मोदी जी, लहू का लगान आपकी लुटिया न डुबो दे !

ज्योति प्रसाद

 शोधरत , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com

कुछ समय पहले टीवी और अखबारों में औरत और उसकी माहवारी को एक खास चित्र से पेश किया जाता था। चित्र में दो महिलायें होती थीं। एक महिला दूसरी के कान में फुसफुसा कर कहती थी। इससे अपने आप एक समझ बन जाती थी कि बात पीरियड्स की हो रही है। हाल के वर्षों तक यही हाल था और आजकल भी ऐसा ही हाल है। देश में ऐसे पूजा-पाठ के स्थान हैं जहां माहवारी के दौरान कोई भी महिला प्रवेश नहीं कर सकती। भगवान अ-पवित्र हो जायेंगे, ऐसा ख़तरा लगातार इस महान संस्कृति के महान रक्षकों को सताता रहता है। बाज़ार ने औरत को कुछ इस तरह से पेश किया है जो एक अदना सेंट को सूंघकर मर्द के साथ हो लेती है। कुछ देशभक्ति का दावा करने वाले अभिनेता तो चड्डी और बनियान के विज्ञापन से भी औरतों को प्रभावित कर लेते हैं। समाज, संस्कृति, बाज़ार आदि-आदि तो औरतों को ठग ही रहे हैं साथ ही साथ सरकार भी अपने नए नियम के साथ ठगने के लिए तैयार बैठी है। पीरियड के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले नैप्किन्स पर 12 प्रतिशत का कर लगाया जा रहा है। इसके बाद ये महंगे तो होंगे ही, साथ ही साथ बहुत सी महिलाओं की पहुँच से दूर हो जाएंगे।

औरतें महीने के कुछ खास दिन असहनीय दर्द और एक महक में गुजारती हैं। इससे वे चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ा सकतीं। इससे उन्हें बेहद तकलीफ़ होती है। वे हैं- ‘महीने के उन दिनों में शरीर से रिसते खून की महकऔर अंदरूनी हिस्सों में उपजने वाला दर्द!’महिलाओं के अनुभवों से पता चलता है कि कई सालों से पैड के इस्तेमाल से दर्द व महक से तकलीफ़ थोड़ी बहुत कम हो गई है क्योंकि पैड साफ और सुरक्षित होने के साथ साथ खुशबू वाले होते हैं। इस्तेमाल में भी आसान। यह मामूली सी वस्तु लगने वाला और खून सोखने वाला स्पंज नहीं बल्कि हम आधी दुनिया के लिए अनिवार्य वस्तु है जो बहुत हदतक हमारे उन दिनों को हमारे लिए साफ और बेहतर बनाता है।

शुरू में सेनिटरी पैड पर 12%का कर लगा है उसे सोचकर मैं बहुत हद तक हैरान नहीं हुईथी। पर जब यह मालूम पड़ा कि टिकुली और सेनूर (बिंदी-सिंदूर) पर कर नहीं है तब मुझे दोनों की तुलना करने के बाद अव्वल दर्जे की हैरानी हुई कि लोगों का दिमाग पितृसत्ता के ढांचे में कैसे अनुकूलित हो चुका है! कैसे पढ़ी लिखी सरकार को परंपरा के माम्बा साँप ने डंस लिया है। हाल के वर्षों में हुई कई तरह की घटनाओं को देखते हुए मुझे सरकारों से बहुत उम्मीदें नहीं हुआ करतीं।क्या कर निर्धारण करने वाली सलाहकार टीम में महिलाएं नहीं थीं?उस समूह में औरतों की संख्या कितनी रही होगी? क्या वे एक-दो संख्या में थीं जिस कारण उनकी आवाज़ दबा दी गई? क्या उन्हों ने महिला होने के नाते इस पर कोई आपत्ति नहीं दर्ज़ की? क्या सरकार को नहीं मालूम कि पैड पर कर बढ़ाने के बजाय कम करना चाहिए या फिर कर मुक्त करना चाहिए? क्या टीम में शामिल लोगों ने इस पर तनिक भी बहस नहीं की? क्या सरकार महिलाओं के कल्याण और विकास में उनके शरीर को नहीं जोड़ती? सरकार महिलाओं के लिए किस तरह के विकास की कल्पना करती है? क्या सरकार महिलाओं को हर मोर्चे पर ठगने के लिए योजनाबद्ध है.., कुछ ऐसे ही सवाल ज़ेहन में रह-रह कर आ रहे हैं।

इसी के बहाने मौजूदा दौर में ‘महीने के उन दिनों’ के बारे में बहस होते देख अच्छा भी लग रहा है। जिस महत्वपूर्ण विषय की चर्चा फुसफुसा कर हुआ करती थी अब उस पर सार्वजनिक बहस की जा रही है। इसके चलते माहवारी से जुड़े अहम पक्ष उभर कर सामने आ रहे हैं। लोगों की झिझक में कमी आ रही है। इसके अलावा इस विषय से जुड़ी परेशानियों को गंभीरता से समझने की कोशिश शुरू हो चुकी है। हाल ही में आई एक हिन्दी फिल्म ‘फुल्लू’इसका अच्छा उदाहरण है जिसने इस विषय को बहुत से लोगों तक आसानी से पहुंचाया है।

सबरीमाला के भगवान अय्यप्पा के मंदिर,हाजीअली दरगाह आदि जगहोंपर औरतों कोमाहवारी के दौरान घुसने नहीं दिया जाता। इसका कारण उनके इस समय अ-पवित्र होने को बताया जाता है। जबकि गौर करने पर पता चलता है कि पवित्रता और अपवित्रता की पूरी पृष्ठभूमि ही एक मनगढ़ंत, मनमाने औरतानाशाही रवैये का एक रूप है।जो प्रक्रिया शरीर के अंदर प्राकृतिक रूप से हर महीने होती है वह किस प्रकार से अ-पवित्र हो जाती है? जबकि अ-पवित्रता की श्रेणी में तो किसी का शोषण करना ही आता है। आधी आबादी का शोषण कोई दस या बीस बरस पुराना नहीं है, बल्कि इतिहास के अंदर दबी-घुटी कहानियों में कितने ही भयंकर शोषण के सबूत मिल जाते हैं। क़ायदे से किसी का भी शोषण ही सबसे बड़ी अ-पवित्रता है। औरतों कापारिवारिक,सामाजिक, पारंपरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदिधड़ों ने बखूबी शोषण किया है साथ ही साथ एक अरसे तक उनकी शारीरिक शक्ति जो नए जीवन का कारण है,को अपवित्र घोषित कर बरसों तक पेश किया है।वास्तव में ये व्यवस्थाएँ उनको कमजोर बनाए रखने के नुकीले औज़ार भी रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब बंद हो चुका है। यह इक्कीसवीं सदी में भी जारी है। यहां अभी भी आधी दुनिया की परेशानियाँ कुछ कम तो बिल्कुल नहीं हैं।

इस सब से परे मैं उस 14 या 15 बरस की लड़की की जगह खुद को रखकर सोच रही हूँ जिसे पहली बार महीने के दिन शुरू हुए हैं। सरकार को नहीं मालूम कि जब 15 साल की उम्र में (अब 10 या 12 से पीरियड शुरू हो जाते हैं) एक गर्मी की सुबह आप सो कर उठे हों और आपके पैरों के बीच गीलेपन का अहसास होता है, तब वह बच्ची जो ताज़ा-ताज़ा बड़ी हुई है,अपने को मजबूर पाती है। वह नौजवानी की दहलीज़ पर कब खड़ी हो जाती है उसे इसका तनिक भी अहसास नहीं होता। उस समय उसका शारीरिक और मानसिक स्तर निचले दर्जे पर आ जाता है। यह मानसिक धक्का भी होता है। इससे बाहर आने में उसे कई बरस लग जाते हैं।

वह उस रात से पहले बच्ची ही थी। न जाने रात के कौन से पहर में शरीर यकायक बदल जाता है। सही वक़्त का पता रात की सोई हुई दीवार घड़ी की सुइयां जानती हैं और शरीर के अंदरूनी अंग। किसी गैर लिंग या फिर सरकार को क्या मालूम 14-15 बरस में आपके शरीर का वह अंग जो सबसे अधिक रहस्यमयता लेकर संग जीता है वह अचानक से खून के थूक कैसे उगलने लगता है? कैसे बताया जाये कि खून किसी छोटी गुठली की शक्ल लिए धक से बाहर गिरने लगता है तब मन में कितनी अजीब सी बातें आने लगती हैं! यही चिढ़ में बदल जाती है।डियर सरकार, आपको नहीं मालूम यह चिड़चिड़ाहट कितनी खराब होती है जो हर महीने निश्चित समय पर आ धमकती है।

सरकार को यह भी नहीं पता कि किसी आमफहम परिवार से ताल्लुक रखने वाली लड़कियों के माहवारी के शुरुआती दिन कैसे होते हैं? अगर परिवार में तीन या चार बेटियां होती हैं तब तो और भी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि इसमें माँ को मिलाकर माहवारी के दिन बिताने वाली औरतों की संख्या बढ़ जाती है। अकेले पिता के ऊपर ख़र्च का जिम्मा होता है। वह मासूम पिता तो ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ के नारे को सच मानकर उन्हें पढ़ाना ही चाहता है। उसे कई बार यह ख़यालभीनहीं आता कि उसकी सबसे छोटी बिटिया भी अब महीने के उन दिनों वाली दशा में प्रवेश कर चुकी है। दूसरी तरफ माँ जिसे विरासत में ही छुपाने की कला सिखाई जा चुकी है वह पिता से भरसक इस बात को छिपाने की कोशिश करने में व्यस्त रहती है कि छोटी बिटिया भी अब बड़ी हो चली है। यही कला वह मासूम पालतू माँ अपनी बेटियों में भी डालना शुरू कर देती है कि कैसे ‘यह न करना और वह न करना’ आदि आदि। अब हर बार वह अपने हिस्से का पैड अपनी सबसे छोटी बेटी को दे देती है क्योंकि अभी उसे इसे समझना और संभालना नहीं आया है। सरकार को नहीं मालूम कि ‘भारत-माता’ कितनी कुर्बानी देती है। खुद पुरानी सूती साड़ी का इस्तेमाल करती है और बड़ी और अनुभवी हो चुकी बेटियों को भी सूती साड़ी को चिथड़ों में काटकर इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करती है।माँ को ऐसा कर यह लगता है कि कुछ तो बचत होगी ही।

वस्तु एवं सेवा कर उर्फ़ जीएसटी की टीम और वित्त मंत्री को नहीं पता कि किसी युवा होती लड़कियों की कक्षा में वे लड़कियां छुट्टी कर घर में बैठ जाती हैं क्योंकि पहले दिन पेट के निचले हिस्से में दर्द बहुत होता है और बहाव भी तेज़ होता है। इतना तेज़ कि एक पैड बहुत जल्दी ही गीला हो जाता है। एक ही दिन में कई पैड लग जाते हैं। न बदलो तो दाग लगने या फिर अंदरूनी कपड़े खराब होने का भय मन में तैरने लगता है। क्या वित्त मंत्री को पता है कि 32, 34,…(बढ़ते क्रम में),आदि आदि रुपयों की रेंज में मिलने वाले नैप्किंस के पैकेट में 8, 10 या 12 ही संख्या होती है। कुछ औरतों व लड़कियों का खून इतना बहता है कि वे पूरा दिन साफ सफाई और पैड बदलने में बीत जाता है। कई बार एक ही महीने में कई पैकेट ख़रीदने पड़ जाते हैं। तिस पर घर के काम जो कभी अपने में परिवर्तन नहीं लाते मुंह बाए खड़े रहते हैं। घर के काम की कभी छुट्टी नहीं होती मंत्री जी!

रोजाना सफर तय करने वाली लड़कियों के बारे में क्या आपको मालूम है मंत्री जी? कीजिये सिटी बसों में सफर। आपको मालूम चल जाएगा कि बसों में उन दिनों में खड़े होकर सफर करना क्या होता है! बस में धक्के लगने के साथ साथ दर्द को झेलना और बहाव का तेज़ होना, भला एक बेचारा मामूली सा पैड कितना सोख पाएगा। स्कूल, कॉलेज,दफ्तर या कहीं भी काम पर जाने की जल्दी कि कब टॉयलेट मिले कि पैड बदला जाये। सुकून मिले।बसों में इतनी भीड़ होती है कि खड़े होने की जगह भी नहीं मिल पाती। दूर कहाँ जायें, दिल्ली की डीटीसी बसों में ही इतनी भीड़ हो जाती है कि दो सीटों के बीच घुस कर लड़कियां खड़ी होकर अपने को गंदी हरकतों से बचाती हैं और चैन पाती है। सोचिए मंत्री जी उस समय एक पैड कितना सुकून देता है कि खून बाहर नहीं आएगा। दाग नहीं लगेगा। दफ्तर या अन्य जगह पहुँचने तक पैड यह भरोसा देता है कि इत्मीनान रखो, काम चल जाएगा।

आपको नहीं मालूम की 6या 8रुपये के अंतर में ‘पंख वाले पैड’मिल जाते हैं जिसे टीवी पर ‘विंग्स वाले पैड’ बताकर विज्ञापन दिया जाता है। मुझे बताना होगा आपको कि क्या मतलब होता है इन पंख वाले-पैडों का। पंख वाले पैड, पेंटी के दोनों ओर चिपकाए जाते हैं जिससे पेंटी के किनारे पर खून के धब्बे लगने का डर नहीं होता। क्योंकि खून तो निकल कर बहना जानता है इसलिए वह कपड़ों में यहाँ वहाँ छितर जाता है। कसम से बहुत बदबू भी आती है कभी-कभी। लेकिन पंख वाले पैड खुशबू के साथ सुरक्षा देते हैं। दाग लगने के भय से मुक्ति देते हैं। वो पेंटी के साथ चिपके रहते हैं और सोखते हैं हमारी परेशानी को,डर को,असुरक्षा के भय को, शर्म से बचाते हैं।आपको क्या इस बात की खबर है मंत्री जी?

आपको बताऊँ कि पेंटी में कपड़ा नहीं चिपकाया जा सकता। उसके हिलने का या खुल्ली सलवार से गिर जाने का भय बना रहता है। कपड़े को जितना भी धो के इस्तेमाल किया जाये, उसमें एक अ-सुरक्षाऔर अ-स्वस्थता बनी रहती है। लेकिन पैड के साथ ये सब नहीं है। एक अ-साधन सम्पन्न लड़की ने मुझे एक बार अपने साथ घटी घटना साझा की थी। उसने बताया था- ‘दीदी, उस दिन तो मुझे लगा था कि मैं कहीं जाकर मर जाऊँ! नया नया शुरू हुआ था ये। घर में खाने को नहीं था तो पैड-सेड कहाँ से आता! माँ ने कपड़ा दिया था अपनी पुरानी सूती साड़ी में से ‘फाड़कर’…वही लगा लिया था। कहीं जा रही थी उस दिन शाम को। कुछ सामान लाना था। मेरा मन नहीं था। दर्द था। जाना पड़ा। दीदी, मैं क्या बतलाऊँ कि क्या हुआ…दीदी कपड़ा ढीली कच्छी में से गिर गया। … हे भगवान…! मैं घर वापस भाग आई। एक तो दर्द था ही दूसरा यह हुआ कि शर्म से मैं मर गई। सब लोग घूरने लगे थे। माँ ने बहुत पीटा कि शर्म नहीं आती तुझे। इत्ती बड़ी हो गई संभल कर चलना नहीं सीखा। हिरनी बन रही थी।कई दिनों तक मैं घर से नहीं निकली। आज भी सोचकर सहम जाती हूँ।’ मंत्री जी बताइये आपने इसकी कल्पना की है कभी?

स्कूली जीवन के दौरान कक्षा में देखा था कई लड़कियों को दर्द से डेस्क पर ही गिर जाने का दृश्य। कई बार वह रहस्यमयी अंग गंदे कपड़े के इस्तेमाल से संक्रमित हो जाता है जिसका इलाज़ कोई लड़की या स्त्री करवा ही नहीं पाती। जब पैड के रुपये नहीं तो उस नाजुक अंग के इलाज़ के रुपये कहाँ से आएंगे? सर्वेक्षण हो तो पता चल जाएगा कि हर माह कितनी ही लड़कियों और औरतों को संक्रमण हो जाता है। कई तो मर भी जाती हैं। इस संक्रमण से उनकी दशा बहुत ही दयनीय हो जाती हैं। वे दर्द से रोती हैं बिना किसी शिकायत के, कि प्रकृति माँ आपने हमें यह वरदान या अभिशाप क्यों दिया? उन्हें इसके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं होती।

आंकड़ों पर नज़र डाली जाये तब पता चलता है कि महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या ताउम्र संक्रमण से जूझती है। इसके पीछे के कारण गंदे कपड़ों का माहवारी के समय इस्तेमाल करना या फिर कम गुणवत्ता वाले नैप्किंस का इस्तेमाल करना अन्य कारणों के साथ शामिल है। इसके साथ ही सरकार के महिला-हितैषी कार्यक्रर्मों पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लग जाता है। ‘महिला-कल्याण’ में स्लोगन वाली राजनीतिक योजनाएँ क्यों हवा में ही रह जाती हैं, वे जमीनी स्तर तक क्यों कार्यान्वित नहीं हो पातीं, वे योजनाएँ महज़ कागज़ों तक ही क्यों सिमट जाती हैं, ऐसे सवाल सरकार को बार-बार कठघरे में खड़ा करते हैं। माहवारी नैप्किंस पर 12% का कर सरकार की महिला कल्याणकारी छवि को धुंधला ही कर रहा है। इस निर्णय से ऐसा भी आभास होता है कि इस कर का  निर्धारण करने वाली टीम में अवश्य ही महिलाओं की बहुत कम संख्या होगी। इसलिए राजनीतिक हिस्सेदारी में 33% प्रतिशत महिला आरक्षण का हक़ मांगना इस तरह के राजनीतिक-पितृसतात्मक रवैये के खिलाफ़ मोर्चा खोलने के लिए अहम क़दम भी है। आज भी महिला केन्द्रित नीतियों एवं योजनाओं को उभयलिंगी दिमाग अंजाम नहीं देते। केवल और केवल पुरुष सत्तात्मकता की ही बू आती है।

मंत्री जी को कहाँ तो इस अनिवार्य वस्तु को सस्ता करना चाहिए था पर वह तो मुंह में जीएसटी का जाप करते हुए ‘एक कर’ की बात कर के दौड़े जा रहे हैं। आइये आपको दिल्ली से बाहर किसी बस्ती या गाँव का हाल बताया जाये। महोदय, आपको नहीं मालूम कि जब जांघों के दरम्यान कपड़े की मोटी तहें रहती हैं तो वह जांघों के दोनों ओर के हिस्सों को घिस कर छील देता है। जी हाँ, ऐसे छील देता है कि उसमें बेतहाशा जलन होती है और कई दिनों तक चलने में परेशानी और दर्द होता है। बच्चे के जन्म के बाद जच्चा को कई दिनों तक और कभी कभी पूरे एक महीने तक खून का बहाव होता है। सोचिए एक साधारण से परिवार की वह जच्चा कैसे उन दिनों को बावजूद घर को कुछ ही दिन में संभाल लेती है। वह बोलती नहीं तो इसका यह मतलब नहीं कि आपको न बताया जाये कि उसके जांघों के अंदरूनी हिस्से छिल जाते हैं, कपड़े के इस्तेमाल से।पैड के इस्तेमाल से ऐसा कम होता है और बहुत हद तक इससे जूझा जाता है। पर मंत्री जी, कई बार वह जच्चा संक्रमण की चपेट में आकर मर भी जाती है। उसे उचित इलाज़ भी नहीं मिल पाता।ठीक इसी तरह आपने किसान महिला के बारे में भी सुना होगा। ग्रामीण महिलाएं और शहरी हाशिये पर रहने वाली महिलाओं को संक्रमण का खतरा हर पल बना रहता है। सोचिए इनके बारे में!

महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए सरकार न जाने कितनी ही योजना रोज़ ही नए नाम से निकालती रहती है। लेकिन वे सब योजना टेबल पर पड़े कागज़ पर दम तोड़ देती हैं। हाल ही के वर्षों में प्रकाश में आए शोधों और लेखों से यह पता चलता है कि सेनीटरी नैप्किंस से भी कुछ बीमारियों के ख़तरे उभर आए हैं। क्या सरकार को इसकी निगरानी नहीं करनी चाहिए? क्या सरकार को इस दिशा में कुछ कठोर कदम नहीं उठाने चाहिए ताकि महिलाओं के स्वास्थ्य को हानिकारक बीमारियों से बचाया जाये। हैरत तो इस बात की है कि हम एक बार में अन्तरिक्ष में कई सैटेलाइट्स का प्रक्षेपण तो कर सकते हैं पर औरतों के सम्मान की खोज रसोईघर के सिलेन्डर से जोड़ने में पाते हैं। आज भी सम्मान रसोईघर की सीमा नहीं लांघ पाया है। नीतियों और योजनाओं के मामले में औरतों की बारी सूची में बहुत बाद में आती है। उन्हें उतनी प्राथमिकता नहीं दी जाती जितनी कि उसे एक नागरिक के नाते मिलनी चाहिए। फिर भी औरतें हर क्षेत्र में बेहतर कर रही हैं। इसकी वजह उनमें मौजूद जिजीविषा है।

महोदय, अगर आप ऐसे अनुभवों से कभी रूबरू हुए हों तो आपको 12 प्रतिशत कर के बारे में हज़ार बार सोचना चाहिए। आपने कर भले ही महावारी नैप्किंस पर लगाया है पर यह आपकी नकारात्मक राजनीति का कदम बनकर रहेगा जो डिजिटल मीडिया में दर्ज़ हो रहा है। बरसों आपकी सरकार को खून पर कर लगाने वाली सरकार के नाम से न सिर्फ जाना जाएगा बल्कि आपको कोट किया जाएगा उदाहरण के साथ। आप अपने अनोखे फैसले से इतिहास में दर्ज़ हो चुके हैं। लेकिन आप यह अभी भी तय कर सकते हैं कि आप अपने को कैसे याद करवाना चाहेंगे? और यह भी कि लहू का लगान आपकी लुटिया न डुबो दे.

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles