स्त्रीवाद और महादेवी की ‘श्रृंखला’ की कड़ियाँ’

साक्षी यादव   

 शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय. तदर्थ प्राध्यापिका, लक्ष्मीबाई कॉलेज. संपर्क : sakshi060188@gmail.com

वर्तमान स्त्री विमर्श में कई आयाम  जुड़ चुके हैं  यथा उदारवादी ,मार्क्सवादी ,मनोविश्लेषणवादी ,उग्र नारीवादी. जब किसी भी विमर्श में और अधिक पड़ाव जुड़ते हैं तो वह उसकी प्रगति का निशान होता है .परन्तु कई बार यही स्थिति आपसी असहमति की द्योतक भी बन जाती है .स्त्री विमर्श में ये दोनों ही स्थितियां विद्यमान है .स्त्री विमर्श को इसके समग्र रूप में व्याख्यायित करने की आवश्यकता है न कि  खंडित करके .आज हम स्त्री की मूलभूत समस्याओं के लिए भी लड़ रहे है और कामकाजी आधुनिक स्त्री की समस्याओं के लिए भी.आवश्यकता है तो इनके आपसी समन्वय की .इनकी लड़ाई दो भिन्न छोरों पर होने के स्थान पर एक छोर हो जानी चाहिए . शहरी स्त्री जो साधन संपन्न  (अर्थ ,निर्णय ,समाज )है , उनका दायित्व है कि वो पिछड़ी स्त्रियों के लिए भी अपनी आवाज़ उठायें.   चूँकि हमारे समाज में स्त्री से सम्बंधित अनेक विकृत स्थितियां विद्यमान है ऐसे में सभी स्तरों पर कार्य की आवश्यकता दुरूह होने पर भी आवश्यक है .इनमे भी जातिगत जटिलतायें इस समस्या को बाधा देती है .इसके अलावा आदिवासी स्त्रियाँ, जिन तक विकास की लहर सही रूप में पहुँच नहीं पाती ,और अधिक विकट स्थिति उत्पन्न करते हैं .इस तरह से स्त्रीवादी विमर्श अपने ही अंदर दलित और हशिया के विमर्श के बीज समेटे हुए है .यह स्त्री के अर्थ तंत्र और समाजतंत्र में व्याप्त विकृतियों का आइना हैं .

स्त्री के सरोकारों की शुरुआत हमें नवजागरण काल में विशेष सुनने को मिली .यह वो समय था जब सभी समाज सुधारको ने करबद्ध होकर स्त्री की सामाजिक स्थिति में बदलाव के प्रयास किए .इसी समय परोक्ष  रूप से  की चाहनाओं को स्वर मिला .वो भी समाज का एक अभिन्न अंग है और वह भी समाज की कुरूप मुखौटे को उदघाटित कर सकती है , यह रूप भी हमें इसी दौर में दिखा .ताराबाई शिंदे ,पंडिता रमाबाई ,व अज्ञात हिन्दू औरत के रूप में हमे यह विद्रोह का स्वर दिखा .इससे पूर्व भी सत्यशोधक आंदोलन, ब्रहम समाज (राजा राममोहन राय , (प्रार्थना समाज (केशवचंद्र के प्रयासों ने इसकी पृष्ठभूमि निर्मित की .इसके बाद आर्य समाज (दयानंद सरस्वती ),थियोसोफिकल सोसाइटी(एनी बेसेंट )ने मूलभूत बदलाव के लिए सामाजिक कार्य किए .इनके कार्यों में पर्दा प्रथा निषेध ,सती प्रथा निषेध ,स्त्री शिक्षा जैसे कार्य शामिल थे .नवजागरण कालीन इन प्रयासों ने बदलाव की एक नींव तैयार कर दी थी .असल बदलाव तो स्त्री के राजनीति में जुड़ने से हुआ .उसकी लगातार बढती राजनितिक सक्रियता ,राजनितिक सहभागिता व विरोध के स्वर ने राजनीति में एक महत्वपूर्ण जगह बनाई.वह धीरे-धीरे समझ गयी कि बिना राजनितिक सहयोग के उसका आगे बढ़ पाना असंभव है .अतः स्वतंत्रता से पूर्व भी हमें अनेक स्त्रियाँ राजनितिक गतिविधियों में  सक्रिय दिखी .यथा –भगिनी निवेदिता ,सरोजनी नायडू ,कमला देवी चट्टोपाध्याय ,दुर्गाबाई देशमुख ,अरुणा आसफअली आदि .इसी दौरान हमें महादेवी वर्मा की ‘श्रंखला की कड़ियाँ ‘ भी मिलती है .

‘श्रंखला की कड़ियाँ’  1942 में प्रकाशित  महादेवी वर्मा की अलग -अलग निबंधों का संकलन है .महादेवी ने स्त्री की सामाजिक से लेकर आर्थिक परतंत्रता का विश्लेषण इसमें किया  है .महादेवी वर्मा के समय में स्त्री विमर्श जैसी कोई धारा न  थी .परन्तु यह महादेवी की दूरदृष्टि ही थी जो वर्तमान समय में भी हमें उनकी इस रचना से स्त्री विमर्श की अनुगूंज देखने को मिलती है.  वास्तव में महादेवी जिस परिवार में पली बढ़ी वह उन्ही नवजागरण कालीन स्थितियों को, समाज सुधार व स्त्री के स्तर में सुधार  पर विश्वास करने वाला था. महादेवी के पिता आर्यसमाजी थे, जिन्होंने महादेवी की शिक्षा और उनके हर निर्णय में उनका साथ दिया .महादेवी का तत्कालीन विपरीत स्थितियों में भी आत्मबल का कारण हम उनकी इस परवरिश में ढूंढ सकते हैं. यद्यपि उनका विवाह बचपन में ही हो गया था,  परन्तु उनको यह बंधन स्वीकार्य नहीं था .ऐसी ही परिस्थितियों ने उनके स्त्री लेखन को भी प्रभावित किया होगा .महादेवी ने 1935  में ‘चाँद’पत्रिका में सम्पादन का कार्यभार संभाला .जिसमे वे समय समय पर स्त्री केन्द्रित मुद्दे उठाती रहती थी  .’श्रंखला की कड़ियाँ’उनके इन्ही लेखों का संकलन है .

 महादेवी का विश्लेषण या आलोचना जब हुई भी तो एक भारतीय संस्कृति की प्रवक्ता के रूप में .उनको ‘आधुनिक कालीन मीरा’ कहा गया.  भारतीय संस्कृति व हिंदुत्व को लेकर लगाव दिखता तो है पर केवल  इन्हीं  सन्दर्भों के इर्द- गिर्द उनको समझना उनके साथ अन्याय होगा .महादेवी अपने विवेक के अनुसार परम्परा को तोडती भी हैं और अपनी मानवतावादी और स्त्री दृष्टि के कारण भविष्य उपयोगी भी हैं .

महादेवी वर्मा मानती थीं  कि स्त्रियों का कोई भी इतिहास नही मिलता .सत्य ही है क्योंकि  इतिहास तो शक्ति संपन्न सत्ता पक्ष का होता है, जिसके पास सारे संसाधन हैं- अर्थात पुरुष सत्ता, इसने ही समाज ,धर्म, संस्कृति ,अर्थ तंत्र को संचालित किया .अतः उसी का इतिहास भी लिखा गया . “समाज की दो आधार शिलाएं हैं ,अर्थ तंत्र का विभाजन और स्त्री पुरुष-सम्बन्ध .इनमे से यदि किसी एक की नभी स्थिति में विषमता उत्पन्न  होने लगती है ,तो समाज का सम्पूर्ण प्रासाद हिले बिना नही रह सकता”.1  यहाँ तो दोनों ही स्थितियों में असमानता देखने को मिलती है .यह सामाजिक असमानता स्त्री की आर्थिक आश्रयता के कारण है .इसी कारण उसके सभी निर्णय किसी और के होते हैं  और वह कठपुतली की तरह उनका अनुपालन करती है . “औरत का अपना कुछ भी नही होता .अपनी जो जिंदगी है ,वह भी औरत की नहीं .औरत पुरुष की संपत्ति होती  है.सिर्फ पुरुष नहीं, पुरुष शासित इस समाज की संपत्ति होती है .”2

महादेवी वर्मा का दृष्टिकोण उदारवादी नारीवाद से अधिक मेल खाता है .वे स्त्री की शिक्षा, स्वावलंबन के अतिरिक्त उन स्त्रीत्व  के गुणों को भी श्रेयस्कर समझती हैं, जिनसे दुनियावी कुरूपता को ढका जा सकता है. .वस्तुतः उनका दृष्टिकोण आशावादी ही अधिक था .इसीलिए वे  को उसके शोषण और परतंत्रता के बावजूद अक्षय वात्सल्यमयी पुकारती हैं .जो स्त्रीत्व का गुण है उसे छोड़ना नही चाहती . “जन्म से संतप्त और जीवन से अभिशप्त अक्षय वात्सल्यमयी  नारी” पुकारती है .स्त्री का यह गुण मानवता के विकास और उसको जीवित  रखने के लिए बेहद ज़रूरी है .यद्यपि  स्त्रीवाद इस वत्सल्यामयता को भी एक सीमा पर सामाजिक बंधन और शोषण का कारण समझता है और उसकी लिए विविध प्रकार के तर्क भी प्रस्तुत करता है .

महादेवी वर्मा समाज और धर्म में स्त्रियों की दोयम स्थिति पर भी सवाल खड़े करती हैं .महादेवी व्यंग्य करती हैं –“हमारी पूजा अर्चना की सफलता के लिए यह परम आवश्यक है कि हमारा देवता हमारी वस्तुओ पर हमारा अधिकार रहने दे और केवल वही स्वीकार करे जो हम देना चाहते हैं .”3 इसके अतिरिक्त पतित वेश्याओं पर भी महादेवी का ध्यान गया ,वे लिखती हैं –“जैसे दास प्रथा के युग में स्वामियों के निकट दास  व्यक्ति न होकर यन्त्र था ,वैसे ही समाज सदा से पतित स्त्रियों को भी समझता है .”4 वेश्यावृति इसी पुरुष सत्ता का परिणाम है,  जिसमें  परुष के भोग विलास की माध्यम बनती स्त्री को पुरुष की इच्छा का ग्रास बनना पड़ता है .आज इचित रूप से वेश्यावृति स्वीकारती स्त्रियों में भी कहीं न कहीं इसी विकृत सत्ता का हाथ है, जिसमें  अर्थ की आवश्यकता का और भोग विलास का एकात्म स्थापित हो गया है .

पुरुषसत्ता के एकाधिपत्य के साथ ही पुरुष ने जिस समाज ,धर्म ,शास्त्र ,नैतिकताओ का निर्माण किया उनमें स्वयं को श्रेष्ठ स्थान पर रख स्त्री को अपने अधीनस्थ बना लिया .इस अधीनस्थता के कारण में स्त्री की जैविक स्थिति व उससे उपजे अर्थ पारतंत्र्य को सामने रखा .समाज व्यवस्था की निर्मिति  इसी को ध्यान में रखकर की गयी .इस प्रकार यह पुरुष सत्तात्मक समाज स्त्री के शोषण का सर्वप्रमुख कारक बना .इसके साथ स्त्रियाँ पालतू जंतुओं के सामान पुरुष की संपत्ति मात्र बनकर रह गयीं .

महादेवी वर्मा ने श्रंखला की कड़ियाँ में स्त्री शिक्षा , स्वातंत्र्य ,स्वावलंबन ,वेश्यावृति ,ऐतिहासिक न्यूनता ,असमान सामाजिक स्थिति व साथ ही स्त्री की राजनितिक सहभागिता के प्रशन को भी अपने विश्लेषित मुद्दे के रूप में अपनी इस पुस्तक में  उठाया है .यद्यपि इसमें अधिक तर्कपूर्ण और गहन विवेचन नही मिलता है ,जो आज के स्त्री विमर्श के लिए अपेक्षित है .परन्तु महादेवी का इन विषयों पर चर्चा भी एक नई उपलब्धि थी.उनका यही प्रयास अग्रिम स्त्री विमर्श की वैचारिकी का अधार माना जा सकता  है .नही तो इसको एक शुरुआत के रूप में अवश्य देखा जा सकता है .इसका सम्बन्ध नवजागरण कालीन समाज सुधार की  प्रवृति से भी है .महादेवी वर्मा के पिता गोविंदप्रसाद आर्य समाजी थे .उन्होंने ही अपनी बेटी को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया .उनके पिता ने सामाजिक अवहेलना की चिंता किए बगैर उनकी ज़िदगी के लगभग सभी निर्णयों में उनका साथ दिया.निसंदेह महादेवी पर भी इस आचरण का बहुत प्रभाव पड़ा होगा .उनकी विचार दृष्टि भी आर्यसमाजी सुधर की पक्षधर थी बल्कि वे इससे भी आगे की सोच रखती थीं .महादेवी से पूर्व भी स्त्री क राजनितिक और कानूनी सुधार की एक धारा विद्यमान मिलती हैं –

1 – सती प्रथा निषेध अधिनयम (१८२९)

२- बाल विवाह निरोधक अधिनियम (१९२९)

3 – हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (१८५६)

4 –हिन्दू स्त्रियों का संपत्ति का अधिकार अधिनियम (१९३७)

5 – विशेष विवाह अधिनियम (१८७२ ,१९२९ ,१९५४ )

महादेवी और निराला

इन कानूनी प्रावधानों का भी प्रभाव महादेवी वर्मा के दृष्टिकोण पर अवश्य ही पड़ा होगा . स्त्री जागरण के लिए स्त्री का तर्कपूर्ण लेखन व भावात्मक – यथार्थवादी लेखन स्त्री सरोकारों को अभिव्यक्त करने के लिए अत्यंत अवश्यक है .नवजागरण कालीन स्थितियों ने स्त्रियों को प्रेरित कर अपनी स्थिति पर सोचने की जगह बनाई. मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं – “ श्रृंखला की कड़ियाँ’के माध्यम से महादेवी वर्मा एक स्त्रीवादी दार्शनिक के रूप में हमारे सामने आती हैं .हिंदी में स्त्री जीवन की वास्तिविकताओं और कामनाओ का कलात्मक चित्रण करने वाली लेखिकाएं और भी हैं तथा स्त्री स्वाधीनता का आन्दोलन चलने वाली कार्यकर्ताओं की भी कोई कमी नहीं है ,लेकिन भारतीय स्त्री की जटिल समस्याओं और उसकी दासता की दारुण स्थितियों और उनकी मुक्ति की दिशाओं का मूलगामी दृष्टि से जैसा विश्लेषण महादेवी वर्मा की पुस्तक ‘श्रंखला की कड़ियाँ”में है वैसा हिंदी में अन्यत्र कहीं नही है”.5

1 – ‘श्रंखला की कड़ियाँ’महादेवी वर्मा ,पृष्ठ 115

2 – औरत का कोई देश नहीं , तसलीमा नसरीन , पृष्ट 155

3 – श्रंखला की कड़ियाँ ,महादेवी वर्मा ,पृष्ट 91

4 – वही, पृष्ठ 81

5 –नवजागरण और महादेवी वर्मा का रचना कर्म :स्त्री विमर्श के स्वर , कृष्णदत्त पालीवाल ,पृष्ठ 281

6 –स्त्री संघर्ष का इतिहास ,राधा कुमार

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ISSN 2394-093X
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