लायब्रेरी की सीढियों पर प्रेम और अन्य कविताएँ

आरती तिवारी

विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
संपर्क:atti.twr@gmail.com

लायब्रेरी की सीढियों पर प्रेम

प्रेम के पल
जिन्हें लाइब्रेरी की सीढ़ियों पे बैठ हमने बो दिए थे
बंद-आँखों की नम ज़मीन पर उनका प्रस्फुटन
महसूस होता रहा
कॉलेज छोड़ने तक

संघर्ष की आपाधापी में
फिर जाने कैसे विस्मृत हो गए
रेशमी लिफाफों में तह किये वादे जिन्हें न बनाये रखने की
तुम नही थीं दोषी प्रिये
मैं ही कहाँ दे पाया
भावनाओं की थपकी
तुम्हारी उजली सुआपंखी आकांक्षाओं को
जो गुम हो गया
कैरियर के आकाश में
लापता विमान सा

तुम्हारी प्रतीक्षा की आँख
क्यों न बदलती आखिर
प्रतियोगी परीक्षाओं में
तुम्हें तो जीतना ही था!
हाँ तुम डिज़र्व जो करती थीं!

हम मिले क्षितिज पे
अपना अपना आकाश
हमने सहेज लिया

उपेक्षित कोंपलों को
वफ़ा के पानी का छिड़काव कर
हम दोनों उड़ेलने लगे
अंजुरियों भर भर कर
मोहब्बत की गुनगुनी धूप

अभी उस अलसाये पौधे ने
आँखे खोली ही थी कि
हमें फिर याद आ गए
गन्तव्य अपने अपने!
हम दौड़ते ही रहे
सुबह की चाय से
रात की नींद तक
पसरे ही रहे हमारे बीच काम
घर बाहर मोबाइल लैपटॉप

ARTIST-ANNA FONAREVA

फिट रहना
सुंदर दिखना
अपडेट रहने की दौड़
आखिर हम जीत ही गए
बस मुरझा गया
पर्याप्त प्रेम के अभाव में
लाल- लाल कोंपलों वाला
हमारे प्यार का पौधा
जो हमने रोपा था
लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठ

प्रेम चटक गया बन के इंद्रधनुष

प्रेम चुपके से बिना किसी आहट के तैरने लगा आँखों की झील में
मैं देखता ही रह गया अपलक
प्रेम लेता गया अपनी गिरफ़्त में
मैं बेबस देखता ही रहा प्रेम
ऐसे टपक के आया हथेली में
जैसे आंसू समां गया हो सीपी में बनके सच्चा मोती

प्रेम हरसिंगार सा झरता रहा झुलसता रहा मैं चाँदनी रातों में हसरतों की धीमी आँच में तृषित चातक सा प्रेम ऊगता रहा
रिश्तों की बंज़र ज़मीन पर
उम्मीदों की फसल सा
लहलहाता रहा
मैं दूर खड़ा देखता रहा
यादों की वादियों से
प्रेम का ऐसे एकाएक ऊगना
ले लेना मुझे अपने आगोश में
प्रेम चटक गया बन के इंद्रधनुष

मैं चुपचाप खड़ा
रंगों के सतरंगी घेरे में
होता रहा कूची लिए हैरान

 एक उनींदी अलस दोपहर के सफे से

चौंक के खुल जाने वाली नींद में साँझ की ओर
धीरे से क़दम बढ़ाती दोपहर में
तुम्हारी यादों से सराबोर
भीगे मन को दिलासा देकर
मैं तकिये को भींच लेती हूँ

मेरी आब का मोती
जो बाँध दिया था
तुम्हारे विश्वाश की पोटली में
पीला पड़ गया है
खो कर अपनी आब

ARTIST-MOGNOLIA VILCHES

मैं इकठ्ठा करती हूँ
कतरा कतरा झाग
उम्मीदों के डिटर्जेंट का
कि धोकर चमका लूँ
फिर से एक बार
पर ये क्या
तुम उड़ेलते जाते हो
शंकाओ का पानी
हमारे मिलन की संभावनाओं को नकार कर

और बैठ जाता है झाग

आखिर इस तरह
कब तक बदलोगे
कामनाओं के लिबास
पकड़ना तो होगा ही एक सिरा
मन की मज़बूती से

सुनो प्रिय
हो न जाये इतनी देर
हम बूझ न पायें रास्ते
खो जाएँ भूलभुलैया में

इससे पहले कि
डर और आशंकाओं का कुहासा
दबोच ले हमें

करो उपचार
मेरे घायल स्वप्न का
रख दो मेरे अधरों पर
ज्योत्स्ना की शीतल नमी
समय के कागज़ पर
लिख दो हमारी मोहब्बत की दास्ताँ

इस तारों भरे आकाश के नीचे
जोश की बलिष्ठ  भुजायें फैला कर
ले लो मुझे अपने आगोश में

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