सामने आता रहता है. अभी नीट की परीक्षा में लड़कियों के अन्तःवस्त्र निकलवाने का प्रसंग भी प्रायः इसी भाव से प्रेरित है, जिसमें लम्बी अभ्यस्तता के कारण महिलायें भी शामिल हो जाती हैं- यानी महिलाओं के खिलाफ महिला एजेंट हो जाती है. जब व्यवस्था एक ख़ास समूह के प्रति उत्तरदायी हो जाती है, तो इस तरह की घटनाएँ होती हैं. कभी तीर्थ यात्रा के लिए हिन्दू यात्रियों पर लगने वाला जजिया कर, जिसे अकबर ने हटाया था, की तरह ही है हिन्दू-हित की बात करने वाली सरकार के द्वारा महिलओं के लिए अनिवार्य सैनिटरी पैड पर कर लगना या बढाना. यह स्वागत योग्य कदम है कि महिलाओं ने इसपर मुखर विरोध किया है. महिला सांसदों से लेकर सरकार की मंत्री मेनका गांधी तक ने. कई स्त्रियों ने, जिनमें सेलिब्रेटी भी शामिल हैं, सोशल मीडिया में ‘लहू पर लगान’ शीर्षक से इसका विरोध किया है.

संजीव चंदन 

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