स्त्री विमर्श और ‘कठगुलाब’

सतीश कुमार 

सहायक प्रोफेसर (गेस्ट फैकल्टी) हिंदी विभाग चौधरी बंसी लाल विश्वविद्यालय भिवानी (हरियाणा) संपर्क : 9813293269

स्त्री-विमर्श रूढ़िवादी मान्यताओं, परंपराओं के प्रति अंसतोष, आक्रोश व उससे मुक्ति का स्वर है। यह पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मानदंडों, मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचानने की गहरी अंतदृष्टि है। स्त्री-विमर्श का प्रमुख लक्ष्य है- स्त्री को भी मनुष्य रूप में देखा जाए। उसको भी पुरूष की भाँति राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक समानता का अधिकार मिले। इसे ‘नारीवाद’ भी कहा जाता है। ‘‘अंग्रेजी में इसके लिए Feminism’ शब्द प्रचलित है।’’1 मनुष्य होने के नाते पुरूष और स्त्री समाज में समान अधिकारों के हकदार हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज लैंगिक आधार पर स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित रखता है। इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्री समाज में  हाशिए पर चली गई। इन असमानताओं के विरूध और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए स्त्री ने जो आवाज उठानी शुरू की है, जो संघर्ष आरम्भ किया है; यही स्त्री-विमर्श है।

प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल ‘स्त्री-विमर्श’ का अर्थ समझाते हुए लिखती हैं- ‘‘स्त्री को केंद्र में रख कर समाज, संस्कृति, परम्पराएँ एवं इतिहास का पुनरीक्षण करते हुए स्त्री की स्थिति पर मानवीय दृष्टि से विचार करने की अनवरत प्रक्रिया। . . . स्त्री विमर्श के अंतर्गत अतीत या समकालीनता प्रमुख नहीं रहती वरन् भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालखण्डों पर एक-दूसरे की अन्वति एवं संगति में विश्लेषण करने का भाव प्रधान रहता है। स्त्री विमर्श चेतना के प्रसार का आख्यान है।’’2 स्त्री-विमर्श अपनी ‘अस्मिता’ की पहचान, अपने अस्तित्व बोध और अधिकार को बताने और जताने का एक वैचारिक चिंतन है। ‘मनुष्य’ होने की न्यूनतम गरिमा से विहिन स्त्री को उसकी स्वतन्त्र जीवन्त अस्मिता से परिचित करके प्रदीप्त करना ही स्त्री विमर्श का मूल लक्ष्य है। स्त्री विमर्श का प्रथम कार्य पुरूष सत्ता को शक के घेरे में लेना है क्योंकि स्त्री पर चिंतन और उसके नियमों का सारा प्रावधान पुरूष ही करते आए हैं। इसी कारण ‘सीमोन द बउवार’ अपनी कृति ‘द सैकिंड सैक्स’ में लिखती हैं कि ‘‘अब तक औरत के बारे में पुरूष ने जो कुछ लिखा, उस पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि  लिखनेवाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों है।’’3 यही सही है कि स्त्री जीवन हिंदी के शुरूआती साहित्य से ही रहा है। लेकिन यह देखने वाली बात है कि इनमें स्त्री की या तो जीवनगाथा केन्द्र में रही है या उसकी व्यथा की कथा। अपनी अस्मिता व अपनी आत्मचेतना के प्रति स्त्री की सजगता विशेष रूप से स्वातंत्र्योत्तर कालीन साहित्य में ही अधिक उभर कर सामने आती है। स्त्री-विमर्श समकालीन वैचारिक चिंतन है। सारांशतः कहा जा सकता है कि ‘‘स्त्री-विमर्श एक दृष्टि है, जो परंपरा के दबाव, संस्कार एवं पूर्वाग्रह से मुक्त होकर व्यक्ति की पहचान लिंग में नहीं, ‘मनुष्य’ में प्रस्थापित करने की ऊध्र्वमुखी चेतना देती है।’’4

आधुनिक हिन्दी साहित्य, विशेषकर कथा साहित्य में पुरूष रचनाकारों की मान्यताओं के आगे लेखिकाओं ने स्त्री-विमर्श को आगे ले जाने की बागडोर अपने हाथों में ले ली। इस संवर्ग की पहली लेखिका के रूप में कृष्णा सोबती का नाम लिया जा सकता है।  ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’ जैसे इनके कई उपन्यास स्त्री विमर्श के प्रारम्भिक आधार माने जा सकते हैं। इस श्रृंखला में उपन्यास लेखिकाओं की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैंः- उषा प्रियंवदा, मंजुल भगत, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, राजी सेठ, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पाण्डेय आदि। इन्होंने स्त्री विमर्श के उन विविध पक्षों को सामने रखा है- जहाँ स्त्री  शक्ति की सामाजिक समानान्तरता की संघर्ष भरी भूमिका दृष्टिगत होती है। मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘कठगुलाब’ इसी श्रृंखला का एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।

‘‘कठगुलाब’, पुरूष-प्रधान समाज में  स्त्री  के दोहन-शोषण और मुक्ति-संघर्षकी कथा है।’’5 इसमें लेखिका ने स्त्री चेतना को विभिन्न पहलुओं से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत उपन्यास में  स्त्री की विविध समस्याओं व उससे संबंधित अनेक प्रश्न दिखाई पड़ते हैं; यथाः- पुरूष सत्ता से मुक्ति, देह और काम विमर्श का स्वनिर्णय (फ्रीडम और सेक्स), जीवन में स्त्री को स्वयं निर्णय लेने का अधिकार, स्वयं से जुड़ी अस्मिता के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता और उसका प्रयोग-व्यवहार इत्यादि।‘‘कठगुलाब’ सही मायनों में एक विस्तृत फलक का उपन्यास है, स्त्री विमर्श को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करता हुआ; उसके करूण वर्तमान की परम्परा की अनवरतता से जोड़कर उस भयावह भविष्य की ओर संकेत करता हुआ जो यदि संवेदनहीन बौद्धिक पेचीदगियांे और प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रियाओं में उलझ गया तो सिर्फ टूटकर बिखर जाएगा।’’6

‘कठगुलाब में पांच कथावाचक हैं, जिनमें से चार महिलाएँ हैं और एक पुरूष। ये सभी अपनी-अपनी कहानी बताते हैं। इनके नाम हैंः- स्मिता, मारियन, नर्मदा, असीमा और विपिन। ये सभी स्वभाव व प्रकृति से एक-दूसरे से अलग हैं। महिलाओं में नर्मदा को छोड़कर शेष सभी पढ़ी-लिखी हैं। ये सभी अपने-अपने अनुभव के आधार पर स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं पर हमारे समक्ष रखती हैं। इन स्त्रियों के संदर्भ में ‘कठगुलाब’ उपन्यास की आलोचना करती हुई प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल लिखती हैं कि ‘‘उपन्यास की औरतें निखालिस औरतें हैं। उसी एक आदिम हूक के साथ आज भी वे सृष्टि की पहली आदिम औरत की तरह मां बनकर अपने को अंकुआने, हरियाने और खुलकर झूम उठने के उन्माद से सराबोर कर लेना चाहती हैं। वह चाहे परम्परा की बैसाखियों पर टिकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की प्रतिनिधि नर्मदा हो या जमीन के बहिश्त अमरीका की सुशिक्षिता, स्वतंत्रचेत्ता मारियन या उग्र फेमिनिस्ट असीमा। फिर स्मिता की क्या बिसात! . . . यानी सारी समस्या अभिधात्मक नहीं, प्रतीकात्मक है। बेशक वे मां बनने के लिए ललक रही हैं, गर्भ धारण कर रही हैं, लेकिन मां नहीं बन पा रही हैं। हर बार गर्भपात!एबार्शन ! कहीं पति की मार(स्मिता के सन्दर्भ में); कहीं प्रेमी पति की मनुहार (मारियन के सन्दर्भ में) और कहीं क्रूर विधाता की मार (मारियन, नर्मदा, नीरजा के सन्दर्भ में)। ठीक ‘कठगुलाब’ की तरह, पुष्पित होने की सारी सम्भावनाआंे को अपने भीतर निगलकर काठ-सी सख्त बेजान होने की यंत्रणा। सैंकड़ों कलियां खिली हैं जिस पर, लेकिन फूल बन कर खिलने का दम एक में भी नहीं। उसी अविकसित-अगतिशील अवस्था में अडोल सी कठगुलाब की झाड़ियों पर लदी हैं- सारी महक, रंग, सुन्दरता  यकायक पानी की बौछार पाते ही ठीक जादुई कहानियों की तरह झनन हुम करके खिल गईं, खिलती गईं, काठ में उकेरे सदाबहार फूलों की तरह। ये स्त्रियां भी हरिया कर सदाबहार हो जातीं यदि इन्हें भी इनके सहचर पुरूषों की संवेदना का तरल स्पर्श मिलता; यदि विश्वास, सद्भाव, आत्मीयता की तरल बौछार ने इनकी हृदयगत कोमलता को निरन्तर सींचा होता। वे गुलाब नहीं जो उग आने पर अपने आप खिल भी जाते हैं, कठगुलाब हैं जिन्हें  थोड़ी सी देखभाल से खिलाना पड़ता है।’’7

‘कठगुलाब’ उपन्यास के मूल में स्त्री की पीड़ा है, संघर्ष है। समाज में विभिन्न स्त्रियों की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं, अतः उनके संघर्ष भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। परन्तु संघर्ष व पीड़ा सभी स्त्रियों के जीवन में है। उपन्यास की कथावाचक स्त्रियाँ इसी संघर्ष व पीड़ा को अपने-अपने अनुभव के आधार पर व्यक्त करती हैं। शुरूआत करते हैं- स्मिता से। स्मिता, अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् अपनी बहन-बहनोई के घर में रहती है। वह पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती है लेकिन उसका जीजा जल्दी ही उसकी शादी करवाकर उससे निजात पाना चाहता है। स्मिता उसे अपने घर में  बोझ लगती है। लेकिन साथ-साथ वह यह भी चाहता है कि जब तक स्मिता उसके घर में है, तब तक वह उसका उपभोग करे। उसकी नजर हमेशा उस पर टिकी रहती थी। प्रतिदिन वह उस पर कसीदे कसता रहता था। एक दिन वह शाम को शराब पीकर कहता है- ‘‘यह मेरी साली है स्मिता। क्या चीज है यार। घर में रहती है तो समझो . . . लार टपकती रहती है अपनी . . . साली आधी घरवाली . . . हा-हा-हा . . .।’’8 वैसे भी समाज में ‘‘हक माना जाता है जीजा का साली पर, अश्लील मजाक करने का।’’9 इतना ही नहीं, एक दिन वह मौका पाकर स्मिता का बलात्कार करता है। ऐसे समय में उसकी बहन भी उसे नहीं बचाती है। बल्कि उसके जीजा की गलतियों पर ही पर्दा डालती है। उसका साथ देने की बजाय उसे ही नसीहत देती है। जब स्मिता अपने जीजा की शिकायत पुलिस में करने जाती है तो वह उसे ही चुप रहने को कहती है- ‘‘नहीं। पुलिस के पास गयी तो बदनामी के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। अकेली जान, वे भी तेरा फायदा उठाने की कोशिश करेंगे। नहीं, यह रास्ता ठीक नहीं है।’’10 मायूस होकर स्मिता वहाँ से पढ़ाई के लिए कानपुर चली जाती है। वह परिस्थितियों से हार मानने वालों में से नहीं है। वह जीवन पर्यंत संघर्ष करती है। अपनी मेहनत, प्रतिभा व लगन से वह अपने लिए निरन्तर नए रास्ते तलाश करती है। अपनी मेहनत के बल पर ही वह बाॅस्टन यूनिवर्सिटी में दाखिला पाती है और अमेरिका चली जाती है। अमेरिका में वह जिम जारविस से विवाह करती है किन्तु वहाँ भी उसे दुःख ही मिलता है। ‘‘फिर एक बलात्कार। पहले अस्मिता पर अब शिशु पर। मेरी चीख ने अस्पताल के दरो-दरवाजे हिला दिए। बचपन के बँधे-रूँधे बलात्कार के क्षण से, आँतों में घुटी जो पड़ी थी।’’11

जिम के साथ रहते हुए उसे ऐसा अनुभव होता है कि जिम के लिए वह पत्नी या प्रेमिका नहीं अपितु अध्ययन का विषय है। प्रेम के नाम पर मनोविश्लेषण का माध्यम बनना हास्यास्पद लगता है। फलस्वरूप उनका संबंध टूट जाता है। इस दौरान लेखिका स्मिता का दबंग रूप भी उपन्यास में प्रस्तुत करती है। एक बार जब वह अपने पति जिम जारविस द्वारा पीटी जाती है तो वह चुप नहीं बैठती बल्कि वह भी उसकी पिटाई करती है। ‘‘उसने जिम को पटकनी देकर जमीन पर गिरा दिया। उसकी बेल्ट छीन ली और अच्छी तरह उसकी धुलाई करके रख दी।’’12 वह अपनी विपरीत परिस्थितियों में भी राह निकाल लेती है। वह अपनी शिक्षा, अपने कैरियर व जीवन के प्रति सजग है। इसी कारण वह निरन्तर सक्रिय बनी रहती है। परिस्थितियों की मार को भाग्य या किस्मत मानकर उन्हें झेलते जाना, उसकी दृष्टि में गलत है। वह न सिर्फ स्वयं के जीवन की समस्याआंे के प्रति सजग है बल्कि अन्य स्त्रियांे के जीवन की समस्याओं को भी सुनना, जानना, समझना और उन्हें दूर करना चाहती है। इसीलिए वह अमेरिका में रिलिफ फाॅर एब्यूज्ड वूमन ‘राॅ’ नामक संस्था से जुड़ती है, जो पीड़ित स्त्रियों के कल्याण के लिए बनाई गई है।

‘कठगुलाब’ में दूसरी कथावाचक हैं- मारियन। वह भी अत्यन्त मेहनती व सजग स्त्री है। उसे शादी में धोखा मिलता है। लेकिन वह उम्मीद नहीं तोड़ती। वह इस उम्मीद पर कि इस बार उसकी भावनाओं का सम्मान हो पाएगा, दूसरी शादी करती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती। भले ही मारियन और स्मिता की कहानी अलग-अलग हों, लेकिन दोनो ही अपने दुःख से ऊपर उठने के लिए प्रयत्नशील हैं। साथ-साथ अन्य दुःखी स्त्रियों के साथ अपना दुःख बाँटने के प्रति सजग हैं। मारियन का अन्तद्र्वन्द्व, अपनी माँ द्वारा की गई उपेक्षा, समर्पित व ईमानदार होते हुए भी सच्चा जीवन साथी नहीं मिल पाने का दुःख, बार-बार मिले धोखे तथा चाहकर भी माँ नहीं बन पाने की पीड़ा को लेकर है। ‘‘स्मिता समेत राॅ की सब औरतें जानती थी कि भरपूर चाहने के बावजूद, मेरा बच्चा नहीं हुआ था। पर इस न होने के पीछे कितना विषाद और अपमान छिपा था, उसके बारे में मैंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा था।’’13 राॅ की सभी स्त्रियों के पुरूषों के बारे में एक ही राय थी कि ‘‘मर्द नाम का प्राणी खुदगर्ज और जालिम होता-ही-होता है।’’14 यह राय ऐसे ही नहीं बनी है बल्कि इसके पीछे राॅ संस्था की महिलाओं के अपने-अपने अनुभव हैं। मारियन अपना अनुभव साझा करती हुई बताती है कि जब वह उपन्यास लिखती है तो उसे यहाँ भी अपने पति इर्विन से धोखा ही मिलता है। मारियन उपन्यास लिखने के लिए स्रोत इकट्ठा करती है, उसका पति इर्विन उससे वादा करता है कि वह उन दोनों का सम्मिलित उपन्यास होगा। लेकिन जब उपन्यास प्रकाशित होता है तो उस पर मारियन का नाम कहीं भी नहीं होता है। ‘‘पूरी किताब में, आगे-पीछे कहीं मेरे योगदान के लिए आभार प्रकट नहीं किया गया था। समर्पण तक मेरे नाम नहीं था। था, हर औरत के नाम। याद आया, मैंने ही एक दिन कहा था, हम अपने उपन्यास को हर औरत के नाम सपर्पित करेंगे। पर . . . तब,  मैं यही जानती थी कि वह हमारा, हम दोनों का साँझा उपन्यास है।’’15 मारियन के इस उपन्यास में स्पेन की रूथ, इटली की एलेना, स्काॅटलैंड की सूजन तथा पाॅलैंड की राॅकजान की दर्दभरी कथा को प्रस्तुत किया है।

नर्मदा, स्मिता की बहन नमिता के घर काम करती है। नर्मदा का बहनोई उससे जबरदस्ती शादी भी कर लेता है। जीवन में अनेक दुःखों और शोषण की शिकार नर्मदा के हृदय में ढे़र सारी उलझने हैं। लेकिन उसके हृदय में अपने प्रेमी के लिए भी उथल-पुथल मची रहती है। यथाः- ‘‘उसके मारे तो मैंने अपने जालिम जीजा से भी लड़ाई मोल ले ली थी, बहोत समझो चाकू न घोंप दिया सीने में।’’16 अन्य उलझनों से तो वह फिर भी समझौता कर लेती है।

‘कठगुलाब’ में स्त्री कथावाचकों में असीमा का चरित्र सबसे अलग है। उसका तो नाम ही उसके दबंग व्यक्तित्व का परिचायक है। उसने अपना नाम सीमा से असीमा कर लिया है, क्योंकि उसे सीमा में बंधकर घुट-घुट कर जीना पसन्द नहीं है। वह स्त्री के शोषण को सहन नहीं करती है।उसके पिता ने दो बच्चों के होते हुए भी उसकी माँ को छोड़कर दूसरा विवाह कर लिया था। पहले उसे अपने पिता से नफरत हुई और फिर पिता के साथ जाने वाले भाई से। धीरे-धीरे उसे पूरी पुरूष जाति से नफरत हो जाती है। वह स्त्रियों का शोषण करने वाले प्रत्येक पुरूष से प्रतिशोध लेना चाहती है। ऐसे पुरूषों से वह घृणा करती है, उन्हें हरामी कहती है, उसकी दृष्टि में पुरूष की गलतियों पर पर्दा डालना तथा उन्हें हर बात के लिए क्षमा कर देना बिल्कुल गलत है। उसका मानना है कि औरतों का शोषण इसलिए होता है कि वह स्वयं अपना महत्त्व नहीं समझती है। वह कहती है कि ‘‘जब तक औरत यह समझती रहेगी कि मर्द ही असल कमाऊ होता है, उसकी कमाई को अनदेखा किया जाता रहेगा।’’17 वह पुरूषों का विरोध करती है लेकिन अन्दर ही अन्दर अनेक प्रश्न उसके हृदय और मस्तिष्क में सदैव द्वन्द्व पैदा करते हैं कि क्या सभी पुरूष एक जैसे होते हैं या सभी स्त्रियाँ एक जैसी होती हैं ? क्या स्त्री-पुरूष संबंध को एक सामान्यीकृत रूप दिया जा सकता है ? असीमा के दिमाग में ऐसे अनेक प्रश्न जन्म लेते हैं कि ‘‘स्त्री-पुरूष के बीच के रिश्ते का क्या स्वरूप होना चाहिए ? सामान्यीकरण असंभव है, इसलिए होना चाहिए कि बात करना फिजूल था। असीमा जानती थी, उसे सिर्फ यह पूछने का अधिकार था कि उसके और किसी एक पुरूष के बीच के रिश्ते का क्या स्वरूप हो सकता था।’’18

असीमा का चरित्र साहस से भरा हुआ है। वह आम लड़कियों की भाँति दब्बू प्रवृत्ति की नहीं है और न ही उसका जीवन स्वयं तक ही सीमित है। वह अनपढ़, गरीब महिलाओं व उनके बच्चों के हितों के प्रति भी सजग है। बाल-मजदूरी हटाने तथा प्राथमिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार को वह आवश्यक मानती है। इसी प्रकार के प्रश्न उसे परेशान करते रहते हैं कि ‘‘क्या हिन्दुस्तान में बाल-मजदूरी खत्म की जा सकती है?क्या मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उसका कारगर हल बन सकती है ?’’19

‘कठगुलाब’ उपन्यास की सभी स्त्री-पात्रों में अस्मिता बोध अत्यन्त गहरा है। स्मिता, मारियन, असीमा की माँ नर्मदा, नीरजा इत्यादि स्त्रियाँ इस उपन्यास की कड़ियाँ प्रतीत होती हैं। इन सभी स्त्रियों के जीवन की कथा भले ही अलग-अलग है, लेकिन इन सभी कथाओं से ही उपन्यास की सम्पूर्णता है। परिस्थितियाँ अलग-अलग होते हुए भी इन सभी स्त्रियों में अस्मिता बोध का भाव स्पष्ट दिखाई देता है। इनके अन्दर स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ है। ये कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार नहीं मानती है अपितु संघर्ष करती है। ये सभी अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्ष करती हैं। उदाहरणस्वरूप, स्मिता के जीवन का लक्ष्य था कि वह अपने बलात्कारी से प्रतिशोध ले और उसे सजा दिलवाए। ‘‘कोई दिन ऐसा न जाता, जब मैं अपने इरादे को पूरा करने की योजना न बनाती। क्या-क्या ख्याल आते थे मन में . . . मैं रणचण्डी बनी उसका संहार कर रही हूँ। कभी गदा, कभी तलवार, कभी बरछी, कभी खड्ग; बचपन में सुनी पौराणिक कहानियों का हर दैवी हथियार, मेरे हाथों, उसका नाश करा चुका था।’’20

मृदुला गर्ग

अतः निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि ‘कठगुलाब’ मृदुला गर्ग की स्त्री-विमर्श के दृष्टिकोण से एक सफलतम कृति है। इस उपन्यास में केवल भारतीय ही नहीं अपितु यूरोपीय स्त्रियों की पीड़ा की कहानी भी है। इसमें स्त्री-विमर्श की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समीक्षा की गई है, जिसमें यह बात उभरकर सामने आती है कि स्त्री चाहे किसी भी देश की क्यों न हो, वह प्रताड़ित होती है। इन सब के बावजूद भी स्त्री ने पूरी दुनिया के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उसने दुनिया को यह दिखा दिया है कि वह किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कम नहीं है। समाज-सुधार, शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति, प्रशासन, तकनीक, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में स्त्रियाँ सफलतापूर्वक काम कर रही हैं। जिस तीव्रता से स्त्री ने समाज में गति पकड़ी है, उसी तीव्रता से साहित्य में भी उसका चित्रण होने लगा है। मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘कठगुलाब’  इसी कड़ी का एक सफल उदाहरण है। यह उपन्यास जहाँ एक ओर स्त्रियों की पीड़ा और उनके संघर्ष का जीवंत दस्तावेज है, वहीं दूसरी ओर उनकी उपलब्धियों का भी ठोस प्रमाण है। स्त्री-विमर्श के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण आयामों को इस उपन्यास में उठाया गया है- स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री हिंसा व यौन उत्पीड़न का विरोध, स्त्री शिक्षा का समर्थन, अन्याय का विरोध, स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता, स्त्री की अस्मिता, अधिकारों और कत्र्तव्यों के प्रति जागरूकता इत्यादि ऐसे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।

अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि ‘कठगुलाब’ उपन्यास स्त्री-विमर्श को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करता है।


सन्दर्भ  सूची 

1. डाॅ॰ अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृ॰ 385
2. उद्धृत, डाॅ॰ रोहिणी अग्रवाल, साहित्य की जमीन और स्त्री-मन के उच्छ्वास, पृ॰ 11
3. डाॅ॰ रोहिणी अग्रवाल, साहित्य का स्त्री-स्वर, पृ॰ 9
4. सं॰ डाॅ॰ लालचन्द गुप्त ‘मंगल’, हिन्दी साहित्य: वैचारिक पृष्ठभूमि, पृ॰ 243
5. डाॅ॰ रामचन्द्र तिवारी, हिंदी का गद्य-साहित्य, पृ॰ 266
6. डाॅ॰ रोहिणी अग्रवाल, इतिवृत्त की संरचना एवं संरूप, पृ॰ 65
7. वही, पृ॰ 65-66
8. मृदुला गर्ग, कठगुलाब, पृ॰ 15
9. वही, पृ॰ 23
10. वही, पृ॰ 23
11. वही, पृ॰ 59
12. वही, पृ॰ 55
13. वही, पृ॰ 104
14. वही, पृ॰ 65
15. वही, पृ॰ 96
16. वही, पृ॰ 155
17. वही, पृ॰ 141
18. वही, पृ॰ 196
19. वही, पृ॰ 194
20. वही, पृ॰ 25

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