प्रेम, विवाह और स्त्री

रेणु चौधरी

जे.एन.यु.में शोधरत है
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‘प्रेम व्यक्ति के भीतर एक सक्रिय शक्ति का नाम है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति और दुनिया के बीच की दीवारों को तोड़ डालती है। उसे दूसरों से जोड़ देती है। प्रेम उसके अकेलेपन और विलगाव की भावना को दूर कर देता है, पर इसके बावजूद उसकी वैयक्तिकता बची रहती है। प्रेम एक ऐसी क्रिया है जिसमें दो व्यक्ति एक होकर भी दो बने रहते हैं।’’1 एरिक फ्राँम के इन पंक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि प्रेम जहाँ मनुष्य को विश्व से जोड़ता है वहीं दूसरी तरफ प्रेम मनुष्य की वैयक्तिकता को भी बचाए रखता है। प्रेम शब्द ही अपने आप में एक जादू की तरह है। एक जादुई अहसास के साथ व्यक्ति इसमें डूब जाता है चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। लेकिन यह जादू जल्द ही यथार्थ के धरातल पर आ जाता है और तब हमें पता चलता है कि स्त्री और पुरुष के प्रेम में अंतर होता है। स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो वह अपना सर्वस्व अर्पण करती है। अर्थात अपने अस्तित्व को दाँव पर लगा कर अपने प्रेम को पाना चाहती है। वह ‘मैं’ से ‘हम’ की तरफ बढ़ती है। लेकिन जब एक पुरुष प्रेम करता है तो वो सिर्फ लेना चाहता है। सिर्फ पाना चाहता है। देना उसके यहाँ नहीं है। वह स्त्री के अस्तित्व तक का हरण कर लेता है। वास्तव में इस सामाजिक ढाँचे में स्त्री और पुरुषों को बनाने वाली मानसिकता ही इस ढंग से उन्हें तैयार करती है कि वे इसी तरह से सोचने लगते हैं।

 प्रेम का शाब्दिक अर्थ तो एक ही है लेकिन स्त्री और पुरुष के लिए उसकी अर्थ छवियाँ अन्य-अन्य हैं। सीमोन द बोउवार ने सही लिखा है ‘‘स्त्री और पुरुष के लिए ‘‘प्रेम’’ शब्द का अर्थ अलग-अलग होता है। प्रेम से स्त्री क्या समझती है? स्पष्ट हीयह केवल अनुराग न होकर शरीर और आत्मा का ऐसा वरदान है जो न तो बंधन मानता है, न किसी की परवाह करता है। चूँकि स्त्री का प्यार शर्तहीन होता है- इसलिए उसके लिए यह एक विश्वास है। स्त्री केवल एक को ही अपनाती है। पुरुष यदि किसी से प्यार करता है तो प्रतिदान में वह उससे भी प्रेम पाना चाहता है।’’2अर्थात जहाँ स्त्रियों का प्रेम शर्तहीन होता है, वही पुरुषों का प्रेम प्रतिदान पाने के लिए लालायित होता है। स्त्रियों और पुरुषों के मानसिक बनावट और बुनावट में अंतर होता है। बचपन से ही लड़कियों को त्याग करना, शोषण को हंसते हुए सहना और लड़की होने की नियति को बिना किसी प्रतिरोध के चुपचाप झेलते रहना सिखाया जाता है। इसका यही कारण है कि पुरुष वर्ग आक्रामक होता है और आक्रामकता को अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझता है। वह प्रेम में भी आक्रामकता को पसंद करता है। स्त्रियों को आक्रामक प्रेमी को पसंद करना सिखाया जाता है। उन्हें बचपन से ही हारना और प्रेमी अर्थात् पुरुष को जितना सिखाया जाता है। वास्तव में पुरुष ने सुंदर स्त्रियों को बहुमूल्य संपत्ति में तब्दील कर दिया और हारने का नाटक करके, उस पर वे विजय पाते रहे, उन्हें अपनी संपत्ति में तब्दील करते रहे।


 स्त्रियों और पुरूषों का अपने बारे में एवं प्रेम के बारे में बहुत ही अलग-अलग राय होती है। वास्तव में उनके अंदर बचपन से ही एक मालिक और एक गुलाम की विचारधारा भरी जाती है। एक अपने को  शिकार में परिणत कर लेता है और दूसरा अपने को शिकारी में। इससे भी आगे बढ़कर कहे तो एक अपने को उच्च जीव के रूप में देखने लगता है तो दूसरा अपने को निकृष्ठ जीव में। शायद इसलिए ‘‘मनुष्यता के प्रति अपना दावा न त्यागने वाली स्त्री भी उच्च अस्तित्व के साथ मिल जाना चाहती है। उसके पास उपनी आत्मा और देह पुरुष को सौंप देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता। पुरुष मुख्य होता है। वह सर्वोत्तम का प्रतिनिधित्व करता है। चूँकि स्त्री के भाग्य में आश्रित होकर रहना लिखा है इसलिए वह किसी अत्याचारी, माता-पिता और संरक्षक की आज्ञा शिरोधार्य करने की अपेक्षा एक देव की सेवा करना अधिक पसंद करती है। वह दासत्व स्वीकार करने के लिए इस प्रकार बेचैन हो जाती है मानो वह उसकी स्वतंत्रता को व्यक्त करता है। वह अपनी गौण अवस्था को स्वीकार करने के बावजूद उससे ऊपर उठने की चेष्टा करती है। अपने शरीर, भावनाओं और व्यवहार द्वारा वह अपने प्रेमी को महान् हस्ती के रूप में सिंहासनासीन करती है। उसके सम्मुख वह अपना अस्तित्व मिटा देती है। प्रेम उसके लिए धर्म का रूप ले लेता है।’’3 वैश्विक परिदृश्य के साथ-साथ भारतीय परिदृश्य में भी यह बात ध्यान देने योग्य है। आज भी भारत में प्रेमिकाएँ या स्त्रियाँ अपना सर्वस्व अर्पण करके अपने प्रेमी को संतुष्ट करना चाहती है। वे अपने प्रेमी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाती हैं।

आज मनुष्य के बदलते जीवन मूल्यों व बदलते सामाजिक परिवेश ने प्रेम के स्वरूप को बदल दिया है। आज व्यक्ति बहुत ही ज्यादा महत्वाकांक्षी होता जा रहा है। वह सब कुछ पलक झपकते ही पा लेना चाहता है जिसके कारण आज प्रेम का स्वरूप प्रभावित हो रहा है। आज का प्रेम अशरीरी नहीं रह गया है बल्कि साहचर्यजनित है और बदलते समय के साथ बदल भी जाता है। अब प्रेम की शाश्वत भावना नहीं रही बल्कि मनुष्य एक प्रेम के टूटने के साथ ही दूसरे प्रेम से जुड़ जाता है। कई बार तो ऐसा होता है कि प्रेम सिर्फ मनुष्य के जीवन के खालीपन को दूर करने या ऊब मिटाने का एक साधन बन जाता है। आज प्रेम की परिभाषा ही बदल चुकी है। एक समय होता था जहाँ प्रेम की परिभाषा अपने को समर्पित कर देने में होती थी। जहाँ प्रेम की शुरुआत ही आँखों से होकर दिल में उतरती थी जहाँ शरीर के बदले आत्मा को प्यार किया जाता था, लेकिन आज का प्रेम शारीरिक रूप से ही शुरु होता है। एक तरह से हम देख सकते हैं कि 21वीं सदी में इसकी परिभाषा ही मनुष्य ने बदल डाली है। भारतीय समाज में आज स्त्री-पुरुष के संबंध बहुत ही तेजी से बदल रहे हैं, यह बदलाव सिर्फ महानगरों में ही नहीं हुआ बल्कि शहरों और कस्बों में भी दिखाई पड़ रहा है। आज मनुष्य के पास पाप-पुण्य नाम की कोई चीज नहीं है, बल्कि आज के समय में पाप-पुण्य की अवधारणा की परिभाषा ही बदल चुकी है। जो एक के लिए पाप है, वह दूसरे के लिए पुण्य है।


वास्तव में मनुष्य इतना तार्किक हो गया है कि वह तर्क द्वारा किसी भी वस्तु या भावना को सही गलत ठहरा सकता है। वह प्रेम और ऊब को एक ही सिक्के के दो पहलू सिद्ध कर सकता है। जैसे चित्रलेखा में भगवतीचरण वर्मा पाप और पुण्य को अपने ‘अनुभव के सागर में उतरने के बाद’ भी ठीक-ठीक परिभाषित नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं ‘‘मनुष्य में ममत्व प्रधान है। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। केवल व्यक्तियों के सुख के केन्द्र भिन्न होते हैं। कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं-पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है, कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुख मिले-यही मनुष्य की मनःप्रवृत्ति है और यही उसके दृष्टिकोण की विषमता है।’’4

प्रेम के स्टीरियोटाइप से मुक्ति ही प्रेम है


आज एकनिष्ठ प्रेम और शारीरिक पवित्रता के प्रश्न नकली सिद्ध हो रहे हैं। आज के समय में हमारे आस-पास के समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों में दो चरम- स्थिति देखने को मिल रही है। आज भी ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है जो अच्छा पति पाने के लिए गौरी-पूजन करती हैं और सोमवार का व्रत रखती हैं। इसी समाज में आज कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्रेम के लिए शादी को अनिवार्य शर्त नहीं मानते हुए साथ रह रहे हैं। आज इस तरह के रिश्तों को ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ कहा जा रहा है। सुधा अरोड़ा लिव-इन-रिलेशनशिप  के बारे में कहती हैं ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप एक बेहद संश्लिष्ट और जटिल स्वतंत्रता है। एक तरह से यह विवाह की प्रतिबद्धता, सन्नद्धता और दायित्वबोध का विलोम है। आज की पीढ़ी ने विवाह को स्त्री के लिए बंधन और गुलामी का दर्जा दिया, इसलिए बंधन से आजाद रहने के ख्याल से लिव-इन-रिलेशनशिप का चुनाव किया गया जहाँ वह एक साथी के साथ एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अपने को बंधन मुक्त समझे लेकिन क्या ऐसा हो पाता है? साथ रहना शुरु करते ही पुरुष शासन और नियंत्रण करने वाले पति के रोल में आ जाता है। लड़कियाँ यहाँ भी भावनात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करती है और संबंध टूटने पर अवसाद और निराशा के गर्त में चली जाती हैं।’’5


 सुधा जी की बातों से यह स्पष्ट होता है कि स्त्री चाहे किसी भी रिश्ते में रहे, हर जगह वे ही मानसिक और शारीरिक शोषण का शिकार होती हैं। वह रिश्ता चाहे पति-पत्नी का हो या लिव-इन-रिलेशनशिप का, वह कही भी खुश नहीं है या यू कहें कही भी मुक्त नहीं है, क्योंकि इस पितृसत्तात्मक समाज में सदियों से स्त्री गुलामी में जकड़ी रही है। इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष की मानसिकता इतनी जल्दी समाप्त नहीं होगी।



वर्तमान समय में मनुष्य अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहना चाह रहा है इसलिए आज इस तरह के रिश्ते पनप रहे हैं। वास्व में जीवन में व्यक्ति इतना महत्वकांक्षी हो गया है कि महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में ही उसका सारा समय निकला चला जा रहा है। महत्वकांक्षाओं के पीछे पड़कर प्रेम- संबंध, पारिवारिक-रिश्तों व अपनी जिम्मेदारियों से वह अपना पीछा छुड़ाना चाहता है, बल्कि यूँ कहें कि छुड़ाता भी है। जीवन में पैसा, रुतबा, गाड़ी और बाड़ी(घर-बंगला) ही उसके लिए सर्वोपरि हो गये हैं। इसलिए जब तक ये चीजें उसके पास नहीं रहतीं, वह इन्हें पाने के लिए तेज गति से भागता रहता है। इनके आने के बाद, उसे एक सुंदर सी पत्नी चाहिए, क्योंकि पत्नी को भी वह एक संपति के रूप में चित्रित करने लगता है। इसलिए प्रेम के स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है। परिवर्तन समाज का नियम है। आज समाज में इतना परिवर्तन आ गया है कि इस तरह की घटनाएँ चाहे वह ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ हो या कैरियर के लिए शादी या प्रेम का टालेजाना लगातार मनुष्य के लिए आम बात हो गया है।

तुम मेरे साथ रहो मेंरे कातिल मेरे दिलदार

आज भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है। इस भूमंडलीकरण ने पूरे देश, समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। आज मनुष्य वही सोचने के लिए बाध्य है, जो बाजार उसे दिखाता है। इस भूमंडलीकरण ने सभी रिश्तों को प्रभावित किया है फिर यह रिश्ता चाहे प्रेम का हो पति-पत्नी का हो या कोई और। सभी रिश्तों में आज बिखराव की स्थिति आ गई है। गीता श्री लिखती हैं ‘‘प्रेम का स्वरूप शाश्वत है लेकिन उसकी मौजूदगी नश्वर। इस समय में कमजोर भूमियों पर खड़ा प्रेम सवालों के घेरे में है। हैरानी होती है कि कैसे इतनी जल्दी-जल्दी वह आता जाता है। कितना गतिमान है। प्रेम की शिफ्टिंग भी चौंकाने वाली होती है। आज यहाँ कल वहाँ…आज इनसे तो कल उनसे…। किसी की चौखट पर माथा रगड़ता है तो किसी के दर पर थूक आता है। कोई आहत मन अपने उजाड़ में बिलबिलाता है तो प्रेम कहीं अट्टाहास करता है। किसी शाख पर कामना का फूल खिलता है तो किसी को गहरे दलदल में धंसने के लिए छोड़ जाता है। कितना अविश्वसनीय हो चला है प्रेम।’’6 इससे स्पष्ट होता है कि आज प्रेम की परिभाषा के साथ ही साथ रिश्ते भी बदल गये। स्त्री-पुरुष संबंध एक परिवार से जुड़ा होता है, आज यहाँ भी भूमण्डलीकरण ने अपना घर कर लिया है।


संयुक्त परिवार की अवधारणा आज खंडित हो रही है। संयुक्त परिवार के टूटने की तरफ इशारा मुक्तिबोध ने 1960 के आस-पास ही अपने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में कर दिया था एक समाज वैज्ञानिक की तरह। जबकि दुनिया जानती है कि मुक्तिबोध कवि हैं। वे समाज, परिवार और रिश्तों के बिखराव की तरफ स्पष्टता से इशारा करते हैं। वे कहते हैं ‘‘समाज में वर्ग है, श्रेणियाँ हैं। श्रेणियों में परिवार हैं। समाज की एक बुनियादी इकाई परिवार भी है। समाज की अच्छाई-बुराई परिवार के माध्यम से व्यक्त होती है। मनुष्य के चरित्र का विकास परिवार में होता है। बच्चे पलते हैं, उन्हें सांस्कृतिक शिक्षा मिलती है। वे अपनी सारी अच्छाइयाँ-बुराइयाँ वहाँ से लेते हैं।’’7अब वहाँ भूमंडलीकरण ने अच्छाइयों के लिए कम से कम जगह बचा के रखी है। इसलिए बुराइयाँ ही अधिक तेजी से फैल रही हैं।


यही कारण है कि आज लोगों में एकान्त की भावना आ गई है। आज स्त्री भी अपने अच्छे-बुरे के बारे में सोच रही है जिसके कारण आज रिश्ते और ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं, आज की स्थिति वह नहीं रही कि स्त्री अपने पति या प्रेमी की प्रताड़ना सिर्फ सहती रहे और उसका विरोध न करे, बल्कि वह आज अपने हक को समझती है, और गलत का विरोध करती है। वास्तव में प्रतिरोध की भावना स्वंतत्रता की भावना मं  सन्निहित होती है। यदि आप अपनी स्वतंत्रता के प्रति आग्रहशील हैं तो कहीं न कहीं आप दूसरों के प्रतिरोध में खड़े हैं। आज की स्त्रियों के साथ कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है।

स्त्री के प्रेम की अभिव्यक्ति – ‘अन्या से अनन्या’

वर्तमान समय में स्त्री न केवल शिक्षित हुई है बल्कि आर्थिक रूप में स्वावलंबी भी बनी है। स्त्रियों को स्वालंबी बनाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शिक्षा से स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुई हैं। वर्जिनियाँ बुल्फ ने अपनी पुस्तक ‘अपनारा कमरा’ में स्पष्टतः लिखा है कि ‘‘जब तक स्त्रियों के पास अपना कमरा न होगा तब तक स्त्रियाँ स्वतंत्र नहीं हो सकती और यह कमरा आता है अर्थ से और अर्थ आता है शिक्षा के माध्यम से।’’8 जब स्त्रियाँ शिक्षित हो जाती है तो उनके रहन-सहन एवं आचार-विचार में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाता है। आज स्त्री पुरुष के समान अधिकार की मांग करती है। यह शिक्षा का कमाल है। मांग चाहे आर्थिक स्वतंत्रता की हो या प्रेम और विवाह से संबंधित हो। इन सभी को वह आज प्रश्नात्मकता की दृष्टि से देखने के साथ-साथ तर्क की कसौटी पर कसने लगी है।



आज सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि स्त्रियाँ भी प्रेम एवं विवाह संबंधी नैतिक प्रतिमानों का उल्लंघन करती नजर आ रही हैं। प्रेम का स्वरूप आज जन्म-जन्मांतरों का बंधन नहीं रहा बल्कि आज उसका स्वरूप बदल चुका है। आज प्रेम अपनी सुविधानुसार तोड़ा-मरोड़ा जा सकने वाला संबंध बन गया है। आज प्रेम का स्वरूप उदात्त का साधन नहीं रह गया, बल्कि शारीरिक एवं मानसिक तुष्टि का साधन बन गया है।


वर्तमान समय में परिवर्तित समाज के यथार्थ ने प्रेम की परिभाषा को ही बदल दिया है। डाँ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय लिखते है ‘‘आज प्रेम में एकनिष्ठता, भावुकता, रुमानियत व आदर्श के स्थान पर स्वार्थ, वासना, उद्देश्य तथा अपने-अपने व्यक्तित्वों के परस्पर उन्मीलन की सफलता या असफलता लक्षित होती है।’’9 इससे यह स्पष्ट होता कि आज प्रेम में एकनिष्ठता की भावना खत्म हो रही है, या यूँ कहें कि प्रेम एक अविश्वसनीय वस्तु बन कर रह गया है। यह वस्तु पितृसत्ता के लिए काम करता है, पितृसतात्मक समाज में पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ मानने के लिए बाध्य है।
ऊर्वशी बुटालिया के अनुसार ‘‘इस विचार में पितृसत्ता को या पुरुष-प्रधान समाज व्यवस्था को भुला दिया जाता है, जिसमें स्त्री और पुरुष के कर्तव्य तथा अधिकार कभी समान नहीं होते, जिसमें स्त्री के लिए तो पवित्रता का या एकनिष्ठ प्रेम करने वाली स्त्री का आदर्श होता है, जबकि पुरुष के लिए एकनिष्ठ प्रेम जरुरी नहीं माना जाता।’’10 एक तरह से हम देखें तो आज के संदर्भ में प्रेम एक वैयक्तिक अनुभव बन कर रह गया है, जिसमें परंपरागत नैतिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह गया। यह भी देखा जा रहा है कि आज का प्रेम सिर्फ भावना में नहीं बहता, बल्कि उसमें बौद्धिकता का भी समावेश हो गया है। बौद्धिकता की वजह से आज प्रेम का स्वरूप बदल गया है और आनेवाले दिनों में वह और बदलता चला जाएगा। वास्तव में प्रेम में जब बुद्धि तत्व का प्रवेश हो जायेगा तो स्थितियाँ स्वयं बदलने लगेंगी। आज से पाँच सौ साल पहले कबीर कह गये हैं-
‘‘कबिरा इह घर प्रेम का खाला का घर नाँहीं
सीस उतारे भुईं धरे तब घर पैठे माँही’’।11

अर्थात प्रेम के घर में प्रेम और बुद्धि एक साथ नहीं रह सकते। दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। यदि दो शत्रुओं में मित्रता हो जाये तो आप परिकल्पना कीजिए कि वे कैसे दोस्त बने रहेंगे। यह भी एक कारण है इस समाज का, कि आज तेजी से प्रेम संबंध बन रहे हैं और टूट रहे हैं।


 प्रेम के अतिरिक्त आज विवाह संबंधित दृष्टिकोण में भी परिर्वतन आया है। स्वतंत्रता के पश्चात सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवर्तनों ने मानवीय संबंधों को गहरे रूप से प्रभावित किया है। विवाह की अवधारणा जो परंपरा से चली आ रही थी उसका स्वरूप आज बदल चुका है। विवाह जो एक पवित्र बंधन हुआ करता था, वर्तमान समय में उसका स्वरूप बदल गया। आज स्त्री आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुई हैं। सिमोन द बोउवार लिखती हैं कि ‘‘आर्थिक विकास के कारण औरत की समकालीन स्थिति में आये भारी परिवर्तन ने विवाह संस्था को भी हिला दिया है। विवाह अब दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक पारस्परिक समझौते से उत्पन्न बंधन है, जो व्यक्तिगत तथा पारस्परिक होता है। किसी प्रकार का व्यभिचार विवाह के अनुबंधों और इकरारनामों का उल्लघंन ही माना जायेगा। इसी आधार पर दोनों पक्षों को विवाह तोड़ने का भी अधिकार मिलता है। बच्चे पैदा करना अब स्त्री की इच्छा पर निर्भर करता है और गर्भकाल में उसको सवेतन छुट्टी का हक राज्य देता है। आज स्त्री के लिए पुरुष द्वारा संरक्षित होने की अनिवार्यता समाप्त होती जा रही है। आज के संक्रमण के दौड़ में भी बहुत थोड़ी ही स्त्रियाँ उत्पादन में विनियोजित हैं।’’1221वीं सदी में स्त्रियाँ अपने विवाह संबध को अपने अनुसार जीना पसंद कर रही हैं। आज के इस संक्रमण दौर में कोई भी रिश्ता ज्यादा प्रभावित रूप में नहीं। आज मनुष्य कोई भी रिश्ता अपनी सुविधानुसार बनाते हैं और तोड़ते हैं। आज इंसान का जीवन बहुत ज्यादा व्यस्त हो चुका है। इस टूटन में सबसे ज्यादा नुकसान स्त्रियों का ही होता है, क्योंकि स्त्रियाँ किसी पुरुष से जुड़ती है तो अपने आप को पूर्णरूप से समर्पित कर देती है, लेकिन पुरुष नहीं। इसलिए वे (स्त्रियाँ) अपने टूटने पर अपने को खाली हाथ या छला हुआ महसूस करती हैं।


वास्तव में विवाह को स्त्रियाँ अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष या समय मानती हैं।  पुरुष विवाह को एक सामाजिक कर्तव्य और अपने एवं परिवार की सुविधा के लिए उठाया गया नैतिक कदम मानते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि ‘‘स्त्री-पुरुष के बीच का संबंध विशुद्ध रूप से निजी मामला हो। (यानी संबंधित व्यक्तियों के अतिरिक्त इनमें धर्म एवं सामाजिकता का कोई हस्तक्षेप न हो), यह चयन की पूरी आजादी दोनों को हो और यह संबंध पूरी तरह समानता पर आधारित हो।’’13 जबकि ऐसा नहीं होता, क्योंकि पुरुषों को समानता से ज्यादा अपने अधीन कार्य करने वाले लोग पसंद आते हैं। विवाह के बाद स्त्रियाँ अपने को अपने पति और भारत में तो परमेश्वर या ईश्वर की तरह उन्हें खुश रखने के लिए तन, मन और जरुरत पड़ने पर अपने मायके के धन द्वारा भी संतुष्ट करने की जुगत में लगी रहती है। वे एकनिष्ठ भाव से अपने पति की अधीनता स्वीकार कर लेती है। ‘‘लेकिन मालिक उनसे वास्तविक सेवा के अतिरिक्त कुछ और चाहते हैं। पुरुष केवल महिलाओं की पूरी-पूरी आज्ञाकारिता नहीं चाहते, वे उनकी भावनाएँ चाहते हैं। सबसे क्रूर व निर्दयी पुरुष को छोड़कर, सभी पुरुष अपनी निकटतम सम्बंधी महिला में एक जबरन बनाये गये दास की नहीं बल्कि स्वेच्छा से बने दास की इच्छा रखते हैं- सिर्फ एक दास नहीं बल्कि अपना प्रिय, अपना चहेता व्यक्ति चाहते हैं। अतः उन्होंने महिलाओं के मस्तिष्क को दास बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल किया है। अन्य दासों के मालिक आज्ञाकारिता को बनाये रखने के लिए भय का प्रयोग करते हैं- उनका खुद का भय या फिर धार्मिक भय। स्त्रियों के मालिक साधारण आज्ञाकारिता से कुछ अधिक चाहते थे और उन्होंने शिक्षा के पूरे बल का इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया। बहुत बचपन से सभी स्त्रियों को यह सिखाया जाता है कि उनका आदर्श चरित्र पुरुष के चरित्र से ठीक विपरीत होना चाहिये। इच्छाशक्ति और आत्मनियंत्रण नहीं बल्कि समर्पण, और दूसरे के नियंत्रण के समक्ष झुक जाना उनका गुण होना चाहिए। सारी नैतिकता उन्हें बताती है कि यह महिलाओं का कर्तव्य है और सभी मौजूदा भावनाओं के अनुसार यह उनका स्वभाव है कि वे दूसरों के लिए जियें, पूर्ण आत्मत्याग करें और अपने स्नेह संबंधों के अतिरिक्त उनका अपना कोई जीवन न हो। स्नेह संबंधों से तात्पर्य सिर्फ उन संबंधों से है जिनकी उन्हें इजाजत है- वे पुरुष जिनसे स्त्री संबंधित हो या वे बच्चे जो पुरुष व उनमें एक अटूट व अतिरिक्त बंधन होते हैं।’’14 इतना ही नहीं शिक्षा और सामाजिक रूप से उन्हें बार-बार बतलाया गया है कि स्त्रियाँ तभी तक सुरक्षित है जब तक वे पुरुषों के अधीन हैं।
आजादी के बाद और भारत में भूमंडलीकरण के बाद स्थितियाँ तेजी से बदली हैं। ‘‘पिछले कुछ दशकों के शहरी समाज में, विशेषकर महानगरों और बड़े नगरों में लोगों के अंतर्वैयक्तिक संबंधों में आमूल-चूल परिवर्तन आये हैं। लोगों के पास पड़ोसियों, रिश्तेदारों और यहाँ तक कि अपने बच्चों और माता-पिता के लिए भी वक्त नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में एक अजीब-सी कमरतोड़ प्रतिस्पर्धा और आपाधापी हावी हो गयी है। आपसी समझ और संवेदनशीलता धीरे-धीरे हमारे स्वभाव से कटते रहे हैं। जीवन-मूल्यों के इस संक्रमण काल में जो संबंध सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं- वह है पति-पत्नी के बीच के रिश्ते।’’15 शिक्षा ने स्त्री को आत्मनिर्भर बना दिया है। वह आर्थिक रूप से मजबूत बनी है तथा अपनी अस्मिता को पहचानने लगी है। वह पुरुष की सभी बातों को यूँ ही नहीं मानती, बल्कि तर्क की कसौटियों पर कसती है तथा सही और गलत का फैसला करती है।  यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या स्त्री की स्थिति में पूरी तरह से सुधार हुआ है? सिमोन दा बोउवार लिखती है ‘‘आज पारंपरिक वैवाहिक जीवन के नियमों के अवशेषों के बावजूद समाज में स्त्री की स्थिति प्राचीन समाज की अपेक्षा बुरी है क्योंकि उस पर कर्तव्य-भार तो वही है पर उसे अधिकार, सम्मान और सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। आज पुरुष संसार में खुद सहारा पाने के लिए विवाह करता है किन्तु वह सांसारिक बंधन में फंसना नहीं चाहता। वह घर-बार चाहता है पर स्वतंत्र रह कर उससे भागता भी है। वह जीवन में स्थापित हो जाता है, घर बसा लेता है, पर दिल से आवारा ही बना रहता है। पारिवारिक सुख और आनन्द से उसे घृणा नहीं है, पर उसे ही जीवन का एक मात्र ध्येय नहीं मानता।’’16 यही है पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता। यही कारण है कि आज किसी भी रिश्ते में ठहराव की भावना नहीं रही और कोई भी रिश्ता इस भूमंडलीकरण की चपेट से नहीं बचा। इसलिए आज विवाह सिर्फ और सिर्फ एक पवित्र बंधन नहीं रह गया है। जॉन स्टुअर्ट लिखते हैं कि ‘‘समाज की नजरों में विवाह स्त्री का निर्धारित लक्ष्य है, एक ऐसा संबंध है जिसके लिए उन्हें बचपन से ही तैयार करना शुरु कर दिया जाता है, और कुछ बहुत अनावर्षक स्त्रियों को छोड़ कर सभी स्त्रियों से इसके निर्वाह की अपेक्षा की जाती है, तो क्या इस विवाह को हर स्त्री के लिए सचमुच इतना आकर्षक और गौरवपूर्ण बना दिया गया है, कि स्त्री किसी और विकल्प की कमी महसूस न करे?’’17जबकि ऐसा नहीं है। स्त्रियों को दूसरे विक्लप के बारे में सोचना ही पड़ेगा, क्योंकि यह पितृसत्तात्मक समाज  सदियों से स्त्रियों को अपने अधीन रखने की कोशिश करता आया है। आज स्त्रियों में चेतना आ गयी है और वह पुरुष के षड़यंत्र को समझ रही है। बालजाक का प्रसिद्ध कथन है कि ‘‘उससे नौकरानी जैसा व्यवहार करो पर उसको समझा कर रखों कि वह महारानी है।’’18 इतना ज्यादा धूर्तता भरा कथन किसी पुरुष का ही हो सकता है। बालजाक के लेखन के बहाने एक पुरुष यह वाक्य कहता है। भारतीय समाज में स्त्रियों के साथ यह धूर्तता की भी जाती है। यहाँ शक्ति की देवी दुर्गा, धन की लक्ष्मी, विद्या की देवी सरस्वती है, लेकिन यह केवल मूर्तियों तक सीमित है। व्यावहारिक रूप से स्त्री अबला शक्तिहीन और अशिक्षित है। पुरुषों ने तो उसकी प्राप्ति पर ही रोक लगा दी थी।  भारत ही नहीं विश्व के किसी भी साहित्य में स्त्रियों ने पुरुषों के बारे में ऐसा कुछ नहीं कहा है। इससे यह पता चलता है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों को महामूर्ख समझता है। स्त्रियाँ चाहे किसी भी देश या समाज की क्यों न हो वे इस तरह सदियों से शोषण का शिकार होती रही हैं। लेकिन आज इसकी अवाधारणा टूट रही है। स्त्री पुरुष के रचे हुए हर कुचक्र को अब समझ रही है कि किस प्रकार पुरुष उनका शोषण करते हैं और उनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं। उन्हें गुलाम बनाने रखने के लिए हर हथकंडे का इस्तेमाल करते हैं। अब स्त्रियाँ ये सब समझते हुए विरोध करने लगी हैं। हम जानते हैं कि किसी भी एक व्यक्ति के सामने दूसरा यदि जान-बूझ कर बिना किसी उद्देश्य के बल्कि आदर्शानुसार समर्पण कर दे, तो वह पहला व्यक्ति (पुरुष) दूसरे व्यक्ति (स्त्री) के समपर्ण को अपना अधिकार समझ लेता है। वह उस पर हावी होने लगता है और तब तक हावी होता रहता है, जब तक कि पहला व्यक्ति (पुरुष) विरोध करने के लिए बाध्य न हो जाय। आज स्त्री के नैसर्गिक समर्पण को पुरुष अपना अधिकार समझ कर उस पर हावी होने की चेष्टा करता है और तब तक करता है जब तक स्त्रियाँ बाध्य होकर विरोध नहीं करती हैं।



 एक तरह से देखे तो आधुनिक स्त्री कानूनी तौर पर आज सुरक्षित एवं आर्थिक रूप से मजबूत है जिसके कारण वह पुरुष के आधिपत्य को मानने के लिए तैयार नहीं है। विवाह-संबंधित परंपरागत मूल्य आज बहुत तेजी से टूट रहे हैं। एक तरह से देखा जाए तो आज के समय में विवाह पवित्र-धार्मिक संबंध नहीं रह गया। जिसे लोग तोड़ न सके बल्कि वह स्त्री –पुरुष की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति का निमित्त मात्र बन कर रह गया है। यह परंपरा से चला आ रहा है कि विवाह करना स्त्री के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है या यूँ कहें कि उसके जीवन की नियति है, अब इसका स्वरूप बहुत तेजी टूट रहा है। अब विवाह को सामाजिक संस्था न मानकर ‘निहायत निजी’ मसला माना जाने लगा है। जिसके चलते सदियों से चली आ रही रीति-रिवाज तथा जिन्दगी भर साथ निभाने के कसमें टूट रही हैं।


आज 21वीं सदी में लोग विवाह के पवित्र बंधन में बंध कर नहीं रहना चाह रहे। लोगों में विवाह के प्रति भावात्मक लगाव और ललक भरी दृष्टि धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। आज ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो विवाह को प्रेम का आधार न मानकर जीवन के लिए बेड़ी मानने लगे हैं। बिना विवाह किये रहना लोग ज्यादा ठीक समझ रहे हैं। आज के विवाहित जीवन पर कुमुद शर्मा कहती हैं ‘‘उनकी दृष्टि में विवाह का मतलब है स्वयं को मार डालना, अपने अस्तित्व की हत्या कर देना। परंपराओं को ताक पर रख कर विवाह-संस्था को निरर्थक ठहरा दिया गया है। महानगरों में ही नहीं, छोटे-छोटे शहरों में भी लोगों ने बिना विवाह किये साथ रहना शुरु कर दिया है। इसे आधुनिक भावबोध पर टिके स्त्री-पुरुष के नए समीकरण के रूप में देखा जा रहा है और यह माना जाता है कि इस नए रिश्तों में, जिसमें स्त्री-पुरुष बिना विवाह किये साथ रहते हैं, स्त्री-पुरुष का दरजा बराबरी के रिश्ते पर आधारित है। इन नए संबंधों के दायरे में स्त्री उतनी ही सक्षम और जरुरी हिस्सा होती है, जितना कि परंपरागत परिवारों में स्त्री के मुकाबले में पुरुष होता है। इन रिश्तों के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि इस तरह के संबंधों में स्त्री जबरन आरोपित जिन्दगी जीने के लिए विवश नहीं होती, बल्कि उसके और साथी पुरुष के बीच एक सक्रिय संवाद चलता रहता है- यह एक नई प्रोग्रेसिव एप्रोच है।’’19 इस रिश्ते की अहमियत को स्त्री-पुरुष अपनी इच्छानुसार अपनाते भी हैं। इस बदली हुई हवा का रुख पहचानते हुए हम अंदाजा लगा सकते हैं कि 21वीं सदी में प्रवेश कर गई पीढ़ी में अधिकतर लोग पुरुष और स्त्री दोनों पर थोपी गई पारंपरिक परिस्थितयों और नैतिक मान्यता के कायल नहीं है। राजेन्द्र यादव का कहना है ‘‘विवाह परिवार का एक बंधनकारी गठन है। यहाँ पत्नी और पति के बीच का कर्तव्य, धर्म और निष्ठाएँ पहले से तय हैं। चूँकि परिवार एक सामंतवादी गठन है इसलिए वहाँ पुरुष वर्चस्वशाली है यानि पुरुष ही सबका मालिक है। उसी से वंश चलता है। जिन लोगों ने इस सामंतवादी बंधन को स्वीकार नहीं किया और यह माना कि स्त्री-पुरुष का प्रेम बराबरी का अनुबंध है और दोनों में बराबरी का संबंध होना चाहिए, उन्होंने विवाह के स्वरूप को नकार दिया और साथ रहना शुरु कर दिया। जब तक मन करे रहने की स्वतंत्रता है। प्रेम यहाँ ज्यादा सृजनशील और औदात्य स्वरूप दिखाई देता है। इसलिए इस तरह के नये परिवारों का चलन हो गया।’’20 राजेन्द्र जी की टिपप्णी से स्पष्ट होता है कि यह आज के समय की माँग है कि इस तरह के परिवार का गठन हो, क्योंकि जीवन गतिशील होता है और परिवर्तन समाज का नियम। हालांकि यहाँ स्त्रियाँ पूरी तरह से स्वतंत्र तो हैं लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि ऐसे रिश्तों में स्त्री मानसिक और शारीरिक रूप से शोषित नहीं होती। एक तरह से देखा जाए तो कुछ स्त्रियों के लिए यहाँ ज्यादा शोषण है, क्योंकि ऐसे रिश्तों पर सामाजिक और पारिवारिक बंधन नहीं होता। पुरुष जब चाहे ऐसे रिश्ते से बंधन मुक्त हो सकता है।

संदर्भ सूची
1. एरिक फ्रॉम- प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धांत, (द आर्ट ऑफ लविंग) अनुवाद युगांक धीर, पृष्ठ              संख्या-  28
2. एरिक फ्रॉम- प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धांत, (द आर्ट ऑफ लविंग) अनुवाद युगांक धीर, पृष्ठ               संख्या-  
3. वही, पृष्ठ संख्या- 298-299
4. भगवतीचरण वर्मा- चित्रलेखा, पृष्ठ संख्या- 199-200
5. संपादक- शैलेन्द्र सागर, कथाक्रम, प्रेम विशेषांक, जनवरी-मार्च पृष्ठ संख्या- 15
6. वही, पृष्ठ संख्या- 18
7. गजानन माधव मुक्तिबोध- एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ संख्या- 68
8. र्जीनिया वुल्फ- अपना कमरा, पृष्ठ संख्या- 15
9. लम्क्षीसागर वार्ष्णेयद्वितीय महायुद्धोत्तर, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ संख्या- 65
10. संपादित- रमेश उपाध्याय एवं संध्या उपाध्याय, आज के समय में प्रेम, पृष्ठ संख्या-37
11. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी- कबीर, 129
12. सीमोन द बोउवार- स्त्रीः उपेक्षिता, अनुवाद- डॉ प्रभा खेतान, पृष्ठ संख्या-177
13. सीमोन द बोउवार- स्त्रीः उपेक्षिता, अनुवाद- डॉ प्रभा खेतान, पृष्ठ संख्या-177
14. सं- राजकिशोर, स्त्री, परंपरा और आधुनिकता, पृष्ठ संख्या- 113
15. सीमोन द बोउवार- स्त्रीः उपेक्षिता, अनुवाद- डॉ प्रभा खेतान, पृष्ठ संख्या- 197
16. जॉन स्टुअर्ट मिल- स्त्री और पराधीनता, पृष्ठ संख्या- 40
17. सीमोन द बोउवार- स्त्रीः उपेक्षिता, अनुवाद- डॉ प्रभा खेतान, पृष्ठ संख्या- 339
18. कुमुद शर्मा- आधी दुनिया का सच, पृष्ठ संख्या- 53
19. संपादक- शैलेन्द्र सागर, कथाक्रम, प्रेम विशेषांक, जनवरी-मार्च पृष्ठ संख्या-6
20. राजकिशोर, स्त्री-पुरुश कुछ पुनर्विचार, पृष्ठ संख्या- 145

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