स्त्रियों के लिए माहवारी को टैबू बनाया जाना सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है. इसे गोपनीय, टैबू और लज्जा का विषय बनाने में यह प्रक्रिया न सिर्फ स्त्रियों के मानस को नियंत्रित और संचालित करती है, बल्कि पुरुषों का भी ख़ास मानसिक अनुकूलन करती है. माहवारी को लेकर पुरुषों के बीच की धारणा को समझने के लिए यह एक सीरीज है, जिसमें पुरुष अपने अनुभव इस विषय पर लिख सकते हैं.
बिहार की राजधानी पटना के जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर एक गाँव मेरा संसार था. गाँव में ही नक्षत्र मालाकार हाई स्कूल और गाँव में ही खेलने और भैंस चराने को पर्याप्त मैदान. देश दुनिया की खबरों में दिलचस्पी पिता जी की वजह से बढ़ी. निरक्षर होने के बावजूद वे अखबार खरीदते थे. पढ़ कर सुनाने का काम मेरे बड़े भाई कौशल किशोर कुमार करते थे. पापा को मेरी तोतली आवाज पसंद थी. इसलिए भैया को इस काम से मुक्ति मिल गयी.
बचपन में अखबारों को पढ़ते समय कई अवसर पर तब विज्ञापन भी पढ़ जाया करता था. एक विज्ञापन निरोध का था. सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में निरोध का महत्व बताया गया था. याद नहीं कि उस वक्त पापा की प्रतिक्रया क्या थी. लेकिन मैंने अपने हमउम्र साथियों को निरोध को गुब्बारा बनाने से रोका था. मेरा तर्क था कि यह सरकारी है. इसका इस्तेमाल हम बच्चे नहीं कर सकते.
जब मैंने स्त्रियों की माहवारी को पहली बार जाना
ऐसे माहौल से निकल इंटर की परीक्षा पास करने के फ़ौरन बाद शादी हो गयी. सेक्स सम्बन्धी जानकारी का घोर अभाव था. फिर भी काम चलने लायक जानकारी गाँव और कालेज के दोस्तों ने दे दी थी. लेकिन माहवारी भी कोई चीज होती है, इसकी जानकारी तो बाद में तब मिली जब मेरी होम मिनिस्टर(मेरी पत्नी) ने पैड लाने को कहा. मेडिकल स्टोर पर गया. पैड मिला. आश्चर्य तब हुआ जब दुकानदार ने काले रंग के प्लास्टिक में लपेट कर दिया.
खैर, घर गया तो इसकी जरुरत के बारे में पत्नी से पूछा. पहले तो वह मुस्कराई. फिर पांच दिनों की जुदाई का सवाल मेरे पहले सवाल का विस्तार कर गया. हालांकि जब जवाब मिला तब मेरी हालत यह थी कि न मुस्करा सकता था और न दुखी होने का भाव चेहरे पर ला सकता था.
समय बीता और समय ने पत्रकार बना दिया. नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन के तत्वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम को कवर करने के बाद एक खबर लिखी – 94 फीसदी बिहारी नौजवान कंडोम यूज करना नहीं जानते. एक प्रमाण मैं खुद था. अखबार में खबर छपी और लोगों ने तारीफ़ की तब हौसला बढ़ा. अगली स्टोरी माहवारी पर केन्द्रित थी. 97-98 फीसदी बिहारी महिलायें घर का कपड़ा इस्तेमाल कराती हैं. संयोग ही कहिये कि 5 महीने के बाद राज्य सरकार ने सरकारी स्कूलों में सैनिटरी पैड किशोरी बच्चियों के मध्य वितरित करने का फैसला लिया.
यूं शुरू हुई हैप्पी टू ब्लीड मुहीम
बहरहाल वक्त के साथ लोगों की सोच बदली है. व्यक्तिगत तौर पर मैंने कई बार पैड खरीदा है और बिना अखबार में लपेटे या काले रंग के आवरण से छुपाये. अब कोई शर्म या हिचक नहीं होती है. हाँ, कंडोम के मामले में अभी तक अज्ञानी ही हूँ. जानने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई.
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक हैं